भूकम्प से उत्पन्न ऊर्ध्व और क्षैतिज दिशा में पृथ्वी पर वेग के गमन से भवन जिस सतह पर स्थित रहते हैं, उसी के साथ उठते और हिलते हैं। भारतीय मानक संहितानुसार बनाए गए भवनों की इकाइयों में भूकम्प के समय यदि दरार भी पड़ जाए, तब भी भवनों के पूर्ण विनाश की सम्भावना कम रहती है।पिछले दशकों में बिहार-नेपाल, उत्तरकाशी, लातूर, जबलपुर और भुज के भूकम्पों एवं दक्षिण भारत के सुनामी ने असीमित जान-माल की क्षति की है। इन भूकम्पों ने अनगिनत भवनों, सडकों, पुलों, रेलों, जलाशयों और कई महत्वपूर्ण संरचनाओं को क्षतिग्रस्त किया है। ऐसे में अति आवश्यक सेवाएँ यथा— स्वास्थ्य एवं चिकित्सा, काननू एवं व्यवस्था, यातायात एवं संचार इत्यादि प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं। इस आपदा की घड़ी में सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठन राहत-कार्यों में जुट जाते हैं। देर-सबेर सभी सेवाओं को दुरुस्त कर ध्वस्त एवं खण्डित संरचनाओं का पुनर्निर्माण कर लिया जाता है। परन्तु इन सब के बावजूद जिन्हें इस आपदा से अपने प्राण गँवाने पड़े उनकी क्षतिपूर्ति असम्भव है। भूकम्प प्रकोपित इलाकों के सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि प्राणों की हानि का मुख्य कारण भवनों का पूर्णरूपेण धराशायी होना ही है। भवनों की संरचना में चूक तथा इनके असंगत आकार ही इनके विनाश के कारण साबित हुए हैं।
उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए भूकम्प-प्रवृत्त क्षेत्रों में भूकम्परोधी भवनों का निर्माण करना एक परिपक्व कदम हो सकता है। ऐसे भूकम्परोधी भवनों के निर्माण की प्रक्रिया में भारतीय मानक ब्यूरो, नई दिल्ली द्वारा सुझाई गई संहिता को ध्यान में रखना चाहिए।
भार/परिमाण :
भूकम्पीय बल मुख्य रूप से क्षैतिज दिशा में प्रभावी होते हैं। अतः हल्के भवन भूकम्पीय दृष्टिकोण से ज्यादा सुरक्षित होते हैं। विशेषकर भवनों की छतें एवं ऊपरी तल क्रमागत रूप से हल्के होने चाहिए। छत एवं ऊपरी तल अधिक भारी होने से भूकम्पों के द्वारा भवन के ढाँचे में उत्पन्न पार्श्व-बल का मान अधिक होता है। फलस्वरूप भवन के विभिन्न अवयवों में उत्पन्न नमन घुर्णन (बेंडिंग मोमेण्ट) एवं कर्त्तन बल (शियर फोर्स) का मान भी बढ़ता है। चित्र संख्या-1 से स्पष्ट है कि भवन के ढाँचे में ऊपरी तलों का अपेक्षाकृत ज्यादा भार एक कम भार वाले की तुलना में अधिक नमन घुर्णन उत्पन्न करता है।
निर्माण की निरन्तरता :
भवन के प्रत्येक अवयव आपस में इस तरह से बँधे हों कि पूरा भवन एक इकाई की तरह काम करे। गृहमूल-फलक (फ्लोर-स्लैब) अपने फैलाव-जोड़ (एक्सपेंसन ज्वाईण्ट) के बावजूद, जहाँ तक सम्भव हो निरन्तरता कायम रखे। पहले से विद्यमान ढाँचे में यदि सुधार अथवा आंशिक बदलाव करना हो तो नये निर्माण और पुराने ढाँचे के बीच अत्यन्त ही नाजुक जोड़ का प्रावधन करना चाहिए, जो भूकम्पीय बल के आरोपित होते ही आसानी से टूट सके।
प्रक्षेपित एवं अवलम्बित भाग :
जहाँ तक सम्भव हो, किसी भी ढाँचे में प्रक्षेपण की अवहेलना करनी चाहिए। यदि प्रक्षेपण अत्यावश्यक हो तो इनके प्रबलन पर विशेष ध्यान रखते हुए इन्हें मुख्य ढाँचे से अच्छी तरह बाँधना चाहिए। निलम्बित छत (सस्पेण्डेड सीलिंग) एवं सीलिंग-प्लास्टर की अनुशंसा से बचना चाहिए।
भवन की आकृति :
भवन की योजना सामान्य और आयताकार होनी चाहिए। परिमाण एवं संरचना के दृष्टिकोण से भवन को समरूप होना चाहिए ताकि परिमाण एवं दृढ़ता के केन्द्र यथासम्भव एक-दूसरे में समाहित हों। अगर अधियोजना, परिमाण तथा संरचना में भवन को समरूपता प्रदान करना कठिन हो, तो ऐसी स्थिति में भूकम्पीय बल द्वारा भवन के ढाँचे में ऐंठन उत्पन्न होगा जिसके लिए खासतौर पर उपाय करना चाहिए। अगर यह भी सम्भव न हो तो सम्पूर्ण ढाँचे की संरचना को एक से अधिक भाग में बाँट देना चाहिए और प्रत्येक भाग को अत्यन्त नाजकु जोड़ों से ही जोड़ना चाहिए। ऐसे भवनों को दो जोड़ों के बीच की लम्बाई, इसकी चौड़ाई के अनुपात में तीन गुना से अधिक नहीं होनी चाहिए। ऐसे भवन, जिनकी अधियोजना ‘एल’, ‘टी’ अथवा ‘वाई’ आकृति की हो, को चित्र-2 में दर्शाए गए रेखाचित्र की भाँति आयताकार भागों में बाँट कर परियोजना का निर्माण करना चाहिए।
विभिन्न दिशाओं की मजबूती :
दोनों क्षैतिज अक्षों की दिशा में भूकम्पीय बल की सक्रियता को ध्यान में रखते हुए भवन के ढाँचे की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए। इसमें परिवर्तनशील भूकम्पीय बल की भी परिकल्पना की जानी चाहिए।
नींव :
ऐसी ढीले मिट्टी पर कभी भी नींव नहीं डालनी चाहिए जो भूकम्प के दौरान जलवत हो और एक बड़ी धसान का कारण बन जाए।
लचीलापन :
भवन की रूपरेखा इस तरह से तैयार करनी चाहिए कि भवन के मुख्य अवयवों के टूटने की परिकल्पना हमेशा लचीली हो। ऐसा करने से भूकम्प द्वारा निर्गत ऊर्जा बिना किसी आकस्मिक क्षय के भवन द्वारा ग्राह्य होगा। चिनाई के सूक्ष्म स्थानों पर प्रबलन छड़ों के समुचित सुदृढ़ीकरण, ऐंकरेज तथा जोड़ (ब्रेसिंग) से न सिर्फ भवनों की मजबूती, वरन लचीलापन भी बढ़ जाता है।
अग्नि-सुरक्षा :
भूकम्प के तुरन्त बाद अग्नि-काण्ड की सम्भावना भी होती है। अतः भवनों का निर्माण भारतीय मानकों के अनुसार यथासम्भव अग्निरोधी भी होना चाहिए।
भूकम्परोधी लक्षणों पर आधारित भवनों के प्रकार
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भवनों के प्रकार | ‘ ी ’ का विस्तार
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ए | 0.04 से 0.05 (0.05 छोड़कर) |
बी | 0.05 से 0.06 (दोनों को लेकर) |
सी | 0.06 से अधिक तथा 0.08 से कम |
डी | 0.08 से 0.12 (0.12 छोड़कर) |
ई | 0.12 तथा इससे अधिक |
चिनाई :
3.5 मेगा-पास्कल (न्यूटन प्रतिवर्ग मिलीमीटर) या अधिक क्षमता वाले ईंटों का उपयोग चिनाई के लिए श्रेयस्कर होता है। दीवारों की मोटाई एवं भवनों में मंजिलों की संख्या के बढ़ने के साथ ही क्रमशः अधिक मजबूत ईंटों की आवश्यकता होती है। कंक्रीट से बनी खोखली ईंटें तथा पत्थरों की चिनाई भी उपयोगी होती है।
गारा (मोर्टार) :
गारा में सीमेण्ट तथा बालू का अनुपात अलग-अलग श्रेणियों के भवनों के लिए निम्नलिखित ढँग से निर्धारित किया गया हैः
भवनों के
प्रकार
| सीमेण्ट-बालू का अनुपात
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ए | सीमेण्ट-बालू = 1 : 6 |
बी, सी | सीमेण्ट-बालू = 1 : 6 अथवा बेहतर |
डी, ई | सीमेण्ट-बालू = 1 : 4 |
चिनाई के बन्धन :
मजबूती के दृष्टिकोण से चिनाई में वर्णित सामान्य बन्धनों को अवश्य सुनिश्चित करना चाहिए। किसी भी रद्दे को दूसरे रद्दे में उदग्र जोड़ों से नहीं जोड़ना चाहिए। दीवार में प्रत्येक 450 मि.ली. उन्नति पर, दर्शाए गए चित्र-3 की भाँति, दाँतदार जोड़ों की रचना की जानी चाहिए।
धरन (बीम) में लम्बायमान प्रबलन
(क) शिखर-तल एवं पेन्दी-तल के प्रबलनों में कम से कम दो-दो छड़ें निर्बाध रूप से स्थापित होनी चाहिए।
(ख) धरन को स्तम्भों से जोड़ते समय, इसके शिखर एवं पेन्दी, दोनों तलों में उपस्थित छड़ों की विस्तारित लम्बाई स्तम्भ के अन्तःस्थल से पार तक, दर्शाए गए चित्र-9 के अनुसार होना चाहिए। लम्बायमान लौह छड़ के दो टुकड़ों को जोड़ने के लिए पतली छड़ों की कड़ियों का उपयोग करना चाहिए जो पूरे जोड़ की लम्बाई में (चित्र-10 के अनुसार) 150 मि.मी. के अन्तराल पर बाँधी गई हों। जोड़-पट्टी की लम्बाई तनाव वाली छड़ की विस्तारित लम्बाई से कम नहीं होनी चाहिए। स्तम्भ एवं धरन के जोड़ में तथा जोड़ से 2 ग क (जहाँ क = धरन की गहराई) दूरी तक लम्बायमान छड़ों के टुकड़ों को नहीं जोड़ना चाहिए। धरन के किसी भी अनुप्रस्थ-काट में आधे से अधिक छड़ नहीं जोड़ी जानी चाहिए।
धरन में कड़ियों की व्यवस्था
धरन के दोनों सिरों पर कम से कम 2 ग क (जहाँ क = धरन की गहराई) दूरी तक कड़ियों (रिंग्स) का अन्तराल निम्नलिखित से अधिक नहीं होना चाहिए :
(क) क घ 4, जहाँ क = धरन की गहराई
(ख) 100 मि.मी.
(ग) सबसे पतली लम्बायमान छड़ के व्यास का आठ गुणा
(घ) धरन एवं स्तम्भ के दोनों सिरों पर कम से कम 2 ग क (जहाँ क = धरन की गहराई) दूरी जोड़ पर पहला अन्तराल 50 मि.मी. से अधिक नहीं होना चाहिए।
धरन के दोनों सिरों पर 2 ग क दूरी के बाद भी कड़ियों को क/2 अन्तराल से अधिक पर नहीं रखना चाहिए (जैसा चित्र-11 से स्पष्ट है)।
क्र. सं. | रिक्तियों की स्थिति | भवनों के विभिन्न प्रकारों हेतु रिक्तियों के मान | ||
ए तथा बी | सी | डी तथा ई | ||
1. | इ4 का मान | शून्य | 230 मि.मी. | 450 मि.मी. |
2. | इ1+इ2+इ3/प्1 अथवा इ6+इ7/प्2 का अधिकतम मान निम्नलिखित अनुसार होना चाहिए (क) एक मंजिले भवनों में (ख) दो मंजिले भवनों में (ग) तीन अथवा चार मंजिले भवनों में | 0.60 0.50 0.42 | 0.55 0.46 0.37 | 0.50 0.42 0.33 |
3. | दो लगातार रिक्तियों के बीच के घाट की इ4 की न्यूनतम दूरी | 340 मि.मी. | 450 मि.मी. | 560 मि.मी. |
4. | उदग्र दिशा में दो लगातार रिक्तियों के बीच ी3 की न्यूनतम दूरी | 600 मि.मी. | 600 मि.मी. | 600 मि.मी. |
उच्च शक्ति रुद्र छड़ ( एचवाईएसडी) का व्यास भवनों के प्रकार
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मंजिलों की संख्या | मंजिल | बी | सी | डी | ई |
एक | भूतल | 0 | 0 | 10 | 12 |
दो | ऊपरी तल भूतल | 0 0 | 0 0 | 10 12 | 12 16 |
तीन | ऊपरी तल मध्य तल भूतल | 0 0 0 | 10 10 12 | 10 12 12 | 12 16 16 |
चार | ऊपरी तल दूसरा तल प्रथम तल भूतल | 10 10 10 12 | 10 10 12 12 | 10 10 16 20 | चर तल नहीं होंगे |
भवनों के विभिन्न प्रकार
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लम्बाई (मीटर) | बी | सी | डी | ई | ||||
छड़ों की संख्या | व्यास (मि.मी.) | छड़ों की संख्या | व्यास (मि.मी.) | छड़ों की संख्या | व्यास (मि.मी.) | छड़ों की संख्या | व्यास (मि.मी.) | |
5 या कम | 2 | 8 | 2 | 8 | 2 | 8 | 2 | 8 |
6 | 2 | 8 | 2 | 8 | 2 | 10 | 2 | 12 |
7 | 2 | 8 | 2 | 10 | 2 | 12 | 4 | 10 |
8 | 2 | 10 | 2 | 12 | 4 | 10 | 4 | 12 |
(लेखकद्वय में से क्रमशः प्रथम मुजफ्फरपुर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मुजफ्फरपुर में सिविल के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हैं एव द्वितीय वहीं व्याख्याता हैं)