सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केंद्र तथा राज्य सरकारों को कई बार फटकार के बाद भी कुछ खास असर होता नहीं दिख रहा है। करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी यमुना नदी की गंदगी साफ नहीं हो पा रही है। राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की जिम्मेदारी मिलने के बाद दिल्ली सरकार का खेल शुरू होने से पहले यमुना को टेम्स नदी की तरह साफ-सुथरी बनाने के दावे के बावजूद यमुना में सफाई कहीं नजर नहीं आई। तमाम दावा करने वाली हरियाणा, दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश की सरकारें कारखानों और टेनरियों का जहरीला कचरा सीधे यमुना में गिरने से नहीं बचा पा रही हैं।
पिछले साल हरियाणा में कारखानों से छोड़े गए जहरीले पानी की वजह से यमुना में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया था कि उसे पीने लायक बनाना कठिन हो गया था। नतीजतन, दो दिन तक दिल्ली में पेयजल आपूर्ति ठप रही। मगर दोषी कारखानों के खिलाफ कड़े कदम नहीं उठाए गए। गंगा और यमुना के प्रदूषण को लेकर सरकारों को खुद चिंतित होना चाहिए। पर वे पर्यावरण के प्रति इस कदर संवेदनहीन हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को बार-बार उन्हें निर्देश देना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय पहले भी यमुना-प्रदूषण को लेकर केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों को कई बार फटकार लगा चुका है। करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपए बहाए जा चुकने के बावजूद यमुना की गंदगी दूर नहीं हो पाई है। इसलिए अब उसने दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों से पूछा है कि पिछले अठारह सालों में इस दिशा में उन्होंने क्या काम किया। इस मसले पर अदालत ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली जल बोर्ड के एक-एक अधिकारी की दो सदस्यीय समिति भी गठित कर दी है। यह समिति जांच करेगी कि इन सरकारों ने यमुना की सफाई के मामले में क्या प्रयास किए। इसके अलावा, समिति केंद्र सरकार की यमुना कार्य-योजना के तहत हुए कामकाज और यमुना विकास प्राधिकरण की गतिविधियों की जानकारी भी अदालत को सौंपेगी।
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी मिलने के बाद दिल्ली सरकार ने दावा किया था कि खेल शुरू होने से पहले वह यमुना को टेम्स की तरह साफ-सुथरी बना देगी। इसे लेकर कई सुझाव जुटाए और नक्शे तैयार किए गए। इस मद में अतिरिक्त धन का आबंटन किया गया। पुराने जलशोधन संयंत्रों की मरम्मत, नए संयंत्र लगाने और नालों की सफाई-मरम्मत आदि का काम जोर-शोर से शुरू किया गया। मगर यमुना में सफाई कहीं नजर नहीं आई। यमुना के बुरी तरह प्रदूषित हो जाने की वजहें किसी से छिपी नहीं हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कारखानों, टेनरियों आदि से निकलने वाले जहरीले पानी और नालों के जरिए भारी मात्रा में कचरा यमुना में गिरने के तथ्य उजागर कर चुके हैं। फिर भी उन कारखानों पर नकेल कसने की कोई कारगर पहल नहीं हुई।
खुले नालों को ढकने का काम अधर में रहा। तमाम दावों के बावजूद दिल्ली सरकार अभी तक घरेलू कचरा उठाने और नालों की साफ-सफाई का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं कर पाई है। यही वजह है कि जो जलशोधन संयंत्र लगाए भी गए, जल्दी ही बंद पड़ गए। जब सरकार कचरा उठाने जैसे मामूली काम में इस कदर विफल नजर आती है तो कारखानों से निकलने वाले कचरे को रोकने के मामले में कितना संजीदा होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। अठारह साल और साढ़े चार हजार करोड़ रुपए कम नहीं होते, मगर इसका कोई नतीजा नजर नहीं आता तो इससे सरकारों और यमुना सफाई अभियान से जुड़े महकमों की कमजोर इच्छाशक्ति का ही पता चलता है। इसी तरह गंगा कार्य-योजना को शुरू हुए पचीस साल से ऊपर हो गए, इस पर हजारों करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। मगर हाल में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक गंगा की हालत यह है कि इसके किनारे रहने वालों में घातक बीमारियां बढ़ रही हैं।
यह छिपी बात नहीं है कि राजनीतिक पहुंच के चलते या प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों से मिलीभगत करके बहुत सारे कारखाना मालिक नदियों में जहरीला पानी बहाने की छूट हासिल कर लेते हैं। पिछले साल हरियाणा में कारखानों से छोड़े गए जहरीले पानी की वजह से यमुना में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया था कि उसे पीने लायक बनाना कठिन हो गया था। नतीजतन, दो दिन तक दिल्ली में पेयजल आपूर्ति ठप रही। मगर दोषी कारखानों के खिलाफ कड़े कदम नहीं उठाए गए। गंगा और यमुना के प्रदूषण को लेकर सरकारों को खुद चिंतित होना चाहिए। पर वे पर्यावरण के प्रति इस कदर संवेदनहीन हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को बार-बार उन्हें निर्देश देना पड़ रहा है।