मध्य भारत में, बुन्देलखण्ड क्षेत्र की जलवायु उष्ण अर्द्धशुष्क है तथा यहाँ पर मुख्यतया लाल व काली मिट्टियाँ पाई जाती हैं। इस क्षेत्र का धरातल ऊँचा-नीचा, कम वर्षा एवं उसका वितरण असामान्य, सिंचाई की कम सुविधायें तथा पेड़-पौधों की वृद्धि के लिये अनुपयुक्त मृदायें हैं। इस क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर वर्षा आधारित खेती होती है तथा फसल उत्पादकता बहुत कम है। वर्षा के मौसम में भी इस क्षेत्र में सूखे की स्थितियाँ उत्पन्न होना सामान्य बात है तथा लाल मिट्टियों में फसलों को सूखे का जल्दी-जल्दी सामना करना पड़ता है। ऐसी दशा में लम्बी अवधि की खरीफ की फसल या कम जल आवश्यकता वाली कम अवधि की रबी की फसल बिना पूरक सिंचाई के लेना असम्भव है। इस क्षेत्र में सिंचाई के लिये भूमिगत जल की उपलब्धता बहुत कम है। परन्तु बहुसंख्यक पहाड़ियों तथा ऊँचे-नीचे धरातल के कारण वर्षाजल संग्रहण एवं उसके पुनः उपयोग की अपार सम्भावनायें हैं। तीव्र वर्षा के कारण काफी मात्रा में अपवाह होता है जिसे एक तालाब में भण्डारण के पश्चात उसके पुनः उपयोग द्वारा फसल की क्रान्तिक अवस्थाओं पर सिंचाई के लिये प्रयोग किया जा सकता है।
तालिका – 1 : विभिन्न जल आपूर्ति क्षेत्रों के लिये तालाब की माप, जल भराव क्षमता एवं लागत। | ||||||||
जल आपूर्ति क्षेत्र (हे.) | तालाब की माप (मी.) | गहराई (मी.) | *जल भराव क्षमता (हे.-सेमी) | **लागत (लगभग रु.) | सिंचित क्षेत्रफल (प्रति सिंचाई की गहराई, 5 सेमी), हे. | |||
ऊपर | नीचे |
| ||||||
ल. | चौ. | ल. | चौ. | |||||
1 | 34 | 17 | 29 | 12 | 2.5 | 10.3 | 38000 | 2 |
2 | 47 | 23.5 | 42 | 18.5 | 2.5 | 21.1 | 75000 | 4 |
3 | 56 | 28 | 51 | 23 | 2.5 | 30.7 | 108000 | 6 |
4 | 60 | 30 | 54 | 24 | 3 | 41.6 | 145000 | 8 |
5 | 66 | 33 | 60 | 27 | 3 | 51.1 | 177500 | 10 |
किनारों का ढाल 1:1, *10 प्रतिशत डेड स्टोरेज, **व्यय का आकलन जनवरी 2011 की दरों पर आधारित। |
खेत की तैयारी –
खेत की तैयारी एक गहरी जुताई के पश्चात दो-तीन बार हैरो चलाकर की जा सकती है। खेत में वर्षा का फालतू पानी न भरे इसके लिये हल्का ढाल देना चाहिए।
उर्वरक –
फसल की पोषक तत्वों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये 20 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए। इन उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा को बुवाई के समय बीज के समीप 5 से 7 सेमी गहराई पर डालना चाहिए। अगर उर्वरकों को बुवाई के समय बीज के नीचे डालना सम्भव न हो सके तो इन्हें खेत में बुवाई के पहले समान रूप से बिखेरकर हल्की जुताई द्वारा 15 से 20 सेमी गहराई तक मिट्टी में मिला देना चाहिए।
बीजोपचार –
बीज को बुवाई के पहले थायराम व बावस्टिन को 2:1 के अनुपात में मिलाकर 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। तत्पश्चात राइजोबियम व स्फुर घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.) कल्चर प्रत्येक की 10 ग्राम मात्रा से प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
बुवाई –
बुवाई के लिये जुलाई का पहला व दूसरा सप्ताह सर्वोत्तम समय है। बुवाई सीडड्रिल द्वारा पंक्तियों में 45 से 60 सेमी की दूरी पर करनी चाहिए तथा बीज की दूरी से 3 से 5 सेमी रखनी चाहिए। एक हेक्टेयर की बुवाई के लिये 80 किलोग्राम बीज पर्याप्त रहता है। बुवाई की गहराई 3 सेमी से अधिक नहीं रखनी चाहिए।
जातियाँ –
जे.एस. 335, पी.के. 1029, एन.आर.सी. 7, एन.आर.सी. 12 आदि इस क्षेत्र के लिये उपयुक्त जातियाँ हैं।
सिंचाई –
लम्बी अवधि के सूखे के दौरान पूरक सिंचाई संग्रहित वर्षाजल द्वारा करनी चाहिए। फली भरने की अवस्था के दौरान सूखे का फसलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, अतः एक संचाई इस समय पर करनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण –
प्रथम गुड़ाई, बुवाई के 20 से 25 दिन बाद तथा दूसरी गुड़ाई 40 से 45 दिन बाद करने से फसल के खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है अथवा रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिये खरपतवारनाशी की आवश्यक मात्रा को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में नैपसैक या फुट स्प्रेयर से फ्लैट फैन नोजल द्वारा समान रूप से छिड़कना चाहिए। पैन्डीमिथलीन 1.0 लीटर सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से अंकुरण के पहले या इमाजेथापायर 0.01 लीटर सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से अंकुरण के पश्चात (बुवाई से 15 से 20 दिन बाद) घास व चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिये प्रयोग करना चाहिए।
बीमारी नियंत्रण –
सोयाबीन पीले मोजेक रोग के लिये संवेदनशील होती है जो सफेद मक्खी नामक छोटे कीट द्वारा फैलता है। पीले मोजेक के नियंत्रण के लिये मेटासिस्टाक्स 25 ई.सी. 1.0 लीटर तथा थायोडान 35 ई.सी. की 1.0 लीटर मात्रा को 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 20,30,40 और 50 दिन बाद छिड़काव करें।
कीट नियंत्रण –
सोयाबीन की फसल को रस चूसक तथा पत्ती को मोड़ने वाले कई प्रकार के कीट हानि पहुँचाते हैं। तना भेदक मक्खी के नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी को 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अन्तिम जुताई के समय समान रूप से खेत की मिट्टी में मिलाना चाहिए। कीट नियंत्रण का उपाय जो सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिये बताया गया है उससे फसल पर लगने वाले अन्य कीटों को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
कटाई –
फसल पकने पर, पौधों की सभी पत्तियाँ पीली पड़कर नीचे गिर जाती हैं और केवल तने पर फलियाँ लगी रह जाती हैं, इस अवस्था पर फसल की कटाई की जानी चाहिए।
गहाई –
फसल की गहाई सावधानीपूर्वक करनी चाहिए क्योंकि गहाई के दौरान डण्डों की तेज चोट से बीज के छिलके को नुकसान पहुँच सकता है जिससे बीज की गुणवत्ता घट सकती है।
खेत की तैयारी –
भूमि की अच्छी तैयारी के लिये पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करके तत्पश्चात दो बार क्रास हैरो चलाना चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पटेला लगाना चाहिए ताकि मिट्टी भुरभुरी एवं खेत समतल हो जिससे अच्छे अंकुरण के लिये समुचित नमी का संरक्षण हो सके।
बुवाई का समय –
तोरिया की बुवाई सितम्बर मध्य से सितम्बर के अन्तिम सप्ताह के बीच कर देनी चाहिए।
बीज की दर एवं दूरी –
5 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर क्षेत्र की बुवाई के लिये पर्याप्त रहता है। इसे 30 सेमी की दूरी पर पंक्तियों में 3.0 सेमी की गहराई पर बोना चाहिए। तत्पश्चात पौधे से पौधे के बीच 10 सेमी की उचित दूरी बनाये रखने के लिये, अतिरिक्त पौधों को बुवाई के 3 सप्ताह बाद खेत से निकालना चाहिए। बुवाई के पहले बीज को थायराम से 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए।
उर्वरक –
तोरिया की फसल के लिये 60 किलोग्राम नत्रजन (नाइट्रोजन), 40 किलोग्राम फास्फोरस तथा 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन (नाइट्रोजन) की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा को अन्तिम जुताई के समय समान रूप से खेत में छिड़क कर मिट्टी में मिलाना चाहिए। नत्रजन (नाइट्रोजन) की शेष आधी मात्रा को पहली सिंचाई के बाद खेत में समान रूप से छिड़ककर देना चाहिए। फसल की सल्फर की अधिक मात्रा की आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए, नत्रजन (नाइट्रोजन) एवं फास्फोरस को क्रमशः अमोनियम सल्फेट तथा सिंगल सुपर फास्फेट द्वारा देना चाहिए।
सिंचाई –
फसल की एक पूरक सिंचाई बुवाई के 30 दिन बाद संग्रहित वर्षाजल से की जानी चाहिए।
जातियाँ –
क्षेत्र के लिये संस्तुत जातियाँ टाइप 9, जे.टी. 1 एवं संगम हैं।
खरपतवार नियंत्रण –
फसल की पहली गुड़ाई, बुवाई के 20 से 25 दिन बाद तथा दूसरी 40 से 45 दिन बाद करने से अधिकतर खरपतवार नियंत्रित हो जाते हैं। खरपतवारों को रासायनिक विधि द्वारा भी नियंत्रित किया जा सकता है इसके लिये पैन्डीमिथलिन 1.0 लीटर सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण के पहले छिड़कना चाहिए।
बीमारी नियंत्रण –
आल्टरनेरिया ब्लाइट तोरिया की प्रमुख बीमारी है। इस बीमारी में गोल व काले रंग के धब्बे पत्तियों, तने और फलियों पर दिखाई देते हैं। इस बीमारी के नियंत्रण के लिये डायथेन एम-45 की 2 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से पौधों पर बीमारी के लक्षण दिखाई देने पर, 10 दिन के अन्तराल पर छिड़कना चाहिए।
कीट नियंत्रण –
माहू तोरिया को नुकसान पहुँचाने वाला प्रमुख कीट है तथा इसके प्रकोप से उत्पादन बुरी तरह से प्रभावित होता है। इसकी रोकथाम के लिये मेटासिस्टाक्स 25 ई.सी. की 1.0 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
कटाई एवं मड़ाई –
जैसे ही फलियों का रंग पीला कत्थई हो जाये, फसल को काट लेना चाहिए। कटाई में देरी करने पर फलियों के दाने झड़ने की सम्भावना रहती है। अतः नुकसान से बचने के लिये फलियों के खुलने से पहले ही फसल को काट लेना चाहिए। फसल की गहाई बैलों या ट्रैक्टर द्वारा की जा सकती है।
खेत की तैयारी –
अच्छी तरह से तैयार खेत में उपयुक्त नमी होने से फसल का अच्छा अंकुरण होता है।
बुवाई का समय -
सरसों की बुवाई अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े तक कर देनी चाहिए।
बीज की दर एवं बुवाई की विधि –
खेत में आवश्यक पौध संख्या प्राप्त करने के लिये 5 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर के लिये पर्याप्त रहता है। बुवाई से पहले बीज को थायराम से 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बुवाई पंक्तियों में 30 सेमी की दूरी पर करनी चाहिए तथा पंक्तियों में पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेमी रखनी चाहिए। पौधों में उचित दूरी बनाये रखने के लिये खेत से अतिरिक्त पौधों को बुवाई के 3 सप्ताह के बाद उखाड़कर बाहर फेंक देना चाहिए।
उर्वरक –
फसल के लिये 80 किलोग्राम नत्रजन (नाइट्रोजन), 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालना चाहिए। उर्वरकों के प्रयोग की विधि एवं समय तोरिया की फसल की भाँति है।
सिंचाई –
संग्रहित वर्षाजल से एक पूरक सिंचाई शाखायें फूटते समय बुवाई के 30 दिन बाद करनी चाहिए।
जातियाँ –
वरुणा, पूसा बोल्ड, पूसा जय किसान एवं रोहिणी क्षेत्र के लिये उपयुक्त हैं।
फसल सुरक्षा –
तोरिया की भाँति।
कटाई एवं गहराई –
तोरिया की तरह।
तालिका – 2 : पूरक सिंचाई का उपज पर प्रभाव | ||
उपचार | उपज | |
किलोग्राम/हे. | पूरक सिंचाई द्वारा वृद्धि(%) | |
बिना सिंचाई के सोयाबीन की फसल | 644 | - |
सोयाबीन की फसल एक पूरक सिंचाई फली भरने की अवस्था पर करने पर | 901 | 40 |
बिना सिंचाई के तोरिया की फसल | 254 | - |
तोरिया की फसल एक पूरक सिंचाई शाखाएँ फूटने की अवस्था पर करने पर | 715 | 180 |
बिना सिंचाई के सरसों की फसल | 233 | - |
सरसों की फसल पलेवा के बाद | 538 | 130 |
सरसों की फसल पलेवा एवं एक पूरक सिंचाई शाखाएँ फूटने की अवस्था पर करने पर | 1194 | 411 |
तालिका – 3 : आर्थिक मूल्यांकन | |
उपचार | बिना सिंचाई की तुलना में अतिरिक्त शुद्ध लाभ (रु./हे.) |
बिना सिंचाई के सोयाबीन की फसल | - |
सोयाबीन की फसल एक पूरक सिंचाई फली भरने की अवस्था पर करने पर | 4,703 |
बिना सिंचाई के तोरिया की फसल | - |
तोरिया की फसल एक पूरक सिंचाई शाखाएँ फूटने की अवस्था पर करने पर | 9,652 |
बिना सिंचाई के सरसों की फसल | - |
सरसों की फसल पलेवा के बाद | 6,674 |
सरसों की फसल पलेवा एवं एक पूरक सिंचाई शाखाएँ फूटने की अवस्था पर करने पर | 22,623 |
आर्थिक मूल्यांकन के लिये जनवरी 2011 में प्रचलित दरें ली गई हैं |
केन्द्राध्यक्ष
भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र
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