अगर हम समय से नहीं जागे तो भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक शहरों से ऐसे जल संकट के समाचार आएंगे। नीति आयोग द्वारा जून, 2018 में प्रकाशित 'समग्र जल प्रबंधन सूचकांक' शीर्षक रिपोर्ट में भी ऐसे जल संकट की तरफ संकेत दिए गए थे। रिपोर्ट में भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर था और जिसका लगभग 70% जल दूषित है। आज संपूर्ण विश्व में पर्यावरण रक्षा पर विशेष चर्चाएं हो रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही प्रकृति का मिजाज बदलता जा रहा है। पाश्चात्य जगत में 1960-70 के दशक से पर्यावरण की समस्याओं पर चिंताएं उभरने लगी थीं। ज्यादातर पर्यावरणविद् का ध्यान पर्यावरण अवनयन, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता के क्षरण और प्राकृतिक आपदाओं पर ही केंद्रित है। संकट पर पर्यावरणविद् द्वारा चिंता तो व्यक्त की गई पर इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया गया।
पर्यावरण अक्नयन इस युग की विशेषता है, और अभी तक गलत धारणा थी कि एक व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण में कुछ विशेष नहीं कर सकता। शासन तथा समाज जब सामुदायिक भावना से कुछ प्रयास करेंगे, तभी पर्यावरण का संरक्षण हो सकेगा। आज नव अवधारणा यह है कि आप जहां खड़े हैं वहीं से प्रारंभ करें, जल संरक्षण, जलवायु परिवर्तन के बाद दूसरा सबसे चुनौतीपूर्ण मुद्दा है। पर्यावरण में और आवश्यक है कि हम अपने युवाओं को इस विषय पर शिक्षित करें। यूनेस्को-यूएनईपी सम्मेलन, 1987 में इस बात पर सहमति व्यक्त की गई कि पर्यावरण शिक्षा पर्यावरण के प्रति समाज में जागरूकता पैदा करने में समर्थ है। उसी प्रकार, जल साक्षरता भी जल संरक्षण की एक प्रक्रिया हो सकती है। जिस प्रकार 1986 से देश भर के स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा को शामिल कर पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की गई। उसी प्रकार आवश्यकता है कि जल संरक्षण की शिक्षा की भी शुरुआत हो जो जल संरक्षण के प्रति बच्चों और युवाओं में जागरूकता पैदा करेगी। आगामी वर्षों में जल संकट की समस्या और अधिक विकराल होती जाएगी। विश्व आर्थिक मंच के अनुसार दुनिया भर में 75% से ज्यादा लोग पानी की कमी के संकट से जूझेंगे।
जल संरक्षण अब वैश्विक मुद्दा है और युवाओं को सशक्त बनाने के लिए इसके बारे में सीखना आवश्यक है। बच्चों और युवाओं को जल संरक्षण के बारे में पढ़ने से उन्हें यह समझ विकसित करने में मदद मिलेगी कि उनके आज के फैसले पर्यावरण पर क्या प्रभाव डाल सकते हैं, न केवल इस जीवनकाल में बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी। जल शिक्षा का उद्देश्य पर्यावरण में जल साक्षरता का विकास करना है। यह अनंत काल तक चलने वाली प्रक्रिया है, जो घर से शुरू होती है, और समुदायों तक फैलती जाती है। जल शिक्षा उन कौशलों और आदतों को बढ़ावा देती है, जिनका उपयोग लोग पूरा जीवन पर्यावरण संबंधी मुद्दों को समझने में कर सकते हैं।
‘नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क’ में पर्यावरण की सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। पर आवश्यकता है कि जल संरक्षण को अलग स्वतंत्र पाठ्य रूप में महत्त्व प्रदान किया जाए। पर्यावरण शिक्षा में जल शिक्षा की उपेक्षा इसके संकट को विकराल करती जा रही है। आवश्यकता है कि पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से बालकों को शुरुआत से ही पर्यावरण घटकों के प्रति सचेत किया जाए। बच्चों के बस्तों के बढ़ते आकार को देखते हुए प्रश्न उठता है कि एक और नया विषय क्यों? परंतु यदि विषय की गंभीरता और उसके महत्त्व के बारे में विचार किया जाए तो जल शिक्षा की आवश्यकता स्वयंसिद्ध है। जिस तरह पर्यावरण शिक्षा 20वीं सदी के उत्तरार्ध में विकसित पर्यावरण चेतना की उपज है, उसी तरह 21 वीं सदी में जल शिक्षा जल संरक्षण और जल संकट का समाधान करेगी।
एनईपी-2020 में छात्रों की कौशल क्षमताओं के विकास के लिए नये पाठ्यक्रम तो समाहित किए गए हैं, पर जल संरक्षण पर फोकस नहीं है। यह उपेक्षा जल संकट को बढ़ाएगी। जल संबंधित जागरूकता जन समुदाय में जब तक नहीं आएगी तब तक जल संकट मंडराता रहेगा और केपटाउन-बेंगलुरु जैसे शहरों की सूची बढ़ती चली जाएगी। पृथ्वी पर जीवन जल से ही संभव है। समय रहते हमने जल का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग और संरक्षण नहीं किया तो मानव के साथ समस्त जैविक जगत के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की बढ़ती मांग तथा सीमित प्राकृतिक संसाधनों में संतुलन रखते हुए और पारिस्थितिक संतुलन का विचार करते हुए हमें जल संसाधनों के इष्टतम प्रबंधन पर बल देने की आवश्यकता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पर्यावरण शिक्षा में जल शिक्षा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए क्योंकि जब तक जल के महत्त्व और आवश्यकताओं को बच्चा नहीं जानेगा, तब तक जल संरक्षण करने में सहयोगी नहीं होगा।