गोमती नदी हो रही प्रदूषण की शिकार
गोमती नदी हो रही प्रदूषण की शिकार https://gomtiriver.org/

संदर्भ गंगा : गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 1)

गोमती नदी का प्रदूषण: प्राचीन नदी एक जहरीले नाले में तब्दील, जानिए कैसे औद्योगिक और शहरी गंदगी ने इसे बीमारियों का स्रोत बना दिया।
Published on
7 min read

गोमती : एक पौराणिक नदी की मौत

गोमती एक अति प्राचीन पौराणिक नदी है। इसके किनारे स्थित नीमसार (नैमिषारण्य) कभी भारतीय आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और धार्मिक ऋषि-महर्षियों का केंद्र था। लेकिन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गोमती और उसकी सहायक नदियों- भैंसा, रसायन, गोन, कुकरैल, रेठ और सई में लगातार शहरी तथा औद्योगिक गंदगी और लाशें डाले जाने से यह अपने 940 किमी0 के लंबे प्रवाह में एक जहरीले गंदे नाले का रूप धारण कर चुकी है। पीलीभीत से निकलकर वाराणसी में गंगा में मिलने तक अपने किनारे के जिन हजारों गांवों के लिए गोमती कभी प्रकृति का वरदान थी। वह आज बीमारियों की वाहक और विनाश तथा बेरोजगारी का कारण बन गयी है।

गोमती के बारे में उपलब्ध विभिन्न प्रशासनिक विवरणों में बताया गया है कि इसका उद्गम स्थल पीलीभीत जनपद के माधोटांडा गांव का गोमत ताल है। किन्तु मत्स्य पुराण के भूगोल संबंधी अध्याय में इसकी गणना गंगा, सिन्धु, सरस्वती, सतलज, चिनाव, यमुना, सरयू, रावी, झेलम, व्यास, देविका, कुहू, धोपाय, बाहदा, दषद्वती, कोसी, तृतीया, निश्चीरा, गण्डकी, चक्षु और लौहित आदि उन नदियों के साथ की गयी जो "हिमवत्पाद निःसृताः" हैं अर्थात हिमालय की तलहटी (उपत्यका) से निकलती है।

जंगलों की कटान के कारण ही अब इसके उद्‌गम स्थल का संबंध हिमालय से समाप्त हो गया प्रतीत होता है। और अब लोग इसे गोमत ताल से निकली नदी ही समझते हैं।

गोमती में पीलीभीत, शाहजहाँपुर, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, खीरी, बाराबंकी, उन्नाव, लखनऊ और सुल्तानपुर आदि जिलों के लगभग तीन दर्जन उद्योगों सीतापुर, लखीमपुर खीरी, लखनऊ और जौनपुर, बाराबंकी आदि शहरों के सीवेज-स्लज की गंदगी सीधे अथवा सहायक नदियों के माध्यम से गिरती है।

गोमती खुद हैदरगढ़ से लेकर कमलापुर (सीतापुर) तक सर्वाधिक प्रदूषित रहती है। इस दरम्यान इसने बिल्कुल गंदे नाले का रूप धारण कर रखा है। और लखनऊ में भैसाकुंड के पास स्थित बैराज से लेकर गऊघाट में सरकटा नाला के मिलने तक तो यह झील अथवा तालाब का रूप धारण किये रहती है।

भयंकर प्रदूषण के कारण गोमती का पानी हैदरगढ़ से गऊघाट के पहले किसी भी जीव जंतु या वनस्पति के लिए उपयोगी नहीं रह गया है। इसके दोनों किनारे मच्छरों की भरमार है। मछली रुपये में दो आने बची हैं और मछुवारे दूसरे प्रदेश के आयातित अथवा निजी तालाबों की मछली पर निर्भर हैं। तमाम मछुवारे तो अब यह धंधा छोड़कर मूंगफली, सब्जी, फल आदि के ठेले लगाने को विवश हैं।

गोमती के प्रदूषण का अध्ययन अब तक अनेक सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसी कर चुकी हैं लेकिन उससे समस्या हल करने की दिशा में कोई ठोस उपाय अब तक नहीं हो सका है। गोमती और उसकी सहायक नदी में आने वाले प्रदूषण तथा उसके दुष्परिणाम की मौजूदा स्थिति का लेखा-जोखा करने से संक्षेप में इसका अवलोकन करना जरूरी है।

सर्वश्री भास्करन, चक्रवर्ती व त्रिवेदी ने अब से 28 साल पहले लखनऊ के पास गोमती का अध्ययन किया था। श्री वीजी झिंगरन ने अपनी पुस्तक फिश ऐंड फिशरीज ऑफ इंडिया में इसका उल्लेख किया है। इस अध्ययन में बताया गया है कि उस समय गोमती पल्प, पेपर, चीनी, शराब कारखानों तथा शहरी सीवेज के रूप में रोजाना 19.84 गैलन गंदगी रोज ग्रहण करती है। उस समय गंदगी और पानी का अनुपात 1.11 था। इसके बावजूद प्रदूषण के असर से कई स्थानों पर घुलित आक्सीजन 5 पी.पी.एम. रह गयी थी।

तत्पश्चात नेशनल एनवायरमेंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर ने 1971 में गोमती में बढ़ते प्रदूषण से आगाह किया। उपरोक्त दोनों अध्ययनों में लखनऊ में गोमती प्रदूषण के दो मुख्य स्रोत बताये गये। मोहन मीकिन्स डिस्टिलरी और शहरी नाले।

तत्पश्चात् फरवरी 1975 से जनवरी 1976 के बीच लखनऊ विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र के प्रो. बीएन प्रसाद तथा मंजुला सक्सेना ने गोमती नदी की सीवर पर औद्योगिक प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन किया। इस अध्ययन में बताया गया है कि गोमती नदी लखनऊ शहर में स्वच्छ रूप में प्रवेश करती है किन्तु शहर में सीवेज तथा औद्योगिक उत्प्रवाह से क्रमशः प्रदूषित होती जाती है। 

प्रदूषण के परिणामस्वरूप कार्बोनेट्स, बाइकार्बोनेट, कठोरता मुक्त और खारी अमोनिया, अल्युमिनियम, अमोनिया, नाइट्रेट, नाइट्रोजन, कैल्शियम, मैग्नीशियम और टोटल सालिड्स बढ़ जाते हैं। अध्ययन में बताया गया है कि इसके फलस्वरूप जलीय वनस्पति का रूपरंग बदल जाता है और उनमें प्रदूषण का स्तर हर क्षेत्र तथा हर स्तर पर अलग-अलग देखा जा सकता है। श्री प्रसाद ने कहा है कि इन वनस्पतियों को प्रदूषण की स्थिति का पता लगाने की पहचान के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश जलनिगम ने वर्ष 1989 में 2.54 करोड़ रू की अनुमानित लागत से नालों को ट्रंक सीवर लाइन में जोड़कर सीवेज फार्म में पंप करने की परियोजना बनायी थी, जिसे तीन चरणों में पूरा होना था।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड वर्ष 1989 से गोमती के पानी की जांच करके प्रदूषण दूर करने के उपाय करने संबंधी और सुझाव दे रहा है। लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकल रहा है। मोहन मीकिन्स व कुछ अन्य उद्योगों ने अपने कचड़े को साफ करने के संयंत्र लगाये हैं, लेकिन ये संयंत्र एक तो पूरा प्रदूषण खत्म करने की क्षमता नहीं रखते, दूसरा उनका समुचित उपयोग नहीं हो रहा है।

28 अप्रैल, 1983 को मंडल आयुक्त, लखनऊ की अध्यक्षता में एक निर्णय लिया गया था कि लखनऊ विकास प्राधिकरण गोमती में प्रदूषण रोकने के लिए एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बनवायेगा। प्राधिकरण ने तीन जून 1983 को यह परियोजना रिपोर्ट राज्य सरकार, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और पर्यावरण निदेशालय को यह रिपोर्ट भेज दी। रिपोर्ट में नगर के गंदे नालों को मोड़कर गंदगी गोमती में गिरने से रोकने का कार्यक्रम बनाया गया था।

इस परियोजना का क्या हश्र हुआ यह जानने के लिए इतना बताना पर्याप्त होगा कि प्राधिकरण का कोई मौजूदा अधिकारी यह स्वीकार करने को भी तैयार नहीं है कि कभी ऐसी योजना बनी भी थी। इसके बाद वर्ष 1984-85 में पर्यावरण विभाग ने शहर के दो बड़े नालों घसियारी मंडी तथा वजीरगंज को सीवर से जोड़कर सिंचाई के काम लाने अथवा डाउन स्ट्रीम में गिराने के लिए नगर महापालिका को 7.18 लाख रू का अनुदान दिया था। किन्तु पता चला है कि महापालिका ने यह पैसा कहीं और खर्च कर दिया। सात दिसंबर 1988 को एक बैठक में निर्देश दिया कि उक्त धनराशि का उपयोग उन्हीं कार्यों के लिए किया जाये, जिसके संबंध में धनराशि दी गयी है। यदि वह उपयोग तद्नुसार नहीं किया जा रहा है तो समस्त धनराशि पर्यावरण निदेशालय को वापस कर दी जाय।

वर्ष 1984 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने महापालिका को निर्देश दिया था कि नगर दूषित उत्प्रवाहों को नदी में डालने से पूर्व उनका ट्रीटमेंट किया जाय। उच्च न्यायालय के निर्देश को कई साल हो रहे हैं। किन्तु महापालिका ने आज तक इस संबंध में कोई कार्यक्रम ही नहीं प्रस्तुत किया।

उपरोक्त बैठक में पूछे जाने पर महापालिका अधिकारी का दो टूक जवाब था कि नालों को मोड़कर शहर की निचली धारा तक ले जाने का काम वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण संभव नहीं है। यह भी कहा गया है कि चूंकि यह तकनीकी मामला है, इसलिए इसकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट जलनिगम से तैयार करवा दी जाये। इस बिन्दु पर जल निगम की ओर से बताया गया कि नगर की सम्पूर्ण सीवेज व्यवस्था के सुधार पर वर्ष 1986-87 के स्तर पर लगभग 262 करोड़ रु० व्यय का अनुमान है जो सन् 2000 ई0 तक रू0 454 करोड़ हो जायेगा। जल निगम का यह भी कहना है कि प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने के फीस के तौर पर उसे आठ-दस लाख रू० पेशगी चाहिए।

उधर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष 1981 से किये जा रहे अध्ययन के आधार पर वर्ष 1985 में एक सूक्ष्म रिपोर्ट प्रस्तुत की। पर हुआ कुछ नहीं।

नदी में इस तरह जहर बढ़ता ही जा रहा था और सबसे ज्यादा हाय-तौबा तब मची जब दिसंबर, 1986 में लखनऊ में एक साथ 50 हजार से अधिक मछलियां मर गयीं। प्रदूषण बोर्ड ने सक्रियता दिखायी और कुछ उद्योगों द्वारा उत्प्रवाह गिराने पर अदालत से रोक का आदेश प्राप्त कर लिया।

इस कांड की जांच के लिए कार्यकारी मजिस्ट्रेट श्री आर. सी. द्विवेदी से कहा गया, जिन्होंने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में मोहन मीकिन्स डिस्टिलरी को शहर से दूर हटाने की संस्तुति की। यह जांच बीच में ही रोककर लखनऊ मंडल के आयुक्त को दे दी गयी।

मंडलायुक्त को जांच सौंपते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री वीर बहादुर सिंह ने संवाददाताओं के प्रश्नों को काटते हुए कहा था, "ये सब छोड़िये में कह रहा हूं सुनिए। आज से प्रदूषण नहीं होगा। यदि कोई करेगा तो उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही होगी।"

तत्कालीन मंडलायुक्त श्री ब्रजेश कुमार ने 20 पृष्ठ की अपनी रिपोर्ट में पांच सुझाव दिये थे। नालों से प्रदूषण रोकने पर कार्य। हाईकोर्ट के आदेश का पालन, एकाएक बढ़े प्रदूषण को रोकने के लिए आपात योजना, जल वितरण प्रणाली में रासायनिक विषालुता की जांच और नदी के जल की गुणवत्ता की अनुभ्रपण।

मछलियां मरने की इस घटना के बारे में औद्योगिक विष विज्ञान केन्द्र से जांच करायी गयी। विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग के प्रो० डा. एससी. श्रीवास्तव तथा एस. धवन ने जांच की। इनका कहना था कि भारी तादाद में मछलियों की मृत्यु औद्योगिक तथा शहरी गतिविधियों से अचानक अधिक मात्रा में दूषित उत्प्रवाह छोड़ने के कारण ऑक्सीजन की कमी की वजह से हुई।

विज्ञान एवं पर्यावरण उन्नति समिति के महामंत्री प्रो. एमसी. सक्सेना में इस समस्या का अध्ययन करके कई सुझाव दिये। इनमें से एक था किसी स्वतंत्र एजेंसी से पानी की निरंतर जांच और दूसरा औद्योगिक उत्प्रवाह नदी में गिरने से पहले उसकी विषालुता समाप्त करने के लिए पर्याप्त सफाई।

इसी बीच वर्ष 1987-88 में राज्य सरकार ने नदी जल की जांच के लिए 32 लाख रू की एक परियोजना प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रस्ताव पर स्वीकृत कर दी।

यह शोधपत्र 9 भागों में है -

1 - संदर्भ गंगा : गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 1)

2 - संदर्भ गंगा : गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 2)

3 - संदर्भ गंगा : गोमती की सहायक सरायन, पेरई, कठना, भैंसा नदी में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 3)

4 - संदर्भ गंगा : गोमती में पीलीभीत, शाहजहांपुर और हरदोई का औद्योगिक प्रदूषण (भाग 4)

5 - संदर्भ गंगा : लखनऊ गोमती में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 5)

6 - संदर्भ गंगा : लखनऊ शहर में गोमती के प्रदूषण-स्रोत (भाग 6)

7 - संदर्भ गंगा : लखनऊ में गोमती बैराज की प्रदूषण में भूमिका (भाग 7) 

8 - संदर्भ गंगा : गोमती में बाराबंकी, सुल्तानपुर, जौनपुर और उन्नाव का प्रदूषण (भाग 8)

9 - संदर्भ गंगा : गोमती में प्रदूषण का दुष्परिणाम (भाग 9)

सम्बंधित कहानिया

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org