कृषि

हजारों हेक्टेयर की जल जमाव वाली जमीन को बनाया उपजाऊ

संदीप कुमार


मखाने की खेती की विशेषता यह है कि इसकी लागत बहुत कम है। इसकी खेती के लिये तालाब होना चाहिए जिसमें 2 से ढाई फीट तक पानी रहे। पहले साल भर में एक बार ही इसकी खेती होती थी। लेकिन अब कुछ नई तकनीकों और नए बीजों के आने से मधुबनी-दरभंगा में कुछ लोग साल में दो बार भी इसकी उपज ले रहे हैं। मखाने की खेती दिसम्बर से जुलाई तक ही होती है। खुशी की बात यह है कि विश्व का 80 से 90 प्रतिशत तक मखाने का उत्पादन बिहार में ही होता है। विदेशी मुद्रा कमाने वाला यह एक अच्छा उत्पाद है। बिहार में मखाना की खेती ने न सिर्फ सीमांचल के किसानों की तकदीर बदल दी है बल्कि हजारों हेक्टेयर की जलजमाव वाली जमीन को भी उपजाऊ बना दिया है। अब तो जिले के निचले स्तर की भूमि मखाना के रूप में सोना उगल रही है। विगत डेढ़ दशक में पूर्णिया, कटिहार और अररिया जिले में मखाना की खेती शुरू की गई है। किसानों के लिये यह खेती लकी साबित हुआ है। मखाना खेती का स्वरूप मखाना खेती शुरू होने से तैयार होने तक की प्रक्रिया भी अनोखी है। नीचे जमीन में पानी रहने के बाद मखाना का बीज बोया जाता है।

वर्ष 1770 में जब पूर्णिया को जिला का दर्जा मिला तो उस समय कोसी नदी का मुख्य प्रवाह क्षेत्र पूर्णिया जिला क्षेत्र में था और प्रवाह क्षेत्र बदलते रहने से कोसी नदी की विशेषता के कारण पूरे क्षेत्र का भौगोलिक परिदृश्यों की विशेषता यह है कि यहाँ की जमीन ऊँची-नीची है। नीची जमीन होने के कारण नदियों का मुहाना बदलता रहता है कोसी के द्वारा उद्गम स्थल से लाई गई मिट्टी एवं नदी की धारा बदलने से क्षारण के रूप में नीचे जमीन सामने आती है। खासकर इन्हीं नीची जमीन में मखाना की खेती शुरू हुई थी।

साल भर जलजमाव वाली जमीन में मखाना की खेती होने लगी। खास कर कोसी नदी के क्षारण का यह क्षेत्र वर्तमान पूर्णिया जिला के सभी ब्लॉकों में मौजूद है।

दरंभगा जिला से बंगाल के मालदा जिले तक खेती

दरभंगा से पहुँचते हैं मजदूर

मखाना की खेती का उत्पादन

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