धान संग मछली पालन के तहत किसान एक साथ धान की खेती और मछली पालन कर सकते हैं। इस तरह की खेती का चलन चीन, बांग्लादेश, मलेशिया, कोरिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड मैं बढ़-चढ़कर है। भारत में हालांकि ये तकनीक अभी कम प्रचलित है, लेकिन इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। भारत में भी झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश समेत कई इलाकों में धान संग मछली पालन के जरिए किसान दोगुनी कमाई कर रहे हैं। भारत में मछली की प्रमुख नस्ल मीठे पानी में मछली पालन के लिए विशेष जाति नस्ल) की मछलियों का ही चयन किया जाता है। इनमें प्रमुख रूप से कतला, रोहू (लेबियो), प्रगल, आदि देशी मछलियों प्रमुख है। इसके अलावा विदेशी मछलियों में जैसे सिल्वर कार्प, कॉमन कार्प, ग्रासकार्प को सम्मिलित किया जाता है।
जलाशय में मछलियों को दो प्रकार के भोजन की आवश्यकता होती है-
प्राकृतिक भोजन यह सूक्ष्म पादप एवं सूक्ष्म जंतु होते हैं, इनका उत्पादन नियमित होता रहे, इसके लिए कृत्रिम खाद एवं उर्वरक का उपयोग किया जाता है। इसके लिए जैविक खाद और मुर्गियों की बीट डाली जाती है। जल की अम्लीयता को कम करने के लिए चूने की अल्प मात्रा भी मिलाई जाती है। प्राकृतिक भोजन के साथ साथ मछलियों की उपयुक्त एवं तीव्र वृद्धि के लिए कृत्रिम भोजन का अपना महत्व है। इनमें चावल की भूसी, अनाज के टुकड़े, चावल का चापड़, सोयाबीन, खमीर, बादाम की खली आदि प्रमुख है।
छोटी मछलियों को जीरा कहते हैं। जीरे की लम्बाई 1 से 1.5 इंच की होती है। तालाब में जीरे की निश्चित मात्र ही डालें। तालाब में डालने से पूर्व इन्हें कुछ समय के लिए 3 प्रतिशत नमक अथवा पोटेशियम परमैंगनेट के घोल में रखें जिससे ये परजीवी मुक्त हो सकें। जीरा तीन-चार माह के बाद अंगुलिकाएं बन जाती है। इसकी लम्बाई तीन से चार इंच की होती है। यही अवस्था 6 से 12 माह में वृद्धि कर वयस्क मछली में बदल जाती है।
इस तरह की खेती के लिए निचली जमीन वाले खेत का चुनाव किया जाता है। इस तरह के खेत में आसनी से पानी इकट्ठा रहता है। साथ ही खेत को तैयार करने के लिए जैविक खाद पर ही निर्भर रहना चाहिए। आमतौर पर मीडियम टेक्साचर वाली गाद वाली मिट्टी सबसे बेहतर मानी जाती है।
इस तकनीक के तहत धान की फसल के लिए जमा पानी में ही मछली पालन किया जाता है। धान के खेत में जहां मछलियों को चारा मिलता है, वहीं मछली द्वारा निकलने वाले वेस्ट पदार्थ धान की फसल के लिए जैविक खाद का काम करते हैं। इससे फसल भी अच्छी होती है और मछली पालन भी होता है। किसानों को इस तरह 1.5 से 1.2. किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति सीजन के हिसाब से मछली की उपज मिल सकती है।
धान के खेत में मछली पालन करने की वजह से फसल को नुकसान पहुंचने का खतरा न के बराबर रहता है। धान के खेत में मछली धान की सड़ी-गली पत्तियों एवं अन्य खरपतवारों, कीड़े मकोड़ों को खा जाती है। इससे फसल की गुणवत्ता तो बढ़ती ही है, साथ ही धान के उत्पादन में भी वृद्धि होती है। साथ ही इस तकनीक से जल और जमीन का किफायती उपयोग होता है। धान की फसल काटने के बाद खेत में फिर से पानी भरकर मछली पालन किया जा सकता है।
• मिट्टी की सेहत और उत्पादकता बढ़ती है।
• प्रति यूनिट एरिया पर कमाई बढ़ती है।
• उत्पादन खर्च कम होता है।
• फार्म इनपुट की कम जरूरत पड़ती है।
• किसानों के लिए एक से ज्यादा इनकम सोर्स बनता है।
• पारिवारिक इनकम सपोर्ट मिलता है।
• फैमिली लेबर का पूरा सदुपयोग।
• केमिकल उर्वरक पर कम खर्च।
• किसानों के संतुलित व पौष्टिक।
• किसानों की स्टेटस और जीविका में सुधार।
धान के साथ मछली पालन करते वक्त इस बात का ध्यान रखें कि भूमि में अधिक से अधिक पानी रोकने की क्षमता हो। खेत में पानी की उचित व्यवस्था मछली पालन के लिए आवश्यक है। इसमें किसान अपने खेत के चारो तरफ जाल की सीमा बनाकर इनरा पद्धति से खेती कर सकते हैं, ताकि खेत में पानी जमा रहे और मछलियां बाहर नहीं जा पाए। धान संग मछली पालन पद्धति में मछलियों की चोरी तथा पक्षियों से सुरक्षा के उपाय पर भी व्यान देने की जरूरत है। ध्यान रहे कि इस तरीके से मछलियों का उत्पादन खेती, प्रजाति और उसके प्रबंधन पर निर्भर करता है। इस प्रकार की खेती सीमान्त एवं लघु किसानों की आर्थिक उन्नति और प्रगति में विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध हो सकती है।
लेखकगण डॉ. शुची गंगवार, पीयूष श्रीवास्तव, डॉ. प्रशांत सिंह कोराव, डॉ. सुमित काकडे ‘आरकेडीएफ विवि’, भोपाल से संबद्ध हैं।
संपर्क - पीयूष श्रीवास्तव, सहायक प्रोफेसर कृषि संकाय 007peeyushrivastav@gmail.com