दिल्ली लोकतांत्रिक भारत के विकास स्वप्नों की केन्द्रीय किल्ली है। इसलिए मानने में हर्ज नहीं कि दिल्ली की पहल पर जो भी विकास-योजनाएँ बनती हैं, उनके पीछे कहीं न कहीं ईमानदार राष्ट्रीय ख्वाहिशों का एक दबाव होता है। पर जमीन पर लागू होते वक्त ऐसी हर योजना हमारे चारों ओर फैले भारत के ठोस सामाजिक-आर्थिक यथार्थ से टकराती है। इसलिए योजना के मसौदे में भले ही जो निर्देश जारी किए गए हों, अंतत: कार्यान्वयन के स्तर पर उनका वही (या उतना ही) स्वरूप लागू हो पाता है, जो स्थानीय वर्चस्व गुटों को मंजूर हो। लिहाजा दिल्ली से अमेठी पहुंचे राहुल ने नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यानी एन.आर.ई.जी.एस. को गाँवों के लोग प्रेम से ‘नरेगा’ बुलाते हैं) की जमीनी स्तर पर धीमी प्रगति और ठोस कार्यान्वयन में बेतरतीबी पर दु:खभरा अचरज जताया।
देश के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रपट (के मसौदे) ने भी इस योजना को (बेरोजगारों को साल में 100 दिन काम देने के) लक्ष्य की प्राप्ति में विफल और भ्रष्टाचार का शिकार बताया। और फिर खुद संप्रग अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने भी (कांग्रेसी मुखपत्र, कांग्रेस संदेश, जनवरी अंक में) विकास से जुड़ी इस महत्वपूर्ण योजना के कार्यान्वयन की फूहड़ कमियाँ अविलंब दूर करने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को स्वैच्छिक संगठनों के साथ एकजुट हो भ्रष्टाचार और प्रबंधन की खामियों को जड़ से उखाड़ फेंकने को कहा। दो माह बाद ही सरकार नरेगा को, जो अभी 330 जिलों में लागू है, पूरे देश में लागू करना चाहती है। इसलिए उपरोक्त संदर्भों में नरेगा की विफलता की वजहों और उसके मूल-लक्ष्य पर चर्चा प्रासंगिक बनती है।
पूछा जा सकता है कि इलाके की गरीब ग्रामीण जनता स्वयं ऐसी स्थिति का प्रतिकार करने को फनफना कर क्यों उठ खड़ी नहीं हुई है? जवाब है कि एक तो उसके पास दिल्ली से अनवरत जुड़ी ऐसी कोई कारगर हॉट-लाइन अब तक नहीं है, जो उनके बटन दबाते ही स्थानीय न्यस्तस्वार्थों के दानव-दलन के लिए इलाके में आन खड़ी हो। दूसरे, आम ग्रामीण खुद भी बड़ी हद तक घर के भीतर औरतों-लड़कियों के प्रति और घर-बाहर जाति-खाप और माई-बाप सरकार से जुड़ी जैसी मानसिकता से ग्रस्त हैं, उसके चलते वे प्राय: औरतों की दुर्दशा, नेताओं, सरकारी कर्मचारियों के भेदभाव तथा भ्रष्टाचार को अपनी अनिवार्य नियति मान कर स्वीकार लेते हैं। फिर भी कैग की रपट और कांग्रेस नेतृत्व की प्रतिक्रिया की ओट लेकर नरेगा को पूर्णत: विफल मानने तथा खारिज किए जाने की माँग हम कतई गलत मानते हैं। पहली बात तो यह, कि यह देश की अब तक सबसे महत्वाकांक्षी रोजगार योजना है। 2006-7 के दौरान इस योजना की तहत 330 जिलों में लगभग तीस लाख लोगों को रोजगार मिला है, और अगर यह योजना अब देशभर के गाँवों पर लागू की गई, तो यह करीब ढाई करोड़ बेरोजगारों को स्थानीय रोजगार देने और ग्रामीण पलायन को रोकने की क्षमता वाली अब तक की सबसे बड़ी जनकल्याण मुहिम बन जाएगी।
ऐसी योजना की चन्द शुरुआती विफलताओं पर इतनी हाय-तौबा कतई अनुचित है। जब 1962 की लड़ाई में हम चीन से हारे थे, तब तो विफल भारतीय सेना का आस्तित्व खत्म किए जाने की माँग नहीं की गई थी, और न ही पोलियो के नए मामले उभरने के बावजूद टीकाकरण योजना को ही बंद कराने को कहा गया। विशाल मुहिम की कल्याणकारी संभावनाओं को कतई अनदेखा कर कार्यान्वयन की दुरुस्ती तय कराने के बजाए उसे एकदम खारिज करने का आग्रह क्यों? गरीबी की गहरी जड़ें खत्म करने के लिए आज की तारीख में देश की सरकार ही नहीं निजी क्षेत्र की भागीदारी भी जरूरी है। अत: सार्वजनिक ही नहीं, निजी क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर उजड़ते गाँवों में रोजगार पैदा करने की हर संभावना को तवज्जो देना जरूरी है। लेकिन यहाँ एक पेंच है। निजी क्षेत्र की संभावनाएं बढ़ें, इसके लिए शम-कानूनों में जो संशोधन जरूरी हैं, उसके लिए संप्रग के ही समर्थक वाम दल कतई राजी नहीं हैं।
वोट बैंक की राजनीति की तहत सरकारी जमीन पर पार्टी के कार्यकर्ताओं की अवैध घुसपैठ करा चुके क्षेत्रीय दल जरूरी भूमि सुधारों से फिरण्ट हैं और निजी कंपनियों से कई जगह ठीक ठाक मुआवजा लेकर जमीनें बेचने को उत्सुक भूस्वामी भूखों मर या पलायन कर रहे हैं। इसी तरह गरीबी हटाने और ग्रामीण पलायन रोकने को राज्यों में अच्छी सड़कों और अच्छी पढ़ाई की गारंटी देने के लिए स्कूलों की स्थापना भी जरूरी है, पर नरेगा के आलोचकों ने उसमें कितनी रुचि ली है? कुल मिला कर अपने देश में जब तक आदर्शवादी दलों के ऐसे आदर्श गठजोड़ नहीं बनते, जो अपने क्षुद्र दलीय चुनावी हितों से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय संदर्भों में जरूरी फैसले ईमानदारी से ले सकें, गरीबों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने को नरेगा जैसी पहलें जरूरी और रक्षणीय बनती हैं।
फिर नरेगा के अपने सकारात्मक पहलू भी तो हैं, एक : यह ग्रामीणों को दान नहीं, काम के लिए वेतन देती है। वेतन सामान्य ही सही; पर तब तक तो वह बेरोजगारों को भुखमरी तथा शहरी पलायन से बचाएगा ही, जब तक कि वे इलाके में इससे बेहतर रोजगार नहीं पा जाते। दो : इसकी मार्फत कई पिछड़े इलाकों में जलाशयों, छोटे बाँधों, वनीकरण कार्यक्रमों और स्कूली परिसर के लिए जरूरी अंगों (जैसे शौचालय) का भी निर्माण होगा। अब तक जलसंकट ग्रस्त क्षेत्रों में छ: लाख जलाशय बन भी चुके हैं। फिर यह योजना चूँकि लिंगगत आधार पर भेदभाव नहीं करती, यह देशभर के गाँवों की विराट् महिला शक्ति को जो अभी असहाय और अशिक्षित और अवैतनिक कामों में खटने को बाध्य है, सवैतनिक श्रम से जोड़ने का एक बड़ा उपक्रम भी बन सकती है।
यह सही है कि नरेगा की मार्फत गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में ट्रैक रेकॉर्ड अब आदर्श नहीं है, पर इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों द्वारा अपर्याप्त समर्थन, कार्यान्वयन करने वाले दस्तों की कमी तथा तंत्र का भ्रष्टाचारी आचरण है। अच्छा है, कि ‘कैग’ की रपट ने ही बताया है कि कैसे खुद अपनी सुरक्षा के नाम पर भारीभरकम खर्चे उठाकर सुरक्षादस्तों तथा अपने प्रिय (प्राय: परिवार) जनों की आफिसर आन स्पेशल ड्यूटी सरीखी नियुक्ति में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाने वाली सरकारों ने नरेगा को लागू कराने वाले जरूरी पद धन की कमी का रोना रोकर खाली रखे हुए हैं। और फिलवक्त इस विशाल योजना के कार्यान्वयन की पूरी जिम्मेदारी ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक छोटी सी टीम की ही मानी जा रही है, जब कि जरूरत एक पूरे विशेष सचिवालय की है, जो क्षेत्रीय राजनैतिक समर्थन के साथ काम की क्षेत्रवार निगरानी कर सके। क्या ही अच्छा हो कि ऐसा ही प्रकाश हमारे अनेक अन्य सुस्त और भ्रष्टाचारी मंत्रालयों की योजनाओं के राज्यस्तरीय कार्यान्वयन पर भी लगातार पड़ता रहे?
दरअसल हमारी मौजूदा व्यवस्था और नरेगा के कार्यान्वयन की दूरी भारत में राष्ट्रीय आकांक्षा और राष्ट्रीय यथास्थिति के बीच की और खामोश खून पसीनेदार मेहनत तथा बड़बोले फुर्सती वाग्विलास के बीच की दूरी है। यह दूरी घटेगी, तो मुल्क बढ़ेगा। मुल्क बढ़ेगा तो बेईमान नेता और बाबू की ताकत घटेगी और उनकी ताकत घटने से देश कमजोर नहीं होगा। इस उलटबाँसी को समझने के लिए बहुत अधिक बुद्धिमान् होना जरूरी नहीं।