दिल्ली की किसी सरकार को कभी चिंता नहीं रही कि जिस दिल्ली में आजादी के वक्त लगभग 350 तालाब थे; झीलें, बावड़ियां और हजारों कुएं थे। उनमें से बचे-खुचे जल ढांचों को बचाकर रखा जाए। जिस यमुना तट के मोटे स्पंजनुमा रेतीले एक्यूफर में आधी दिल्ली को पानी पिलाने की क्षमता लायक पानी संजोकर रखने की क्षमता है, उसे शुद्ध, कब्जामुक्त व संजोकर रखने की चिंता भी कभी नहीं की। वहां उसने अक्षरधाम मंदिर, खेलगांव, माॅल, मेट्रो माॅल, डिपो और क्वार्टर बना दिए। दिल्ली एक परजीवी शहर है। खाना-पानी-आबोहवा-बिजली.... जीवन जीने की हर जरूरी चीज के लिए वह दूसरे राज्यों पर निर्भर है। अब चूंकि दिल्ली के पास पैसा है। अतः वह निश्चिंत है कि उसे जो चाहिए, वह पैसे से सब कुछ खरीद लेगा। इसीलिए दिल्ली खुमारी में रहती है। पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली के वोटरों ने अपनी यह खुमारी तोड़ी जरूर; बिजली-पानी पर रियायत के वादे पर सियासत में नया बुलबुला भी पैदा किया, लेकिन दिल्ली को सस्ता, शुद्ध और पर्याप्त पानी पिलाने का इंतजाम करने से पहले ही यह बुलबुला फूट गया। केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दे दिया।
आम आदमी पार्टी की इस सरकार ने रियायती बिल का जो फार्मूला पेश किया, उस पर हम आज भी जितनी चाहे बहस कर सकते हैं। किंतु हकीकत यही है कि अभी दिल्ली को सस्ता पानी पिलाने के दो ही स्रोत है - भूजल और यमुना जल। इन्हें शुद्ध और समृद्ध किए बगैर दिल्ली को सस्ता और शुद्ध पानी असंभव है। गर्मियां आ गई हैं, लेकिन इसकी तैयारी कहीं दिखाई नहीं देती। बेपानी नल और बदबूदार पानी आपूर्ति की तैयारी अभी से दिखाई देने लगी है।
इस हकीकत से मुंह मोड़ना भी ठीक नहीं कि दिल्ली का वर्तमान जलचित्र चारो खाने चित्त है। जलापूर्ति की गुणवत्ता, मात्रा, जलोपयोग में अनुशासन और जल संरचनाओं के ढांचे... चारों पर चुनौतियां चौतरफा हैं। बिना मोटर चालू किए 70 प्रतिशत उपभोक्ता के नल में पानी नहीं पहुंच पाता। 35 प्रतिशत पानी अभी ही पाइपों में खींचकर.. रिसकर बर्बाद होता है। टंकी भर जाने पर पानी बहकर बर्बाद होने से रोकने के लिए 90 प्रतिशत घरेलू टंकियों में कोई इंतजाम नहीं हैं।
रीडर की मिलीभगत से कितने ही कनेक्शन बिना मीटर चलते हैं। नजफगढ़, महरौली, जसोला, गाजीपुर समेत तमाम ग्रामीण इलाकों का पानी खींचकर मुनाफाखोर मुनाफा कमाने में लगे हैं। बोर से निकाले पानी को टैंकर, ठंडे केन व बोतलों में भरकर बेचा जाता है। कई जगह तो सीधे जलबोर्ड की पाइपों में ही आर ओ व मोटर लगा कर निकाले गंगाजल को बेचा जा रहा है। दूसरी तरफ लोग बिलिंग व जलबोर्ड के भ्रष्टाचार से परेशान हैं। किंतु क्या इन सारी परेशानियों से निजात पाने का रास्ता सिर्फ निजीकरण ही है? विचार कीजिए!
1910 के दशक में दिल्ली एक गीत गाया जाता था -
“फिरंगी नल न लगायो।’’
यह सच है कि यह गीत गाने वाली दिल्ली पीने के पानी के लिए आज पूरी तरह नलों की ओर ही निहारती है। सरकार की भी कोशिश है कि नलों में पानी कैसे आए। उसने भी जल देने वाले मूल स्रोतों की ओर निहारना छोड़ दिया है। लिहाजा, हमारे बच्चे भी यही समझते हैं कि नल ही हमें पानी देता है।
दरअसल, दिल्ली की किसी सरकार को कभी चिंता नहीं रही कि जिस दिल्ली में आजादी के वक्त लगभग 350 तालाब थे; झीलें, बावड़ियां और हजारों कुएं थे। उनमें से बचे-खुचे जल ढांचों को बचाकर रखा जाए। जिस यमुना तट के मोटे स्पंजनुमा रेतीले एक्यूफर में आधी दिल्ली को पानी पिलाने की क्षमता लायक पानी संजोकर रखने की क्षमता है, उसे शुद्ध, कब्जामुक्त व संजोकर रखने की चिंता भी कभी नहीं की। वहां उसने अक्षरधाम मंदिर, खेलगांव, माॅल, मेट्रो माॅल, डिपो और क्वार्टर बना दिए। यदि दिल्ली अपनी नदी की चिंता करनी शुरू कर दे।
ठोस कचरे व सीवर का निपटारे व पुर्नोपयोग का सर्वश्रेष्ठ इंतजाम कर ले। उसका प्रवाह बनाकर रखने में सहयोग दे। जंगल व जलढांचों की कद्र करनी शुरू कर दे। निराई-गुड़ाई-जुताई होते रहने से जमीन का मुंह खुल जाता है। जलसंचयन क्षमता बरकरार रहती है। अतः हरित क्षेत्र में यह होते रहने दे। यमुना तट पर जैवविविधता पार्क बनाने की बजाए किसानों को रसायनमुक्त खेती करने दें। सभी सरकारी-गैर सरकारी बड़ी इमारतोें... परिसरों में वर्षाजल संचयन सुनिश्चित करे।
दिल्लीवासी पानी के उपयोग में अनुशासन बरतें। उसे बर्बाद न होने दें तो दो राय नहीं दिल्ली पर लगा परजीवी का धब्बा मिट जाएगा। दिल्ली एक दिन खुद-ब-खुद पानीदार हो जाएगी।कभी महरौली से उजड़कर तुगलकाबाद और तुगलकाबाद से उजड़कर यमुना किनारे बसने को मजबूर हुई दिल्ली भविष्य में उजड़ने से बच जाएगी। किंतु हमारी अब तक की सरकारों ने यह नहीं चाहा।क्यों?
सरकारें चाहती हैं कि जिस तरह कभी नदी रही साबी को आज नजफगढ़ नाले के रूप में स्वीकार लिया है, उसी तरह यमुना को एक नाले के रूप में स्वीकार लें। लोगों को भूजल स्रोतों से दूर किया जाए, पूरी तरह पाइपलाइनों और बाजार के पानी पर निर्भर बनाया जाए।
‘पीपीपी’ के तहत् दिल्ली की जलापूर्ति पूरी तरह निजी कंपनियों को सौंप दी जाए। इसकी तैयारी तीन साल पहले ही शुरू कर दी गई थी दिल्ली की सरकार ने 28 मई, 2011 को ही दिल्ली में जल नियामक आयोग गठित करने के संकेत दे दिए थे। तभी तय हो गया था कि दिल्ली जलबोर्ड जलापूर्ति का निजीकरण करेगा।
इस निर्णय के साथ ही दिल्ली जल बोर्ड का मुखिया बदल दिया गया था। जलनीति बनाने का काम शुरू हो गया था। दिल्ली जलबोर्ड ने पुराने दस्तावेजों को ठिकाने लगाने का काम जनवरी, 2012 से शुरू कर दिया गया था।
बिल में प्रतिवर्ष 10 फीसदी वृद्धि का कायदा बनाकर निजी को फायदा पहले ही सुनिश्चित कर ही दिया गया था। दिखावे के लिए कहा गया कि यह सारी कवायद दिल्ली को 24 घंटे जलापूर्ति के लिए की जा रही है। दिल्ली में बिजली का निजीकरण करने से पहले भी यही कुछ कहा और किया गया था। पानी... बिजली से ज्यादा जरूरी है। अतः कंपनियां, पानी के लिए कुछ भी कीमत अदा करने की मजबूरी का फायदा नहीं उठाएंगी; इस बात की गारंटी कौन दे सकता है?
चित्र साफ है। जलशोधन के सरकारी संयंत्रों को कंपनियों को सौंपने का काम शुरू हो चुका है। सार्वजनिक स्थानों पर सार्वजनिक सरकारी नल और गर्मी में सरकारी प्याऊ की सुविधा पिछड़ेपन की निशानी मान हटा दी गई है। बिना अनुमति बोरवेल-टयूबवेल लगाने वालों से पुलिसवाले आकर घूस वसूलते ही हैं। हो सकता है कि निकट भविष्य में दिल्लीवासियों को भूजल की निकासी पर भी अाधिकारिक रूप से शुल्क देना पड़े। मीटर बदलने का एक न्यायिक आदेश लेकर पिछले एक साल से झपटमार ठीक दोपहरी में घर खटखटाने लगे हैं। नियमन की आड़ में यह झपटमारी आगे और बढ़ेगी। झगड़े बढेंगे ही। कीमतें कई गुना हो जाएगी। दिल्ली दिलवालों की, पानी पैसेवालों का। पैसा दो, पानी लो; नहीं तो प्यासे मरो।
यदि दिल्ली वासी नहीं चेते तो आगे यही होगा। अतः जरूरी है कि दिल्ली के मतदाता हर चुनाव से पहले अपने जनप्रतिनिधियों के समक्ष दिल्ली का अपना पानी सुनिश्चित करने का पब्लिक एजेंडा पेश करें। ‘पब्लिक वाटर मैनीफैस्टो’ बनाएं। अपने-अपने संसदीय क्षेत्र का लोक जल घोषणापत्र पेश कर सहमत उम्मीदवारों से शपथ पत्र लें। उन्हे समर्थन दें और उसे पूरा करने के लिए अगले पांच साल अपने जनप्रतिनिधि को विवश करें। क्या दिल्लीवासी यह करेंगे?