संदर्भ गंगा : गोमती में प्रदूषण का दुष्परिणाम (भाग 9)
गोमती के मुद्दे पर विशद अध्ययन से स्पष्ट है कि गोमती नदी पीलीभीत से लेकर वाराणसी तक अपने पूरे प्रवाह में प्रदूषित है और कुछ स्थानों पर तो यह साक्षात नरक कुंड हैं। लखनऊ शहर से लेकर जौनपुर तक तो यह खतरनाक सीमा को भी पार कर गयी है। गोमती के साथ प्रदूषण में उसकी सहायक नदियों भैंसा, कठना, पेरई, गोन, सरायन, रेठ और सई का योगदान है। गोमती का जलग्रहण क्षेत्रफल मिलाकर 30500 किमी एवं लंबाई 940 किमी है यानी उसके प्रदूषण का इतने बड़े क्षेत्र में व्यापक असर है। यह असर प्रदूषित जल और मच्छरों से होने वाली बीमारियों के रूप में, सिंचाई, पीने, स्नान आदि के लिए आवश्यक जल के संकट के रूप में, फसल, वनस्पतियों, सब्जी तथा गाय भैंस के दूध में हानिकारक रसायनों-धातुओं के रूप में देखा जा रहा है। यह दुष्परिणाम समाज के समस्त वर्गो को समान रूप से भोगना पड़ता है। इस प्रदूषण का प्रतिकूल असर नवजात शिशुओं की मानसिक-शारीरिक रचना के रूप में भी देखा गया हैं, यानी आगे आने वाली पीढ़ियां जन्म से ही रोगी हो रही हैं।
सांध्य दैनिक प्रतिदिन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट का हवाला देते हुए 11 मार्च, 1989 के अंक में एक छपी खबर में बताया है कि लखनऊ में लगभग तीन हजार बच्चे प्रतिवर्ष जल-प्रदूषण जन्म रोगों से मर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार शहर में बार-बार फुट पड़ने वाले हैजा, आंत्रशोध, पीलिया, पेचिश और टायफायड आदि का कारण गोमती का प्रदूषित जल ही है।
लेकिन प्रदूषण के इन दुष्परिणामों को समान रूप से झेलते हुए मछुवारों पर कुछ और भी गंभीर असर उनकी रोजी-रोटी छिनने के रूप में होता है। गोमती के प्रदूषण के यह असर उन समस्त जिलों में पाया गया, जहां से होकर यह खुद अथवा उसकी सहायक नदियां बहती हैं। भयंकर प्रदूषण के कारण नीचे की धारा और गंगा से बहुत कम मछलियां ऊपर तक आती हैं और बरसात के बाद जो कुछ आती हैं वह अक्टूबर में चीनी मिलों की पेराई शुरू होते ही मरने लगती हैं। प्रदूषण के कारण मछलियों के भोजन के काम आने वाली घास-पात तथा कीड़े-मकोड़े तथा छोटी मछलियां समाप्त हो चली हैं।
ऐसी स्थिति में पीलीभीत, शाहजहांपुर, हरदोई, खीरी, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, सुल्तानपुर, जौनपुर और गाजीपुर जिलों के हजारों मछुआरे तालाबों में मछली पालन के सहारे हैं। इन तालाबों की नीलामी भी काफी ऊंची लगती है या फिर गांव के प्रधान अथवा तालाब मालिक आधी मछली लेकर ही शिकार करने देते हैं।
राजधानी लखनऊ में मछुआरों के कई टोले हैं। गऊघाट के मल्लाही टोला में लगभग 250 घर, मशकगंज में 25 घर, खदरा बांसमंडी में 200 घर, गोड़ियन पुरवा (डालीगंज) में 250 घर, मनकामेश्वर मन्दिर के पास अनेक घर, न्यू हैदराबाद में 40 घर, चिरौंदा पुरवा में 30-40 घर, बड़ी जुगौली में तीस-चालीस घर, नरही में 100 घर, ठाकुरगंज में 20 घर तथा चौपटिया में भी कुछ घर मछुआरों के हैं।
शहर की सबसे बड़ी मछली मंडी कैसरबाग में हैं। इसके अलावा डालीगंज, निशातगंज, डंडैयाबाजार, एचएएल०, नरही, सिटी स्टेशन तथा मवैया में मछली मंडियां लगती हैं। मछली का धंधा चौपट होने का कोई एहसास नगर महापालिका का नहीं है। इसीलिए वह ऊंची बोली पर यह मंडियां नीलाम करती हैं। हालत यह है कि ठेकेदार नरही में प्रति दुकानदार निर्धारित पच्चीस पैसे की दर की जगह आठ से दस रुपये वसूलता है। डंडैया बाजार में महापालिका ने ठेका किसी को नहीं दिया तो महानगर पुलिस की बीट का सिपाही प्रति दुकानदार दस रू० वसूलता है। यानी दिन भर की कमाई का एक तिहाई से ज्यादा को ठेकेदार या पुलिस हड़प लेती है। अगर कमाई ज्यादा हो तो यह रकम नहीं खलती।
गोमती बैराज के नीचे पांच दस नावों पर मछुवारे परिवार दिन भर शिकार खेलने के बाद दो-तीन किलो से ज्यादा मछली कभी नहीं पाते। नाव, जाल की लागत निकालने पर दो लोगों की मजदूरी भी नहीं बचती।
नरही निवासी मछुवारों के नेता भारत का कहना है कि उनकी सहकारी समिति ने तीन साल के औसत के आधार पर ठेका मांगा था, पर नहीं मिला। भारत बताता है कि जब दूध डेरी के पास झरना वाला पुराना बंधा था, तब पानी बहता रहता था और मछली नहीं मरती थीं। बंधे की प्लेट के पास ही मछुवारों को ढेर सारी मछली मिल जाती थीं।
इंद्रजीत बताता है कि बैराज कभी-कभी खुलता हैं। उसके अचानक उठने पर हैदर कैनाल की गंदगी उफनाती है और दोनों गंदगी मिलने पर मछलियां मर जाती हैं।
बैराज के नीचे जाल डाले जुगौली निवासी रामचंदर बताता है कि मोतीमहल से बाघामऊ के नीचे तक पहले एक रोज में 20 कि0ग्रा0 से लेकर मन भर तक मछली मिलती थी अब दो-ढाई कि०ग्रा०। रामचंदर के साथ उसका बेटा भी शिकार करता है। स्कूल भेजने के लिए पैसे नहीं हैं। ये मछुवारे नदी की मझधार में भी पानी के लिए प्यासे रहते हैं। बदबूदार पानी पीने की हिम्मत नहीं होती।
गोमती के सारे कछुए मर गये हैं। सुईस भी नहीं बची। एक नाव खरीदने में तीन हजार रू० लगते हैं जो डेढ़ दो साल चलती है। इस तरह महीने में डेढ़ सौ रुपये तो नाव की किश्त ही जा जाती है। बरसात में कुछ ज्यादा मछलियां आने पर 100 से 150 रू0 रोज की बिक्री हो जाती है।
खदरा के किशोरी लाल का कहना है कि इस साल चार बार हरगांव मिल से लाल पानी आया। मोहन मीकिंस भी गंदा पानी छोड़ रहा है।
पुरानी बासमंडी का बाबूलाल बताता है कि जांच करने वाले पानी का नमूना दिन में लेते हैं और मिल वाले अपना गंदा काला पानी शाम छह-सात बजे या रात में ज्यादा छोड़ते हैं।
लखनऊ से लगभग 10 किमी दूर बाघामऊ गांव के श्यामलाल का कहना है कि मिल वाले जहरीला पानी छोड़ देते हैं इसलिए मछुवारों का मुख्य धंधा ही चौपट हो गया है। इसी गांव का बद्रीप्रसाद कहता है कि लखनऊ का कूड़ा और गंदगी न छोड़े तो पानी पीने लायक रहे। बद्री बताता है कि जब लाल भूरा पानी आता है तो मछली मरकर नीचे बैठ जाती है और सड़ने पर गंदी गैस बनती है। जब लखनऊ का बैराज खुलता है तो हर-हराकर तेजी से आया पानी कगार भी काटता है, जिससे कृषि योग्य जमीन बर्बाद हो रही है। इस गांव के मछुवारे पहले ट्रक में लादकर मछली कैसरबाग मंडी भेजते थे। अब तो यह सपना सा लगता है।
लखनऊ में मोहन मीकिंस रोड निवासी राधेलाल की शिकायत है कि तीन साल पहले जब बहुत मछलियां मरी थीं, तब हरगांव मिल ने मुआवजे के रूप में मुआवजे बांटने का पैसा दिया था, पर नेता लोग खा गये। इसी बस्ती के छेदू का कहना है कि पहले एक आदमी की कमाई में पूरा घर खाता था।
अब अपना पेट भरना भी मुश्किल होता है। कभी कोई ठेकेदार या थानेदार आ जाता है तो मछली छीनकर उसके बच्चों को भूखा सोने के लिए मजबूर कर देता है।
डालीगंज मंडी में गोड़ियन टोला निवासी भैरो प्रसाद कहता है कि अब रुपये में चार आने मछली बची है। गंदा पानी आने से वह भी गड़बड़ हो जाता है। भैरोप्रसाद का कहना है कि मोहन मीकिन की टंकी (ट्रीटमेंट प्लांट) बनने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। मुहल्ले के तमाम लोग अब मछली का धंधा छोड़कर सब्जी, फल, मूंगफली बेंचते हैं।
डालीगंज मछली मंडी में जनवरी की सर्दी में भी इनमें से ज्यादातर मछुआरों के शरीर पर ऊनी कपड़े नहीं थे। सरकार से क्यों नहीं कहते हो, इस सवाल का प्रदेश की हर मछुआरा बस्ती में एक ही जवाब मिला- गरीब की कोई नहीं सुनता। इन्हें निषाद बिरादरी के विधायकों, मंत्रियों और अफसरों से भी यही शिकायत है।
कदम रसूल निवासी नसीद अहमद का कहना है कि कभी-कभी मिल की गंदगी लगातार चलने के कारण आठ-दस दिन भी बेकार घर बैठे रहना पड़ता है।
इसरार खां कहते हैं कि गोमती में मछली न होने से वह बाराबंकी के गांवों के तालाब में पली मछली का शिकार करने जाता है। तालाब का ठेकेदार आधी मछली ले लेता है। निशातगंज की पांचवीं गली का भैयालाल पेपर मिल के पास दुकान लगाता है। उसका कहना है कि अब कुछ बीमारियों के कारण शहर में मछली खाने वाले ज्यादा हो गये हैं, इसलिए पहले के मुकाबले दाम अच्छा मिल जाता है।
झबझारी टोला के दौलत खां बताते हैं कि मोहन मीकिंस से निकले धुएं और गैस से घर के बर्तन और जेवर भी काले पड़ जाते हैं। मोहन मीकिंस (प्राइमरी ट्रीटमेंट प्लांट से बायोगैस) गैस छोड़ती है तो बदबू होती है और चिमनी की राख से छत और आंगन में कालिख।
रामप्रसाद ने एक नयी बात बतायी। उसका कहना है कि इटौंजा के पास कुछ ठेकेदार गन्ने के खेत में डालने वाली कीड़ेमार दवा नदी में छोड़ देते हैं। ठेकेदार कुछ दूर आगे जाल लगाये रहता है। ऐंड्रीन नाम की इस दवा के असर से बेहोश हुई मछली ठेकेदार ट्रक में भरकर बेंच लेता है। मछुवारे हाथ मलते रहते है।
उसका छोटा भाई लल्ला बताता है कि बैराज का शटर उठाने-बैठाने से लखनऊ में पूरी नदी का पानी जबरदस्त हिलकोरें लेता है तो गंदगी अचानक सतह से ऊपर उभर आती है और ऑक्सीजन कम होने से उसमें फंसी मछलियां तड़पने लगती हैं। धीरे-धीरे पानी चलता रहता है तो गंदगी नीचे बैठती रहती है। लल्ला का कहना है कि बैराज शहर के बजाय पश्चिम में हो तो नदी में सफाई रहे।
लखनऊ की ज्यादातर मछली मंडियों में अब जो मछलियां बिकती हैं उनमें गोमती का अनुपात बहुत कम होता है। ज्यादातर मछली तालाब की, बहराइच की, या फिर उत्तर प्रदेश के बाहर से आयातित होती हैं। मछुआरे कैसरबाग मंडी से खरीदकर लाते हैं और मंडियों में बेचते हैं।
यह शोधपत्र 9 भागों में है -
1 - संदर्भ गंगा : गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 1)
2 - संदर्भ गंगा : गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 2)
3 - संदर्भ गंगा : गोमती की सहायक सरायन, पेरई, कठना, भैंसा नदी में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 3)
4 - संदर्भ गंगा : गोमती में पीलीभीत, शाहजहांपुर और हरदोई का औद्योगिक प्रदूषण (भाग 4)
5 - संदर्भ गंगा : लखनऊ गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 5)
6 - संदर्भ गंगा : लखनऊ शहर में गोमती के प्रदूषण-स्रोत (भाग 6)
7 - संदर्भ गंगा : लखनऊ में गोमती बैराज की प्रदूषण में भूमिका (भाग 7)
8 - संदर्भ गंगा : गोमती में बाराबंकी, सुल्तानपुर, जौनपुर और उन्नाव का प्रदूषण (भाग 8)
9 - संदर्भ गंगा : गोमती में प्रदूषण का दुष्परिणाम (भाग 9)