चिपको आन्दोलन 
लेख

प्रकृति और स्त्री पर आधिपत्य की आलोचना है इको फेमिनिज्म

Author : डाउन टू अर्थ

साहित्य उत्सव मनाने की चीज नहीं है। फिलहाल जो साहित्योत्सव चल रहा है उसके पीछे व्यापार की आँखें हैं। वह उत्सव मात्र रह जायेगा। लेकिन साहित्योत्सवों का एक अच्छा लक्ष्य भी है। वह साहित्य के प्रति रुचि बढ़ाकर उसमें निहित सोद्देश्य ज्ञान-विज्ञान का प्रसार कर सकता है, ऐसा नहीं हुआ तो उससे कोई फायदा नहीं है।

पश्चिमी देशों के साथ विकासशील देशों में प्राकृतिक संसाधनों पर सत्ताधारी तबके का कब्जा है। हाशिये पर पड़े लोगों से जल, जंगल व जमीन का अधिकार छीना जा रहा है। मिट्टी और स्त्री में बीज बोने का अधिकार पुरुष को हासिल हुआ और इस तरह पूरी दुनिया की प्रकृति पर पितृसत्ता का कब्जा है। इसलिये आज स्त्री एवं प्रकृति केन्द्रित इको फेमिनिज्म की भूमिका बड़ी मानी जा सकती है। हिंदी साहित्य में पारिस्थितिकी और स्त्रीवाद पर शोधपरक काम करने वाली पहली साहित्यकार केरल की के. वनजा हैं। पर्यावरण, साहित्य और आन्दोलन जैसे मुद्दों पर अनिल अश्विनी शर्मा ने के.वनजा के साथ खास बातचीत की
हिंदी, स्त्रीवाद व पर्यावरण। हिंदी में पर्यावरण पर लिखने वाली पहली महिला केरल से है। इस उपमा को आप कैसे देखती हैं?
पृथ्वी और पृथ्वी की समानधर्मी स्त्री ने खुद को, पृथ्वी को और अन्य शोषित जातियों, नस्लों को बचाने के लिये आन्दोलन शुरू किया। इको फेमिनिज्म को आप कैसे परिभाषित करती हैं?
साहित्य में आन्दोलनों की भूमिका को कैसे देखती हैं?
प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है। साहित्य को सबसे बड़ा विपक्ष माना गया है। इन दिनों आरोप है कि साहित्य अपनी विपक्ष की इस भूमिका का आत्मसमर्पण कर रहा है।
सर्जनात्मक साहित्य का सन्देश सतही नहीं होगा। यह परतों में होगा और रचनात्मक भी होगा। पॉपुलर कल्चर साहित्य के मूल्य को चोट पहुँचा रहा है, लेकिन वह अपने स्तर पर रचनात्मक भी है। इसे कैसे देखती हैं?
महानगरों से लेकर शहरों और कस्बों तक में साहित्योत्सवों का आयोजन किया जा रहा है। इस तरह के लिट-फेस्ट को आप कैसे देखती हैं?
इन दिनों स्त्री लेखन मुखर है और उस पर देहवाद का आरोप है
अस्मिता विमर्श के केन्द्र में महिला शोषण का मामला भी उठाता है। महिला शोषण का मुद्दा अस्मिता विमर्श में बदल जाता है।
साहित्य लोकलुभावन होने के लिये मीडिया का मुँह देख रहा है। हिन्दी में भी बेस्टसेलर्स लेखकों की सूची निकालने की होड़ मची है। टिकाऊ और बिकाऊ साहित्य के बीच की टक्कर साहित्य को किस ओर ले जायेगी?
समकालीन हिन्दी साहित्य में लोकचेतना की जगह बची दिख रही है क्या?
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