नदियों की स्वच्छता की चुनोती 
नदी और तालाब

संदर्भ कुंभ : नदियों की स्वच्छता की चुनौती

कुंभ के बहाने नदियों की स्वच्छता का मुद्दा केंद्र में आ जाता है। दशकों से प्रदूषण का शिकार हो रही नदियों की स्वच्छता किसी चुनौती से कम नहीं। अधिकांश नदियों का पानी इस कदर विषैला हो चुका है कि न तो पीने के काबिल रह गया है और न ही स्नान के। अधिकांश नदियां सूख कर गंदे नाले की तरह हो गई हैं, जिनमें कालिमा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। बढ़ते औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बांधों के निर्माण के चलते नदियों की अविरलता और स्वच्छता दोनों खासी प्रभावित हुई हैं। जब तक हमारी सभ्यता औद्योगिक, रासायनिक, तरल व ठोस कचरे और शहरी मल-जल को वर्तमान तरीके से निपटाने वाली व्यवस्था से मुक्त थी, हमारी नदियां शुद्ध थीं लेकिन औद्योगिक और शहरी कचरे के चलते अब वो दम तोड़ने लगी हैं। अगर उन्हें अब भी साफ नहीं किया गया तो भविष्य में नदियों से पेयजल को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। - लेखक - संजय श्रीवास्तव 

Author : संजय श्रीवास्तव

इन दिनों भारतीय नदियों में प्रदूषण चर्चा का विषय है। दशकों से प्रदूषण का शिकार हो रही नदियों की सफाई किसी चुनौती से कम नहीं। अधिकांश नदियों का पानी इस कदर विषैला हो चुका है कि न तो पीने के काबिल रह गया है और न ही स्नान के। 

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आकलन के अनुसार 29 राज्यों और छह केन्द्रशासित क्षेत्रों में 445 नदियों में से 275 नदियां पूरी तरह प्रदूषित हैं। 302 नदियों के किनारे स्थित 650 शहरों के गंदे पानी की मात्रा भी 38000 मिलियन लीटर प्रतिदिन से बढ़कर 62000 मिलियन लीटर (एम. एल.डी.) हो गई है जबकि इसकी तुलना में सीवेज शोधन क्षमता में नाममात्र की वृद्धि ही हुई है। इनमें 34 नदियों को प्रथम श्रेणी में रखा गया है, जिन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। पिछले पांच सालों में देश में प्रदूषण की शिकार नदियों की संख्या दोगुना से भी अधिक हो गई हैं। वर्ष 2009 में जहां देश की 121 प्रमुख नदियां प्रदूषण की लपेट में थीं वहीं 2015 में इनकी संख्या बढ़ कर 275 हो गई। नदियों की प्रदूषित पट्टियां 2009 में 150 से बढ़कर वर्ष 2015 में 302 हो गईं। महाराष्ट्र की 85 प्रतिशत नदियां प्रदूषण का शिकार हैं। सबसे ज्यादा प्रदूषित 45 नदी क्षेत्र इसी राज्य में हैं। 

पूर्व पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर ने संसद में कुछ समय पहले बताया था कि प्रदूषित नदियों के मामले में अगर महाराष्ट्र 28 नदियों के साथ पहले नंबर पर है तो 19 प्रदूषित नदियों के साथ गुजरात दूसरे और 12 ऐसी नदियों के साथ उत्तर प्रदेश तीसरे नंबर पर। देश में हजारों किलोमीटर नदी क्षेत्र इस कदर प्रदूषित है कि वहां जलीय पौधों और जीव-जंतुओं का जीना दूभर है। नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्रोजेक्ट यानी राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) के तहत आवंटित 45 अरब 18 करोड़ की राशि से देश की तमाम नदियों को जीवनदान देने की योजना है।

नमामि गंगे 

यूं तो केंद्र सरकार का गंगा पुनर्जीवन, नदी विकास व जल संसाधन मंत्रालय देश की सभी नदियों की स्वच्छता पर काम कर रहा है लेकिन निश्चित तौर पर पहली प्राथमिकता देश की सबसे पवित्र नदी गंगा को निर्मल करना है। इस अभियान को 'नमामि गंगे' नाम दिया गया है। 2525 किलोमीटर लंबी गंगा गंगोत्री से निकलकर बंगाल की खाड़ी में समाती है। गंगा के किनारे ही सही मायनों में देश की संस्कृति का विकास हुआ। गंगा हमेशा से जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी मानी गई है। लगातार प्रदूषण ने इसे खासा नुकसान पहुंचाया है। जो गंगा कभी एकदम साफ थी, वो अब शहरों की गंदगी ढोते ढोते थकी-सी लगने लगी है। ये चिंता का विषय भी है। इसीलिए केंद्र ने पुण्यसलिला की सफाई हेतु अलग मंत्रालय बनाया हुआ है। सरकार का दावा है कि जो काम बीते तीस साल में नहीं हुआ, 'नमामि गंगे' परियोजनाओं के जरिए उसे दो साल में पूरा कर दिया जाएगा। जल संसाधन, नदी विकास तथा गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती का दावा है कि गंगा की सफाई के प्रयासों का असर अक्टूबर 2016 से दिखने लगेगा और वर्ष 2018 तक गंगा पूरी तरह साफ हो जाएगी। 

इस दावे का आधार 1500 करोड़ रुपये लागत वाली वे 231 परियोजनाएं हैं, जिन्हें सात जुलाई को शुरू किया गया। इनमें 250 करोड़ रुपये की लागत वाली 43 परियोजनाएं अकेले उत्तराखंड में आठ स्थानों पर गंगा धाराओं को मलिन होने से बचाने का काम करेंगी। शेष हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के 95 स्थानों पर अपनी भूमिका निभाएंगी। ये परियोजनाएं मुख्यतः घाट नवीनीकरण, नाला निर्माण, नाला सफाई, मलशोधन संयंत्र निर्माण, औद्योगिक कचरा निस्तारण, पौधारोपण तथा जैव विविधता केंद्रों के निर्माण से संबंधित हैं। गंगा की सफाई के लिए नदी के तट पर बसी ऐसी 118 नगरपालिकाओं की पहचान की गई है. गंदे पानी की सप्लाई और ठोस कचरे के निपटान सहित पूरी साफ-सफाई का लक्ष्य हासिल किया जाएगा।

गंगा जल संरक्षण के लिए जैविक खेती 

'नमामि गंगे' मिशन को तेजी से लागू करने के प्रयास में जुटी केंद्र सरकार ने एक और कदम आगे बढ़ाया, जिसके तहत गंगा किनारे जल सरंक्षण के लिए सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा दिया जाएगा। केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास तथा गंगा संरक्षण मंत्रालय ने कृषि तथा किसान कल्याण मंत्रालय के साथ इस बारे में एक करार किया है। जिससे 'नमामि गंगे' कार्यक्रम को तेजी से लागू करने में आ रही कृषि संबंधी अड़चनें भी दूर हो सकेंगी। दरअसल गंगा किनारे के गांवों में जैविक कृषि का विकास करने की योजना को बल देने के लिए परियोजना में प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर एक क्लस्टर का प्रतिनिधित्व करने का प्रस्ताव है। गंगा स्वच्छता के प्रति जागरूकता कार्यक्रमों, स्वयंसहायता समूहों तथा मोबाइल एप के माध्यम से जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जा सकेगा। इस करार के तहत कृषि मंत्रालय रसायन, उर्वरक और कीटनाशकों के संतुलित उपयोग के लिए जागरूकता पैदा करेगा, ताकि गंगा बेसिन में जल संरक्षण के लिए सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा मिले और किसानों को लाभान्वित किया जा सके। 

कई मंत्रालयों से करार 

एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन के रूप में 'नमामि गंगे' कार्यक्रम पर 12,728 करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान है। इसके तहत 7272 करोड़ रुपये की लागत वाली कई परियोजनाएं शुरू भी कर दी गई हैं। नमामि गंगे कार्यक्रम में जल संसाधन मंत्रालय कई मंत्रालयों से पहले ही समझौता कर चुका है। ये मंत्रालय शिपिंग, मानव संसाधन विकास, ग्रामीण विकास, पर्यटन, आयुष, युवा मामले और खेल तथा पेयजल और स्वच्छता से जुड़े हैं। 

गंगोत्री से गंगासागर तक पदयात्रा 

गंगा की स्वच्छता को लेकर जागरूकता फैले, सफाई के कामों में तेजी आए, साथ ही गंगा के किनारे चल रही मौजूदा परियोजनाओं की प्रगति का जायेजा लिया जा सके, इसके लिए केन्द्रीय जल- संसाधन मंत्री उमा भारती गंगोत्री से गंगासागर तक 'पदयात्रा' करेंगी। ये पदयात्रा गंगासागर से अक्तूबर में शुरू होगी।

अविरलता सुनिश्चित हो

पिछले डेढ़ दशक के दौरान किए गए अध्ययनों और जांच समितियों की रिपोर्टों का ये भी कहना है कि अविरलता सुनिश्चित किए बगैर गंगा की निर्मलता सुनिश्चित करना मुश्किल है। ये एक ऐसा पहलू है जो वाकई चिंताजनक है। देश में सबसे ज्यादा बांध गंगा पर ही बने हुए हैं। सबसे ज्यादा 54 परियोजनाएं गंगा पर ही चल रही हैं। ये निश्चित रूप से गंगा की अविरलता को प्रभावित कर रही हैं। ये गंगा को गंगा बनाने वाले बैक्टिरियोफेज व विशेष गुणों वाली गाद से भी वंचित कर रही हैं। हमारे नए पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे नदी के जानकार माने जाते हैं। मंत्री बनने के बाद उन्होंने कहा था, "हर नदी को बहना चाहिए।" अगर वह और सुश्री उमा भारती नदियों के बहते रहने का कोई पुख्ता रास्ता निकाल पाएं तो ये एक बड़ा और सकारात्मक कदम होगा। मध्य प्रदेश में हुए चौथे नदी महोत्सव में सुश्री उमा भारती ने कहा कि किसी भी नदी को सूखने नहीं दिया जाएगा। नदियों को आपस में जोड़कर प्रवाह को सतत् बनाए रखा जाएगा। बांध के लिए नदी को नष्ट नहीं किया जा सकता। बांध बनाने हैं तो नदियों को भी बचाना होगा।

कैसे रोकें कचरा 

इस बीच गंगा के अलावा दूसरी नदियों को भी साफ रखने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने यमुना में पूजा और निर्माण सामग्री तथा अन्य कचरा डाले जाने पर 50 हजार रुपये तक का जुर्माना लगाने का कड़ा निर्देश दिया है। एनजीटी ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से औद्योगिक इकाइयों को नदी में कचरा बहाने की इजाजत नहीं देने को कहा है। नदी अपने-अपने क्षेत्र की सबसे निचली सतह से बहती हैं। इसलिए नदी के बाहर फेंका गया कचरा भी अंततः नदी में ही जा पहुंचता है। इसलिए पूरे देश में नदियों की दुर्दशा हो रही है। बढ़ती पानी की मांग के चलते नदियों को बांधकर धारा को मोडने से उनकी कचरा बहाकर ले जाने की उनकी क्षमता भी कम हो रही है। यह कचरा समुद्र में पहुंच कर समुद्र को भी प्रदूषित ही करेगा। 

विदेशों में भी हो चुका है ऐसा 

वैसे दुनिया में तकरीबन सभी प्रमुख नदियां किसी न किसी समय प्रदूषण का शिकार हुई हैं। लोगों की जागरूकता और लगातार सफाई के चलते आज वो नदियां जरूर हम सबके लिए एक उदाहरण हैं। लंदन की टेम्स और जर्मनी की राइन नदियां भी एक जमाने में प्रदूषण काली लगने लगी थीं। लेकिन आखिरकार उन्हें साफ करने में सफलता हासिल की गई। अब उनकी स्वच्छता के बाद खुद वहां के निवासी ये ध्यान रखते हैं कि इन नदियों को साफ रखने में वे कितना योगदान दे सकते हैं। राइन तो गंगा से आधी लंबाई की नदी है लेकिन इसे साफ करने में 30 वर्ष लग गए थे।

जर्मनी और चीन जैसे देशों में भी नदियां हमसे कहीं ज्यादा आंसू बहाती हैं। हां, यह बात अलग है कि उन देशों में नदियों को उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता। करीब 10 साल पहले जर्मनी की एल्बे नदी विश्व की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदी थी। लेकिन आज उसकी गिनती विश्व की सबसे साफ नदियों में की जाती है। इसकी वजह यह है कि उस देश की सरकार ने नदियों को देश की धरोहर माना हैं। कुछ ही साल पहले की बात है. जब जर्मनी की नदियों में इतनी गंदगी थी कि इसमें रहने वाली मछलियां अल्सर से मर रही थीं। आज ये नदियां एकदम साफ हैं। हालांकि ये भी कहा जाना चाहिए कि जैव विविधता के लिहाज से भारतीय नदियों में नायाब चीजें मिलती हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियों में जहां यूरोप जैसी मछलियां हैं, तो दक्षिण भारत की नदियों में विषुवत रेखा जैसा जीवन लेकिन कचरा इस खूबसूरती को खत्म कर रहा है। 

दिल्ली पहुंचते ही बदरंग यमुना 

जरा सोचिए कि हिमालय से निकलने के बाद शुरुआत में गंगा की तरह ही यमुना भी साफ-सुथरी रहती है लेकिन मैदानी इलाके में पहुंचते ही इसकी हालत बदतर होती चली जाती है। ये गंदी होने लगती है। दिल्ली में वजीराबाद के एक तरफ यमुना  का पानी एकदम साफ और दूसरी ओर एक दम काला। इसी जगह से नदी का सारा पानी उठा लिया जाता है और जलशोधन संयंत्र के लिए भेज दिया जाता है ताकि दिल्ली की जनता को पीने का पानी मिल सके। बस यहीं से इस नदी की बदहाली भी शुरू हो जाती है। यमुना में ऑक्सीजन लेवल शून्य तक पहुंच गया है। टिहरी गढ़‌वाल जिले में यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना उत्तर प्रदेश के प्रयाग में जाकर गंगा नदी में मिलती है। यमुना के बारे में सुश्री उमा भारती का कहना है कि बगैर यमुना को साफ किए स्वच्छ गंगा के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। यमुना को लेकर उनका दावा है कि केंद्र सरकार वर्ष 2018 तक दिल्ली से आगरा तक यमुना को अविरल और निर्मल कर देगी। दिल्ली के नालों को नदी में गिरने से रोका जाएगा। इसके लिए जापान और नीदरलैंड खासतौर पर तकनीक और कर्ज उपलब्ध करा रहे हैं। ये बात भी सही है कि यमुना की सफाई बगैर गंगा साफ नहीं हो सकती। यमुना की सफाई तीन चरणों में होगी। पहले दो चरणों में दिल्ली से लेकर मथुरा तक यमुना को स्वच्छ बनाने का कार्य हो रहा है। तीसरे चरण में आगरा में अगले साल शुरू हो सकता है। यमुना एक हजार 29 किलोमीटर का जो सफर तय करती है, उसमें दिल्ली से लेकर चंबल तक के सात सौ किलोमीटर क्षेत्र में उसमें सबसे ज्यादा प्रदूषण तो दिल्ली, आगरा और मथुरा का है।

हिण्डन और उत्तर भारत की नदियां 

जब हम यमुना की बात कर रहे हैं तो दिल्ली के करीब यमुना में मिलने वाली हिंडन की स्थिति को भी देखना चाहिए। ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वाली महत्त्वपूर्ण नदी है। यह उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर के ऊपरी शिवालिक क्षेत्र से निकलती है और सहारनपुर, मुज्जफरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा जिलों से गुजरती हुई दिल्ली के नीचे यमुना नदी में मिल जाती है। हिण्डन की लम्बाई लगभग 400 किलोमीटर है। इसका जलागम क्षेत्र 7083 वर्ग किलोमीटर है। यह गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र में बहती है। यमुना में मिलकर गंगा के जल को प्रभावित करती है। हिण्डन एक बड़े जलागम क्षेत्र और घनी आबादी वाले औद्योगिक नगरों को जल निकास व्यवस्था प्रदान करती है। पिछले कुछ बरसों से प्रदूषण के कारण ये नदी भी चर्चा में है। गाजियाबाद के ऊपरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर लगे स्टोन क्रशरों (वैध अवैध) के चलते हिण्डन का पानी लाल हो गया है। साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कागज मिलें, चीन मिलें, बूचड़खाने, अल्कोहल बनाने की इकाइयां और रासायनिक इकाइयां भी अपना अपशिष्ट सीधे इसमें डालती हैं। नदी में ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम हो गई है कि इसमें मछलियां नहीं बची हैं। उत्तर प्रदेश सरकार हिण्डन को अमेरिका के वॉटर रिसोर्स ग्रुप के साथ मिलकर साफ कर रही है। उम्मीद की जा रही है कि इसमें बेल्जियम की भी मदद ली जा सकती है। उत्तर भारत की एक और प्रमुख नदी गोमती है, जो अब आमतौर पर गंदे नाले में तब्दील हो गई लगती है। पीलीभीत के गोमद ताल, माधवटांडा से लेकर सीतापुर, हरदोई, लखनऊ बहराइच, जौनपुर व बनारस से पहले कैथीधार पर जाकर गंगा से मिलने वाली गोमती अपने 325 किलोमीटर लम्बे मार्ग में कहीं भी साफ नहीं है। इसकी सफाई के लिए गोमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट परियोजना शुरू की गई है। साथ ही उत्तर प्रदेश की दो अन्य प्रमुख नदियों सरयू और वरुणा की सफाई करने का दावा प्रदेश सरकार करती रही है।

नर्मदा की दुर्दशा 

नर्मदा को उसी तरह पूजा जाता है जिस तरह गंगा को। अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य व सतपुड़ा की पहाड़ियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने वाली नर्मदा का कुल 1,289 किमी. की यात्रा में अथाह दोहन हुआ है। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकल सूरत तक जाकर अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई है। तमसा बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार नर्मदा नदी के तट पर बसे नगरों और बड़े गांवों के पास के लगभग 100 नाले नर्मदा नदी में मिलते हैं। इन नालों में प्रदूषित जल के साथ-साथ शहर का गंदा पानी भी बहकर नदी में मिल जाता है। और तो और ये अपने उद्गम इलाके अमरकंटक में ही खासी प्रदूषित दिखती है। कई स्थानों पर इसकी गंदगी खतरनाक स्तर को पार कर रही है। राज्य सरकार का कहना है कि वह 4000 करोड़ रुपये के बजट से नर्मदा की सफाई को लेकर अभियान चलाएगी। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि हिंदुस्तान का जिस तरह का मौसम चक्र है उसमें हर नदी चाहे वो कितनी भी प्रदूषित क्यों न हो, साल में एक बार बाढ़ के वक्त खुद को फिर से साफ करके देती है, पर इसके बाद हम फिर से इसे गंदा कर देते हैं, तो हमें नदी साफ करने से पहले इसे गंदा करना बंद करना पड़ेगा।

दक्षिण भारत की नदी पम्बा 

भारत की युवा वैज्ञानिक शिली डेविड 2009 से जर्मनी के सेंटर फॉर मरीन ट्रापिकल इकोलाजी में केरल की पम्बा नदी पर शोध कर रही हैं। वे भारत में दम तोड़ रही नदियों में फिर से जान फूंकना चाहती हैं। पानी की क्वालिटी के लगातार गिरावट के चलते हम कह सकते हैं कि भारत में नदियां धीरे-धीरे मर रही हैं। पानी में ऑक्सीजन की मात्रा गिरने से नदी के भीतर चल रहा पारिस्थितिकी तंत्र मरने लगता है। एक हद के बाद वैज्ञानिक भाषा में नदी को मृत घोषित कर दिया जाता है। एक बार कोई नदी मर जाए तो उसे फिर स्वस्थ करने में कम से कम 30 से 40 साल का वक्त लगता है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में औद्योगीकरण की वजह से यूरोप की कई नदियां यह हाल देख चुकी हैं। कुछ नदियों में तो आज तक भी जीवन पूरी तरह नहीं लौट सका है। गंदी होती नदियों का असर मौसम और समुद्र पर भी पड़ता है। 

क्या हो सार्थक हल 

इन नदियों को यदि जल्द से जल्द स्वच्छ न किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब ये नदियां सिर्फ इतिहास के पन्नों पर रह जाएंगी। प्रदूषण का मुख्य कारण है इसमें प्रवाहित किया जाने वाला कचरा और दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक कारण है। प्रतिदिन पूजा के बाद के अवशेष इसमें बहाए जाते हैं। साथ ही स्नान, कपड़े धोने, जानवरों को नहलाने, शवों को जलाकर राख प्रवाहित करने से भी गंदगी लगातार बढ़ रही है। यदि नदियों में कचरा प्रवाहित होना बंद हो जाए तो इनका पानी खुद साफ हो सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक नदियों में एक प्रकार का जीव पाया जाता है जो पत्थरों को जोड़कर है पानी को फिल्टर करता हैं। यह प्रकृति का ही एक स्वरूप है जिससे नदियां स्वयं को स्वच्छ रखती हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें कमी के चलते नदियों में स्वयं की स्वच्छ करने की क्षमता में भी कमी आई है।

नदी के बेसिन का भी कम महत्व नहीं 

नदी के प्रवाह को जीवन देने का असल काम नदी बेसिन की छोटी-बड़ी वनस्पतियां और उससे जुड़ने वाली नदियां, झरने, लाखों तालाब और बरसाती नाले करते हैं। इन सभी को समृद्ध रखने की योजना बनानी चाहिए। हर नदी बेसिन की अपनी एक अनूठी जैव विविधता और भौतिक स्वरूप होता है। ये दोनों ही मिल कर नदी विशेष के पानी की गुणवत्ता तय करते हैं। नदी का ढाल, तल का स्वरूप, उसके कटाव, मौजूद पत्थर, रेत, जलीय जीव-वनस्पतियां मिल कर तय करते हैं कि नदी का जल कैसा होगा। नदी प्रवाह में स्वयं को साफ कर लेने की क्षमता का निर्धारण भी ये तत्त्व ही करते हैं। पर्यावरणविद् कहते हैं गाद-सफाई के नाम पर नदियों के तल को जेसीबी लगा कर छीलने, प्रवाह की तीव्रता के कारण मोड़ों पर स्वाभाविक रूप से बने आठ-आठ फुट गहरे कुंडों को खत्म करने, वनस्पतियों को नष्ट करने से बचना चाहिए। इसका नदियों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। नदी जलग्रहण क्षेत्र में रोजगार के कुटीर और अन्य वैकल्पिक साधनों को लेकर पुख्ता कार्ययोजना होनी चाहिए।

ये भी सोचें 

वर्ष 1932 में पहली बार कमिश्नर हॉकिन्स ने बनारस के नाले को गंगा में मिलाने का एक आदेश दिया। मालवीय जी की असहमति के बावजूद वह लागू हुआ। इससे पहले नदी में नाला मिलाने का कोई उदाहरण शायद ही हो। क्या हमें तय नहीं करना चाहिए कि पहले कचरे को नदी में मिलने ही नहीं दिया जाएगा, कचरे का निस्तारण उसके मूलस्रोत पर ही किया जाएगा? आज हम कचरा-जल नदी में और ताजा जल नहरों में बहा रहे हैं। यह सिद्धांत विपरीत है। इसे उलट दें। ताजे स्वच्छ जल को नदी में बहने दें और कचरा-जल को शोधन के बाद नहरों में जाने दें। यह क्यों नहीं हो सकता? सामुदायिक व निजी सेप्टिक टैंकों पर पूरी तरह कामयाब मलशोधन प्रणालियां भारत में ही मौजूद हैं। बेंगलुरु के हनी सकर्स सेप्टिक टैंक से मल निकाल कर कंपोस्ट में तब्दील कर नदी भी बचा रहे हैं और खेती भी। भारत सरकार के रक्षा अनुसंधान विकास संगठन द्वारा ईजाद मल की जैविक निस्तारण प्रणाली को देखें, पता चलेगा कि हर नई बसावट, सोसाइटी फ्लैट्स तथा व्यावसायिक परिसरों आदि को सीवेज पाइपलाइन से जोड़ने की जरूरत ही कहां है? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।) ईमेल- sanjayratan@gmail.com

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