drinking water 
नदी और तालाब

नदी जोड़ परियोजना : एक परिचय, भाग-2

Author : कृष्ण गोपाल 'व्यास’


जलमार्गों की श्रृंखला के तालमेल एवं पानी उठाने वाली व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालित होने पर ही कावेरी नदी को पानी मिलेगा। योजना के प्रस्ताव के अनुसार गंगा के पानी को सुवर्णरेखा में 60 मीटर, सुवर्णरेखा के पानी को महानदी में 48 मीटर और महानदी के पानी को गोदावरी में 116 मीटर उठाना पड़ेगा। उम्मीद है दक्षिण की उत्तर पर निर्भरता टिकाऊ होगी पर नहर टूटने, बिजली की सप्लाई अवरुद्ध होने, पंप खराब होने या नक्सलवादी या आतंकवादी गतिविधियों के कारण व्यवस्था अवरुद्ध होती है तो जल आपूर्ति का क्या विकल्प होगा?नदी जोड़ परियोजना की कल्पना का मूल आधार अमीर और गरीब नदी घाटियां हैं। यही सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं जटिल है। इस सवाल का उत्तर सामान्य अंकगणितीय जलविज्ञान द्वारा नहीं दिया जा सकता। इसका उत्तर इको-हाइड्रोलॉजी द्वारा दिया जाना चाहिए। गौरतलब है कि नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट प्लान (भारत सरकार द्वारा नियुक्त कमीशन) भी इस योजना को लेकर सशंकित है।

जे. वंद्योपाध्याय और एस. परवीन के ई. पी. डब्ल्यू. में 11 दिसम्बर 2004 को प्रकाशित लेख में उल्लेख है कि इस कमीशन ने इको-सिस्टम की निरंतरता के लिए पानी की माँग का आकलन किया है। वंद्योपाध्याय और एस. परवीन कहते हैं कि इसमें आकलन करने के तरीके का उल्लेख ही नहीं है। इको-सिस्टम की निरंतरता के लिए जरूरी पानी को रोकने का असर खेती और जंगल की जमीन की उत्पादकता, ग्राउंड वाटर रिचार्ज, जैव विविधता एवं मछलियों के निर्बाध आवागमन और उत्पादन पर प्रतिकूल तरीके से पड़ता है इसलिए इन तथ्यों को इको-हाइड्रोलाजी के नज़रिए से समझने की जरूरत है।

पर्यावरण से सरोकार रखने वाले विद्वानों, वैज्ञानिकों एवं जल विज्ञानियों के अनुसार पेयजल, सिंचाई, औद्योगिक इकाइयों की पानी की मांग की पूर्ति के अलावा नदी द्वारा इकोलॉजिकल एवं अन्य उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। अतः नदी जोड़ योजना के अंतर्गत एक घाटी से दूसरी घाटी में पानी के ट्रांसफर के परिणाम अवश्यंभावी है। ये परिणाम ट्रांसफर की जाने वाली पानी की मात्रा के समानुपाती होंगे। यह विचार धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है कि नदी घाटियों की पानी की गरीबी, हकीकत में पानी के कुप्रबन्ध और गैर टिकाऊ मांग का परिणाम है।

बड़े पैमाने पर काम करने के पहले अर्थात एक मुख्य घाटी से दूसरी घाटी में पानी के ट्रांसफर के स्थान पर, घाटी के अंदर ही टिकाऊ, आर्थिक दृष्टि से उचित एवं सावधानीपूर्वक किए जलप्रबन्ध को सबसे पहले आजमाया जाना चाहिए। इस प्रयास के बाद हो सकता है कि इतर नदी घाटी के पानी के ट्रांसफर का अवसर ही नहीं आए। वे नदी घाटी के पानी के ट्रांसफर को अंतिम विकल्प मानते हैं।

उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार नार्थ-ईस्ट, बिहार, ओडिशा और आन्ध्र प्रदेश जैसे जल समृद्ध राज्यों के कुछ इलाकों में पानी की कमी की समस्याएं हैं। इसलिए जल समृद्ध क्षेत्र के पानी को बहुत दूर-दराज के स्थानों में भेजने के स्थान पर सबसे पहले निकटस्थ भूभाग की समस्या का निराकरण किया जाना चाहिए। इस अनुक्रम में लेखक का मानना है कि अब विभिन्न नदी जोड़ योजनाओं की पूर्व संभाव्यता एवं संभाव्यता रिपोर्ट उपलब्ध होने लगी हैं इसलिए अब यह पता चलने लगेगा कि एन.डब्ल्यू.डी.ए. ने उपरोक्त सभी पक्षों पर सावधानीपूर्वक विचार कर लिया है अथवा नहीं? गौरतलब है कि केन-बेतवा लिंक की पहली संभाव्यता रिपोर्ट उपलब्ध है पर इस रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि इस पहली संभाव्यता रिपोर्ट में ही अनेक खामियाँ मौजूद हैं।

जलमार्गों की श्रृंखला के तालमेल एवं पानी उठाने वाली व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालित होने पर ही कावेरी नदी को पानी मिलेगा। योजना के प्रस्ताव के अनुसार गंगा के पानी को सुवर्णरेखा में 60 मीटर, सुवर्णरेखा के पानी को महानदी में 48 मीटर और महानदी के पानी को गोदावरी में 116 मीटर उठाना पड़ेगा। उम्मीद है दक्षिण की उत्तर पर निर्भरता टिकाऊ होगी पर नहर टूटने, बिजली की सप्लाई अवरुद्ध होने, पंप खराब होने या नक्सलवादी या आतंकवादी गतिविधियों के कारण व्यवस्था अवरुद्ध होती है तो जल आपूर्ति का क्या विकल्प होगा? अपस्ट्रीम से आने वाले पानी का क्या भविष्य होगा? कुछ लोग कह सकते हैं कि ये काल्पनिक प्रश्न हैं और इनके आधार पर योजना नकारना अनुचित होगा।

कुछ लोगों का मानना है कि उपर्युक्त बातें पूरी तरह संभावनाएँ नहीं है। मुसीबत की घड़ी में यही सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं जटिल हो जाते हैं। योजनाकार और फायदा उठाने वाले परिदृश्य से जा चुके होते हैं पर ख़ामियाज़ा आर्थिक एवं मानवीय त्रासदी के रूप में हजारों लाखों लोगों को चुकाना पड़ता है। विश्वास है, योजना में इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखा जाएगा और पुख्ता व्यवस्थाएं की जाएंगी।

सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत हलफनामें के प्रारंभिक निवेदन के पैरा (बी) में कहा गया है कि इस परियोजना का उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण और सूखे की समस्या को समाप्त करना है। बाढ़ नियंत्रण और सूखे की समस्या के निराकरण में नदी जोड़ योजना के औचित्य पर कोई भी जागरूक नागरिक एवं जलविज्ञानी निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चाहेगा-

1. बाढ़ के कितने भाग का ट्रांसफर प्रस्तावित है?
2. ट्रांसफर किए बाढ़ के पानी से कितनी मात्रा में फ्लड माडरेशन प्राप्त होगा?
3. बड़ी परियोजनाओं की मदद से फ्लड माडरेशन का पुराना अनुभव क्या है?
4. बाढ़ के पानी के ट्रांसफर से नदी घाटी के निचले भाग की पारिस्थितिकी, जलचरों के जीवन, नदी पर निर्भर समाज की आजीविका, पानी की गुणवत्ता एवं पानी को स्वच्छ बनाने की उसकी क्षमता, भूजल रिचार्ज, डेल्टा क्षेत्र की पारिस्थितिकी इत्यादि पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
5. अंतिम बिंदु की ओर ट्रांसफर किए पानी का पूरे रास्ते पर क्या प्रभाव होगा?
6. पानी प्राप्त करने वाली नदी या लाभान्वित इलाके पर पानी के ट्रांसफर का क्या प्रभाव होगा?
7. क्या जल प्रदान करने वाली नदी की बाढ़ और पानी प्राप्त करने वाली नदी के सूखे एक ही समय होंगे? यदि नहीं तो बाढ़ के पानी को अस्थायी रूप से कहां रखा जाएगा? पानी के साथ आने वाली सिल्ट का क्या होगा?

सब जानते हैं कि बाढ़ और सूखा दो अलग-अलग प्राकृतिक समस्याएँ हैं। उनके निदान अलग-अलग हैं इसलिए स्थान विशेष की परिस्थितियों के अनुसार इन प्राकृतिक समस्याओं के दीर्घकालीन हल खोजे जाने चाहिए। यही वास्तविक चुनौती है। यही समाज की चाहत और सरकार से अपेक्षा है। सब जानते हैं कि गलत समझ ही गलत हल की ओर ले जाती है।

समाज के प्रबुद्ध लोगों का एक वर्ग तो नदी जोड़ योजना के बाढ़ नियंत्रण के विचार पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है। इस वर्ग के लोगों का कहना है कि यह साफ नहीं है कि किस तरह नदी जोड़ परियोजना से बाढ़ नियंत्रण का लक्ष्य हासिल होगा? आई.आई.टी. रुड़की के ख्यातिलब्ध प्रोफेसर और नेशनल कमीशन फॉर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट प्लान के पूर्व सदस्य भारत सिंह का कथन है कि जल संसाधन से जुड़ा कोई भी इंजीनियर, बाढ़ पर नियंत्रण पाने के लिए नदियों को जोड़ने के विचार को तत्काल खारिज कर देगा।

सब जानते हैं कि बाढ़ और सूखा प्राकृतिक घटनाएं हैं। हर साल उनके ठिकाने, अवधि और मात्रा बदलते रहते हैं। कई बार, बहुत छोटे इलाके में दोनों का असर देखने को मिल जाता है। रिटायर्ड मेजर जनरल डा. एस.जी. वोम्बटकेरे (डैम्स, रिवर्स एन्ड पीपुल, फरवरी-मार्च 2007, पेज 7) के अनुसार, बरसात के मौसम में गंगा में औसत जल प्रवाह 50,000 क्यूमेक होता है। ज्ञातव्य है कि 100 मीटर चौड़ी और दस मीटर गहरी केनाल से अधिक से अधिक 2000 क्यूमेक पानी ही, जो बाढ़ से मात्र 4 प्रतिशत राहत दे सकता है, ट्रांसफर किया जा सकता है।

इसी तरह ब्रह्मपुत्र में बाढ़ के दौरान औसतन 60,000 क्यूमेक पानी बहता है और उपर्युक्त आकार की केनाल से अधिक से अधिक तीन प्रतिशत राहत मिल सकती है। क्या इतनी कम राहत के लिए इतना बड़ा मेगा प्रोजेक्ट लेना चाहिए? ज्ञातव्य है, साल के शेष आठ महीनों में गंगा में औसतन 5,280 क्यूमेक पानी बहता है। यदि इस मात्रा में से 2000 क्यूमेक पानी ट्रांसफर कर दिया जाता है तो बिहार को 38 प्रतिशत पानी की आपूर्ति उस समय नकार दी जाएगी, जब वहाँ उसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। वोम्बटकेरे के अनुसार गंगा के 38 प्रतिशत पानी के ट्रांसफर के गंभीर सामाजिक एवं आर्थिक दुष्परिणाम होंगे। क्या राजनीतिक दल और समाज इन परिणामों को भुगतने के लिए तैयार हैं?

जल संसाधन विभाग ने बिजली की न्यूनतम खपत सुनिश्चित करने के लिए हलफनामें के पैरा (ए) में सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया था कि-

“नहर निर्माण के वैकल्पिक मार्गों का अध्ययन किया जा रहा है और उनके लिए सर्वेक्षण कराए जा रहे हैं ताकि निचले इलाके से ऊपरी इलाके को पानी पहुँचाने में बिजली पर आने वाला भारी खर्च बचाया जा सके।”

उपर्युक्त बिंदु पर दिए हलफनामें में वैकल्पिक जलमार्गों के सर्वेक्षण एवं निचले इलाके से ऊपरी इलाके को पानी पहुंचाने में बिजली पर आने वाले भारी खर्च को बचाने के बारे में कहा गया है। पाठक सहमत होंगे कि मैदानी सर्वेक्षण से जल परिवहन के सही रास्ते तो तय किए जा सकते हैं पर भारत का भूगोल या स्थानों की ऊँचाई नहीं बदली जा सकती। यदि पानी को ऊपर उठाना है तो बिजली लगेगी। यह हकीकत है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। अर्थात उच्चतम न्यायालय को बिजली खर्च के बारे में प्रस्तुत जवाबदावा असत्य एवं गुमराह करने वाला लगता है। इस परियोजना में पानी को तीन स्थानों पर ऊपर उठाने के लिए 4000 मेगावाट बिजली की आवश्यकता होगी। यही वास्तविकता है।

सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत हलफनामें के पैरा (ई) में कहा गया है कि नदियों को आपस में जोड़ने के बाद लगभग 25 लाख हेक्टेयर में सतही जल से और 10 लाख हेक्टेयर भूजल से सिंचाई होगी। इस अनुक्रम में लाभान्वित इलाके और भूजल संरचनाओं के बारे में विवरणों का खुलासा आवश्यक है। यदि यह इलाका कमांड क्षेत्र के बाहर है तो उसे इस योजना के साथ कैसे जोड़ा जाएगा। यदि यह इलाका योजना के कमांड क्षेत्र में है तो अभी तक का अनुभव बताता है कि कमांड क्षेत्र में सरकारी स्तर से सतही जल और भूजल का मिलाजुला उपयोग नहीं किया जाता।

भूजल स्तर के जमीन के करीब होने, वाटरलागिंग होने या जमीन के खारे होने के बाद भी भूजल दोहन को लगभग नहीं अपनाया है। कमांड क्षेत्रों में सतही जल और भूजल के मिलेजुले उपयोग के सरकार द्वारा बनवाए उदाहरण सामान्यतः अनुपलब्ध है। गंगा कछार और नर्मदा कछार जहाँ भूजल के अच्छे भंडार मिलते हैं, में भी सरकारी स्तर पर सतही और भूजल के समानुपातिक उपयोग के उदाहरण अनुपलब्ध हैं। इसके उलट दक्षिण के पठार में, जो मुख्यतः आग्नेय एवं कायान्तरित चट्टानों से बना है, कछारी क्षेत्रों के समान बड़े भूजल भंडारों के विकसित होने की संभावना बहुत कम है इसलिए भूजल से यह लक्ष्य कैसे और कहां हासिल किया जाएगा, स्पष्ट किया जाना आवश्यक एवं उपयोगी होगा। भूजल के उपयोग में अव्वल रहने वाले समाज को भी यह जानकारी मिलना चाहिए।

इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि गंगा और ब्रह्मपुत्र तथा उनकी सहायक नदियां कुछ साल के अंतराल पर अपना मार्ग बदलती हैं। कई बार मार्गों का बदलाव एक से दो किलोमीटर तक हो जाता है। इस बदलाव के कारण मार्ग में आने वाले कस्बों और गाँव का भूगोल ही बदल जाता है। मार्ग बदलने के मामले में कोसी का इतिहास सबसे जुदा है।

गंगा द्वारा मार्ग बदलने की समस्या के कारण फरक्का बांध की उपयोगिता पर संकट है और सरकार को उसकी उपयोगिता के स्तर को बरकरार रखने पर हर साल काफी धन खर्च करना पड़ रहा है। नदी जोड़ योजना के हिमालयीन घटक के लिए नदी पथ का परिवर्तन बहुत बड़ा संभावित खतरा है और इस खतरे की अनदेखी उससे भी बड़ा खतरा है। नदी द्वारा पथ बदलने से अनेक बांध और जल मार्ग बेकार हो जाएंगे। बाढ़ की तबाही भोगने वाले समाज और इलाके के जनप्रतिनिधियों को इस बारे में शिक्षित करने और उनकी सहमति लेने की आवश्यकता है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस परियोजना के अंतर्गत जलमार्गों की कुल संभावित लम्बाई लगभग 14,900 किलोमीटर होगी। इन कृत्रिम मुख्य नहरों के अलावा अनेक ब्रांच केनाल, डिस्ट्रीब्यूटरी, माइनर, सब-माइनर एवं फील्ड चैनल भी बनाई जाएंगी। ये सब अतिरिक्त जलमार्ग होंगे। इन सारी नहरों में बहने वाला पानी लगभग 173 बिलियन क्यूबिक मीटर होगा।

यह सही है कि यह पानी प्राकृतिक जल मार्गों अर्थात नदियों में ही बहने वाला पानी है पर कृत्रिम जलमार्गों की लम्बाई और जल प्रवाह की अवधि बढ़ने तथा खेतों में उसे वितरित करने के कारण बड़ी मात्रा में वाष्पीकरण तथा रिसाव होगा। वहीं, पानी देने वाले इलाके में मात्र 10 प्रतिशत के करीब जल प्रवाह बचने के कारण गंभीर पर्यावरणी हानियां होंगी।

नदी जोड़ योजना के क्रियान्वयन से डूब क्षेत्र (गाँव, कस्बे इत्यादि) में निवास करने वाले विभिन्न श्रेणियों के किसान, खेतिहर मजदूर और गरीब तबके के लोग विस्थापित होंगे। डूब क्षेत्र में आने वाले खेत, मकान, जंगल, खनिज पदार्थ, जड़ी बूटियां, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासतें इत्यादि नष्ट होंगी।

देश का प्राकृतिक नदी तंत्र बदलेगा। नदियों में पाए जाने वाले जलचरों और जलीय वनस्पतियों का ठिकाना बदलेगा और भारत की धरती पर कृत्रिम भूगोल लिखा जाएगा। इस परियोजना के डूब में आने वाले इलाके के रकबे और विस्थापित होने वाले मनुष्यों की संख्या के बारे में आँकड़ों में भिन्नता है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत हलफनामें के प्रारंभिक निवेदन में डूब के रकबे और विस्थापितों की संख्या के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। डेम, रिवर और पीपुल (दिसम्बर-जनवरी, 2007, पेज 6) के अनुसार पूरी योजना के डूब के रकबे और विस्थापन का संभावित विवरण निम्नानुसार है-

घटक

वन भूमिक का रकबा (हे.)

कुल रकबा (हे.)

विस्थापित व्यक्तियों की संभावित संख्या

हिमालय क्षेत्र के सभी बांध

4,300

1,62,304

2,45,079

हिमालय क्षेत्र के सभी जलमार्ग

16,758

99,315

3,11,849

दक्षिण प्रायद्वीप के सभी बांध

73,646

4,04,843

6,11,313

दक्षिण प्रायद्वीप के सभी जलमार्ग

9,165

99,046

 3,11,004

योग

1,03,869

7,65,508

14,79,245

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