पानी के सामाजिक काम में सबसे जरूरी है लोगों का अपनी परंपराओं में विश्वास लौटाना। उन्हें याद दिलाना कि उनके पूर्वज एक गौरवशाली परंपरा छोड़ गए हैं, जल संचय की जो थोड़ी सामाजिकता से फिर लौट आए हैं। यहां छोटे-छोटे तालाबों का प्रचलन रहा है जिन्हें नाड़ी कहा जाता है। नाड़ियों का जीर्णोद्धार भी गांव के लोगों ने शुरु कर दिया है। ऐसे प्रयास करने के लिए धीरज और सहृदयता के साथ ही सबसे जरूरी होता है समाज के संबल का लौटना
यह संस्थाओं का जमाना है। सबसे बड़ी संस्था है सरकार। उससे बाहर जो हो वे गैरसरकारी कहलाती है। असरकारी दोनों कितनी होती हैं इसका जवाब देने की जरूरत नहीं है। जगह-जगह बोर्ड और शिलान्यास दिखते है बड़े-बड़े सामाजिक कामों के। पर काम थोड़ा कम ही दिखता है। कई पर सरकारी पदाधिकारियों के नाम होते हैं और कई पर गैरसरकारी संस्थाओं के। फरहाद कॉन्ट्रैक्टर ऐसे बोर्ड को पटिया कहते हैं। एक छोटी-मोटी संस्था उनकी भी है अहमदाबाद में, समभाव नाम से, जिसमें वे काम करते हैं। पिछले कुछ सालों में उन्होंने एक और संस्था के लिए काम करने की कोशिश की है। इस संस्था का कोई पटिया लगा नहीं मिलता पर है यह सबसे पुरानी इतिहास से भी पुरानी है। यह संस्था है समाज।
पिछले कुछ सालों में फरहाद का प्रयास रहा है समाज की नब्ज टटोलने का। यह जानने-समझने का कि जब सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएं दोनों ही नहीं थीं तब समाज अपना काम-काज कैसे चलाता था। इस भाव से वे राजस्थान के उन जिलों में काम कर रहे हैं जिन्हें पानी के मामले में बहुत ही गरीब कहा जाता है पर उनकी कोशिश गरीबी ढूंढ़ने की कम और समाज के पुराने, समयसिद्ध तरीकों का वैभव खोजने में ज्यादा रहती है। ऐसा ही एक प्रयोजन है कुंई। यह कुंए का बहुत छोटा, संकरा और अद्भुत संस्करण है, जो पता नहीं कितने सालों से जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में लोगों को पानी पिला रहा है। कुंई केवल उन खास जगहों पर बनती है जहां नीचे मुल्तानी मिट्टी की परत चलती हो। उसे बनाने का तरीका रेगिस्तान में रहने और समृद्ध होने वाले लोगों ने पक्का कर रखा था पर पिछले कुछ सालों के गिरावट के दौर में कुंई बननी रुक गई थी।
नई संस्थाओं ने कहना शुरू कर दिया था कि कुंई गए जमाने का तरीका है। अब पानी नई तकनीक और नए तरीके से मिलेगा लेकिन वह पानी फाइलों में ज्यादा रहा, घर के घड़ों में कम फरहाद को दिखा कि पश्चिम राजस्थान के लोग कुंई को भूले नहीं थे क्योंकि उसकी स्मृति उनके सामाजिक संस्कारों में खून की तरह बह रही थी। समभाव ने ऐसे लोगों को खोजा जो अभी भी कुंई बनाना चाहते थे। उनकी मदद की। कई कुंइयां बनी और उनमें मीठा पानी भी मिला। कामयाब कुंइयों को देख लोगों ने खुद से फिर कुंईया बनानी शुरू कर दीं। ऐसे भी गांव हैं जहां के लोगों ने फरहाद और समभाव को धन्यवाद दे कर और मदद लेने से मना कर दिया। वहां गांव का समाज आज वैसे ही कुंई बनाता है जैसे पहले बनाता था।