संयुक्त राष्ट्र संघ की ग्लोबल एनवायरन्मेंटल आउटलुक ने जल संकट के लिये वनों की तेजी से होती हुई कटाई को उत्तरदाई ठहराते हुए बताया है कि वनों की कटाई के कारण मिट्टी की ऊपरी सतह बह जाने के फलस्वरूप कृषि योग्य दस प्रतिशत जमीन बंजर हो जाएगी तथा विश्व की आधे से अधिक आबादी पानी की कमी से प्रभावित होगी। इस रिपोर्ट में यह भी चौंकाने वाले तथ्य उजागर किये गये हैं की तीस साल बाद मध्यपूर्वी देशों में 95 प्रतिशत लोग पेयजल की किल्लत का सामना करेंगे। यही नहीं, भूमिगत जलस्तर के तेजी से कम होने पर परिस्थिति के असंतुलन का खतरा भी मंडराने लगा है। भूजल की कमी से पृथ्वी की परतों में हवा का दबाव बढ़ जाने से भूकम्प की सम्भावना काफी बढ़ जाती है। आजकल बढ़ते भूकम्पों की संख्या इस तथ्य को तर्कसंगत सिद्ध कर रही हैं। इसके अतिरिक्त घटते भूजल के कारण विभिन्न राज्यों, प्रदेशों व क्षेत्रवासियों के मध्य तनाव, संघर्ष व स्वहित की संकीर्ण भावनाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं, जिससे मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं में गिरावट आती है।
यूँ तो हमारे शास्त्रों में वर्णित सभी पाँचों महाभूत या पंचतत्व सृष्टि में जीवन के अस्तित्व के लिये आवश्यक हैं पर इनमें भी जल की उपस्थिति जीवन की सम्भावना का आवश्यक द्योतक मानी जाती है और पृथ्वी के अतिरिक्त ग्रहों-उपग्रहों पर जीवन की सम्भावना आँकने में वैज्ञानिक जल की उपस्थिति को सबसे महत्त्वपूर्ण कारक मानते हैं। आज यह सर्वमान्य तथ्य है कि पर्याप्त जल की उपलब्धि जीवन के अस्तित्व के लिये और पर्यावरण की गुणवत्ता स्वयं जीवन की गुणवत्ता के लिये अत्यंत आवश्यक है। अक्सर कहा जाता है कि भविष्य के महायुद्ध जल को लेकर होंगे और सभ्यता के विकास के लिये सबसे बड़ा खतरा पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट से है। बातें तो होती ही रहती हैं, पत्र-पत्रिकाएँ और संचार-माध्यम भरे रहते हैं, जल एवं पर्यावरण संरक्षण की चर्चा से, पर समस्या तो घटने के बजाये निरंतर बढ़ती ही जा रही है। मेरा दृढ़ मत है कि इसका कारण उक्त ओर मानव जाति का सुरसा के मुख की तरह बढ़ना सुविधा लोभ और आत्म-नियंत्रण का अभाव है तो दूसरी ओर वैज्ञानिक समझ और तकनीकी क्षमता की कमी। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और इंजीनियरों द्वारा बनाये गये तथा कथित विकास कार्यक्रमों और योजनाओं में भी पर्यावरण की इतनी अनदेखी उनकी वैज्ञानिक समझ और तकनीकी क्षमता की कमी का ही परिचायक है।
मार्च 2000 में पानी से सम्बन्धित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में पानी को राजनैतिक अजेंडों में शामिल करने की बात कही गई थी। सम्मेलन के अंत में जारी ‘हेग घोषणा’ में कहा गया था कि इक्कीसवीं सदी में जल के संदर्भ में सबको सुरक्षा प्रदान करना हमारा उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये सबसे पहले यह समझना पड़ेगा कि सुरक्षित और यथेष्ट जल इंसान की बुनियादी जरूरत के साथ स्वास्थ्य के लिये भी जरूरी है।
इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष डेविड सेक्सलर के अनुसार भारत में पिछले कुछ वर्षों से प्रति व्यक्ति जितना नया भूजल एकत्र होता है, उसके दोगुने से भी अधिक मात्रा का उपयोग कर लिया जाता है। इस हालात के चलते पूरे देश में भूजल का स्तर प्रतिवर्ष 1 से 3 मीटर की दर से नीचे खिसकता जा रहा है। पश्चिमी गुजरात में किसानों को ट्यूबवेल की गहराई 1.5 मीटर प्रतिवर्ष बढ़ानी पड़ रही है। सेक्सलर के अनुसार इन किसानों को अगले दशक तक सिंचाई में कटौती करनी पड़ेगी अन्यथा उनके पास पानी का भंडार नहीं होगा।
सितम्बर 1998 में प्रकाशित विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में जल प्रबंधन के संदर्भ में तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता बताई गई है। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में जल की माँग लगातार बढ़ रही है जबकि संसाधन कम हो रहे हैं।
वर्ष 1987 की राष्ट्रीय जलनीति के अनुसार जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन, मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता और मूल्यवान राष्ट्रीय सम्पत्ति है। इसके बाद जल संसाधनों पर संवैधानिक अधिकार केंद्र सरकार का नहीं बल्कि राज्य सरकारों का है और अधिकतर राज्य राष्ट्रीय जलनीति लागू नहीं कर सके हैं।
पानी मानव जीवन के लिये एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य अंग है। प्रत्येक व्यक्ति को एक न्यूनतम मात्रा में पानी चाहिए ही लेकिन अगर देखा जाए तो यह न्यूनतम स्तर किसी निश्चित मात्रा में निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए। एक सर्वेक्षण के अनुसार डेनमार्क (ग्रीनलैण्ड) में 1980 में प्रतिव्यक्ति जल का उपयोग 238 क्यूबिक मीटर था जो 2000 में कम हो करके 198 क्यूबिक मीटर रह गया। इसका यह मतलब तो नहीं है कि वहाँ के निवासियों ने नहाना या पानी पीना कम कर दिया। इसका कारण यह है कि वहाँ की जनता को पानी निःशुल्क नहीं मिलता है। इसलिये वे जागरूक हुए, पानी बचाने नये-नये उपाय खोजे और पानी के उपभोग पर अंकुश लगाया। इसी तरह की कुछ पहल करने की जरूरत हमारे यहाँ भी है। गाँव और शहरों में पानी का मीटर लगाया जाना चाहिए। यह व्यवस्था अमीरों और गरीबों के लिये अलग-अलग होनी चाहिए। क्योंकि कुछ लोग इसका विरोध करते हैं।
अगर आप यह सोचते हो कि पानी का मीटर लगाना या उसकी रीडिंग करना बहुत कठिन कार्य है तो इस भ्रम से बाहर आइये। वर्तमान दौर में जब मोबाइल और टेलीफोन के एक-एक कॉल की अलग-अलग रीडिंग की जा सकती है तो प्रत्येक घर में भी खर्च होने वाले एक-एक बूँद पानी का हिसाब लगाया जा सकता है। अन्तर इतना ही है कि अगर यह सब कुछ तकनीकी के माध्यम से नहीं हो सकता तो हमें व्यक्तिगत रूप से अपनी सोच के तरीकों में बदलाव लाना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य में आने वाली परिस्थितियों के लिये तैयार रहें।
यह एक निर्विवाद सत्य है कि पानी एक बुनियादी और अपरिहार्य आवश्यकता है। इसके आगे राजनीति, दर्शन और अध्यात्म सब गौण पड़ जाते हैं। शताब्दियों पूर्व रहीम खान ने इसी तथ्य को इन मार्मिक शब्दों में रेखांकित किया था।
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती मानुष चून।।
ये पंक्तियाँ न सिर्फ देशवासियों बल्कि समस्त विश्ववासियों पर लागू होती हैं। असल में आज सारे विश्व के सामने पानी की विकट समस्या मुँह बाए खड़ी है कुछ क्षेत्रों में तो यह आशंका व्यक्त की गई है कि अगर अब कोई विश्व-युद्ध हुआ तो यह पेट्रोल की आपाधापी के कारण नहीं, बल्कि पानी के अभाव के कारण होगा। पेट्रोल की कमी से मात्र मूल्य ही बढ़ेंगे, लेकिन पानी की कमी कहर ढहाएगी। राष्ट्रों के बीच पानी के अभाव से उत्पन्न छटपटाहट कभी भी हिंसक रूप ले सकती है। हमारे मनीषी कहा करते थे कि पानी, हवा और प्रकाश ईश्वर की देन है। इन पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए। भारत में तो पानी पिलाना पुण्य माना जाता रहा है। निर्जला एकादशी, सजला हो उठती है। लेकिन इस नजरिये को नजर लगती जा रही है। उल्टा ऐसा जमाना आने वाला है जब पानी के लिये न सिर्फ लोगों में छीना झपटी होगी, बल्कि देश-देश में पानी के लेने-देने के लिये नये विवाद उठ खड़े होंगे। वह दिन दूर नहीं जब पानी के स्रोतों और जलमार्गों पर कब्जे के लिये देश एक-दूसरे के खिलाफ उठ खड़े होंगे।
स्वीडन में आयोजित जल सम्मेलन में इस तथ्य को चिंताजनक बताया गया है कि एशिया महाद्वीप के किसानों ने कुओं के माध्यम से जल निष्कासित करके इस महाद्वीप के भूमिगत जल संसाधन को प्रायः समाप्त कर दिया है। जिससे आने वाले दशकों में अकाल पड़ने की सम्भावना काफी बढ़ गई है। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपने अध्ययन में यह संकेत दिया है कि भारत में गुजरात के मेहसाणा और तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिलों में भूजल स्रोत स्थाई तौर पर सूख चुके हैं। ऐसा भी अनुमान लगाया गया है कि इन राज्यों के 95 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्रों में भूमिगत जलस्तर तेजी से घट रहा है, परिणामतः डार्क जोन एरिया में वृद्धि होती जा रही है। आज देश के 50 प्रतिशत जिले पानी की दृष्टि से सूखे क्षेत्रों की श्रेणी में शामिल हैं। यही नहीं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र व पंजाब में भी भूजल स्तर 40 प्रतिशत तक नीचे चला गया है जिससे इन प्रदेशों के भूखंड रेगिस्तान में तब्दील होते जा रहे हैं। भूजल के अति दोहन से राजस्थान की राजधानी जयपुर के रामगढ़ बाँध तथा मावड़ा में तो धरती तक फटने लगी है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जयपुर में आने वाले पाँच दस वर्षों में तथा सम्पूर्ण राजस्थान में 2025 के बाद भूजल भंडार खत्म हो जायेंगे। इस चेतावनी का मुकाबला करने के लिये अभी से वैकल्पिक उपायों की खोज करते हुए ठोस व रचनात्मक कार्यनीति बनाने व क्रियान्वित करने की आवश्यकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की ग्लोबल एनवायरन्मेंटल आउटलुक ने जल संकट के लिये वनों की तेजी से होती हुई कटाई को उत्तरदाई ठहराते हुए बताया है कि वनों की कटाई के कारण मिट्टी की ऊपरी सतह बह जाने के फलस्वरूप कृषि योग्य दस प्रतिशत जमीन बंजर हो जायेगी तथा विश्व की आधे से अधिक आबादी पानी की कमी से प्रभावित होगी। इस रिपोर्ट में यह भी चौंकाने वाले तथ्य उजागर किये गये हैं कि तीस साल बाद मध्यपूर्वी देशों में 95 प्रतिशत लोग पेयजल की किल्लत का सामना करेंगे। यही नहीं, भूमिगत जलस्तर के तेजी से कम होने पर परिस्थिति के असंतुलन का खतरा भी मंडराने लगा है। भूजल की कमी से पृथ्वी की परतों में हवा का दबाव बढ़ जाने से भूकम्प की सम्भावना काफी बढ़ जाती है। आजकल बढ़ते भूकम्पों की संख्या इस तथ्य को तर्कसंगत सिद्ध कर रही हैं। इसके अतिरिक्त घटते भूजल के कारण विभिन्न राज्यों, प्रदेशों व क्षेत्रवासियों के मध्य तनाव, संघर्ष व स्वहित की संकीर्ण भावनाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं, जिससे मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं में गिरावट आती है। बढ़ते जल संकट से न केवल कृषि क्षेत्र के विकास में गिरावट आ रही है अपितु यह हमारे देश के सीमित संसाधनों पर भी बोझ है। सरकार को अन्य विकास मदों में कटौती करके जल प्रबंधन पर करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं जिससे आर्थिक विकास प्रक्रिया पर कुठाराघात होता है। जल संकट से विद्युत उत्पादन, उद्योग व सेवा क्षेत्र सभी की विकास प्रक्रियाएँ ठप्प हो जाती हैं।
अप्रैल, 1992 में दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संघ के पर्यावरण मंत्रियों का सम्मेलन भारत में आयोजित किया गया ताकि महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर क्षेत्रीय आधार पर सहमति हो सके। इन सम्मेलनों में हुए विचारों के आदान-प्रदान के फलस्वरूप उत्पन्न सहमति के आधार पर भारत चाहता है कि निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों के अनुरूप विश्वव्यापी कार्रवाई की जानी चाहिए -
1. पर्यावरण संरक्षण को विकास की सामान्य समस्याओं से अलग नहीं किया जा सकता। पर्यावरण संरक्षण विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग समझा जाना चाहिए। विश्व के समस्त राष्ट्रों को मिल-जुलकर विकासशील राष्ट्रों की विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं पर ध्यान देने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण का प्रयास करना चाहिए।
2. निर्धनता, अविकास और पर्यावरण प्रदूषण के कुचक्रों को तोड़ने के लिये डटकर मुकाबला करना जरूरी है।
3. विकासशील देशों में इस समय संरक्षणवाद की प्रवृत्ति बढ़ रही है, ऋण भार बढ़ता जा रहा है, व्यापार की शर्तें बिगड़ती जा रही हैं और वित्तीय संसाधनों का प्रवाह विपरीत दिशा में हो रहा है। इसलिये ऐसा अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक वातावरण पैदा करना चाहिए जिससे विकासशील देशों में विशेष रूप से आर्थिक प्रगति और विकास की प्रक्रिया को समर्थन मिल सके।
4. राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर प्रत्येक राष्ट्र का सम्पूर्ण अधिकार है।
5. सतत विकास के लिये रणनीति तैयार करने के मामलों पर राष्ट्रीय सरकारों द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय सहयोग द्वारा इन प्रयासों का समर्थन किया जाना चाहिए न कि अवरोध पैदा किए जाएँ।
6. आर्थिक विकास सम्बन्धी नीति और कार्यक्रमों में पर्यावरणीय समस्याओं को शामिल किया जाना चाहिए और उसके लिये दी जाने वाली सहायता के साथ कोई शर्त नहीं लगाई जानी चाहिए तथा पर्यावरण संरक्षण के नाम पर किसी प्रकार का व्यापारिक प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाय।
7. पृथ्वी पर प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। विकसित राष्ट्र अन्य राष्ट्रों की तुलना में अपने हिस्से से कहीं ज्यादा संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। यह असंतुलन समाप्त होना चाहिए और विकासशील राष्ट्रों की वहन क्षमता के अनुसार उन्हें संसाधनों में बराबरी का हिस्सा देने के उपाय किए जाने चाहिए ताकि उनका पर्याप्त विकास हो सके।
8. मुख्यतः विकसित राष्ट्र प्रदूषण फैला रहे हैं जिनमें प्रदूषणकारी तत्वों के अलावा खतरनाक और विषालु अपशिष्ट भी हैं। अतः पर्यावरण सुधार के लिये आवश्यक उपाय करने का प्रमुख दायित्व भी इन्हीं राष्ट्रों का है।
जल संकट की समस्या भविष्य में विकराल रूप धारण कर लेंगी। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए हमें इस समस्या का निराकरण करने हेतु अभी से सतत व प्रभावी प्रयास करने होंगे। मनुष्य सोना, चाँदी व पेट्रोलियम के बिना जीवन जी सकता है किंतु पानी के बिना जीवन असम्भव है, इसलिये यह समय की माँग है कि जल का उपयोग विवेकपूर्ण, संतुलित व नियमित ढंग से हो। इस सर्वव्यापी समस्या के निदान हेतु हमें निम्न बिंदुओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा :-
1. जल संरक्षण व बचत का संस्कार समाज में हर व्यक्ति को बचपन से ही दिया जाना चाहिए।
2. भूमिगत जल के अविवेकपूर्ण व अनियंत्रित दोहन व नलकूपों के गहरीकरण पर प्रभावी रोक लगानी चाहिए। नये ट्यूबवेलों की खुदाई करने से पूर्व सरकार से अनुमति अवश्य ली जानी चाहिए।
3. भूजल के संवर्धन व संरक्षण हेतु सुव्यवस्थित वर्षाजल-संचयन प्रणाली विकसित की जाये। वर्षाजल के संग्रहण हेतु घर व स्कूलों में ही टाँके, कुंड व भू-गर्भ टैंक वगैरह निर्मित करने की नीति क्रियान्वित की जाये। परम्परागत जलस्रोत कुएँ, बावड़ी, तालाब, जोहड़ आदि की तलहटी में जमे गाद को निकलवाने के कार्य को प्राथमिकता दी जाये व साथ ही इनके पुनरुद्धार की व्यवस्था प्राथमिकता के आधार पर की जाये ताकि ये मृतप्राय जलस्रोत पुनर्जीवित होकर वर्षा के जल को संग्रहित व संरक्षित कर सके।
4. जल प्रबंधन, जल संरक्षण व जल की बचत आदि कार्यक्रमों को जन जागरण व जन आंदोलन के रूप में चलाया जाए। गैर सरकारी संगठनों, स्कूलों व महाविद्यालयों आदि को भी विचार, गोष्ठी, सेमीनार, व रैलियों के माध्यम से जल संरक्षण चेतना जागृत करनी चाहिए। ताकि जल का अनुकूलतम उपयोग सम्भव हो सके। वनों की कटाई को रोकने के लिये हर सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए व साथ ही वृक्षारोपण कार्यक्रम को अधिक प्रभावी बनाने हेतु कठोर कदम उठाने चाहिए।
5. घरों में विद्युत मीटर की भाँति जल मीटर लगाया जाए ताकि जल उपयोग की मात्रा के अनुरूप ही शुल्क निर्धारित किये जा सकें।
6. आज कृषि क्षेत्र जल का सर्वाधिक उपयोग करता है इसलिये यह आवश्यक है कि कृषि में पानी के अनुकूलतम उपयोग को बढ़ावा देने के लिये ड्रिप व स्प्रिंकलर सिंचाई व्यवस्था व वैज्ञानिक कृषि सिंचाई प्रणाली को प्रेरित किया जाए।
7. भारत में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ जल प्रबंधन का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर रही हैं। औरंगाबाद जिले में श्री अन्ना हजारे, हिमालय क्षेत्र के श्री सुन्दरलाल बहुगुणा, राजस्थान में श्री राजेन्द्र सिंह तथा मध्य प्रदेश चित्रकूट में दीनदयाल शोध संस्थान के संस्थापक परम श्रद्धेय नाना जी देशमुख ने अपने अथक प्रयासों से यह सिद्ध कर दिया है कि जल संकट का निवारण जल सहयोग से आसानी से किया जा सकता है। मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में खेत का पानी खेत में रोकने की संरचना का विकास करके खेती के लिये जल की व्यवस्था की गई है। इस व्यवस्था का अनुसरण करके अन्य राज्य जल संकट की समस्या से कुछ हद तक निजात पा सकते हैं।
जल संरक्षण की समस्या वैयक्तिक नहीं है। यह समस्या वैश्विक है। अगर समय रहते हम जागरूक नहीं हुए तो निश्चित ही आने वाले दिनों में तस्वीर भयानक होगी। रहीम खान जी ने कहा है कि ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून’ यह उक्ति किताबों की पंक्तियाँ मात्र नहीं बल्कि लगभग 400 वर्ष पूर्व जल संरक्षण के सम्बन्ध में दी गई चेतावनी है। इसकी प्रासंगिकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। हमें किसी न किसी तरह से जल का संरक्षण करना है वह चाहे वैयक्तिक हो या सामूहिक हो। पानी की खपत दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है और ऐसे में अगर हम पानी को बचायेंगे नहीं तो जीवन जीना दुर्लभ हो जायेगा। जरा सोचिये पानी के बिना कैसा होगा जीवन? क्या सम्भव है? अगर नहीं तो हमें इसका संरक्षण करना ही होगा। जगह-जगह पर वॉटरशेड कार्यक्रम चलाया जाना चाहिये जिससे गाँव का पानी गाँव में ही रहे।
जल संचयन के लिये हमें नदियों पर बाँध बनाकर और नलकूप आदि द्वारा वर्षा का जल संचयित किया जा सकता है। कई राज्यों में यह योजना सफल रही है जैसे-राजस्थान अतः गिरते जलस्तर को सुधारने के लिये महत्त्वपूर्ण उपाय जल संचयन ही है। हमें वर्षा का जल, अपनी छतों और आस-पास के गड्ढ़ों में पानी को भी बचाना चाहिये। एक अनुमान के अनुसार 50 वर्ग मीटर आकार की छत से एक वर्ष में लगभग 33 हजार लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। इस जल से 2 सदस्यों को पेयजल और घरेलू आवश्यकता हेतु जल लगभग 3 माह तक उपलब्ध हो सकता है। देखा जाए तो अप्रत्यक्ष रूप से जलस्तर में वृद्धि से ऊर्जा की भी बचत होती है। जल बचत हम लोग भी सदुपयोग के माध्यम से कर सकते हैं।
जल प्रबंधन पर यूनेस्को रिपोर्ट-
यूनेस्को ने मार्च 2006 में प्रकाशित रिपोर्ट में प्रबंधन सम्बन्धी विभिन्न मुद्दों को शामिल किया है। रिपोर्ट ने कुछ निष्कर्ष निकाले हैं।
1. जल की कमी, जल की कमी के कारण नहीं बल्कि अपर्याप्त आपूर्ति के कारण।
2. जल समस्या का समाधान बेहतर साधन में निहित।
3. जल समस्याओं और चुनौतियों पर समग्र रूप से ध्यान दिया जाए।
4. जल सम्बन्धी आँकड़े विश्वसनीय होने चाहिए।
5. जल क्षेत्र में और अधिक निवेश की जरूरत है।
6. अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत है।
7. सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के लिये अन्तरराष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है।
आज विश्व में तेल के लिये युद्ध हो रहा है, भविष्य में जल के लिये युद्ध नहीं हो, इसके लिये हमें अभी से सजग, सतर्क व जागरूक रहते हुए जल संरक्षण व प्रबंधन की प्रभावी नीति बनाकर उसे क्रियान्वित करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवन-शैली व प्राथमिकताएँ इस प्रकार निर्धारित करनी होंगी ताकि अमृत रूपी जल की एक भी बूँद व्यर्थ न हो।
सम्पर्क करें :
डॉ. अशोक कुमार तिवारी
पर्यावरणीय वैज्ञानिक,आयुर्वेद सदन, आरोग्यधाम, दीनदयाल शोध संस्थान, चित्रकूट, जिला-सतना (मध्य प्रदेश) 485331