इस्कुट, जिसे स्थानीय लोग चायोटे कहते हैं, मिज़ोरम के लोगों के लिए केवल एक सब्ज़ी नहीं, बल्कि उनकी रोज़ी-रोटी का ज़रिया रहा है। चित्र: विकीमीडिया कॉमन्स
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मिज़ोरम के इस्कुट किसान: न जैविक खाद, न रासायनिक उर्वरक - खेती का संकट और समाधान की तलाश

सिहफिर गांव में इस्कुट उत्पादन में गिरावट आई है, और खेतों में बेलें और उपज पहले जैसी नहीं हैं। बदलते मौसम, मिट्टी की गिरती गुणवत्ता और उर्वरकों की कमी के कारण इस्कुट की पैदावार में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है।

Author : डॉ. कुमारी रोहिणी

सिहफिर गांव, आइज़ॉल डिस्ट्रिक्ट, मिज़ोरम के आइजॉल ज़िले के सिहफिर गांव कभी इस्कुट (चायोटे) का मुख्य उत्पादक हुआ करता था। यहां के बगीचों से रोज़ लगभग 20-30 ट्रक भर इस्कुट सिलचर के बाजरों तक जाती थीं। लेकिन आज स्थिति पहले जैसी नहीं रह गई है। पिछले लगभग एक दशक से इसके उत्पादन में बहुत कमी आई है। किसानों इसकी खेती के लिए न तो जैविक खाद मिल पा रहा है और न ही रासायनिक उर्वरक।

इस्कुट की खेती: इतिहास, भरोसा और गहराता संकट

इस्कुट, जिसे स्थानीय लोग चायोटे कहते हैं, मिज़ोरम की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है। यह केवल एक सब्ज़ी नहीं, बल्कि बहुत से परिवारों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया रहा है।

साल 1982 में मिज़ोरम इस्कुट ग्रोअर्स एसोसिएशन के गठन के बाद इस्कुट की खेती और विपणन सहकारी ढांचे के तहत संगठित रूप से होने लगी। इस्कुट के फल स्थानीय हाट-बाज़ारों में तो बिकते ही रहे, साथ ही पड़ोसी राज्यों तक भी पहुंचते रहे।

इस्कुट मिज़ोरम की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है और कई परिवारों की आजीविका का स्रोत है। पिछले दस साल में पैदावार गिर रही है। किसानों के अनुसार, हाल के वर्षों में वर्षा की अनियमितता बढ़ी है, जिससे वर्षा-आधारित इस्कुट खेती सीधे प्रभावित हो रही है।

इस्कुट की खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर होती है। इसलिए वसंत में पानी की कमी से बेलें सूख जाती हैं और फल ठीक से नहीं लगते।

हालांकि जिन किसानों के बगीचे प्राकृतिक झरनों के नज़दीक हैं, या जिनके पास पशुओं से मिलने वाला गोबर और जैविक खाद उपलब्ध है, वे किसी तरह थोड़ी-बहुत फसल उगा लेते हैं। हालांकि ऐसे किसानों की संख्या सीमित है।

उर्वरक संकट में फंसे किसान: कमजोर पड़ती मिट्टी और थमती फसल पैदावार

सबसे बड़ी और सबसे गंभीर समस्या उर्वरकों की कमी है। पहले हालात ऐसे नहीं थे। कृषि और बागवानी विभाग किसानों को मुफ़्त या बहुत कम दाम पर उर्वरक देते थे। जिससे ज़मीन की ताक़त बनी रहती थी और फसल का उत्पादन भी अच्छा होता था।

लेकिन अब यह सुविधा लगभग समाप्त हो चुकी है। मजबूरन किसानों को निजी दुकानदारों पर निर्भर होना पड़ गया है। वहां उर्वरक तो मिल जाते हैं, लेकिन उनके दाम इतने अधिक होते हैं कि छोटी जोत वाले आम किसानों के लिए उन्हें ख़रीद पाना लगभग असंभव होता है।

कई किसानों का कहना है कि उचित मात्रा में खाद न मिलने के कारण अब ज़मीन में पहले जैसी उर्वरता नहीं बची है। मिट्टी कमजोर हो गई है और फसल को ज़रूरी पोषण नहीं मिल पाता। इसी कारण मेहनत करने के बाद भी पैदावार कम होती जा रही है। पर्याप्त उर्वरकों के अभाव में इस्कुट की पैदावार और खेती की निरंतरता प्रभावित हो रही है।

कृषि और बागवानी विभाग किसानों को मुफ़्त या बहुत कम दाम पर उर्वरक देते थे। जिससे ज़मीन की ताक़त बनी रहती थी और फसल का उत्पादन भी अच्छा होता था।

समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। हकीकत यह है कि अगर ये उर्वरक मिज़ोरम तक पहुंच भी जाते हैं, तो कई बार डीलर और बिचौलिये उन्हें तुरंत म्यांमार की ओर भेज देते हैं। दरअसल म्यांमार की बाज़ारों में उन्हें इन उर्वरकों के लिए ऊंचे दाम तो मिलते ही हैं साथ ही वहां मांग भी ज़्यादा है।

इससे स्थानीय स्तर पर उर्वरकों की उपलब्धता और कीमतों पर दबाव बढ़ रहा है, जिसका असर किसानों की लागत और उत्पादन पर पड़ता है। मांग कम होने के कारण दुकानदार उर्वरकों का भंडारण करके किसी भी तरह का आर्थिक जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं। नतीजतन, किसानों को ज़रूरत भर उर्वरक भी नहीं मिल पाता है।

संसाधनों की कमी और आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान का सीधे असर उत्पादन और किसानों की आय पर पड़ रहा है।

उर्वरक की कमी, तस्करी और किसान की पीड़ा

मीडिया रिपोर्ट बताते हैं कि मिज़ोरम में अवैध उर्वरक तस्करी के खिलाफ कार्रवाई भी जारी है, साल 2025 में ही राज्य में 5,424 बोरा यूरिया और 300 बोरी डाय-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) ज़ब्त किए गए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उर्वरक चैनलों में अव्यवस्था और तस्करी भी एक समस्या है।

एक तरफ़ तस्करी व्यवस्था को प्रभावित करती है, वहीं दूसरी ओर यह दर्शाती है कि आपूर्ति-श्रृंखला के भीतर पारदर्शिता और संतुलन का अभाव है। जहां स्थानीय भूमि-आधारित किसानों के पास पहले से ही सीमित संसाधन हैं, वहीं बाहरी बाजार की मांग उनकी समस्याओं को और बढ़ा रही है।

जैविक खेती के वादे और किसानों की हकीकत

सरकार खेती को बढ़ावा देने की उम्मीद के साथ जैविक खेती को भी प्रोत्साहित कर रही है। जैसे कि रासायनिक उर्वरकों की जगह प्राकृतिक या जैविक विधियों को अपनाना। किसानों का कहना है कि जैविक खेती के लिए मार्गदर्शन, प्रशिक्षण और संसाधनों की कमी है, जिससे वे इसे पूरी तरह अपनाने में असमर्थ हैं।

वास्तव में, जैविक खेती का अपना एक लंबा समय-चक्र होता है। इसके लिए मिट्टी को पहले से तैयार करना और जैविक सामग्री की लगातार उपलब्धता जरूरी होती है, जो इस वक्त मिज़ोरम के इस्कुट उत्पादक किसानों के लिए संभव नहीं दिख रही। ऐसी स्थितियों में जब खेत की मिट्टी पहले से ही पोषक तत्वों से कमज़ोर हो, तो सिर्फ प्रचार से समस्या का समाधान नहीं मिल सकता।

हालांकि मिज़ोरम सरकार ने साल 1996 में ही जैविक कृषि योजनाएं लागू की हैं। साथ ही साल 2004 में मिज़ोरम ऑर्गेनिक फार्मिंग बिल भी पारित किया गया था। हालांकि इन नीतियों के बावजूद, स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण, संसाधन और निगरानी की कमी के कारण उनका प्रभाव सीमित रहा है।

बदलते मौसम और कमजोर मिट्टी: मिज़ोरम की खेती पर असर

हालांकि इस्कुट की खेती पर केवल बारिश का ही असर नहीं हो रहा। बल्कि पर्याप्त पानी की कमी के साथ ही उर्वरक और खाद का अभाव भी उत्पादन को प्रभावित कर रहा है। यही समस्या अब मिज़ोरम की अन्य फसलों पर भी असर डाल रही है। खेती अब मौसम पर भरोसा नहीं कर सकती। बारिश अनियमित है और पानी की उपलब्धता भरोसेमंद नहीं। इसका असर सीधे खेतों पर पड़ रहा है और किसान नई अनिश्चितताओं का सामना कर रहे हैं।

लेकिन पर्याप्त पानी के साथ ही उर्वरक और खाद की कमी वाली मुश्किलें केवल इस्कुट जैसी फ़सल तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि इसके कारण पूरे मिज़ोरम की खेती के ढांचे में बदलाव आ रहा है। 

मिज़ोरम में पारंपरिक खेती का सबसे व्यापक रूप ‘झूम’ है, जिसे शिफ्टिंग खेती भी कहा जाता है। इसमें ज़मीन को कुछ सालों तक खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है और फिर उसे छोड़ दिया जाता है ताकि जंगल दोबारा पनप सके।

झूम खेती में पहले लंबा परती चक्र मिट्टी की उर्वरता बनाए रखता था, लेकिन परती अवधि कम होने से अब मिट्टी की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है और उसकी उर्वरता धीरे-धीरे घट रही है। इसका असर फसलों की पैदावार पर पड़ रहा है और खेती की कुल क्षमता कमजोर होती जा रही है।

मिट्टी की सेहत में गिरावट, पोषक तत्वों की कमी और उर्वरक जैसे ज़रूरी साधनों की उपलब्धता में रुकावटें, तीनों मिलकर अब खेती की पैदावार को प्रभावित कर रही हैं।
आर. लालनुंजिरा, निदेशक, कृषि विभाग, मिज़ोरम

राज्य के कृषि विशेषज्ञों का भी अब यह स्पष्ट रूप से मानना है कि मिट्टी की सेहत में गिरावट, पोषक तत्वों की कमी और उर्वरक जैसे ज़रूरी साधनों की उपलब्धता में रुकावटें, तीनों मिलकर अब खेती की पैदावार को प्रभावित कर रही हैं। 

मिज़ोरम के कृषि विभाग के वरिष्ठ अधिकारी, कृषि निदेशक और वैज्ञानिक आर. लालनुंजिरा जैसे विशेषज्ञ मिट्टी के स्वास्थ्य, पोषण और वैज्ञानिक कृषि प्रथाओं के महत्व पर ज़ोर देते रहे हैं। वे कहते हैं कि इन समस्याओं का हल निकालना ज़रूरी है ताकि उत्पादन को बढ़ाया जा सके।

राज्य के कृषि विशेषज्ञों का भी अब यह स्पष्ट रूप से मानना है कि मिट्टी की सेहत में गिरावट, पोषक तत्वों की कमी और उर्वरक जैसे ज़रूरी साधनों की उपलब्धता में रुकावटें, तीनों मिलकर अब खेती की पैदावार को प्रभावित कर रही हैं। 

संसाधनों की कमी में किसानों की आवाज़ और उम्मीदें

स्थानीय किसान अब साफ़ तौर पर कहते हैं कि उन्हें अपने खेतों के लिए न तो पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद मिल रहे है न ही रासायनिक उर्वरक। सिहफिर गांव की इस्कुट उत्पादक एसोसिएशन के अध्यक्ष जोसांगलिआन तोचांग बताते हैं कि उन्हें अपने खेतों के लिए न तो पर्याप्त जैविक संसाधन मिल रहे हैं, न रासायनिक।

वे यह भी मानते हैं कि गांव के कुछ किसान, जिनके पास पशुधन और प्राकृतिक संसाधन हैं, वे अपेक्षाकृत बेहतर उत्पादन कर रहे हैं, लेकिन ज़्यादातर किसानों को अधिकांश किसान बारिश, उर्वरक और आमदनी की कमी से जूझना पड़ रहा है।

सिहफिर गांव की इस्कुट उत्पादक किसानों को अपने खेतों के लिए न तो पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद मिल रहे, न ही रासायनिक उर्वरक।
जोसांगलिआन तोचांग, अध्यक्ष, इस्कुट उत्पादक एसोसिएशन, सिहफिर, मिज़ोरम

आगे वे कहते हैं कि फसलों को लंबे समय तक ठीक-ठाक उत्पादन देने के लिए एक संतुलित कृषि व्यवस्था की ज़रूरत है। इसका मतलब यह नहीं कि सिर्फ़ जैविक तरीके ही अपनाए जाएं या सिर्फ़ रासायनिक ही। बल्कि मिट्टी की सेहत, मौसम, पानी और स्थानीय संसाधनों को ध्यान में रखते हुए दोनों का संतुलित उपयोग ही बेहतर उपाय है।

किसानों के संकट का हल: उपलब्ध संसाधन और व्यावहारिक कदम

इस संकट से उबारने के लिये केवल एक उपाय नहीं है, बल्कि कई तरह के परिवर्तनों को लागू करना ज़रूरी है।

स्थानीय आपूर्ति-चैनल को मजबूत बनाना: सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बिना बाहर निर्यात तस्करी के सक्रिय हुए, उर्वरक सीधे किसानों तक पहुंचे। इससे केवल उपलब्धता सुनिश्चित होगी, बल्कि स्थानीय मांग के आधार पर वितरण की क्षमता भी बढ़ेगी। 

मिट्टी और जल स्वास्थ्य का आकलन और सुधार: स्थानीय कृषि विभागों को मिट्टी स्वास्थ्य परीक्षण और जल भंडारण प्रणाली को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि किसान जान सकें कि उनके खेत को किस समय किस पोषक तत्व की ज़रूरत है। इसके लिये कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) और डिजिटल कृषि विस्तार सेवाओं का अधिक से अधिक उपयोग किया जा सकता है।

जैविक और संतुलित कृषि पद्धतियों का प्रशिक्षण: सिर्फ जैविक खेती का प्रचार नहीं, बल्कि विशिष्ट फ़सलों के लिये व्यावहारिक प्रशिक्षण, बीज चयन, कंपोस्ट प्रबंधन और जैविक पोषक तत्वों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। ऐसे मॉडल जहां जैविक और संतुलन विधियों का मिश्रण स्पष्ट रूप से दिखाया गया हो, वे किसानों के लिए सीखने योग्य उदाहरण बन सकते हैं।

स्थानीय फसलों के लिये बाजार सुदृढ़ करना: राज्य सरकार द्वारा किसान उत्पादों के सुनियोजित बाज़ार तक पहुंच को मजबूत बनाने के लिये बायर-सेलरमीट जैसे आयोजन ज़रूरी हैं। ताकि किसान अपने उत्पादों के लिए उचित दाम की मांग रखने में सक्षम हो सकें।

मिज़ोरम का कृषि संकट, खासकर इस्कुट किसानों का अनुभव, यह साफ़ करता है कि इसका हल किसी एक उपाय से नहीं हो सकता। केवल जैविक या रासायनिक उर्वरक की उपलब्धता ही पर्याप्त नहीं है। ज़रूरत है एक ऐसी बहुआयामी व्यवस्था की, जो मिट्टी, पानी, बाजार और आपूर्ति-व्यवस्था को साथ लेकर चले और किसानों की ज़रूरतों को केंद्र में रखे।

यह समस्या केवल सिहफिर गांव तक सीमित नहीं है; मिज़ोरम के कई किसान मौसम, मिट्टी की स्थिति, संसाधनों और बाजार दबाव से प्रभावित हैं। पारदर्शी आपूर्ति-व्यवस्था, मिट्टी और जल प्रबंधन तथा किसानों की जरूरतों पर आधारित नीतियां मिज़ोरम की कृषि को अधिक टिकाऊ बना सकती हैं।

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