पाठ-6
1. रैड वर्म (ऐसीनिया फोइटेडा)
2. अफ्रीकन नाइट कॉलर (ऐडिलुइस योजिनाई)
3. इण्डियन अर्थ वर्म (पैरियोनक्स एक्सकवाइटस)
वैसे तो विश्व भर में 3000 किस्म के केंचुए पाए जाते हैं। भारत में अभी तक 350 किस्मों की ही पहचान की गई है। इनमें से रैड वर्म ऐसीनिया फोइटेडा व अफ्रीकन नाइट कालर ऐडिलुइस योजिनाई, वर्मी कम्पोस्ट हेतु उत्तम माने गए हैं। जोकि हर प्रकार के बायोमास को आसानी से पचा लेते हैं और इन्हें 0 से 40 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान तक आसानी से पाला जा सकता है। लेकिन सामान्यतः 20 से 30 डिग्री का तापमान इनके लिए उपयुक्त होता है।
1. यह खाद 45 से 60 दिन में तैयार हो जाती है।
2.यह भूमि की उपजाऊ क्षमता बढ़ाने में सक्षम है। जैसे जलधारण क्षमता।
3. यह उत्पादन के साथ-साथ स्वाद बढ़ाने में भी सक्षम है।
4. यह पौधों के समग्र विकास में सहायक है। इसके साथ यह पौधों की बिमारियों से लड़ने की क्षमता भी बढ़ाती है।
5. यह रासायनिक खाद का अच्छा विकल्प है।
6. इसकी सहायता से बहुत सारा गलने सड़ने वाले पदार्थ को गुणवत्ता वाले बायोकार्बन में परिवर्तित किया जा सकता है।
7. यह पर्यावरण की स्वच्छता में सहायक होता है।
1. उपयुक्त स्थान
2. गड्ढा/पिट 10x6x1.5 फुट
3. लगभग 15 से 20 दिन पुराना गोबर 500 कि.ग्रा.
4. लगभग 15 से 20 दिन पुराना बायोमास 1500 कि.ग्रा.
5. पानी आवश्यकतानुसार
6. वर्मी कल्चर 2 कि.ग्रा.
सर्वप्रथम उपयुक्त स्थान का चयन करें जो कि गौशाला/खेत के पास छायादार जगह हो अन्यथा शैड बनाना चाहिए। आप अपनी आवश्यकतानुसार कच्चा/पक्का पिट भी बना सकते हैं। एक सामान्य पिट 10 गुणा 6 गुणा 1.5 फुट का होता है तथा इतना स्थान पहाड़ों में आसानी से मिल जाता है। इस पिट में सतह पक्की होनी चाहिए। कच्चे पिट में प्लास्टिक शीट बिछा दें। इससे केंचुए इसी पिट में रहेंगे।
इसके बाद गड्ढे में भराई की जाती है। इसके लिए सबसे पहले बायोमास की 7 इंच मोटी परत बनाएँ इसके बाद पानी का छिड़काव करें तथा केंचुए इनमें छोड़कर ढ़क दें। अब इसमें नमी बनाए रखने के लिए प्रतिदिन पानी का छिड़काव करते रहें। इसके बाद 30 से 35 दिनों के बाद आप देखेंगे कि गड्ढा/पिट आधा खाली हो गया है। अब इसके उपरी परत को सावधानीपूर्वक पलट दें। इस प्रकार 45 से 60 दिनों में चाय पत्ती की तरह हल्की भूरी गंध रहित खाद बनकर तैयार हो जाती है।
स्तर | अनुमानित लागत (रुपयों में)/प्रतिवर्ष | अनुमानित लाभ (रुपयों में) प्रतिवर्ष | लागत/लाभ दर |
छोटा | 52000 | 90,000 | 1:1.73 |
मध्यम | 100000 | 1,85,000 | 1:1.85 |
बड़ा | 225000 | 450000 | 1.2.0 |
आवश्यक सामग्री
1. एक बड़ा मटका
2. दो छोटे मटके
3. 15 से 20 दिन पुराना गोबर
4. 15 से 20 दिन पुराना बायोमास
5. बारीक बजरी
बनाने की विधिः
- इस एकत्रित जल, वर्मी वाश को किसी भी फसल पर 1:10 ली. के अनुपात में मिला कर छिड़काव कर सकते हैं।
- यह तरल खाद, भूमि में आवश्यक सूक्ष्म जीवाणुओं की वृद्धि कर उपजाऊपन बढ़ने में सहायक होते हैं।
- यह फसल की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
- यह फफूँदनाशक है।
- यह फसल में, हरापन बनाए रखने में सहायक होता है। जिससे पौधे ज्यादा भोजन बनाते हैं। व उत्पादन बढ़ता है।
आवश्यक सामग्री
गौमूत्र | 1.5 ली. |
गोबर | 2.5 कि.ग्रा. |
दही | 1 कि.ग्रा. |
दूध | 1 कि.ग्रा. |
देशी घी | 250 ग्राम |
गुड़ | 500 ग्राम |
सिरका | 1 ली. |
केला | 6 |
कच्चा नारियल | 2 |
पानी | 10 लीटर |
प्लास्टिक का पात्र | 1 |
- पहले दिन 2.5 कि.ग्रा. गोबर, 1.5 ली. गौमूत्र, 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह से मिलाकर बर्तन का ढक्कन बन्द करके रख दें।
- अगले तीन दिन तक इसे रोज लकड़ी से हिलाते रहें।
- अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल दें व ढक्कन बंद कर दें।
- अगले 7 दिन तक इसे लकड़ी से हिलाते रहें।
- इसके बाद जब खमीर बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लें कि पंचगव्य तैयार है।
- इसके विपरीत अगर खटास भरी बदबू आए तो हिलाने की प्रक्रिया एक सप्ताह और बढ़ा दें। इस तरह पंचगव्य तैयार हो जाता है।
- पंचगव्य का प्रयोग, खाद, फसलों की बीमारियों से रोकथाम, कीटनाशक तथा वृद्धिकारक उत्प्रेरक के रूप में किसी भी फसल में कर सकते हैं।
- इसे एक बार बनाकर 6 माह तक प्रयोग किया जा सकता है।
(25 ली. पंचगव्य+750 ली. पानी/एकड़)
एक बीघा में 5 ली. पंचगव्य को 150 ली. पानी में मिलाकर पौधों के तनों के पास छिड़काव करें।
- पौधारोपण या बुवाई के पश्चात 15-30 दिन के अन्तराल पर 3 बार लगातार प्रयोग किया जा सकता है।
- हमेशा प्लास्टिक के बर्तन में ही बनाए।
- पंचगव्य का प्रयोग करते समय, खेत में नमी का होना आवश्यक है।
- पंचगव्य का छिड़काव सुबह या शाम के समय ही करना चाहिए।
- पंचगव्य के साथ किसी प्रकार रासायनिक खाद कीटनाशक या खरपतवार नाशक का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
- इसके प्रयोग से भूमि में जीवांशों (सूक्ष्म जीवाणुओं) की संख्या में वृद्धि होती है।
- भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
- फसल के उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
- भूमि में नमी एवं हवा के आवागमन को बनाये रखता है।
- यह स्थानीय संसाधनों पर आधारित है।
- यह सरल व सस्ती तकनीक पर आधारित है।
आवश्यक सामग्री
गौमूत्र | 1 ली. |
गोबर | 1 कि.ग्रा. |
मक्खन | 2.50 ग्रा. |
गुड़ | 500 ग्राम |
शहद | 500 ग्राम |
पानी | 10 लीटर |
प्लास्टिक का पात्र | 1 |
- इस सभी सामग्री को मिलाकर प्लास्टिक के पात्र में भरकर 7 से 10 दिन तक छायादार स्थान पर रख दें।
- प्रति दिन सुबह शाम लकड़ी से घोल को हिलाते रहें।
एक बीघा में 16 ली. अमृत घोल तथा 160 ली. पानी मिलाकर किसी भी फसल में प्रयोग किया जा सकता है।
आवश्यक सामग्री
गाय का ताजा गोबर | 15 कि.ग्रा. |
गौमूत्र | 15 ली. |
गुड़ | 2.50 ग्राम |
पानी | 15 लीटर |
प्लास्टिक पात्र या मटका | 1 |
- सर्वप्रथम 15 ली. पानी में 250 ग्राम गुड़ का घोल तैयार करें।
- मटके में 15 ली. गौमूत्र 15 कि.ग्रा. 250 ग्राम गुड़ का घोल डालें और लकड़ी की सहायता से अच्छी तरह मिला दें।
- इसके बाद पात्र का ढक्कन बन्द कर दें तथा 7-10 दिन तक छायादार स्थान पर रख दें।
- एक बिघा खेत में 30 ली. मटका खाद 150 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
- इसे किसी भी फसल में प्रयोग किया जा सकता है।
- अनाज की बाकी फसलों की बुवाई के 25 से 45 तथा 70 दिन बाद, तीन बार प्रयोग किया जा सकता है।
फसलों को बीमारियों से बचाने के लिए यह एक घरेलू व प्राकृतिक विधि है। जिसमें घर की रसोई, गौशाला, आस-पास पाई जाने वाली वनस्पतियाँ उपयोग की जाती है।
गौमूत्र | 1 ली. |
नीम की खली | 250 ग्राम |
नीम की पत्तियाँ | 250 ग्राम |
तम्बाकू के पत्ते | 250 ग्राम |
लहसुन | 100 ग्राम |
लाल मिर्च | 100 ग्राम |
इसके अतिरिक्त आस-पास पाई जाने वाली कड़वी वनस्पतियाँ (जिन्हें बकरी नहीं खाती) का उपयोग, फसल रक्षक घोल बनाने में किया जा सकता है।
इसके लिए कम से कम 1 ली. गौमूत्र की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त कम से कम तीन वानस्पतियाँ जो उपलब्ध हों एक-एक कि. ग्रा. की बराबर मात्रा में पीस कर, लाल मिर्च व लहसुन का पेस्ट, गौमूत्र के साथ मिला कर सारी सामग्री को एक मिट्टी/प्लास्टिक के बर्तन में 10 ली. पानी में घोलकर 7 दिन तक ढक कर रखें। आपातकाल में इसका उपयोग 48 घंटे बाद किया जा सकता है।
इसे छानकर मिट्टी, प्लास्टिक, काँच के बर्तन में 4-6 माह तक रख सकते हैं।
- फसल रक्षक घोल को 1:10 ली. पानी में मिलाकर दूसरी व तीसरी निड़ाई-गुड़ाई के बाद छिड़काव करना चाहिए।
- सब्जियों में इसे 15 दिन के अन्तराल में छिड़काव करना चाहिए।
- यह फसल, की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
- यह कीटनाशक के रूप में उपयोग किया जाता है।
कम्पोस्ट बनाने की विधि:-
इस प्रकार की कम्पोस्ट बनाने के लिये निम्न सामग्री की आवश्यकता होती हैः-
- पेड़ों की सूखी टहनियाँ तथा अन्य बेकार पड़ी सूखी लकड़ियाँ।
- सूखे पत्ते
- हरी पत्तियाँ, घास फूस इत्यादि।
- गोबर (यदि गाय का गोबर हो तो अच्छा रहता है)
- बाँस
सबसे पहले जमीन से 10 से 12 इंच ऊँचाई तक पेड़ों की सूखी टहनियाँ, इस प्रकार की जमीन पर बिछाई जाये जहाँ पर उपयुक्त छाँव हो तथा जमीन बराबर हो कम्पोस्ट पिट की चौड़ाई इस प्रकार रखी जानी चाहिए, कि दोनों हाथों से सतहों को छुआ जा सके। पेड़ों की सूखी टहनियाँ बिछाने के बाद उस पर गोबर के पतले घोल का इस प्रकार से छिड़काव किया जाये, कि टहनियाँ बराबर गीली हो जायें। इसके पश्चात टहनियों पर तालाब की मिट्टी की एक पतली परत टहनियों पर डाल देते हैं। पिट के बीचों-बीच 1.5 से.मी. ऊँचाई का बाँस का डंडा खड़ा कर देते हैं।
इसके पश्चात हरी पत्तियाँ, घास फूस इत्यादि 15 से 20 इंच तक की ऊँचाई तक बिछा देते हैं तथा इस पर भी गोबर का पतला घोल छिड़क देते हैं। इसके ऊपर इतनी ऊँचाई तक सूखी पत्तियाँ बिछाकर, इस पर गोबर का पतला घोल छिड़क कर तालाब की मिट्टी डालते हैं।
यही प्रक्रिया इसी क्रम में बार बार करते हैं जब तक कि ढेर की ऊँचाई 1 से 2 मी. तक न हो जाए, फिर नीचे से 5 से 10 इंच छोड़कर पूरे ढ़ेर में गोबर का पतला लेप लगा देते हैं।
एक माह पश्चात ढ़ेर की गुड़ाई करके, ढेर पुनः इकट्ठा करके, उस पर गोबर का लेप लगाकर छोड़ देते हैं। बांस को रोजाना थोड़ा हिलाते, डुलाते रहते हैं, तथा ध्यान रखते हैं, कि ढेर में नमी बनी रहे। 1.5 से 2 माह पश्चात।
इनके प्रयोग से भूमि में, जीवांशों (सूक्ष्म जीवाणुओं) की संख्या में वृद्धि होती है।
1. भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
2. फसल के उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
3. भूमि में नमी एवं हवा के आवागमन को बनाये रखती है।
4. फसल में रोग एवं कीटों के प्रभाव को कम करती हैं।
5. यह स्थानीय संसाधानों पर आधारित है।
6. यह सरल व सस्ती तकनीक पर आधारित है।