जैविक खेती है वरदान 
कृषि

प्राकृतिक खेती के मुख्य घटक एवं इनके उपयोग के लाभ (भाग 1)

श्री बजरंग लाल ओला, डॉ. सुनील कुमार, डॉ. सुशील कुमार शर्मा, डॉ. पी. के. राय

Author : Kesar

प्राकृतिक खेती एक कृषि पद्धति है, जो रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और जुताई के बिना खेती करने पर जोर देती है। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए स्वस्थ और प्राकृतिक उत्पाद उगाना है। यह पद्धति मासानोबू फुकुओका द्वारा विकसित की गई थी जिसे फुकुओका विधि भी कहा जाता है। जिसमें केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक खेती फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे कार्यात्मक जैव विविधता के इष्टतम उपयोग की सुविधा मिलती है। प्राकृतिक खेती मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य की बहाली और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का शमन या निम्नीकरण प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने का मजबूत आधार प्रदान करती है। प्राकृतिक खेती प्राकृतिक या पारिस्थितिक प्रक्रियाओं, जो खेतों में या उसके आसपास मौजूद होती हैं, पर आधारित होती है। इसके साथ-साथ पशुओं जैसे गाय व भैंस के मल-मूत्र आदि के विघटन से विभिन्न प्रकार की जैविक खाद जैसे जीवामृत, घन जीवामृत, नीमास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि तैयार किए जाते हैं तथा साथ ही साथ बीजामृत जैसे बीजोपचार से बीजों का शोधन भी किया जाता है। यह बहुत ही सस्ती व आधुनिक समय की एक बहुत ही महत्वपूर्ण जैविक खादों में से एक है।

प्राकृतिक खेती के सिद्धांत 

1. पहला सिद्धांत है, खेतों में कोई जुताई नहीं करना। यानी न तो उनमें जुताई करना और न ही मिट्टी पलटना। धरती अपनी जुताई स्वयं स्वाभाविक रूप से पौधों की जड़ों के प्रवेश तथा केंचुओं व छोटे तथा सूक्ष्म जीवाणुओं के जरिए कर लेती है।

 2. दूसरा सिद्धांत है कि किसी भी तरह की तैयार खाद या रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न किया जाए। इस पद्धति में हरी खाद और गोबर की खाद को ही उपयोग में लाया जाता है। 

3. तीसरा सिद्धांत है, निंदाई-गुड़ाई न की जाए। न तो हलों से न शाकनाशियों के प्रयोग द्वारा। खरपतवार मिट्टी को उर्वर बनाने तथा जैव- बिरादरी में संतुलन स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। बुनियादी सिद्धांत यही है कि खरपतवार को पूरी तरह समाप्त करने की बजाए नियंत्रित किया जाना चाहिए। 

4. चौथा सिद्धांत, रसायनों पर बिल्कुल निर्भर न करना है। जोतने तथा उर्वरकों के उपयोग जैसी गलत प्रथाओं के कारण जब से कमजोर पौधे उगना शुरू हुए, तब से ही खेतों में बीमारियां लगने तथा कीट-असंतुलन की समस्याएं खड़ी होनी शुरू हुईं। छेड़छाड़ न करने से प्रकृति-संतुलन बिल्कुल सही रहता है। 

प्राकृतिक खेती की आवश्यकता 

आजकल कृषि में रासायनिक खादों व कीटनाशकों का बहुतायत में उपयोग किया जा रहा है, जिससे फसल उत्पादन तो अधिक प्राप्त हो जाता है परंतु इसके साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है तथा साथ ही साथ कृषि उपज के उपभोग से मानव स्वास्थ्य पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। कृषि उपज की गुणवत्ता, रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के प्रयोग से न केवल दिन पर दिन कम होती जा रही है वरन मनुष्य पर इसका हानिकारक प्रभाव जैसे बहुत ही भयंकर बीमारियां आदि उत्पन्न हो रही हैं। 

पिछले कई वर्षों से खेती में काफी नुकसान देखने को मिल रहा है। इसका मुख्य कारण हानिकारक रासायनिक खादों व कीटनाशकों का उपयोग है। इसमें लागत भी बढ़ रही है। किसानों की पैदावार का आधा हिस्सा उनके उर्वरक और कीटनाशक खरीदने में ही चला जाता है। यदि किसान खेती में अधिक मुनाफा या फायदा कमाना चाहता है तो उसे प्राकृतिक खेती की तरफ अग्रसर होना चाहिए।

प्राकृतिक खेती के फायदे 

प्राकृतिक खेती के आदान साधारण किसान अपने घर या फार्म पर आसानी से तैयार कर सकता है तथा इसका फसलों पर प्रभाव बहुत ही स्थाई होता है। इसके प्रयोग से न केवल उत्पादन अधिक प्राप्त होता है बल्कि इसका भूमि पर भी कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है।

यह भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है तथा यह बहुत ही सस्ती खाद होती है। 

कृषकों की दृष्टि से -

  • 1. भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है।

  •  2. सिंचाई अंतराल में वृद्धि होती है। 

  • 3. रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है। 

  • 4. फसलों की उत्पादकता में वृद्धि। 

  • 5. बाजार में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ने से किसानों की आय में भी वृद्धि होती है। 

मृदा की दृष्टि से -

  • 1. जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।

  • 2. भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती है। 

  • 3. भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होगा। 

पर्यावरण की दृष्टि से -

  • 1. भूमि के जलस्तर में वृद्धि होती है। 

  • 2. मिट्टी, खाद्य पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है। 

  • 3. कचरे का उपयोग, खाद बनाने में होने से बीमारियों में कमी आती है। 

  • 4. फसल उत्पादन की लागत में कमी एवं आय में वृद्धि 

  • 5. अंतर्राष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद की गुणवत्ता का खरा उतरना । 

यह आलेख दो भागों में है -

लेखकगण - श्री बजरंग लाल ओला 1, डॉ. सुनील कुमार 2, डॉ. सुशील कुमार शर्मा, डॉ. पी. के. राय 4 1-सस्य विज्ञान विशेषज्ञ, 2- पौध संरक्षण विशेषज्ञ, 3-प्रधान वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष, कृषि विज्ञान केन्द्र, गुंता, बानसूर, अलवर 4-निदेशक, सरसों अनुसंधान निदेशालय, सेवर, भरतपुर, राजस्थान

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