आर्थिक विकास का ऐतिहासिक अनुभव और आर्थिक विकास की सैद्धांतिक व्याख्या यह स्पष्ट करते हैं कि आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में प्रत्येक अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के विकास अनुभव की पुष्टि करते हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के राष्ट्रीय उत्पाद, रोजगार और निर्यात की संरचना में कृषि क्षेत्र का योगदान उद्योग और सेवा क्षेत्र की तुलना में अधिक होता है। ऐसी स्थिति में कृषि का पिछड़ापन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को पिछड़ेपन में बनाये रखता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कमजोर वर्ग के लोग जिनमें लघु एवं अति लघु कृषक और कृषि श्रमिक सम्मिलित हैं, अधिकांशत: गरीबी के दुश्चक्र में फँसे रहते हैं और वे निम्नस्तरीय संतुलन में बने रहते हैं। इनकी जोत का आकार तो छोटा होता है साथ ही इनके पास स्थायी उत्पादक परिसंपत्ति की कमी बनी रहती है। इनकी गरीबी अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण होती है।
विभिन्न विकसित देशों का आर्थिक इतिहास यह स्पष्ट करता है कि कृषि विकास ने ही उनके औद्योगिक क्षेत्र के तीव्र विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आज के विकसित पूँजीवादी और समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास के आरंभिक चरण में कृषि क्षेत्र ने वहाँ के गैर कृषि क्षेत्र के विकास हेतु श्रमशक्ति, कच्चा पदार्थ, भोज्य सामग्री और पूँजी की आपूर्ति की है। इंग्लैंड में सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में कृषकों ने तकनीकी परिवर्तन द्वारा कृषि विकास का मार्ग अपनाया और इसके आधिक्य को गैर कृषि क्षेत्र के विकास में प्रयोग किया गया।
यूएसएसआर ने 1927 से सामूहिक कृषि प्रणाली अपनाकर बड़े पैमाने पर यंत्रीकृत कृषि प्रणाली अपनाकर कृषि विकास किया। जापान ने भी कृषि अतिरेक का गैर कृषि कार्यों में प्रयोग किया। यह अनुमान किया गया है कि जापान ने 1890 से 1920 की अवधि में कृषि उत्पादन में लगभग 77 प्रतिशत वृद्धि की। इसमें 31 प्रतिशत उत्पादन में वृद्धि फसल के अंतर्गत क्षेत्र बढ़ने के कारण और 46 प्रतिशत उत्पादन कृषि उत्पादकता में वृद्धि के कारण बढ़ा। ताइवान और दक्षिणी कोरिया के आर्थिक विकास में भी कृषि क्षेत्र की भूमिका निर्णायक रही है।
विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के उपरोक्त अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास की पूर्वापेक्षा कृषि क्षेत्र का विकास है। कृषि क्षेत्र का विकास कृषि एवं संबद्ध क्रियाओं में लगे हुए लोगों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार करता ही है, साथ ही यह गैर कृषि क्षेत्र के लिये खाद्यान्न, कच्चा पदार्थ, बाजार और श्रम शक्ति की आपूर्ति करता है। इस प्रकार कृषि उत्पादन आर्थिक विकास में पाँच प्रकार से सहायक होता है।
1. आर्थिक विकास के साथ कृषि उत्पाद विशेषकर खाद्यान्नों की मांग बढ़ती है।
2. कृषि उत्पादों के निर्यात से विदेशी विनिमय की प्राप्ति होती है। आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में विदेशी विनिमय की प्राप्ति आवश्यक होती है।
3. नवीन औद्योगिक क्षेत्रों और इकाइयों को श्रमशक्ति की प्राप्ति कृषि क्षेत्र से ही होती है।
4. विकास के प्राथमिक चरण में परिवहन और औद्योगिक विकास के लिये संसाधन आपूर्ति कृषि क्षेत्र से ही होती है।
5. ग्रामीण जनसंख्या की आय में वृद्धि होने पर औद्योगिक उत्पादनों की मांग बढ़ती है। मांग में वृद्धि औद्योगिक क्रियाओं में प्रसार के लिये प्रमुख प्रेरक शक्ति होती है।
कृषि विकास किसी अर्थव्यवस्था के समग्र विकास में कई रूपों में सहायक है अत: कृषि क्षेत्र में विनियोग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र समस्त आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। भारत में अनुकूल कृषि वर्ष अर्थव्यवस्था के लिये समृद्धि का वर्ष होता है प्रतिकूल कृषि वर्ष में अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है। इन अनुभवपरक तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत का आर्थिक ढाँचा आज भी कृषि पर ही निर्भर है। भारत जैसे विशाल भूभाग वाले देश में कृषि भूमि के समुचित उपयोग से ही राष्ट्रीय समृद्धि तथा व्यक्तिगत विकास संभव है, इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भूमि की क्षमता, उवर्रता तथा उसके समुचित उपयोग का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ऐसे अध्ययनों से ही कृषि उत्पादन संबंधी तथ्यों का ज्ञान प्राप्त होता है जिसके आधार पर कृषि संबंधी योजनायें बनाई जा सकती हैं। भारत में यद्यपि 1 अप्रैल 1951 से नियोजन प्रारंभ हुआ, परंतु प्रथम द्वितीय तथा तृतीय योजनायें कृषि भूमि उपयोग सर्वेक्षण तक सीमित रही और कृषि उत्पादन, उत्पादिता तथा कृषि क्षेत्र को सुदृढ़ करने हेतु सार्थक प्रयास चतुर्थ पंचवर्षीय योजना से प्रारंभ किये गये जिसमें 390 लाख एकड़ भूमि को खाद्यान्नों की अधिक उपजाऊ बीजों द्वारा बोने का तथा 250 लाख एकड़ भूमि को बहु फसली योजना के अंतर्गत लाने का लक्ष्य प्रस्तावित किया गया था, जिसमें इस लक्ष्य की पूर्ति हो गई।
1980 तक भूमि सुधार के रूप में लगभग 4.5 लाख हेक्टेयर भूमि की चकबंदी भी की गयी थी। पाँचवी योजना में 131 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि को सिंचाई के अधीन लाने का प्रस्ताव किया गया था इस लक्ष्य की भी पूर्ति की गयी। पाँचवी योजना की तुलना में छठी योजना में कृषि एवं संबंधित कार्यक्रमों में ढाई गुना तथा सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर लगभग साढ़े तीन गुना व्यय बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया। छठी योजना के अंतर्गत सघन कृषि हेतु अधिक उपज देने वाले बीजों तथा नवीनतम उत्पादन तकनीक की जानकारी के लिये अनेक कार्यक्रम संचालित किये गये जिनमें मृदा संरक्षण की व्यवस्था, उर्वरकों की प्रचुरता, उत्तम बीजों की उपलब्धि, कृषक सेवा संस्थाओं में वृद्धि कृषि अनुसंधानशालाओं एवं शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना प्रमुख रहे।
सातवीं योजना में कृषि विकास के लिये अधिक तीव्र दर की लक्ष्य रखा गया ताकि बढ़े हुए उपभोग स्तर पर खाद्यान्नों तथा खाद्य तेलों की मांग पूरी की जा सके और इनमें आत्म निर्भरता प्राप्त की जा सके। अब कृषि नीति सामाजिक न्याय के साथ-साथ उत्पादन बढ़ाने के अतिरिक्त पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी सजग हो गयी है, क्योंकि भूमि और जल संसाधन को प्रदूषण से बचाना आवश्यक हो गया है। जुलाई 1991 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा के बाद कृषि जैसे विशाल क्षेत्र के लिये कोई राष्ट्रीय नीति न हो तो अर्थ व्यवस्था में भारी शून्यता का अनुभव होता है क्योंकि कृषि राष्ट्र का गौरव ही नहीं बल्कि संपूर्ण अर्थ व्यवस्था की प्राण वायु भी है, इस महत्व को ध्यान में रखकर कृषि मंत्री डा. बलराम जाखड़ ने राष्ट्रीय कृषि नीति का मसौदा तैयार किया जिसे कुछ संसोधनों के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्वीकृति दे दी।
यह नीति सैद्धांतिक आदर्शों के बजाय वास्तविकताओं पर आधारित है इस नीति में कुल 144 सौदो रहे जिनमें कृषि संबंधित विभिन्न अवयव जैसे - भू स्वामित्व, विपणन, भंडारण, कृषि में निवेश, उत्पादन और उत्पादकता, उन्नत किस्म के बीज, सहकारी संस्थाओं को पुनर्जीवित करना, कृषि अनुसंधान, कृषि मशीनरी, फसल बीमा, खाद्यान्य उत्पादों का प्रसंस्करण, कृषि का औद्योगीकरण, जल संसाधन तथा कृषि का विविधीकरण आदि। जिन मसौदों से कृषक तथा कृषि अत्यधिक लाभान्वित होंगे उनमें दो मसौदे अति महत्त्वपूर्ण है- प्रथम मसौदे का संबंध फसल तथा पशुधन बीमा योजना से और दूसरे का संबंध कृषि को उद्योग का दर्जा देने से है इन मसौदों के अतिरिक्त नई कृषि नीति में दो बिंदुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है। प्रथम बढ़ती हुई आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करना द्वितीय उन क्षेत्रों का विकास करना जिनकी क्षमता का दोहन अभी तक नहीं किया जा सका है।
स्वतंत्रता के बाद योजनाकाल में खाद्यान्नों के उत्पादन में सराहनीय प्रगति के बावजूद भी भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक खाद्यान्न उपलब्धता 415 ग्राम ही है, यदि पिछले बीस वर्षों का औसत देखें तो प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता लगभग 497 ग्राम है। यदि हम हर भारतीय को औसत 500 ग्राम खाद्यान्य भी न दे तो कृषि क्षेत्र में हमारी उपलब्धि का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। राष्ट्रीय कृषि आयोजनों ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2000 तक खाद्यान्नों की मांग 22 करोड़ 50 लाख टन होगी, यदि खाद्यान्नों की उत्पादकता तेजी से न बढ़ाई गई और बीच में कभी सूखा या बाढ़ आ गयी तो देशवासियों की खाद्यान्न की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति कठिन हो जायेगी ऐसी स्थिति में न फसल बीमा योजना काम करेगी और न कृषि को उद्योग का दर्जा देने की नीति। हमें उन क्षेत्रों का विकास करना चाहिए जिनकी क्षमता का अभी तक दोहन नहीं हो सका है। अनुमान है कि भारत में कृषि क्षमता का 40 प्रतिशत से अधिक का उपयोग नहीं हो पाया है। लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि गैर बंजर भूमि है जिसका प्रयोग अत्यावश्यक है। कृषि क्षेत्र को अधिक लाभप्रद बनाने के लिये शोधकर्ता के दृष्टिकोण से निम्निलिखित कार्यक्रमों को प्रोत्साहित ही नहीं करना है वास्तविकता का जामा पहनाना होगा।
1. मृदा सर्वेक्षण तथा मृदा संरक्षण।
2. अधिकतम कृषकों को कृषि की नवीनतम तकनीक का ज्ञान कराना
3. भूमिगत जल के वैज्ञानिक प्रयोग पर बल देना।
4. जल संसाधन के दुरुपयोग को रोकना।
5. कृषकों को समुचित प्रशिक्षण प्रदान करना।
6. मोटे अनाज के क्षेत्र में विस्तार करना।
7. दलहनी तथा तिलहनी फसलों का अधिक उत्पादन।
8. मुद्रा दायिनी फसलों का परंपरागत फसलों के साथ समायोजन।
9. नहरों की सुरक्षा एवं उनके उचित जल प्रबंध की व्यवस्था करना।
10. जैविक उर्वरकों के प्रयोग को प्रोत्साहन।
11. पशुओं की नश्लों में सुधार।
12. पशुओं के चारे वाली फसलों को प्रोत्साहन।
तालिका क्रमांक 01 अध्ययन क्षेत्र में जनसंख्या का वर्गीकरण (प्रक्षेपित 1997) | |||||
संकेतक | कुल | ग्रामीण | शहरी | ग्रामीण क्षेत्र की भागेदारी प्रतिशत | |
1. | जनसंख्या | 2529041 | 2389438 | 139603 | 94.48 |
2. | कृषक | 450372 | 444351 | 6021 | 98.66 |
3. | कृषि श्रमिक | 158327 | 154936 | 3391 | 57.86 |
4. | पशुपालन, वृक्षारोपण | 3075 | 2462 | 613 | 80.07 |
5. | खान खोदना | 158 | 151 | 07 | 95.57 |
6. | पारिवारिक उद्योग | 14018 | 12872 | 1146 | 91.82 |
7. | गैर पारिवारिक | 16843 | 13538 | 3305 | 80.38 |
8. | निर्माण कार्य | 17591 | 11087 | 6504 | 63.03 |
9. | व्यापार एवं वाणिज्य | 33223 | 22454 | 10769 | 67.59 |
10. | यातायात एवं संचार | 10528 | 8377 | 2151 | 79.57 |
11. | अन्य कर्मकार | 45333 | 37696 | 7637 | 83.15 |
12. | कुल मुख्य कर्मकार | 749468 | 707924 | 41544 | 94.46 |
13. | सीमांत कर्मकार | 70683 | 69633 | 1050 | 98.51 |
| योग (12+13) | 820151 | 777557 | 42594 | 94.81 |
तालिका 0.2 ग्रामीण समाज का स्वरूप और उनकी साधन उपलब्धि | |||
(अ) | कृषि क्षेत्र | भूमि श्रम अनुपात | रोजगार का स्वरूप |
| बड़े कृषक | भूमि > श्रम | प्रमुखत: नियोजक |
| माध्यम कृषक | भूमि > श्रम | अनियमित नियोजक |
| छोटे कृषक | भूमि < श्रम | अनियमित श्रमिक |
| सीमांत कृषक | भूमि < श्रम | प्रमुखत: श्रमिक |
| भूमिहीन | पात्र श्रम | पूर्णत: श्रमिक |
तालिका 0.3 खाद्यान्नों में खाने योग्य भाग | |||||
क्र. | खाद्य फसलें | बीज एवं भंडारण क्षय (प्रतिशत) | शुद्ध उत्पादन (प्रतिशत) | खाने योग्य भाग (प्रतिशत) | क्षीजन (प्रतिशत) |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. | धान ज्वार बाजरा मक्का गेहूँ जौ अरहर चना मटर उरद/मूंग लाही गन्ना आलू | 10 10 10 10 10 10 10 10 10 10 02 10 10 | 90 90 90 90 90 90 90 90 90 90 98 90 90 | 60 90 90 90 95 90 65 70 70 70 36 12 75 | 40 10 10 10 05 10 35 30 30 30 64 88 25 |
स्रोत : सिंह, एसपी ‘‘पावर्टी फूड एंड न्यूट्रीशन इन इंडिया 1991 पी. 68. |
तालिका 0.4 प्रतिदिन अनुमन्य न्यूनतम कैलोरी | ||
पुरुष | हल्का कार्य | 2400 |
| मध्यम कार्य | 2800 |
| भारी कार्य | 3900 |
महिला | हल्का कार्य | 1900 |
| मध्यम कार्य | 2200 |
| भारी कार्य | 3000 |
| गर्भवती | 3300 |
| स्तनपान कराने वाली | 3700 |
बच्चे | 1 से 3 वर्ष | 1200 |
| 4 से 6 वर्ष | 1500 |
| 7 से 9 वर्ष | 1800 |
| 10 से 12 वर्ष | 2100 |
| 13 से 15 लड़के | 2500 |
| 13 से 15 लड़कियाँ | 2200 |
| 16 से 18 लड़के | 3000 |
| 16 से 18 लड़कियाँ | 2200 |
| औसत | 2481.25 |
स्रोत : एम. स्वामीनाथन ‘ह्यूमेन न्यूट्रीशन डाइट’ 1983 पृ. 57 |
सारणी क्रमांक 0.4 में प्रतिदिन अनुमन्य न्यूनतम कैलोरिक आवश्यकता को विभिन्न लिंग एवं आयु वर्गानुसार प्रस्तुत किया गया है इसके साथ ही लोगों द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कार्यों के अनुसार भी आवश्यक ऊर्जा को सारिणी 0.5 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी क्रमांक 0.5 विभिन्न कार्यों के लिये प्रति घंटे प्रति किलोग्राम भार वाले शरीर को कैलोरिक आवश्यकता | ||
क्र. | कार्य का विवरण | प्रति घंटे प्रति किलोग्राम कैलोरिक आवश्यकता |
1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. | सोना विश्राम के लिये लेटने पर सोचने पर अध्ययन (शांति से) ताश खेलना कक्षा का कार्य अध्ययन (चिल्लाकर) लिखना बुनाई करना भोजन करना गीत गाना कार्यालय का कार्य टंकण फर्श पर झाड़ू लगाना कार चलाना टहलना (4 किमी प्रति घंटे) मोटर साइकिल चलाना वृक्षारोपण तथा लकड़ी काटना साइकिल चलाना (16 किमी प्रति घंटा) कपड़े धोना निराई-गुड़ाई गेंद फेंकना घोड़े पर चढ़ना हल चलाना तैरना दौड़ना (9 किमी प्रति घंटा) मिट्टी खोदना तेज गति से टहलना दैनिक सामान्य कार्य स्कटिंग | 0.9 1.1 1.25 1.22 1.26 1.47 1.50 1.60 1.6 1.4 1.74 1.74 1.93 2.40 2.63 2.86 3.20 4.20 4.40 4.90 5.17 5.80 5.30 5.88 7.10 8.17 8.20 9.80 2.5 4.5 |
स्रोत : आरएस थापर ‘अवर फूट’ पृ. – 8 |
गणना विधि :
एक व्यक्ति जिसका शारीरिक भार 60 किलोग्राम है
1. एक कृषक जो हल चलाने का कार्य करता है-
अ. | प्रात: 5 बजे से 8 बजे तक |
|
|
|
| दैनिक कार्य तथा पशुओं को चारापानी | (2.5X3X60) | = | 450.0 |
ब. | प्रात: 8 बजे से 12 बजे तक हल चलाना | (5.88X4X60) | = | 1411.2 |
स. | अपराह्न 12 से 3 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X3X60) | = | 450.0 |
द. | अपराह्न 3 से 6 बजे तक हल चलाना | (5.88X3X60) | = | 1058.4 |
य. | शायं 6 से 10 बजे तक |
|
|
|
| दैनिक कार्य तथा पशुओं को चारा पानी | (2.5X4X60) | = | 600.0 |
र. | रात्रि 10 बजे से प्रात: 5 बजे तक सोना | (0.9X7X60) | = | 378.0 |
|
| योग | = | 4347.6 |
अ. | प्रात: 5 से 7 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X2X60) | = | 300.0 |
ब. | प्रात: 7 से 8 बजे तक सड़क तक पहुँचना। | (2.86X1X60) | = | 171.6 |
स. | प्रात: 8 से 12 बजे तक मिट्टी खोदना। | (8.2X4X60) | = | 1968.0 |
द. | 12 बजे से 12.30 तक भोजन करना। | (1.4X5X60) | = | 42.0 |
य. | 12.30 से 2 बजे तक विश्राम | (1.1X1.5X60) | = | 99.0 |
र. | 2 से 6 बजे तक पुन: मिट्टी खोदना | (8.2X4X60) | = | 1968.0 |
ल. | 6 से 7 बजे तक घर वापसी | (2.86X1X60) | = | 171.6 |
व. | 7 से 9 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X2X60) | = | 300.0 |
स. | 9 से प्रात: 5 बजे तक सोना | (.9X8X60) | = | 432.0 |
|
| योग |
| 5452.2 |
अ. | प्रात: 5 से 9.30 बजे तक दैनिक कार्य | (2.5X3X60) | = | 525.0 |
ब. | प्रात: 9.30 बजे से 10 बजे तक स्कूल पहुँचना (साइकिल से) | (4.4X5X60) | = | 132.0 |
स. | 10 बजे से 4 बजे तक अध्यापन कार्य | (1.5X6X60) | = | 547.2 |
| 4 से 4.30 बजे तक घर वापसी | (4.4X5X60) | = | 132.0 |
| 4.30 से 10 बजे तक दैनिक कार्य | (1.43X5.50X60) | = | 471.90 |
| 10 से प्रात: 6 बजे तक सोना | (.9X8X60) | = | 432.0 |
|
| योग |
| 2239.90 |
5. सस्य संयोजन -
सस्य संयोजन के लिये दोई थामस तथा रफीउल्लाह की विधियों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।
6. कार्य संगठन -
प्रस्तुत शोध अध्ययन को सरल बनाने के लिये 10 भागों में विभाजित किया गया है जिसकी प्रस्तावना में अध्ययन की आवश्यकता, अध्ययन का महत्त्व, अध्ययन के उद्देश्य, शोध विधि आदि का विवरण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय प्रथम अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान भौगोलिक तथा सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंधित है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र की अवस्थिति प्रशासनिक संगठन, उच्चावच, प्रवाह-प्रणाली, मिट्टी, जलवायु प्राकृतिक वनस्पति आदि भौगोलिक जानकारियों के साथ-साथ जनसंख्या का वितरण, पैकिंग तथा भंडारण सुविधायें, औद्योगिक स्थिति से संबंधित वर्तमान स्थिति को प्रस्तुत किया गया है। अध्याय द्वितीय सामान्य भूमि उपयोग तथा कृषि भूमि उपयोग से संबंधित है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र में विकासखंड स्तर पर सामान्य भूमि उपयोग वन, कृषि के लिये अनुपलब्ध भूमि, परती के अतिरिक्त अन्य आकर्षित भूमि, परती भूमि कृषि योग्य बंजर भूमि तथा कृषि भूमि उपयोग से संबंधित तथ्यों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, साथ ही साथ कृषि भूमि उपयोग को प्रमाणित करने वाले कारणों की व्यवस्था की गई है।
अध्याय तृतीय कृषि भूमि उपयोग में प्रयुक्त होने वाले तकनीकी स्तर से संबंधित है क्योंकि भूमि एक स्थिर संसाधन है जिसे समाज के प्रयोग की दृष्टि से घटाया बढ़ाया नहीं जा सकता है अत: भूमि के आकार को बढ़ाकर उत्पादन वृद्धि की संभावनायें अब अत्यंत सीमित है तब फिर बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति का एक मात्र उपाय गहरी खेती ही शेष बचता है। जिसके लिये कृषि के आधुनिकीकरण का सुझाव दिया जाता है। कृषि के आधुनिकीकरण में उन्नतिशील (अधिक उपज देने वाले) वीजों का अधिकाधिक प्रयोग सिंचन सुविधाओं में वृद्धि, रासायनिक उर्वरकों का विस्तृत प्रयोग, कृषि कार्यों में आधुनिक यंत्रों का प्रयोग, फसल को खर पतवार, कीड़े मकौड़े तथा विभिन्न रोगों से बचाने हेतु कीटनाशकों तथा रोग निवारक औषधियों का प्रयोग सम्मिलित है। इन तथ्यों के संदर्भ में अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत गहरी खेती की वर्तमान स्थिति तथा भावी संभावनाओं पर विचार किया गया है। चतुर्थ अध्याय फसल प्रतिरूप से संबंधित है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों के क्षेत्रफल का विवरण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न खाद्यान्न फसलों, व्यावसायिक फसलों की वर्तमान स्थिति तथा भावी संभावनाओं को खोजने का प्रयास किया गया है, साथ ही सस्य संयोजन और सस्य विभेदीकरण की स्थिति भी विकासखंड स्तर पर जानकारी प्राप्त की गई है।
पंचम अध्याय में कृषि उत्पादकता तथा जनसंख्या संतुलन का विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसमें विभिन्न विद्धानों द्वारा प्रस्तुत कृषि उत्पादन मापन विधियों का उल्लेख करते हुए अध्ययन क्षेत्र में कृषि उत्पादकता के वर्तमान स्तर को ज्ञात करने का प्रयास सम्मिलित है साथ ही साथ उपलब्ध कृषि उत्पादन तथा जनसंख्या के भरण पोषण की स्थिति का भी तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। अध्याय षष्टम में प्रति चयनित 300 कृषक परिवारों के कृषि प्रारूप, कृषि उत्पादकता तथा वर्तमान खाद्यान्न उपलब्धता की स्थिति को दर्शाया गया है जिसमें विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल, फसलोत्पादकता तथा प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता का मापन किया गया है। अध्याय सप्तम प्रतिचयित कृषकों के भोजन में पोषक तत्व तथा उनका पोषण स्तर का चित्र प्रस्तुत करता है जिसमें भोजन की रासायनिक रचना के अंतर्गत शरीर के लिये आवश्यक पोषक तत्व प्रतिचयित कृषकों के प्रचलित आहार प्रतिरूप तथा विभिन्न खाद्य पदार्थों में प्राप्त होने वाले विभिन्न पोषक तत्वों का विवरण दिया गया है।
अध्याय अष्ठम में प्रतिचयित कृषक परिवारों के स्वास्थ्य स्तर का मापन किया गया है जिसमें प्रतिचयित परिवारों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भोजन में प्राप्त पोषक तत्वों का स्तर उनकी मात्रात्मक एवं गुणात्मक स्तर तथा अनुमन्य मानक स्तर से न्यूनता अथवा अधिकता का आकलन करके अति पोषण तथा अल्प पोषण अथवा कुपोषण की गणना की गयी है। साथ ही कुपोषण तथा अति पोषण से उत्पन्न रोगों का वर्गीकरण करते हुए प्रति चयित कृषक परिवारों में पोषण संबंधी रोगों से प्रभावित सदस्यों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय नवम में कृषि उत्पादकता में वृद्धि के प्रयासों का समावेश किया गया है। जिसमें पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार द्वारा कृषि उत्पादकता में वृद्धि पोषण स्तर में वृद्धि तथा भावी व्यूह की रचना संबंधी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। अध्याय दशम निष्कर्ष और सुझावों से संबंधित है जिसमें संपूर्ण क्षेत्र के शोध विषय से संबंधित निष्कर्षों सहित कुछ सामयिक सुझाव भी प्रस्तुत किये गये हैं जिसको ध्यान में रखकर यदि विकास योजनाओं का संचालन किया जाता है तो अध्ययन क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या का गुणात्मक एवं मात्रात्मक संतुलित पोषण संभव बनाया जा सकता है।
कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ |
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7 | कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति |
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11 | कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव |