कृषि

समस्याग्रस्त मृदाओं का सुधार एवं प्रबंधन

Author : वीरेन्द्र कुमार

देश की बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए लवणीय व क्षारीय भूमियों को सुधार कर खेती योग्य बनाने की नितांत आवश्यकता है। इन समस्याग्रस्त भूमियों को सुधार कर फसलोत्पादन के अंतर्गत लाने से जहां एक ओर अतिरिक्त खाद्य व खाद्य पदार्थों की मांग पूरी करने में मदद मिलेगी, वहीं दूसरी तरफ क्षारीय भूमियों के सुधार से गांवों में प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, जल, वातावरण व अनेक अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के फलस्वरूप बेहतर पर्यावरण प्रदान किया जा सकता है। लवणीय व क्षारीय भूमियां प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व राजस्थान इत्यादि राज्यों में फैली हुई हैं। इस प्रकार की भूमियों में फसल उत्पादन न के बराबर होता है।हमारे देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से लगभग 143 मिलियन हेक्टेयर पर खेती की जाती है जबकि लगभग 117 मिलियन हेक्टेयर परती एवं बंजर भूमि है। देश के विभिन्न भागों में 6.7 मिलियन हेक्टेयर से भी अधिक भूमि लवण प्रभावित है जिसमें से लगभग 56 प्रतिशत भाग क्षारीय है। अभी तक लगभग 1.74 मिलियन हेक्टेयर ऊसर भूमि का ही सुधार किया जा सका है। इन मृदाओं की ऊपरी सतह पर सफेद लवणों की परत फैली रहती है। जल निकास का उचित प्रबंध न होने से वर्षा ऋतु में इन भूमियों में पानी भर जाता है। परिणामस्वरूप अवांछित खरपतवारों, घासों व हानिकारक झाड़ियों के फैलाव को बढ़ावा मिलता है। सूखने पर इन भूमियों की सतह बहुत कठोर हो जाती है जिसके कारण पौधों की जड़ों का विकास व वृद्धि नहीं हो पाती है। इस तरह की भूमियां छोटे किसानों के पास हैं जो समाज के अनुसूचित जाति, जनजाति के हैं या आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। लवणीय व क्षारीय भूमि सुधार कार्यक्रम से गरीबी उन्मूलन के साथ-साथ समाज में समानता की भावना भी पैदा होती है।

लवणीय भूमि

सारणी

-

1:

लवणीय व क्षारीय भूमियों का तुलनात्मक अध्ययन

क्र.सं.
विशेषताएं
लवणीय भूमि
क्षारीय भूमि
1.
सोडियम लवणों की मात्रा
विनिमयशील सोडियम 15 प्रतिशत से कम
विनिमयशील सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक
2.
वि़द्युत चालकता
4.0 मिलीम्होज से अधिक
4.0 मिलीम्होज से कम
3.
पीएच मान
8.5 से कम
8.5 से अधिक
4.
संरचना
हल्की धूल की तरह
कठोर व भौतिक संरचना क्षीण
5.
ऊपरी सतह का रंग
सफेद रेह की तरह
राख व काला रंग की तरह
6.
सुधार के तरीके
लीचिंग व उचित जल निकास
पायराइट एवं जिप्सम का प्रयोग
7.
फसलें
लवण सहनशील फसलें उगाना
प्रायः फसलों के लिए अयोग्य
8.
सुधार
आसानी से
कठिनाई से

क्षारीय भूमि

लवणीय एवं क्षारीय भूमि निर्माण के प्रमुख कारण

लवणीय भूमि का सुधार

निक्षालन (लीचिंग)


इस विधि के अंतर्गत सर्वप्रथम खेत को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर मेड़बंदी कर लेते हैं। इसके बाद खेत में 10-15 सेमी तक पानी भर देते हैं जिससे घुलनशील लवण जल में घुलकर पादप जड़ क्षेत्र से नीचे चले जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों में अपनानी चाहिए जिनका जल स्तर नीचा हो। इस क्रिया के लिए गर्मी का मौसम उत्तम माना जाता है। जिन मृदाओं की निचली सतहों में कठोर परत होती है, वहां इस विधि को नहीं अपनाना चाहिए।

जल निकास द्वारा


जिन क्षेत्रों में जल निकास की उचित व्यवस्था नहीं होती है वहां पर लवणीय मृदाओं का निर्माण हो जाता है। अतः इन क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक पानी को नालियां व नाले बनाकर खेतों से बाहर निकाल देना चाहिए। जहां पर भूमि में सख्त परतें हो या भूमिगत जलस्तर ऊंचा हो तो वहां पर इस विधि का प्रयोग करना चाहिए।

खुरचना


जब खेतों में हानिकारक लवण छोटे-छोटे टुकड़ों में परत के रूप में एकत्रित हो जाएं तो उन्हें खुर्पी या कसोले की मदद से खुरच कर खेतों से बाहर फेंक देना चाहिए।

खाई खोदकर


इस विधि में संपूर्ण खेत में एक निश्चित अंतराल पर खाइयां खोदते हैं। खेत के एक किनारे पर पहली खाई खोदते हैं। इस खाई की मिट्टी को मेड़ के रूप में खेत के चारों ओर डाल देते हैं। फिर दूसरी खाई की मिट्टी को पहली खाई में डालते हैं। इस प्रकार ऊपर की लवणयुक्त मिट्टी खाई के नीचे और नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है। जहां पर मजदूर सस्ते व आसानी से उपलब्ध हो उन क्षेत्रों में यह विधि अपनानी चाहिए।

घुलनशील लवणों को ऊपरी सतह से बहाना


इस विधि में खेतों में पर्याप्त पानी भर दिया जाता है जिससे ऊपरी सतह में मौजूद लवण पानी में घुल जाते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहां मृदा के नीचे अधिक गहराई पर कठोर परत होती है। इस प्रकार खेतों में पानी कुछ दिनों तक भरकर रखने से अधिकांश लवण पानी में घुल जाते हैं। इसके बाद इस गंदले पानी को नालियों के द्वारा खेतों से दूर नदी-नालों में निकाल दिया जाता है।

अद्योभूमि की कठोर परतों को तोड़ना


जिन भूमियों में बहुत ही कम गहराई पर सख्त परतें हो तो वहां पर आधुनिक कृषि यंत्रों जैसे डिस्क प्लो व सब सॉयलर की मदद से परतों को तोड़कर लवणीय भूमियों को सुधारकर खेती योग्य बनाया जा सकता है। यह कार्य मई के महीने में करना उत्तम रहता है।

क्षारीय भूमियों का सुधार

जिप्सम का प्रयोग


क्षारीय भूमियों के सुधार हेतु जिप्सम का प्रयोग अत्यधिक लाभदायक पाया गया है। इन भूमियों में विनिमयशील सोडियम की अधिकता होती है। सर्वप्रथम भूमि की जिप्सम मांग की जांच के बाद अच्छी गुणवत्तायुक्त बारीक जिप्सम को मृदा में छिटककर सतह से 10 सेमी गहराई तक जुताई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए। जिप्सम का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही करें। जहां मिट्टी में कैल्शियम की मात्रा कम हो, वहां ऊसर भूमि का सुधार जिप्सम से करें। इसके लिए मृदा परीक्षण विभिन्न राज्यों में स्थित कृषि विश्वविद्यालयों की मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं में मुफ्त कराया जा सकता है। इसके अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान स्थित मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में भी यह सुविधा उपलब्ध है। राजस्थान राज्य में जिप्सम के विशाल भंडार होने के कारण इसकी उपलब्धि बहुत आसान है। साथ ही यह बहुत सस्ता भी है।

पायराइट का प्रयोग


क्षारीय भूमि सुधारने के लिए पायराइट का भी प्रयोग किया जाता है। इसकी मात्रा मृदा के पीएच एवं उसकी सघनता पर निर्भर करती है। सामान्यतः 10 से 15 टन पायराइट प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। जिन भूमियों में कैल्शियम क्लोराइड लवणों की अधिक मात्रा पाई जाती है, उन मृदाओं के सुधार हेतु पायराइट का प्रयोग उपयोगी सिद्ध हुआ है।

लवणीय व क्षारीय भूमियों में फसल प्रबंधन

सारणी-

2:

लवणीय व क्षारीय भूमियों के लिए सहनशील फसलें

कम सहनशीलता
मध्यम सहनशीलता
उच्च सहनशीलता
सेम, क्लोवर, नाशपाती, सेब, संतरा, ग्रेपफ्रूट, बेर, मूली, सेलेरी, नींबू
गेहूं, धान, मक्का, ज्वार, सूरजमुखी, स्वीट क्लोवर (सफेद), रिजका, अनार, अंगूर, खरबूजा, टमाटर, बंद गोभी, फूल गोभी, सलाद, गाजर, प्याज, मटर, खीरा
जौ, चुकंदर, कपास, खजूर, पालक व मैथी

निष्कर्ष

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