जल संरक्षण

पर्यावरण संरक्षण की ललक ऐसी 62 गांव में खड़ा कर दिया महिला संगठन

शिवेंद्र, मीनाक्षी अरोरा

प्यार से पर्यावरण वाले मास्साब के नाम से जाने जाने वाले मोहन चंद्र कांडपाल का जन्म वर्ष 1966 में कुमाऊं की पहाड़ियों में स्थित अल्मोड़ा, उत्तराखंड के विकासखंड द्वाराहाट के ग्राम कांडे में श्री गोपाल दत्त कांडपाल जी के परिवार में हुआ था। उनके पिता कानपुर में एक बैंक में कर्मचारी थे। 5 वर्ष की उम्र में वह पिता के साथ रहने कानपुर चले गए। बचपन वह रामकृष्ण मिशन आश्रम में जाते व वहां के साहित्य को पढ़ते थे। इसी कारण स्वामी विवेकानंद का उन पर बहुत प्रभाव है। 

अपने गांव के किशोरों का मार्गदर्शन देने के लिए उन्होंने अपने गांव के पंचायत घर में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ व्यावहारिक व पर्यावरण शिक्षा देना शुरू किया। यह वह समय था जब युवा रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहे थे।  कांडपाल जी को भी गांव में रहने हेतु कुछ वित्तीय सहायता की आवश्यकता थी। इसलिए उन्होंने पास के एक इंटर कॉलेज में अध्यापन का कार्य प्रारंभ कर दिया। अपने शिक्षण के साथ-साथ उन्होंने कालेज में विज्ञान क्लब व पर्यावरण चेतना मंच की स्थापना की। उस समय उनके क्षेत्र में या तो पहाड़ बंजर थे या फिर चीड़ के वृक्ष थे जो जल संरक्षण व चारे के लिए फायदेमंद नहीं थे। पर्यावरण चेतना मंच के विद्यार्थियों के साथ उन्होंने स्कूल परिसर और आसपास के गांव में जल संरक्षण वाले पेड़ लगाना प्रारंभ किया। उन्होंने विद्यार्थियों को उनके घरों में पौधे लगाने हेतु दिए जो आज लगभग 30 वर्षों में सुंदर जंगल बन गए हैं। 

वर्ष 1992 में पर्यावरण चेतना मंच के माध्यम से उन्होंने तीन दिवसीय उत्तराखंड स्तरीय संगोष्ठी का आयोजन कॉलेज में किया। इस संगोष्ठी में सर्वसम्मति से निष्कर्ष निकला कि उत्तराखंड के ग्रामीण विकास के लिए हमें गांव की महिलाओं में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता की जरूरत है। लेकिन इस बैठक में कुल 4 महिलाएं मौजूद थीं। कांडपाल जी ने संगोष्ठी में कहा कि वह अध्यापन के साथ-साथ समाज की रूढ़ीवादी मानसिकता को तोड़ने और समुदाय की महिलाओं में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए अपने आस-पास के गांव में कार्य करेंगे।

क्षेत्रीय स्तर पर ग्रामीण विकास व पर्यावरण संरक्षण हेतु जनता के सहयोग से कार्य करने हेतु उन्होंने 5 जून 1993 को एक सामाजिक संगठन 'पर्यावरण शिक्षण एवं ग्रामोत्थान समिति - सीड' का गठन किया। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने गांव-गांव घूम-घूम कर महिला मंगल दलों का गठन प्रारंभ किया। धीरे-धीरे महिलाएं मासिक बैठकों में अपने विचार के साथ-साथ अपनी समस्याओं को भी रखने लगीं। कांडपाल जी ने उनकी समस्याओं के समाधान पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया।

महिलाओं की मूल समस्या थी, उनके छोटे-छोटे बच्चों की देखरेख खेतों में व अन्य कार्यों से बाहर जाने पर वह अपने बच्चों को या तो बांधकर जाती थीं या फिर कमरे में बंद करके। जिससे वह मानसिक रूप से परेशान रहती थीं, उनकी इस समस्या के समाधान हेतु उन्होंने बालवाड़ी चलाई। जिसकी देखरेख व सही तरीके से संचालन की पूर्ण जिम्मेदारी गांव के महिला मंगल दलों को सौंपी गई। इन केंद्रों पर 1 से 5 वर्ष तक के बच्चों को महिलाएं 4 घंटे छोड़ जाती थीं, जहां उन्हें खेल खेल में स्वच्छता व पर्यावरण शिक्षा दी जाती थी। अब वह निश्चिंत होकर 4 घंटे अपना काम करती थीं।

मोहन चंद्र कांडपाल द्वारा गांव-गांव घूमकर खाव बनाने व पुन: खेती करने हेतु एक नारा 'पानी बोओ व पानी उगाओ का दिया गया है। पिछले 9 से 10 वर्ष से उनके द्वारा रिस्कन नदी जो लगभग 40 किमी की दूरी तय कर गगास, रामगंगा से होते हुए गंगा नदी में समा जाती है। उसे बचाने हेतु प्रयास किया जा रहा है। रिस्कन नदी पर 46 गांव का अस्तित्व निर्भर करता है। मई-जून में यह नदी कुछ वर्ष पूर्व पूर्ण रूप से सूख जाती थी। उनके द्वारा ‘पानी बोओ, पानी उगाओ’ अभियान के माध्यम से जागरूकता लाने के साथ-साथ प्रयोगात्मक कार्य ग्रामीणों के साथ मिलकर रिस्कन नदी बचाने का के प्रयास किए जा रहे हैं। जिसके अंतर्गत गांव में पूजाकार्य, नौकरी लगने, सेवानिवृत्त होने, शादी व संतान होने पर लोगों से अपील की जाती है कि वह जल संरक्षण हेतु खाव खुदवाएं व पेड़ लगाएं। 

रिस्कन नदी 40 किमी लंबी है। अब तक बने 5000 से अधिक खावों का प्रभाव कहीं-कहीं दिखाई देने लगा है। लेकिन एक नदी को जिंदा होने के लिए पर्याप्त नहीं है। रिस्कन नदी को बचाने हेतु उनके द्वारा माननीय प्रधानमंत्री महोदय, माननीय जल शक्ति मंत्री भारत सरकार व माननीय मुख्यमंत्री उत्तराखंड से भी निवेदन किया गया है।

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