बीस लाख वर्ष पूर्व जब मानव का उद्भव हुआ था, तब प्राकृतिक संसाधन मानव की जरूरतों को देखते हुए प्रचुर मात्र में उपलब्ध थे। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, अत्यधिक मात्रा में भोजन तथा आश्रय के लिये संसाधनों की जरूरत पड़ी और तब इन्हें पर्यावरण से अधिकाधिक रूप से प्राप्त किया गया। इस पाठ में आप जानेंगे कि मानव क्रियाकलापों के चलते किस प्रकार से प्राकृतिक संसाधनों का अवक्रमण हुआ और जो अब समाप्ति के कगार पर पहुँच गए हैं।
इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः
- पर्यावरण अवक्रमण की अवधारणा को और उन कारकों को जान पायेंगे जिनके कारण यह अवक्रमण होता है;
- प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किस प्रकार पर्यावरण अवक्रमण को बढ़ावा देता है;
- जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरणीय अवक्रमण के बीच सम्बन्धों की व्याख्या कर पाएँगे;
- शहरीकरण और पर्यावरण ह्रास के बीच सम्बन्धों की व्याख्या कर पाएँगे;
- वनोन्मूलन के कारण और प्रभावों का वर्णन कर सकेंगे;
- अत्यधिक खनन और पर्यावरणीय अवक्रमण के बीच सम्बन्ध स्थापित कर सकेंगे;
- जीवाश्मीय ईंधन का अर्थ और पर्यावरण पर उनके प्रयोग के प्रभावों का स्पष्टीकरण कर सकेंगे;
- कृषि के आधुनिकीकरण से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा कर सकेंगे;
- पर्यावरण के अजैविक (वायु, जल और मृदा) और जैविक (पौधों और प्राणियों) पर औद्योगिकीकरण के प्रभावों की चर्चा कर सकेंगे;
- स्थानीय, क्षेत्रीय और भूमंडलीय अवरोधों द्वारा होने वाले पर्यावरण अवक्रमण की सूची बना सकेंगे;
- जीवन पर पर्यावरण अवक्रमण के प्रभावों का वर्णन कर सकेंगे।
तेजी से बढ़ती जनसंख्या द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग करने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हो रहा है। इस अत्यधिक दोहन का नतीजा मृदा, जैव विविधता में कमी और भूमि, वायु और जलस्रोतों के प्रदूषण के रूप में दिखायी पड़ रहा है। अत्यधिक दोहन के कारण पर्यावरण अवक्रमण के चलते यह मानव जाति और उसकी उत्तरजीविता के लिये अनेक खतरे उत्पन्न कर रहा है।
प्रकृति में पारिस्थितिकी संतुलन पाया जाता है। विभिन्न जीवों के क्रियाकलाप प्रायः संतुलित होते हैं। अजैविक और जैविक घटकों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध इतना सधा होता है कि प्रकृति में एक प्रकार का संतुलन बना रहता है।
जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, मानव क्रियाकलापों के द्वारा इस संतुलन में हस्तक्षेप होता जा रहा है। अनियंत्रित मानव क्रियाकलापों के कारण पर्यावरण की क्षति हो रही है।
कुछ मानव क्रियाकलापों जिनसे पर्यावरण का अवक्रमण होता है, नीचे वर्णित की गयी हैं:-
1. वन प्राकृतिक संसाधन हैं लेकिन मनुष्य उन्हें खेती करने के लिये और घर बनाने के लिये वनों को काटता जा रहा है। इसके अलावा वृक्षों को काटकर लट्ठों को अपने घर बनाने के लिये और फर्नीचर या ईंधन के रूप में प्रयोग कर रहा है। जिस दर से वृक्ष काटे जा रहे हैं, वह वृक्षों को उगाने की दर से काफी अधिक है और शीघ्र ही वन वृक्ष रहित हो जायेंगे।
2. पेड़ों के वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी भी पर्यावरण में पहुँचता रहता है जिससे वर्षा वाले बादल बनते हैं। पेड़ों की कटाई और वनों के काटे जाने के कारण उन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है। पौधों और वृक्षों की छटाई के कारण मृदा अपरदन को भी बढ़ावा मिलता है।
3. वन वन्य जीवों का प्राकृतिक पर्यावास हैं। वन्य जीवों की प्रजातियों का विलुप्त होना बढ़ता जा रहा है क्योंकि वनोन्मूलन के कारण उनके प्राकृतिक पर्यावास नष्ट किये जा रहे हैं।
4. अनवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम पदार्थों को जिस तेजी से उपयोग किया जा रहा है, उसके उनके समाप्त होने की सम्भावना है।
ये उदाहरण दर्शाते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों की कमी का कारण मानव द्वारा इनका अत्यधिक मात्र में उपयोग करना है।
1. कोयला, लकड़ी, पेट्रोल आदि के अत्यधिक मात्र में जल जाने के कारण विषैली गैसें जैसे SO2 (सल्फरडाइऑक्साइड), NOx (नाइट्रोजन के आक्साइड) CO (कार्बन मोनो ऑक्साइड) और हाइड्रोकार्बन वायु में मिल जाती है। ये गैसें उद्योगों, विद्युत संयंत्रें, मोटर गाड़ियों और वायुयानों से भी निकलती हैं। ये आविषालु गैसें वायु को प्रदूषित करती हैं जिनसे मानव स्वास्थ्य और पौधों पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
2. खानों से निकला अम्लीय जल कल-कारखानों, खेतों से निकले रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों से निकले अपशिष्ट नदियों और दूसरे जलस्रोतों को प्रदूषित करते हैं।
3. घरों और कल-कारखानों से निकलने वाले ठोस एवं द्रव अपशिष्टों से गाँवों, शहरों और औद्योगिक क्षेत्रें में दिन प्रतिदिन मृदा प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है।
इस प्रकार मनुष्य ने पर्यावरण को (i) प्राकृतिक संसाधनों का चरम सीमा तक ह्रास करके और (ii) प्राकृतिक जलस्रोतों और भूमि क्षेत्रों को प्रदूषित करने के कारण नष्ट कर दिया है।
जनसंख्या की अतिशय वृद्धि के कारण मानव का भविष्य अनिश्चित हो गया है। ऐसा अनुमान है कि 5 लाख लोग उस समय दुनिया में रहते थे जब कृषि की शुरूआत 12000 वर्ष पूर्व हुयी थी। आज हमारे देश की जनसंख्या एक अरब के ऊपर है।
जनसंख्या की अतिशय वृद्धि में बहुत सारे कारक अपना योगदान करते हैं। ये कारक नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं:
1. कृषि सम्बन्धी उन्नत पद्धतियों के कारण खाद्य पदार्थों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिली, इस कारण पर्याप्त मात्र में भोजन उपलब्ध हुआ।
2. चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति होने से चोटों और महामारियों के कारण होने वाली मृत्यु की रोकथाम हो गयी है।
3. जब से हृदय, फेफड़ों, वृक्क की विकृतियों के साथ-साथ अन्य रोगों की पहचान हो जाने और आधुनिक चिकित्सा तकनीकों से इलाज हो जाने के कारण मनुष्य का औसत आयुकाल बढ़ गया है।
बढ़ती जनसंख्या के लिये स्थान, आश्रय और उपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता के कारण पर्यावरण पर एक अत्यधिक दबाव पड़ता है। इन सभी वस्तुओं को उपलब्ध कराने के लिये नाटकीय तरीके से भूमि का प्रयोग बदल गया है। यह पहले से ही ज्ञात है कि अनाज और फल वाली फसलों को उगाने के लिये जंगलों/वनों की कटाई की जाती रही है।
वन और प्राकृतिक चारागाह (घास के मैदान) को कृषि योग्य भूमि में बदल दिया गया है। आर्द्र भूमि को खाली और मरुभूमि को सींचा गया है। इन परिवर्तनों के कारण अत्यधिक मात्र में खाद्यान्न और अत्यधिक मात्र में कच्चे माल का उत्पादन हुआ। लेकिन ऐसा करने के कारण प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो गये और प्राकृतिक सुंदरता में एक भयावह बदलाव आ गया है। उदाहरण के लिये जंगलों को काटकर बहुत बड़े क्षेत्र में कृषि योग्य फसलों को उगाया जा रहा है। बहुत से मैंग्रोव वन अपरदन को कम करने और तट रेखा को स्थायीत्व प्रदान करने के लिये जाने जाते थे, उन्हें काटकर खाद्य फसलें उगाकर बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता को पूरी करने की कोशिश की जा रही है।
जल हमें वर्षा के रूप में मिलता है, नदियों, झीलों और अन्य जलस्रोतों में बहता है। इस जल का कुछ भाग जमीन सोख लेती है जो भूमिगत जल तक पहुँच जाता है। मिट्टी की एक निश्चित गहराई तक मृदा के कणों के मध्य सभी स्थानों में जल भरा होता है। इस गहराई को जल तालिका (Water table) कहते हैं। जल तालिका स्थायी हो सकती है। यदि भूमिगत जल से निकले जल की पुनःपूर्ति वर्षाजल के अवशोषण द्वारा की जाये। लेकिन यदि जल भराव की दर जल निकासी की दर से कम हो तो परिणामतः कुएँ सूख जायेंगे। बहुत से क्षेत्रों में पानी के अत्यधिक निकास के कारण भूमिगत जल संसाधन में कमी हो जाने के कारण पानी की मात्र में अत्यन्त कमी हो गयी है।
अधिकांशतः भूमि का उपयोग खाद्य पदार्थ उगाने के अलावा एक बड़ी जनसंख्या का अर्थ उनके लिये बड़ी संख्या में आश्रय प्रदान करने का होना है। इतने लोगों के लिये घर बनाने के लिये पत्थर और अन्य भवन निर्माण सामग्रियों की आवश्यकता पूर्ति के लिये बहुत सारी चट्टानों को खोदकर निकालना पड़ेगा, उन्हें तोड़ना पड़ेगा और इस काम के लिये भी बहुत सारा जल का प्रयोग करना पड़ेगा।
बढ़ती हुयी जनसंख्या की बढ़ती हुयी जरूरतों की पूर्ति के लिये परिवहन के एक विस्तृत नेटवर्क की आवश्यकता होती है। परिवहन के विभिन्न साधन विकसित किए गये हैं जिससे जीवाश्म ईंधनों जैसे कोयला, गैस और पेट्रोलियम पदार्थों का उपयोग बढ़ता जा रहा है और वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है।
प्रतिदिन के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ जैसे प्लास्टिक के बर्तन, बाल्टी इत्यादि; कृषि-उपकरण, मशीनरी, रसायन, कॉस्मेटिक्स (Cosmatics) इत्यादि फैक्टरियों में बनाये जाते हैं। इन उद्योगों को चलाने और इन उत्पादों को बनाने के लिये कच्चे माल, जीवाश्म ईंधन और पानी की आवश्यकता होती है जिसके कारण इनके समाप्त होने के खतरे बढ़ते जाते हैं। तीव्र गति से होने वाले औद्योगिकीकरण से निकलने वाले औद्योगिक बहिःस्रावों से नदियों और दूसरे जलस्रोतों का प्रदूषण बढ़ा है। तीव्रता से होते हुए औद्योगिकीकरण के कारण पर्यावरण पर बहुत अधिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है। खनन प्रक्रियाओं के कारण भी खनिज संसाधनों विशेषकर जीवाश्म ईंधनों का भंडार समाप्त होता जा रहा है।
आज औद्योगिक सभ्यता प्रकृति के ऊपर एक बोझ बनती जा रही है और यही समय है कि हम प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्वक व्यवहार की आवश्यकता को जान लें।
सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में सड़कों पर भीड़-भाड़ हो जाती है और झुग्गी-झोपड़ियाँ बन जाती हैं। इसके कारण मूलभूत सुविधाओं जैसे पेयजल, जल-निकास, अपशिष्ट का निपटान, स्वस्थ परिस्थितियों की कमी हो जाती है। पर्यावरण में गंदगी होने के कारण स्वस्थ पारिस्थितिक समस्याओं जैसे कोई महामारी सभी जगहों पर फैल सकती हैं।
पवित्र नदियाँ जैसे गंगा, यमुना और दूसरे जलस्रोत उद्योगों द्वारा निकले हुए अपशिष्टों (बहिःस्रावों), मानव बस्तियों, नहाने, कपड़े धोने और नदियों में कूड़ा करकट फेंकने के कारण प्रदूषित होते जा रहे हैं।
पाठगत प्रश्न 3.1
1. मानव द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले पर्यावरणीय अवक्रमण के कोई दो प्रकार बताइये।
2. जनसंख्या में वृद्धि का एक कारण लिखिए।
3. विश्व की जनसंख्या की अतिशय वृद्धि खतरे की घंटी क्यों है?
केवल ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़कर वन सम्पूर्ण संसार में पाये जाते हैं। आरम्भ में भूमि का एक तिहाई भाग वनों से ढका हुआ था। आप पहले ही जान चुके हैं कि मानव विकास के प्रारम्भ से ही वे वन संसाधनों पर निर्भर रहते थे। वन सौर ऊर्जा का एक प्राकृतिक उपयोगकर्ता है। वे विभिन्न प्रकार के जीवों को पर्यावास प्रदान करते हैं जिनमें बड़े वन्य पशु भी सम्मिलित हैं। आदिम मानव भी तो वनों में रहते थे और अपने जीवनयापन के लिये पूर्णतः वनों पर निर्भर रहते थे जब तक उन्होंने खेती करना शुरू नहीं किया था। वनों के पेड़ों की कटाई को वनोन्मूलन कहते हैं। विभिन्न प्रकार के कार्यों के कारण दुनिया के विभिन्न भागों में वनोन्मूलन एक चेतावनी की दर से किया गया है जिसके कारण वन्य पौधों और प्राणियों का अत्यधिक विनाश हुआ है।
जंगलों को विभिन्न कारणों से काटा गया है-
जैसे ही मानव बस्तियां, शस्य भूमि, इमारतें (भवन), उद्योगों, स्कूल, अस्पताल, रेल और सिंचाई हेतु नहरें इत्यादि बनाने के लिये आवश्यक विकासीय प्रक्रियाओं का आरम्भ किया। ऊपर बतायी गयी सभी विकासीय प्रक्रियाओं हेतु आवश्यक भूमि की जरूरत को पूरा करने के लिये वनों की कटाई की गयी।
काष्ठ का प्रयोग भवन निर्माण, फर्नीचर बनाने और मानव के लिये उपयोगी अन्य वस्तुओं के बनाने के लिये किया जाता है। पेड़ जिनसे काष्ठ प्राप्त होता है, जंगल में उगते हैं और इमारती लकड़ी के लिये काट लिये जाते हैं। खाना पकाने और गर्मी प्राप्त करने के लिये ईंधन के उपयोग के लिये भी वनोन्मूलन किया जाता है।
वनों को काट कर घास उगायी जाती है और चारागाहों में बदल दिया जाता है ताकि मवेशी चर सकें।
स्थानान्तरित कृषि फसल उगाने की एक पद्धति है जिसमें जंगलों का काटना और गिरे हुए (टूटे हुए) पेड़ों को हटाने के लिये जलाना है ताकि खेती के लिये जमीन साफ की जा सके। साफ की गयी भूमि पर कुछ सालों तक फसलें उगायी जाती हैं और इसके कुछ समय बाद भूमि अपनी उर्वरता खो देती है। बाद में किसी नये वन क्षेत्रों को खेती के लिये साफ किया जाता है और यही चक्र बार-बार दोहराया जाता है।
- मृदा अपरदन (Soil erosion)
पौधे वर्षा को रोकते हैं और पेड़ों के कटने और पौधे के नष्ट होने से मृदा अपरदन होता है। पौधों की जड़ें स्थान (भूमि) की मिट्टी को जकड़े रहती हैं। पौधों की रक्षात्मक परत के नष्ट होने के कारण मृदा की ऊपरी सतह जो कार्बनिक पदार्थों से भरपूर होती है, बह जाती है और मृदा अपनी उर्वरता खो देती हैं।
वनों से पेड़ों के नष्ट होने से मृदा अपरदन को बढ़ावा मिलता है। यह अंततः पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन का कारण होता है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि पौधों की जड़े मिट्टी को स्थिर दशा में पकड़े रहती है।
वनों से पेड़ों की क्षति नदियों और झीलों की गाद इकट्ठा होने का भी कारण होती है जिससे मृदा (मिट्टी) ढीली होकर वर्षा के जल के साथ बह जाती है और जलस्रोतों में पहुँच जाती है।
वन्य जीव जंगल में रहते हैं। जंगलों के काटने का अर्थ है कि उनके पर्यावासों को नष्ट कर देना जिसके परिणामस्वरूप वे या तो संकटापन्न हो जाते हैं या फिर विलुप्त हो जाते हैं।
वनोन्मूलन के परिणामस्वरूप जलवायु में बदलाव आया है क्योंकि पेड़ आस-पास के वातावरण को आर्द्र बनाएँ रखते हैं। पेड़ों की क्षति से आर्द्रता की कमी हो जाती है। पौधों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन से बादल भी बनते हैं और वनोन्मूलन के कारण वर्षा में कमी आती है।
उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषकों की CO2 को पौधे ले लेते हैं। जब वन खत्म हो जाते हैं तब यह CO2 सिंक कम हो जाता है और CO2 पर्यावरण में एकत्र होती है।
जब पेड़ों को काटकर फर्नीचर या कागज बनाया जाता है, आरामिल और कागज मिलों से निकला हुआ जल जिसमें अपशिष्ट पदार्थ होते हैं, प्रदूषण करते हैं।
विशिष्ट औषधीय पौधे विशेष वनों में उगते हैं। वनोन्मूलन के कारण वे नष्ट हो जाते हैं। सुगंधित शाक, रबर के पेड़ और दूसरे अन्य पौधे भी वनोन्मूलन के कारण नष्ट हो जाते हैं।
इस प्रकार वन का विनाश बड़े पैमाने पर पर्यावरण अवक्रमण को बढ़ाता है।
1. वनोन्मूलन किसे कहते हैं?
2. कोई दो कारण बताइए कि मनुष्य द्वारा पेड़ों को क्यों काटा जाता है?
3. वनोन्मूलन के कोई दो कारण बताइये।
4. वनोन्मूलन के कारण वन्य जीव संकटापन्न क्यों बन गये हैं?
5. वनोन्मूलन मृदा अपरदन का कारण क्यों है?
- वनस्पति की क्षति
भारी मात्र में खनिज भंडार को प्राप्त करने के लिये वनस्पति और मृदा को नष्ट किया जाता है। उस क्षेत्र के पेड़-पौधे और जीव-जन्तु नष्ट हो जाते हैं।
आप पिछले पाठ में पहले ही जान चुके हैं कि पृथ्वी धातुओं और खनिज संसाधनों से भरपूर है। ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण अनवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन हैं। भारत खनिज संसाधनों के मामले में अत्यंत धनी है। पिछले दो सौ सालों में खनन तकनीकों के अत्याधुनिक विकास से खनिज संसाधनों का उत्तरोत्तर रूप से तेजी से खनन किया गया है। बहुत बड़ी मात्र में सीसा, ऐल्युमीनियम, तांबा और लौह अयस्कों का उपयोग किया जा चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि अगले 20 सालों में चांदी, टिन, जिंक और पारे के भंडार भी खत्म होने के संकट की सूचना है यदि आज की दर से उनका दोहन भी लगातार जारी रहता है।
पृथ्वी से खनिजों के निष्कर्षण के दौरान भी बहुत बड़ी मात्र में मलवा या कूड़े के ढेर उत्पन्न होता है। जितनी खनिज की मात्रा नहीं निकल पाती है उतना ही मलवा निकलता है। खोदकर निकाले गये खुले हुए अवशिष्ट पदार्थों को पास की जमीन के ऊपर डालकर छोड़ दिया जाता है। खनिज अपशिष्टों के ढेर से न केवल भूमि का एक बहुत बड़ा भाग घिर जाता है बल्कि अवशिष्टों के मलवे के कारण मृदा अपरदन भी हो जाता है।
अत्यधिक खनन खासतौर से भूमिगत खनन के कारण भूमि के अवतलन को बढ़ावा मिलता है और भूस्खलन का भी कारण होता है। भूस्खलन से बहुत ज्यादा नुकसान होता है।
जब तक सावधानी न बरती जाय, न केवल खनिजों का समाप्त होना एक चेतावती होगी वरन भूमि का भी एक बहुत बड़ा भाग जो कि दूसरे रूप में उत्पादकता के लिये प्रयोग किया जाता है, खनिज अपशिष्टों के ढेर के कारण नष्ट हो जाता है।
बढ़ती हुई जनसंख्या की बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा करने के लिये आवश्यक वस्तुओं का बड़े पैमाने पर निर्माण किया जाता है। छोटे कारखानों से लेकर बड़े उद्योगों में बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। किसी भी देश के विकास में औद्योगीकरण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेकिन औद्योगिकीकरण पर्यावरणीय मुद्दों का निरादर करना जैसे निम्नलिखित कारणों से पर्यावरण अवक्रमण होता जाता है।
- प्राकृतिक संसाधनों को कच्चे माल की तरह से उद्योगों में प्रयोग किये जाने से वे शीघ्रता से समाप्ति की ओर हैं।
- उद्योगों से बहुत सारी आविषालु गैसें उत्पन्न होती हैं और द्रवीय बर्हिस्राव भी पर्यावरणीय अवक्रमण को बढ़ावा देते हैं।
- उद्योगों से काफी बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण में एकत्रित होते रहते हैं। कुछ अपशिष्ट पदार्थों को न केवल भूमि की जरूरत होती है बल्कि ये पर्यावरण को भी प्रदूषित करते हैं और मानव स्वास्थ्य पर भी अपना प्रभाव डालते हैं।
- उद्योगों में ऊर्जा के स्रोत के रूप में जीवाश्मीय ईंधन का प्रयोग किया जाता है। (पाठ-2 के उपभाग 2.1.1 में ऊर्जा के बारे में बताया गया है कि कैसे जीवाश्मीय ईंधनों का निर्माण हुआ)। जीवाश्मीय ईंधन के तीव्रता से बढ़ते उपयोग के चलते हुए उनका भंडार समाप्त हो जायेंगे क्योंकि उनके सीमित भंडार हैं और अनवीकरणीय हैं। लेकिन जीवाश्मीय ईंधनों के जलने से वायुमंडल में CO2 निकलती है जिससे भूमंडलीय ऊष्मण (Global Warming) होता है जिसके बारे में आप बाद में पढ़ेंगे।
खाद्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी और आत्म निर्भरता प्राप्त करना ही एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। दुर्भाग्यपूर्वक गहन कृषि (Intensive agriculture) पर्यावरण के लिये एक गंभीर क्षति को बढ़ावा देती है। उनमें से कुछ नीचे दिये गये हैं।
- अधिक से अधिक खाद्यान्न फसलों को उगाने के लिये वनों को खेती लायक भूमि के रूप में बदला जा रहा है।
- अत्यधिक सिंचाई और जल भराव के कारण पानी की निकासी के स्रोत ठीक ढंग से काम नहीं करते।
कृत्रिम उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण गंभीर पर्यावरणीय समस्या पैदा हो जाती हैं। उदाहरण के लिये खेतों से इस्तेमाल किये गये उर्वरकों को पानी के बहाव अपने साथ झीलों और नदियों तक बहा ले जाता है, जिसके कारण प्रदूषण होता है। ये कृषि रसायन मृदा के भीतर रिसकर चले जाते हैं और भूमिगत जल प्रदूषित हो जाता है। अत्यधिक मात्रा में पोषक तत्वों की वृद्धि होना जलस्रोतों में सुपोषण (Eutrophication) को बढ़ावा देते हैं। इसका अर्थ है कि पानी में पोषक तत्वों की विशेषतः नाइट्रेटों और फास्फेटों के असीमित भंडार के कारण हरे शैवाल की अत्यधिक वृद्धि होती है और जलीय जीवन नष्ट हो जाता है।
कीटनाशकों के प्रयोग से न केवल वे कीट जो फसल को नष्ट करते हैं, मरते हैं बल्कि बहुत से ऐसे कीट भी मर जाते हैं जिन्हें यहाँ तक कि कुछ कीटों की उपयोगी प्रजातियाँ जैसे परागण करने वाले, पक्षियों और पादप बीजों को इधर उधर बिखरने के लिये मदद करने वाले भी हैं। कीटनाशक एक जगह पर एकत्र हो जाते हैं और उनकी सांद्रता खाद्य श्रृंखला द्वारा बढ़ती जा रही है और आविषालु स्तर तक अंडों, दूध व अन्य खाद्य वस्तुओं में एकत्र होती है। (जैव विवर्धन, Biomaginification)
- कृषि उद्योग से अपशिष्ट उत्पन्न होते हैं। उदाहरण के लिये फसल के अपशिष्ट जैसे धान, ज्वार, चने का भूसा, कपास-भूसा, गन्ने-सीठी (कचरा) और नारियल के खोल इत्यादि के ढेर के कारण पर्यावरण का अवक्रमण होता है।
- खाद्य फसलों की उच्च उत्पाद देने वाली किस्मों को पारम्परिक फसलों वाली किस्मों से बदलते हैं। पारम्परिक कृषि बहुफसली पद्धति पर आधारित थी, इसका अर्थ है खाद्य फसलें, चारा और जलावन (ईंधन प्रदान करने) को एक साथ उगाया जाता है। यह पद्धति एकल कृषि से बदल दी गयी। इसका अर्थ है एक ही प्रकार की फसलें (उदाहरण के लिये गेहूँ आदि) खेत में उगायी जाती हैं, जिससे किसी विशेष प्रकार के पोषक तत्वों के कारण उस मिट्टी में अन्य फसलों को उगाने के लिये सक्षम नहीं होती है लेकिन उसे दोबारा काम में लाया जा सकता है।
एक वाक्य में उत्तर दीजिएः
1. रासायनिक कीटनाशकों को हानिकारक क्यों माना जाता है जबकि वे उन कीटों को मारते हैं जो फसलों को नष्ट करते हैं?
2. रासायनिक उर्वरक जो खेतों में प्रयोग किये जाते हैं, जलस्रोतों में कैसे पहुँच जाते हैं?
3. आधुनिक कृषि का पर्यावरण पर पड़ने वाले किन्हीं तीन अवक्रमणी प्रभाव बताइये।
शहरी जीवन नगरीय जीवन है। अधिक से अधिक लोग गाँवो से शहरों की ओर काम की खोज में आ रहे हैं। ग्रामीण-शहरी स्थानान्तरण आंशिक रूप से जनसंख्या बढ़ने और गाँवों में गरीबी के कारण भी होता है। शहरीकरण का अर्थ शहरों में लोगों की स्थायी आबादी होना और इसका परिणाम पर्यावरण का अवक्रमण विभिन्न तरीकों से होता है-
औद्योगिकीकरण ने बहुत सारे नये-नये रोजगारों का रास्ता खोला है।
उद्योगों के कारण बहुत से ग्रामीण युवक शहरों में आने के लिये आकर्षित होते हैं और उनका स्थानान्तरण संचार के साधनों और यातायात सुविधाओं के बेहतर होने के कारण आसान हो जाता है। शहरों की वृद्धि से पर्यावरणीय संसाधनों की बढ़ती मांग के कारण निम्नलिखित बदलाव को बढ़ावा मिलता है-
- उपजाऊ भूमि को घर, उद्योगों, सड़कों और अन्य सुविधाओं के बनाने के कारण खो देना पड़ता है।
- जल आपूर्ति तंत्र को विकसित करके पीने के पानी और अन्य घरेलू कामों के लिये पानी मुहैया कराने के लिये विकसित करना पड़ता है। बढ़ती शहरी जनसंख्या के लिये पानी की मांग काफी बढ़ी है। इसका परिणाम यह है कि पानी की उपलब्धता की कमी अब बहुत ज्यादा हो गयी है।
- उद्योगों जिन्हें आवश्यक वस्तुओं को शहरी जनता को उपलब्ध कराने के लिये स्थापित किया गया था, पर्यावरणीय प्रदूषण को बढ़ा रही है। शहरों में उद्योगों, बसों, ट्रकों से निकलता काला धुआँ वायु प्रदूषण का कारण है। बड़ी मात्रा में कूड़ा-करकट उत्पन्न हो रहा है और उसका ठीक ढंग से निपटान नहीं किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप कूड़ा-करकट इधर-उधर बिखरा पड़ा है और उसको हटाया नहीं जाता है। घरेलू और औद्योगिक बहिर्स्रावों को नदियों और झीलों में डाला जाता है। उच्च शोरगुल स्तर शहरी वातावरण का एक सामान्य लक्षण है।
- शहरों में लोगों की निरन्तर बढ़ती भीड़ तथा आवासों की कमी के कारण झुग्गियों और आबादकार क्षेत्रें का विकास हो रहा है। झुग्गी-झोपड़ियों में अपर्याप्त सुविधाएँ और मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण अस्वच्छ परिस्थितियों का और सामाजिक विकृतियाँ और अपराध बढ़ते हैं।
एक वाक्य में उत्तर दीजिए-
1. शहरों में पानी की कमी क्यों है?
2. खनिज और धातुएँ प्राकृतिक रूप से कहाँ मिलती हैं?
3. खनन का एक कारण दीजिए।
4. एक प्राकृतिक संसाधन का नाम बताइए जो औद्योगिकीकरण के कारण समाप्त होते जा रहा है।
आप इस बात को भली भांति जानते हो कि मनुष्य के विभिन्न प्रकार की क्रिया-कलापों द्वारा पर्यावरणीय विनाश हो रहा है। बाढ़, सूखा, अम्ल वर्षा, तेल रिसाव जैसी घटनाएँ आमतौर से होती हैं और ये पर्यावरण के प्रति मनुष्य की लापरवाही और निर्दयता का परिणाम है। वन्यजीवों और उसके आवास का नष्ट होना, कुछ प्रजातियाँ जैसे देश से चीतों का विलुप्त होना, भोपाल गैस त्रासदी पर्यावरणीय प्रत्युत्तर हैं। विश्व स्तर पर ‘भूमंडलीय ऊष्मन’ और ‘ओजोन परत अपक्षयन (Ozone layer depletion)’ की समस्या मानव स्वास्थ्य और कल्याण के लिये एक गंभीर खतरा है।
(i) सिंचित मृदा का खारीपन
कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक सिंचाई के कारण भूमि में नमक एकत्र हो जाता है साथ ही वाष्पन के कारण पानी की हानि हो जाती है लेकिन पानी में घुले हुए लवण मृदा में ऐसे ही बने रहते हैं और लवणों का एकत्र होते रहने से मृदा को खारी बना देते हैं और भूमि खेती करने के योग्य नहीं रहती है और बंजर बन जाती है।
किसी भी जलस्रोत का सुपोषण तब होता है जब पौधे के पोषक तत्व जैसे नाइट्रेट और फास्फेट वायवीय जीवाणु की कार्बनिक अपशिष्टों की क्रिया के फलस्वरूप जल में निर्मुक्त होकर जलस्रोत में प्रवेश कर जाते हैं। ये पोषक तत्व शैवालों की वृद्धि करते हैं। (शैवाल वृद्धि। Algal bloom)। ये शैवाल सारी ऑक्सीजन का उपयोग कर लेते हैं और जलीय जीव ऑक्सीजन की कमी के कारण मर जाते हैं।
प्लास्टिक, कॉस्टिक सोडा, कवकनाशकों और कीटनाशकों का उत्पादन करने वाले कारखाने पारे के साथ-साथ अन्य बर्हिःस्रावों को पास के जलस्रोत में गिरा देते हैं। पारा खाद्य श्रंखला के द्वारा जीवाणु-शैवाल-मछलियों तथा अंत में मनुष्यों में पहुँच जाता है। पारे को खाने के कारण मछलियाँ मर जाती हैं। जो लोग इन मछलियों को खाते हैं। वे भी पारे के विषाक्तन से प्रभावित होते हैं जिससे कई बार मृत्यु भी हो जाती है। पानी और मछलियों के ऊतकों में पारे की उच्च सांद्रण का परिणाम विलेयित मोनो मिथाइल मरकरी (CH3 Hg+) का निर्माण होता है और अवायवीय जीवाणुओं की क्रिया द्वारा वाष्पशील डाइमिथाइल मरकरी [(CH3)2Hg] का निर्माण होता है।
बड़ी संख्या में चीते और शेर कम हो गये हैं, द ग्रेट इंडियन बुस्टार्ड (छोटी सोहन चिड़िया) भी संकटापन्न है और विलुप्त होने वाले जानवरों और पौधे की सूची काफी लम्बी है और लगातार बढ़ती जा रही है। मुम्बई के पास कालू नदी औद्योगिक अपशिष्टों के कारण बहुत बुरी तरह से प्रदूषित है और इस नदी में पायी जाने वाली एक पसंदीदा खाद्यशील मछली ‘बॉम्बे डक’ हमेशा के लिये विलुप्त हो गयी है। चीते और शेरों को खेलों के लिये और शिकारियों के द्वारा मारा जा रहा है।
(i) बाढ़
बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है और भारत एक बाढ़ संभावित देश है। बाढ़ अधिकतर प्रत्येक साल मानसून के समय में आती है, लगातार होने वाली भारी वर्षा के कारण भी नदियों में काफी मात्र में जल भराव होता है जिससे नदियों का पानी दूर-दूर तक फैल जाता है और बाढ़ आ जाती है। जो आवास नदियों के पास बने होते हैं, बाढ़ के कारण मानव जीवन और सम्पत्ति की हानि होती है, इसका अर्थ है कि भारी आर्थिक क्षति होना। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में पीने के पानी की अत्यधिक कमी हो जाती है और पानी के भरने से वहाँ पर महामारी फैलने का डर भी हो जाता है।
मानसून के अभाव और वर्षा का न होना सूखे का कारण है। भूमंडलीय तापन के चलते विश्व के औसत तापमान में वृद्धि के कारण पानी का प्रयोग बढ़ा है और जल की कमी हो सकती है। यह अनुमानित है कि 3°C तापमान बढ़ गया है। भूमंडलीय तापन के कारण कम से कम 10% अवक्षेपण कम हुआ है और पानी की कमी होने के कारण सूखे की दशा बन जाती है। पानी की कमी खेती, उद्योगों और पादप समुदाय पर भी विपरीत प्रभाव डालती है। जानवर जो हरे चारागाहों पर जाने में असमर्थ होते हैं, वे भी मर जायेंगे मनुष्य भी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से प्रभावित होंगे।
वाष्प से भरी हवा ऊँचे ढलानों से उठती है और संघनित होकर वर्षा या बर्फ के रूप में गिरती है। शुद्ध वर्षा का pH-5.6 होता है लेकिन उन क्षेत्रों में जहाँ उद्योगों में तेल और कोयला जलाया जाता है वहाँ के वायुमंडल में SO2 (सल्फर डाइऑक्साइड) उत्सर्जित होता है और मोटर वाहनों से NOx (नाइट्रोजन के यौगिक) वायु में मिल जाते हैं और वर्षा अत्यधिक अम्लीय होकर उसका pH-2 तक पहुँच जाता है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि SO2 और NOx पानी की वाष्प में घुलकर वायुमंडल में उपस्थित रहती है और H2SO4 और HNO3 बनाती है।
जब अम्लीय बर्फ पिघलती है अर्थात पानी जलस्रोतों में पहुँच जाता है और उसको अम्लीय बना देता है। अम्लीय पानी जलीय जीवों और पौधे को नष्ट कर देता है। अम्लीय वर्षा पौधों के लिये भी विषैली है और संक्षारित भवनों, संगमरमर के सामान तथा पुरातत्वीय महत्त्व की इमारतों को भी हानि पहुँचाती है।
कभी-कभी तेल टैंकरों और जहाजों द्वारा दुर्घटनावश समुद्र में कच्चा तेल और पेट्रोलियम पदार्थों का रिसाव हो जाता है। तेल की एक पतली परत समुद्र की सतह पर बन जाने से जलीय जीवों को ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाता है। तैरते हुए चिकने तेल के कारण जलीय जीव नष्ट हो जाते हैं और समुद्रीय पारिस्थितिक तंत्र (इकोसिस्टम) बुरी तरह से प्रभावित होता है।
(i) जैव विविधता की क्षति
घटते वन जो कि विभिन्न पौधों और जन्तुओं के प्राकृतिक आवास हैं, नष्ट हो गये हैं और बहुत से मूल्यवान पेड़ और जानवर हमेशा के लिये खत्म हो गये हैं। कुछ जीव विलुप्त होने के कगार पर हैं जबकि दूसरे विलुप्त होने की बिल्कुल करीब हैं।
ग्रीन हाउस एक काँच का कक्ष होता है जिससे ऊष्मा या सौर विकिरण पड़ते हैं और पौधों को इसके निकटतम गर्म पर्यावरण में उगाया जाता है।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड जीवाश्मीय ईंधनों के जलने से वायुमंडल में मिलती जा रही है। वायुमंडल में CO2 के बढ़ते सांद्रण ऊष्मीय विकिरणों को पृथ्वी द्वारा बाहर निकलने के लिये बाहरी अंतरिक्ष में जाने से रोकती है। बढ़ते वायुमंडलीय CO2 सांद्रण के कारण औसत तापमान में वृद्धि होने से भूमंडलीय तापन होता है। भूमंडलीय तापन के कारण बर्फ की चोटी पिघल रही है और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने से ध्रुवीय बर्फ की चोटियां भी समुद्र के स्तर को बढ़ा रही हैं। अत्यधिक गर्मी के कारण पानी का विस्तार बढ़ रहा है। समुद्र का स्तर बढ़ने से समुद्र तट पर बसे शहरों में बाढ़ आने और तटीय पारिस्थितिक तंत्र जैसे मार्श (कच्छ) और दलदल (swamp) के नष्ट होने का खतरा है। भूमंडलीय तापन के कारण वर्षा का तरीका बदलने से फसलों का पूर्व-परिपक्वन बढ़ा है और अनाज के आकार तथा फसल की मात्र में भी कमी आयी है।
जैसा पहले बताया गया है कि अम्लीय वर्षा का पारिस्थितिक तंत्र पर विषैला प्रभाव पड़ता है। भूमंडलीय तापन के चलते हुए समुद्री मछलियां पृथ्वी के उत्तरी ठंडे भागों की तरफ जा रही हैं। दूसरी अन्य मछलियां तैरते हुए महासागरों के सबसे गहरे स्थानों में पहुँच जाती हैं। उत्तरी सागर का तापमान पिछले 25 सालों में लगभग 1°C तक बढ़ चुका है। मछलियों की बहुत सारी प्रजातियां और दूसरे अन्य समुद्री जीव ठंडे उत्तरी क्षेत्रों में स्थायी रूप से चले गये हैं।
छोटी मछलियां तो शीघ्रता से ठंडे स्थानों की तरफ जाने में सक्षम हैं और बढ़ते तापमान के कारण बड़ी मछलियां अपना मार्ग नहीं बदल पा रही हैं, उनमें से कुछ विलुप्त होती जा रही हैं। मछलियों के व्यवहार में आये इस परिवर्तन के कारण समुद्री मछलियां समाप्ति की ओर हैं और बहुत सारे मछुआरों के समूहों को अपनी जीविता से भी दूर होना पड़ा है।
समुद्री मछलियों की समाप्ति का एक दूसरा कारण बहुत बड़ी मात्रा में अपशिष्टों को समुद्र में फेंकना भी है। समुद्र में फेंके जाने वाले अपशिष्टों जिनमें वाहित मल और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों द्वारा उत्पन्न कूड़ा-करकट और उद्योगों से निकला हुआ औद्योगिक अपशिष्ट शामिल है। कृषि क्षेत्रों में बहने वाला पानी जिसमें उर्वरक और कीटनाशक होते हैं, नदियों द्वारा समुद्र में लाया जाता है। उर्वरकों से सुपोषण होता है। तेल रिसाव और तेल की परत बनने से भी समुद्री जीवन नष्ट होता है।
ओजोन परत सूर्य से निकलने वाले हानिकारक UV विकिरणों को पृथ्वी के वायुमंडल से पृथ्वी की सतह पर पहुँचने से रोकती है। क्लोरोफ्रलोरो कार्बन का उपयोग फ्रिज, एअरकंडीशनरों, को साफ करने, अग्निशामकों और ऐयरोसोल में किया जाता है। ओजोन परत या ओजोन ढाल को विशेषतः आर्कटिक और अंटार्कटिका के ऊपर नष्ट करता है। ओजोन परत के 30-40% तक अपचयन से त्वचा झुलस जाने, त्वचा का शीघ्रता से जीर्णन, त्वचा कैंसर, मोतिया बिंद, रेटिना का कैंसर, आनुवांशिक विकारों का कारण होता है और समुद्र और जंगलों में उत्पादकता में कमी लाता है।
अब आप जान चुके हो कि किस तरह से विभिन्न मानव प्रक्रियाओं के कारण भूमि, वायु और जल की कभी भी न भरने वाली क्षति होती है परिणामतः उन जीवों की भी जिनका उसमें वास स्थान होता है। आदिमानव ने अपनी उत्तरजीविता के लिये प्रकृति के साथ संघर्ष किया था, जैसा कि आप पिछले पाठ में पढ़ चुके हो। जैसे-जैसे मानव जाति अधिक सभ्य होती चली गयी और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की उन्नति द्वारा उन्होंने आरामदायक जीवन के सुख साधनों का निर्माण किया। लेकिन बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रगतिशील वैभव और आराम के लिये मानवीय लालच बढ़ता गया और इसके लिये निर्दयतापूर्वक पर्यावरण का अवक्रमण किया गया कि आज हालात यह है कि मानव की अब खुद अपनी ही उत्तरजीविता खतरे में पड़ गयी है।
दूषित भोजन, फल और वायु के कारण मानव स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव पड़ा है। विषैले रसायनों और हानिकारक विकिरणों के कारण मानव स्वास्थ्य पर भयंकर समस्या का खतरा बन गया है।
अस्थमा, पल्मोनरी (फुफ्र्फुस) फ्राइब्रोसिस, निमोकोनियोसिस वायु प्रदूषण के कारण होती है। कार्य स्थलों जैसे खदानों, टेक्सटाइल मिलों, मुर्गी फार्म, पटाखों, सेंड ब्लास्टिंग और रसायन उद्योगों में काफी लम्बे समय तक प्रदूषकों के प्रभाव में रहने के कारण श्वसन सम्बन्धी रोग हो जाते हैं। कैन्सर जनित रसायनों और आयनित विकिरणों के पर्यावरण में उपस्थित होने के कारण ये विकिरण कैन्सर के लिये उत्तरदायी हैं।
इतनी विशाल जनसंख्या होने का अर्थ है रोजगार के अवसरों की कमी, बेरोजगारी और सम्बन्धित तनाव है। तनाव रोजगार के दबाव, पैसों की समस्या, आरामदायक जीवन का न होना, कार्य या कार्य स्थल की नापसंदगी, के कारण भी होता है। अस्थमा, अल्सर, डायबीटिज, उच्चदाब, निराशा, शीजोफ्रेनिया जैसे रोग तनाव से सम्बन्धित रोग हैं और दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं।
जीवन की गुणवत्ता में कमी और लगातार स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के चलते मानसिक समस्याएं भी शुरू हो जाती हैं। पर्यावरणीय स्वास्थ्य और कुशल क्षेत्र मनुष्य के लिये सबसे कीमती अधिकार है। ये तीव्र गति से पर्यावरणीय ह्रास का तेजी से होती जा रही क्षति है।
उत्तर एक या दो शब्दों में लेकिन एक से अधिक वाक्यों में मत दीजिए-
1. मिनामाता रोग के लिये उत्तरदायी रसायन का नाम बताइये।
2. शाकाहारी की संख्या जंगल में क्यों बढ़ जाती है जबकि शेरों को शिकारी मार डालते हैं।
3. मानव प्रक्रियाओं के कारण अत्यधिक बाढ़ से बचने का कोई एक कारण बताइये।
4. शुद्ध वर्षाजल का pH मान क्या है?
5. तेल पर्त (स्लिक) समुद्री जल में किसके मिलने से बनता है?
6. CFC को विस्तारित कीजिये।
- हम पर्यावरण पर अपनी उत्तरजीविता के लिये निर्भर हैं जैसे ये हमें सांस लेने के लिये ऑक्सीजन, खाने के लिये भोजन और पीने के लिये पानी देता है।
- हम रेशे, औषधियाँ, ईंधन इत्यादि भी पर्यावरण से प्राप्त करते हैं।
- जैसे-जैसे मानव जनसंख्या बढ़ती गयी, कृषिकीय सभ्यता और औद्योगिकीकरण बढ़ने लगा इसके कारण पर्यावरण अवक्रमण दो तरीकों से होने लगा (i) प्राकृतिक संसाधनों की कमी (ii) पर्यावरणीय प्रदूषण (वायु, जल और मृदा)
- प्राकृतिक संसाधनों की कमी, वनोन्मूलन, जीवाश्मीय ईंधनों का अत्यधिक उपयोग, खनन आदि। वायु भी मोटर वाहनों से निकलने वाली विषैली गैसों के द्वारा प्रदूषित हो गयी, विषैले अपशिष्टों को जलस्रोतों में डालने से वे प्रदूषित हो गये।
- सभी के लिये अच्छी चिकित्सा सुविधाओं और भरपूर अन्न के कारण आयुकाल बढ़ गया है और बाल मृत्युदर व महामारी से होने वाली मृत्यु में कमी आई है। इसका नतीजा यह हुआ कि जनसंख्या में वृद्धि हुई है।
- बढ़ती मांगों को पूरा करने में जैसे घर बनाने और खाद्य फसलों को उगाने के लिये भूमि, औद्योगिकीकरण, उद्योगों और घरों के लिये ऊर्जा स्रोतों के रूप में जीवाश्मीय ईंधन की जरूरत होती है। भूमिगत जल समाप्त हो चुका है और वायु, जल और मृदा प्रदूषित हो चुके हैं।
- मनुष्य ने पेड़ काट डाले हैं और जंगलों को ईंधन और काष्ठ प्राप्त करने के लिये काट डाला गया है और खेती और मानव बस्ती के लिये जमीन प्राप्त की है। वनोन्मूलन के कारण जैव विविधता की भारी हानि हुई है।
- आधुनिक कृषि पद्धतियों ने लाखों लोगों को भोजन दिया है लेकिन भूमि अपरदन, उर्वरकों और कीटनाशकों से पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या पैदा हो गयी है।
- मनुष्यों ने बेहतर रोजगार के अवसरों की खोज, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण गाँव से शहरों की तरफ रुख किया है, परिणामतः झुग्गियों का निर्माण हुआ जिसमें वे अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों से पीड़ित हैं।
- प्राकृतिक संसाधनों में कमी का कारण और पर्यावरणीय प्रदूषण जिसका मनुष्य सामना कर रहा है। उदाहरण है- भोपाल गैस त्रसदी, जापान में स्थानीय स्तर पर मिनामाटा रोग, बाढ़, सूखा, तेल रिसाव और समुद्री मछलियों का कम हो जाना क्षेत्रीय स्तर पर। वैश्विक स्तर पर भूमंडलीय ऊष्मण, ओजोन में कमी और जैव विविधता में कमी आते हैं।
- संक्षेप में मानव उत्तरजीविता स्वयं खतरे में आ रही है इसका कारण मनुष्य ने स्वयं ही पर्यावरण का विनाश कर दिया है।
1. जीवाश्मीय ईंधनों का उपयोग किस प्रकार पर्यावरण पर पड़ने पर हानिकारक प्रभावों से सम्बन्धित है।
2. मानव जनसंख्या विस्फोट के तीन कारण बताइये।
3. उन तीन तरीकों को बताइये जिनसे पर्यावरण का अवक्रमण का कारण बढ़ती हुई मानव जनसंख्या है।
4. वनोन्मूलन के तीन कारण बताइये।
5. वनोन्मूलन के प्रभावों पर एक लेख लिखिए।
6. आधुनिक कृषि वायु और जल प्रदूषण करने के लिये क्यों उत्तरदायी है?
7. मानव का आधुनिक आगमन गाँवों से शहरों की ओर आना शहरी योजनाकर्त्ताओं के लिये गंभीर मुद्दा क्यों बन रहा है?
8. ग्रीन हाउस गैसों को खतरनाक क्यों माना जाता है।
9. पर्यावरणविद ऐसा क्यों सोचते हैं कि समुद्री मछलियाँ कम हो जायेंगी यदि हम इसके प्रति सावधान नहीं हुये।
10. टिप्पणी लिखिए-
(i) खनन और पर्यावरणीय अवक्रमण
(ii) अम्लीय वर्षा
(iii) भूमंडलीय और ग्रीन हाउस प्रभाव
(iv) जैव विविधता की क्षति (हानि)
3.1
1. वनोन्मूलन/ जीवाश्म ईंधन की कमी/ खनिजों की कमी/ वायु, जल या मृदा प्रदूषण आदि (कोई)।
2. आयु सीमा में वृद्धि अच्छी चिकित्सा सुविधा के कारण भोजन की उपलब्धता।
3. क्योंकि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। पर्यावरण का अवक्रमण उत्तरजीविता के लिये खतरा है।
3.2
1. जंगलों को साफ करने के लिये पेड़ों को काटना।
2. खेती/ लकड़ी/ ईंधन काष्ठ/भवन निर्माण के लिये इत्यादि (कोई दो)।
3. जैव विविधता की कमी/ मृदा अपरदन/बाढ़/ CO2 सिंक की कमी इत्यादि (कोई दो)।
4. जंगल जंगली जानवरों का पर्यावास स्थान है।
5. जड़ें मृदा को अपनी जगह जकड़े रहती है।
3.3
1. ये उपयोगी कीटों को मारता है।
2. अनुपयोगी उर्वरक वर्षा के दौरान खेतों से बहकर जलस्रोतों में मिल जाते हैं।
3. जंगलों को कृषि क्षेत्रों/ जल भराव/ कृषि के उपयोग हेतु/ कृषि उद्योगों से निकले अपशिष्ट।
3.4
1. उपलब्ध पानी की तुलना में उपभोक्ता अधिक हैं।
2. मृदा के नीचे और उसके अंदर।
3. उपयोगी धातुओं का विलोपन/पौधे और जन्तुओं सम्बन्धी क्षति/ भूमि का धंसना/ भूस्खलन।
3.5
1. Hg/पारा।
2. कोई भी शेर उनको नहीं खाता है और उनकी संख्या कम है।
3. ग्रीन हाउस गैसों के कारण तापमान के बढ़ने से/ बर्फ के पिघलने से।
4. 5-6
5. तेल के कम वाष्पशील घटक।
6. क्लोरोफिल कार्बन।