दरभंगा ज़िले के सझौती गांव में बागमती नदी के किनारे अरुण साहनी अपनी दिन की पहली मछली की पकड़ दिखाते हैं। सुबह की हल्की रोशनी पानी पर चमकती है। अरुण एक और दिन पारंपरिक मछली पकड़ने की शुरुआत करते हैं। तस्वीर: शरद चंद्र प्रसाद
नीतियां और कानून

कहां जाएं बागमती नदी के भुलाए गए मछुआरे?

उत्तर बिहार के बाढ़ग्रस्त ज़िलों में, जहाँ नेपाल से आने वाली नदियाँ समृद्धि और विनाश दोनों लेकर आती हैं, पारंपरिक मछुआरा समुदाय की प्राचीन आजीविका धीरे-धीरे खत्म हो रही है। नदी और संबंधित समुदायों के लिए उचित नीतियों और क्रियान्वन का अभाव उन्हें हाशिए की ओर ले जा रहा है।

Author : शरत चंद्र प्रसाद

अरुण साहनी दरभंगा जिले के सहजौती गाँव के पास बागमती नदी में 15 सालों से मछली पकड़ रहे हैं। सुबह 4 बजे, जब पूरा गाँव सो ही रहा होता है, अरुण अंधेरे में नदी की ओर चल रहे होते हैं। अपने घर से बागमती नदी तक जाते उसी तीन किलोमीटर लंबे रास्ते पर, जिस पर उनके पिता चला करते थे और उनसे पहले दादाजी। बार-बार सिले गए जाल को कंधे पर लटकाए, वे अपने दोस्त रवि से मिलते हैं। उस कीचड़ भरे किनारे पर, जहाँ उनकी दो पुरानी नावें इंतज़ार में खड़ी हैं।

"हमको और कुछ आता ही नहीं है," अरुण सादे शब्दों में कहते हैं। 35 साल की उम्र में, वे इस पानी में 15 सालों से मछली पकड़ रहे हैं। यह नदी उनका दफ्तर है, उनकी फैक्ट्री है, उनका सब कुछ है।

दरभंगा में बहती शांत बागमती नदी। इसकी ठहरी हुई धाराएं स्थानीय मछुआरा समुदाय के लिए जीवन और आजीविका का सहारा हैं।

जारी है परंपरा

बिहार हमेशा से अपनी नदियों के लिए जाना जाता रहा है। बागमती, गंडक, कोसी और अन्य कई नदियाँ नेपाल से नीचे बहकर बिहार के मैदानों को काटती हुई गंगा में मिल जाती हैं। ये नदियाँ उपजाऊ मिट्टी लेकर आती हैं, जो ज़मीन को उत्पादक बनाती है। लेकिन ये बाढ़ भी लाती हैं, जो रास्ते में सब कुछ बर्बाद कर सकती है।

उत्तर बिहार के दरभंगा ज़िले के इस गाँव में बागमती नदी, जो दूर नेपाल के पहाड़ों से आती है, सदियों से कई समुदायों की जीवनरेखा रही है। यहाँ, इसके कीचड़ भरे किनारों पर, मल्लाह, मछुआरा, निषाद, और केवट समुदाय के लोग रहते हैं, जिनकी पहचान ही पानी और उससे कभी-कभी मिलने वाली संपदा से जुड़ी हई है।

इस सैटेलाइट दृश्य में नेपाल से निकलती बागमती नदी बिहार से होकर बहती नजर आती है। उत्तर बिहार की जीवनरेखा कही जाने वाली यह नदी अपने किनारों पर जमाव (गाद) को साफ़ दर्शाती है।

"मुझे मछली पकड़ना बहुत पसंद है। जब मैं दिल्ली गया था, तो रह नहीं सका। वापस आ गया," अरुण अपने पुराने जाल को ठीक करते हुए कहते हैं। "मुझे सच में मछली पकड़ने के अलावा कोई और काम नहीं आता।"

उनकी दो नावें, उनकी एकमात्र संपत्ति, पुरानी हैं और जाल की तरह इनकी भी कई बार मरम्मत की जा चुकी है। वे रवि के साथ मिलकर पारंपरिक तरीके से नदी में जाल बिछाते हैं। इस काम में 2-3 घंटे लगते हैं, फिर वे अपने खाने के डिब्बे के साथ पूरा दिन इंतज़ार करते हैं। घर से खाना लेकर निकलना ज़रूरी है, क्योंकि वहाँ और कहीं कुछ नहीं मिलता।

अरुण नदी की चौड़ाई में पारंपरिक तरीके से अपना जाल बिछाते हैं — ये तकनीकें पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही हैं, ताकि अच्छी पकड़ सुनिश्चित हो सके।

दैनिक पकड़

उनकी पकड़ी गई मछलियों को में अधिकतर आम कार्प प्रजातियाँ हैं - रोहू, कतला, मृगल - मगर (कैटफिश) और स्थानीय गाइच (ईल) भी। ये ताज़े पानी की मछलियाँ स्थानीय भोजन का हिस्सा हैं और बाजारों में पसंद की जाती हैं। पर अलग-अलग मछलियों के लिए अलग जाल लगाना होता है। यह ऐसा ज्ञान है जिसे पाने में सालों लग जाते हैं।

"लोग सोचते हैं कि हम पूरा दिन पानी के पास रहते हैं, तो बहुत कमाते होंगे," अरुण आज की पकड़ दिखाते हुए समझाते हैं। "देखिए, यह सिर्फ 3 किलो मछली है जिसकी कीमत ज़्यादा से ज़्यादा 300 रुपए होगी। कुछ घर के लिए भी बचाकर रखूंगा।"

परिवार के खाने के लिए मछली रखने के बाद, अरुण आमतौर पर दिन में 150 रुपए बचा पाते हैं। बस इतना ही। इससे माँ, पत्नी, और दो बच्चों का गुजारा करना होता है, खासकर जब से पिता का देहांत हो गया है और वे अकेले कमाने वाले हैं।

यहाँ मछली पकड़ने का अर्थ सिर्फ पानी में जाल फेंकना नहीं है। यह पीढ़ियों से निखारी गई कला है। जाल बुनना, उदाहरण के लिए, एक नाज़ुक कला है। नायलॉन से बने जाल की मरम्मत लगभग हर दिन करनी पड़ती है, "सुई" नाम की लकड़ी से हीरे का पैटर्न बुनकर। महिलाएं अक्सर इसमें मदद करती हैं, उनके फुर्तीले हाथ परंपराओं को बचाए रखते हैं भले ही उनकी कीमत घट रही हो।

एक जाल की कीमत ₹2,000 से ₹5,000 तक हो सकती है। दिन में सिर्फ ₹150-200 कमाने वाले परिवारों के लिए यह भारी निवेश है।

पुराने लकड़ी के नाव में अरुण बड़ी सहजता से बागमती की जानी-पहचानी धाराओं में चप्पू चलाते हैं, और नदी की लहरों से तालमेल बिठाकर उसे पार करते हैं।

नीतियों में अदृश्य हैं बहुसंख्यक मछुआरे

बिहार भर में, अरुण अकेले नहीं हैं। साल 2023 में लोकसभा में दिए गए एक उत्तर के अनुसार, बिहार राज्य में 60 लाख से अधिक अंतर्देशीय मछुआरे है। यह भारत में ऐसी सबसे बड़ी आबादी है (सटीक रूप से, 60,27,375)। कई अन्य तटीय राज्यों के विपरीत, बिहार में नदियों, तालाबों और नहरों में मछली पकड़ी जाती है। दिलचस्प बात यह है कि मछली पकड़ने वाला यह कार्यबल लैंगिक रूप से लगभग समान है। इसमें करीब 52% पुरुष हैं और 48% महिलाएं।

दरभंगा ज़िले के सझौती और राजौली जैसे गांवों में कभी पारंपरिक मछुआरा समुदाय फला-फूला करते थे। एक समय था जब यहां 1200 से अधिक मछुआरा परिवार बसते थे। आज स्थिति इतनी बदल गई है कि केवल सौ के आसपास परिवार ही इस पुश्तैनी पेशे से जुड़े रह गए हैं।

अधिकतर परिवार रोज़गार की तलाश में दिल्ली जैसे महानगरों की ओर पलायन कर गए हैं, जहाँ वे बेहद कम मेहनताने पर काम कर रहे हैं। जो बचे हैं वे गांव के पास बहती नदी के सहारे किसी तरह जीवन काट रहे हैं।

इन गांवों में कभी जीवन की एक अपनी रीति और रफ़्तार थी। सुबह होते ही पुरुष जाल और नाव लेकर नदी की ओर निकल जाते थे और महिलाएं बाज़ार में ताज़ा मछली बेचकर घर की अर्थव्यवस्था संभालती थीं।

अरुण जैसे बहुत से मछुआरों का जीवन, सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर धकेले गए इन समुदायों की कहानी है। इनके पास अकसर ज़मीन नहीं होती, मछली पकड़ने के औपचारिक लाइसेंस नहीं होते। इन्हें सरकार से या तो बहुत कम सहायता मिलती है या बिलकुल नहीं। अपनी बडी संख्या और इतिहास के बावजूद, सरकारी नीतियों में ये काफी हद तक अदृश्य बने हुए हैं।

घंटों इंतज़ार के बाद अरुण धैर्यपूर्वक अपना जाल समेटते हैं, इस उम्मीद के साथ कि आज की पकड़ उनके परिवार के खाने और दिन की कमाई के लिए काफी होगी।

विकास का विरोधाभास

साल 2023-24 में, बिहार भारत के अंतर्देशीय मछली उत्पादक राज्यों में चौथे स्थान पर रहा। यहां कुल 8.73 लाख टन मछली का उत्पादन हुआ। बिहार ने अन्य राज्यों को लगभग 38.4 हजार टन मछली भी निर्यात की। साल 2014-15 से हिसाब लगाया जाए, तो इसमें 82% की प्रभावशाली वृद्धि देखने को मिली। 

लेकिन ये आंकड़े शायद उन लोगों की वास्तविकता को नहीं दिखाते जो पारंपरिक रूप से इन क्षेत्रों में मछली पकड़ते हैं। सरकारी निवेश के बाद यह विडंबना और भी बड़ी हो जाती है। प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज ने बिहार के मत्स्य क्षेत्र को 279.55 करोड़ रुपये आवंटित किए, जिसमें से 102.49 करोड़ रुपये के केंद्रीय हिस्से से 56.35 करोड़ रुपये जारी किए गए। प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत, साल 2020-21 से 522.41 करोड़ रुपये की परियोजनाओं को मंज़ूरी दी गई है, जिसमें चार वर्षों में 79.84 करोड़ रुपये जारी किए गए।

सुमन सिंह बिहार में मछली पकड़ने के परिदृश्य की एक गंभीर वास्तविकता साझा करती हैं। वे मधुबनी, समस्तीपुर और दरभंगा जैसे जिलों में अपने एनजीओ सखी बिहार के माध्यम से मछली पकड़ने वाले समुदायों के साथ 14 सालों से काम कर रही हैं। वे बताती हैं कि मछली पकड़ना कभी एक साझा आजीविका थी जहाँ पुरुष मछली पकड़ते थे और महिलाएं उन्हें स्थानीय बाजारों में बेचती थीं। अब यह परंपरा वैसी नहीं रही है। कई महिलाओं ने बाजार जाना बिल्कुल बंद कर दिया है।

अरुण और उनके साथी रवि दिनभर साथ काम करते हैं श्रम और साथ निभाने की भावना इस पारंपरिक मछुआरा समुदाय की पहचान है, जो बागमती नदी के सहारे बसा है।
बागमती, गंडक और कोसी जैसी नदियाँ बहुत बदल गई हैं। अधिक मिट्टी है, धाराएं तेज़ हैं, और पारंपरिक तरीकों से मछली पकड़ना लगभग असंभव हो गया है। अवैध रेत खनन और हैचरी की खराब योजनाओं ने परेशानी में इज़ाफा किया है। समस्तीपुर और भागलपुर जैसी जगहों पर, मछली के बीज अक्सर अगस्त में छोड़े जाते हैं जब धारा बहुत तेज होती है। इनमें से ज़्यादातर जीवित नहीं रह पाते। वे परिपक्व होने से पहले ही बह जाते हैं।
सुमन, सखी बिहार एनजीओ की संचालिका
अरुण नदी के बीचों-बीच खड़े होकर सतह के नीचे मछलियों की हलचल तलाशते हैं, उनकी आंखें पानी पर लगातार नज़र बनाए रखती हैं।

अगस्त-सितंबर में प्रजनन काल के दौरान मछली पकड़ने पर प्रतिबंध ज़रूरी हैं, लेकिन जब मछली की आबादी ही सिकुड़ रही हो तो प्रतिबंध से खास मदद नहीं मिलती। बाढ़ भी अधिक विनाशकारी होती जा रही है। यह सिर्फ नावों को ही नहीं बल्कि जालों को भी नष्ट कर रही है। बढ़ते पानी के कारण विस्थापित कई मछुआरे शहरों में जाकर कम वेतन वाली मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।

ऐसा नहीं है कि इन मछुआरों के लिए योजनाएं मौजूद नहीं हैं। बिहार मत्स्य निदेशालय प्रशिक्षण और एक्सपोजर विजिट के लिए पूरी सब्सिडी देता है और बीज, फीड, दवाइयों और उपकरण जैसे इनपुट के लिए 50% की सहायता देता है। मछली-सह-पोल्ट्री और बायोफ्लॉक जैसी एकीकृत विधियों के लिए भी सब्सिडी दी जाती है। मछुआरों को अपनी पकड़ बेचने में मदद करने के लिए, राज्य ऑटो-रिक्शा जैसे हल्के वाहनों पर भी 90% तक सब्सिडी देता है।

मई 2025 में, बाढ़ पीड़ितों के लिए आपातकालीन सहायता की घोषणा की गई। आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त नावों के लिए ₹6,000, पूर्ण रूप से नष्ट हुई नावों के लिए ₹15,000, और जालों के लिए ₹3,000–₹4,000। छोटे किसान फीड के लिए ₹10,000 प्रति हेक्टेयर और तालाब की मरम्मत के लिए ₹18,000 का दावा कर सकते हैं।

लेकिन ये फायदे शायद ही कभी उन लोगों तक पहुंचते हैं जिन्हें इनकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है। कई गाँवों में, लोग यह भी नहीं जानते कि ऐसी कोई सहायता मौजूद है। "कोई आउटरीच नहीं है। कोई नहीं आता। मछुआरों को या तो देर से पता चलता है या पता ही नहीं चलता," सुमन कहती हैं।

पर्यावरणीय चिंताएं और भविष्य की उम्मीदें

साल 2025 के एक राज्य सर्वेक्षण ने एक गंभीर तस्वीर पेश की। कई लोगों के लिए पवित्र और लाखों लोगों के लिए जीवनरेखा गंगा को उच्च कॉलीफॉर्म स्तर के कारण नहाने के लिए भी अनुपयुक्त घोषित किया गया। यह स्थिति मुख्यतः शहरी नालों से सीधे बहने वाले अनुपचारित सीवेज के कारण पैदा हुई।

बिहार में औद्योगिक प्रदूषण महानगरों की तुलना में अपेक्षाकृत कम है, पर यहां भी कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग और घरेलू कचरे को नदियों में डालने के कारण पानी की गुणवत्ता बिगड़ती जा रही है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि रोहू और कतला जैसी मुख्य देशी प्रजातियाँ, जो कभी प्रचुर मात्रा में थीं, अब गंगा के बड़े हिस्सों से "गायब" हो गई हैं। प्रदूषण के कारण गंगा का पानी इन मछलियों के जीने लायक नहीं रह गया है।

"कई बार हमें मछली से ज़्यादा प्लास्टिक मिलता है," मछुआरे दुख से कहते हैं।

नदियों में छोटी मछलियों को डालने के सरकारी प्रयास अक्सर असफल हो जाते हैं। "सरकार बहुत छोटी मछली डालती है। नदी में प्रदूषण की वजह से इनमें से अधिकतर मर जाती हैं," अरुण बताते हैं। पानी की गुणवत्ता को सुधारे बिना, ये सरकारी प्रयास काफी हद तक अप्रभावी रहते हैं।

इन चुनौतियों के बावजूद, अरुण जैसे मछुआरे अपने पारंपरिक काम के लिए प्रतिबद्ध हैं। "अगर नदी से मछली खत्म हो जाए, तो मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। मैं तालाब में करूंगा, लेकिन मछली पकड़ूंगा," वे शांत दृढ़ता से घोषणा करते हैं। 

एक टूटी हुई नाव नदी किनारे पड़ी है, जिसे अब मछली पकड़ने के जाल और उपकरणों के भंडारण के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
दरभंगा के सजहौती गांव में नदी के किनारे अस्थायी झोंपड़ियां बनी हैं, जहाँ मछुआरा परिवार बाढ़ के मौसम में अपने अस्थायी शिविर बनाते हैं।

जब मानसून आता है

असली समस्या मानसून के दौरान आती है। जब दरभंगा में बाढ़ आती है, जो नियमित रूप से आती है। अरुण और रवि अक्सर बिल्कुल मछली नहीं पकड़ सकते। पानी का बहाव बहुत तेज़, बहुत खतरनाक हो जाता है।

आंकड़े तबाही की अपनी कहानी कहते हैं। बिहार के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 73% हिस्सा यानी 94,163 वर्ग किलोमीटर में से 68,800 वर्ग किलोमीटर बाढ़ के लिए संवेदनशील है। उत्तर बिहार में, जहाँ अरुण और रवि अपनी आजीविका चलाने के लिए संघर्ष करते हैं।

"पानी इतना तेज बहता है कि नाव भी नहीं निकाल सकते," अरुण समझाते हैं। साल में 4-5 महीने तक, मछुआरा परिवारों की कोई आय नहीं होती। बिल्कुल शून्य। वे पानी के कम होने का इंतज़ार करते हैं, सामान्य जिंदगी के वापस आने का।

बाढ़ मछुआरों को सिर्फ मछली पकड़ने से नहीं रोकती, यह सब कुछ बर्बाद कर देती है। जाल बह जाते हैं। नावें खराब हो जाती हैं। इन परिवारों का जो थोड़ा-बहुत सामान होता है वह अक्सर डूब जाता है। जब पानी आखिरकार उतरता है, तो उन्हें फिर से शुरुआत करनी पड़ती है।

पानी उतरने के बाद, वे जो कुछ भी बचा सकते हैं या बदलने का खर्च उठा सकते हैं, उसके साथ फिर से संघर्ष शुरू करते हैं। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर बिहार का 76% इलाका साल दर साल दोहराए जाने वाले इस दुःस्वप्न का सामना करता है।

अरुण की आज की खास पकड़ कई किलो वज़न की ये मछलियां आम दिनों की मामूली पकड़ के मुकाबले एक सौभाग्य की तरह हैं।

बाज़ार की हकीकतें

मछलियों को प्रकार और आकार के अनुसार छांटा जाता है और फिर स्थानीय बाज़ार तक ले जाया जाता है। रोहू सबसे कीमती है, इससे ₹120-150 प्रति किलोग्राम का उच्चतम दाम मिलता है। जबकि छोटी मछलियाँ ₹80-100 प्रति किलोग्राम में बिकती हैं।

मार्केटिंग प्रक्रिया में ही कई समस्याएं हैं। कोल्ड स्टोरेज की सुविधा न होने से, मछुआरों को अपनी पकड़ उसी दिन बेचनी पड़ती है, वह भी अक्सर बिचौलियों द्वारा तय की गई कीमतों पर। उचित मार्केटिंग सिस्टम न होने का मतलब है कि मछुआरों को अक्सर अंतिम खुदरा कीमत का सिर्फ 40-50% मिलता है।

अरुण जैसे कई मछुआरे अपनी पकड़ का कुछ हिस्सा घर के लिए बचाकर रखते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनके परिवार को ताजा प्रोटीन मिले। बाकी मछली या तो गाँव के बाजार में लोगों को सीधे बेची जाती है या व्यापारियों को जो इन्हें पटना और मुज़फ्फरपुर जैसे बड़े शहरी बाज़ारों में ले जाते हैं।

अरुण बागमती की लहरों से तालमेल बिठाते हुए अपनी नाव को संतुलित करते हैं, उनका शरीर नदी की लय के साथ झूमता है।

अंतिम धारा

प्रदूषण और गाद के चलते, जैसे-जैसे पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त हो रहा है, पानी को पढ़ने, मछली के व्यवहार को समझने, मौसमी पैटर्न जानने का पारंपरिक ज्ञान बेकार हो रहा है। सदियों का ज्ञान, जो पीढ़ियों से चला आ रहा था, अब अप्रासंगिक होने को है।

बागमती अब भी नेपाल से बिहार में बहती है। अरुण अब भी सुबह 4 बजे उठते हैं। वे अब भी नदी तक 3 किलोमीटर चलते हैं। लेकिन जो नदी सदियों से उनके पूर्वजों का पेट पालती थी, वो उनकी पीढ़ी को पाल नहीं पा रही है।

भारत के चौथे सबसे बड़े अंतर्देशीय मछली उत्पादक बन जाने के बावजूद बिहार के पारंपरिक मछुआरे गरीबी में फंसे हुए हैं। निर्यात किए गए टन अरुण जैसे लोगों की बेहतर ज़िंदगी में तब्दील नहीं होते। आंकड़े कागज़ पर अच्छे लगते हैं, लेकिन नदी के किनारे की हकीकत एक अलग कहानी कहती है। न मछली, न नाव - और धीरे-धीरे, मछुआरे नदी से दूर शहर की सड़कों पर मज़दूरी के जाल में अटके दिखाई देने लगे हैं।

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