किसान अब क्या करें


पारम्परिक कृषि क्षेत्र से हटकर तकनीकी शिक्षा के जरिए रोजगार मुहैया कराया जाना जरूरी है। जहाँ तक कृषि पर निर्भरता कम करने की बात है, वह पिछले तीन दशकों में लगभग 20 प्रतिशत से भी कम हो चुकी है। कृषि को पहले भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना गया था। रीढ़ ही शरीर का वह हिस्सा होता है, जिस पर सबसे ज्यादा बोझ उठाने की क्षमता होती है। अब क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि कृषि और किसान की प्रमुखता इस देश की अर्थव्यवस्था, यानी रीढ़ कमजोर हो गई है? आर्थिक विकास की इस तेज आँधी में किसान समुदाय लाचारी की हद से गुजरकर आत्महत्या को मजबूर हो रहा है। आत्महत्या का आलम यह है कि मात्र 45 दिनों में 150 किसानों ने अपनी जीवनलीला समाप्त की है। किसानों की समस्या तब और दुगुनी हो जाती है, जब कृषि मंत्री शरद पवार किसानों को यह सलाह देने लगते हैं कि किसानों को आय के दूसरे माध्यम भी ढूँढ लेने चाहिए। अब सवाल यह है कि क्या शरद पवार के मुताबिक, किसानों के लिये आय के दूसरे माध्यम जैसे गुर्दा बेचने, गाँव बेचने से लेकर देह-व्यापार तक तो नहीं हैं?

वास्तविकता यह है कि किसान खेती में चौतरफा घाटे से निराश होकर गुर्दा व्यापार मेला लगा रहे हैं, जहाँ वे खुले तौर पर गुर्दा बेचने के लिये तैयार दिखते हैं। वे सरकार की उदासीनता और अपनी जबरदस्त भूख के आगे हार चुके हैं। ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल में विरोध की व्यापकता विदर्भ के किसानों को रास नहीं आती है। वे अपने गाँव ‘डोरला’ को बेचना चाहते हैं। वहाँ के किसान यह गुहार लगाते हैं कि हमारे गाँव में ‘सेज’ बनाओ और हमें मुआवजा दो। विदर्भ के किसान मान चुके हैं कि उनके विरोध का इस व्यवस्था में कोई मतलब नहीं है। यहाँ के किसान शायद पश्चिम बंगाल के किसानों को यह समझाना चाहते हैं कि सारी सरकारें एक जैसी हैं। वे असंवेदनशील हो चुकी हैं। यही वजह है कि विदर्भ के किसान अर्द्धनग्न होकर विरोध दर्ज कराते हैं।

झंडे का रंग बदल जाने भर से वर्ग-चरित्र नहीं बदल जाता है। छानबीन तो इस सन्दर्भ में यह की जानी चाहिए कि इन झंडों के साथ उनकी पक्षधरता का रंग कौन सा है? तबाह होती खेती के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों में देह-व्यापार (मानव अंगों की बिक्री से वेश्यावृत्ति तक) की समस्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। अगर शरद पवार किसानों को आय के दूसरे माध्यम ढूँढने की सलाह दे रहे हैं, तो क्या मंत्री महोदय ने किसानों के लिये आय के दूसरे रास्ते जैसा कुछ तैयार भी किया है? प्रशासन, किसान-समाज के बीच बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति का कारण उनकी बदहाली नहीं बताकर शराब पीने और घरेलू झगड़ों जैसी समस्याएँ गिनवा रहा है।

आय का एक दूसरा रास्ता (क्रिकेट) जो उनके पास है, वह खालिस रईसजादों के लिये या फिर सीमित लोगों के लिये ही सुविधा जुटा सकता है। इस रास्ते से किसानों के पेट में अनाज का एक दाना भी नहीं पहुँचाया जा सकता है। रोचक तो यह है कि क्रिकेटरों के फिसड्डी प्रदर्शन के बावजूद उन्हें दूसरा रास्ता अख्तियार करने की सलाह वे नहीं दे पाते हैं। वे उनमें पूरा भरोसा जताते हैं। दरअसल, इससे मंत्रालय और मंत्री का वर्ग-चरित्र साफ हो जाता है।

इन बदहाल होते किसानों की स्थिति से न क्रिकेट सितारों के स्वास्थ्य पर और न ही बीसीसीआई के मुखिया शरद पवार की सेहत पर कोई असर पड़ता है। भारतीय क्रिकेटर अक्सर एड्स और पोलियो के बारे में विज्ञापन या टिप्पणी करते नजर आते हैं। एड्स और पोलियो एक गम्भीर चिन्ता का विषय जरूर है, लेकिन लाखों किसानों की आत्महत्या का सवाल एड्स और पोलियो के सामने इतना छोटा भी नहीं है, जिस पर कभी सोचने या कुछ कहने और कुछ करने की जरूरत ही महसूस न की जा सके। दरअसल, किसानों के लिये कृषि मंत्री की ऐसी सलाह कुछ गम्भीर इशारे करती है, जिन्हें समझना जरूरी है।

उपेक्षा का यह आलम ‘हरित क्रान्ति’ क्षेत्रा में भी पनप चुका है। हाल ही में, हरियाणा राज्य सरकार के वित्त मंत्री वीरेंद्र सिंह ने बजट पेश करते हुए अपने राज्य के लोगों से केन्द्रीय कृषि मंत्री की सलाह की तर्ज पर कुछ नसीहत दे डाली। उन्होंने तीसरा बजट पेश करते हुए कहा कि राज्य में निरन्तर कम होती जा रही जोत के कारण राज्य की 80 फीसदी कृषि योग्य भूमि पर खेती करना आज के दौर में लाभकारी नहीं है।

इसका उन्होंने समाधान देते हुए यह कहा कि खेती पर जितनी निर्भरता कम होती जाएगी, यह उतनी ही लाभकारी होती जाएगी। उपाय के रूप में उन्होंने सुझाया है कि लोगों को पारम्परिक कृषि क्षेत्र से हटकर तकनीकी शिक्षा के जरिए रोजगार मुहैया कराया जाना जरूरी है। जहाँ तक कृषि पर निर्भरता कम करने की बात है, वह पिछले तीन दशकों में लगभग 20 प्रतिशत से भी कम हो चुकी है। कृषि को पहले भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना गया था। रीढ़ ही शरीर का वह हिस्सा होता है, जिस पर सबसे ज्यादा बोझ उठाने की क्षमता होती है। अब क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि कृषि और किसान की प्रमुखता इस देश की अर्थव्यवस्था, यानी रीढ़ कमजोर हो गई है?

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading