दरभंगा ज़िले के मनीगाछी ब्लॉक में बसे पुथलहा गांव में गणेश राय अपने मखाना तालाब में घुटनों तक पानी में खड़े होकर पानी के ऊपर उगते सूरज को देख रहे हैं। उनके लिए यह सिर्फ खेती नहीं, एक विरासत है। "मैं यह काम 20 साल से कर रहा हूं," वे कहते हैं। "अब मेरा बेटा भी मेरे साथ जुड़ गया है। मखाना का कारोबार बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।"
बिहार में शरद मौसम शुरू हो चुका है। चुनावी उत्सुकता और छठ पूजा की चहल-पहल बीत चुकी है। प्रवासी अपने-अपने शहर लौट गए हैं और किसान अपने खेतों की ओर वापस लौट रहे हैं।
जिस कहावत के साथ वे बड़े हुए, वह आज भी सच है: "पग-पग मछ मखान" यानी पग-पग पर तालाब और हर तालाब में मछली और मखाना। यह कहावत मिथिला के सार को दर्शाती है, जहां जल निकायों ने पीढ़ियों से संस्कृति और अर्थव्यवस्था दोनों को आकार दिया है। जो कभी जमींदारों की संपत्ति थी, वह अब गणेश जैसे छोटे किसानों की जीवन रेखा बन गई है।
मखाने की खेती: एक किसान का विवरण
जैसे ही सूरज की पहली किरणें दरभंगा के मनीगाछी ब्लॉक के पुथलहा गांव के तालाबों को छूती हैं, गांव जीवंत हो उठता है। लगभग हर घर से लोग मखाने के अपने चमकते खेतों की देखभाल के लिए निकल पड़ते हैं। महिलाएं अपने हाथों में खाना और पानी की बोतलें संभालती हैं, पुरुष अपने जाल और औजार तैयार करते हैं। इलाका अनंत रूप से तालाबों से भरा दिखता है। हर एक तालाब सुबह के आकाश को प्रतिबिंबित करते हुए एक चमकती मोज़ेक बनाता है, जो दृष्टि से परे तक फैली दिखाई देती है।
इन्हीं किसानों में से एक हैं गणेश राय (50 वर्ष), जो दरभंगा जिले के मनीगाछी ब्लॉक के पुथलहा गांव के निवासी हैं और 20 साल से मखाना की खेती कर रहे हैं। वे शिक्षक के रूप में काम करते हैं, लेकिन मखाने की खेती से होने वाले फायदे की वजह से इसे जारी रखा है। उनका बेटा हाल ही में इस काम में शामिल हुआ है, क्योंकि मखाना की खेती का विस्तार हो रहा है।
राय बताते हैं कि इस क्षेत्र में मखाना सांस्कृतिक महत्व रखता है। "मखाने का उपयोग हमारे भोजन, अनुष्ठानों और दैनिक जीवन में होता है," वे कहते हैं। उपरोक्त क्षेत्रीय कहावत का संदर्भ देते हुए वे बताते हैं कि हर तालाब में मछली और मखाना उपलब्ध है और अब वे 5 एकड़ में मखाने की खेती करते हैं।
यह फसल शुरुआत से लेकर कटाई तक श्रम-साध्य है। इस क्षेत्र के किसान तीन मुख्य व्यवस्थाओं का उपयोग करते हैं। कुछ अपनी ज़मीन पट्टे पर देते हैं, जिससे सालाना प्रति एकड़ ₹5-6 लाख कमाते हैं। अन्य बटाई प्रणाली का पालन करते हैं। यह मछुआरों के साथ 50-50 की साझेदारी व्यवस्था है, जिसमें मछुआरे खेती का प्रबंधन करते हैं। राय जैसे कुछ किसान स्वयं ही प्रबंधन करते हैं।
राय प्रति एकड़ 8-10 क्विंटल की उपज बताते हैं। वे बाज़ार की मांग के आधार पर ₹28,000-33,000 प्रति क्विंटल की दर से मखाना बेचते हैं। दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ पूजा के दौरान मांग बढ़ती है, इसलिए किसान इन त्योहारों से पहले कटाई की योजना बनाते हैं।
अब नए किसान मखाना की खेती में प्रवेश कर रहे हैं। वे अपनी ज़मीन के चारों ओर बांध बनाते हैं और तालाबों को पानी से भरते हैं। राय ने बताया कि सतही जल की उपलब्धता में कमी के कारण अधिकांश किसान अब तालाब भरने के लिए भूजल का उपयोग करते हैं।
मछुआरे और मखाना
रामसूरत साहनी (50 वर्ष), मिथिला में नदी के पास एक गांव में मछुआरा समुदाय से संबंधित हैं। पारंपरिक रूप से नदी में मछली पकड़ने वाले साहनी और उनके समुदाय के अन्य लोग अब मखाने की खेती की ओर मुड़ गए हैं। इसके लिए वे किसानों से पट्टे पर ज़मीन लेते हैं। "हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं है। मेरा बेटा और मैं कटाई से लेकर प्रसंस्करण तक सभी काम संभालते हैं," वे बताते हैं। मखाना साल में लगभग 10 महीने रोज़गार देता है।
मिथिला में मछुआरों के पास तालाबों, नदियों और जल प्रबंधन के बारे में पीढ़ियों का ज्ञान है, जो उन्हें मखाना जैसी जलीय फसलों की खेती में लाभ देता है। इस विशेषज्ञता के बावजूद, उनके पास अक्सर ज़मीन का स्वामित्व नहीं होता और वे मज़दूर या पट्टेदार किसान के रूप में काम करते हैं।
मोनू कुमार, मछुआरा समुदाय के एक अन्य सदस्य, साझा करते हैं, "हमारा परिवार मेरे दादा के समय से मखाना के खेतों में काम कर रहा है। हम में से कई कटिहार और पूर्णिया पलायन करते हैं, लेकिन मेरी मां, पत्नी और मैं यहां काम करते हैं। मखाने की खेती में कई प्रक्रियाएं हैं, जिनमें हमारे अनुभव की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, बुवाई के लिए पानी की गहराई का सटीक ज्ञान ज़रूरी है, और हम आने वाली पैदावार की रक्षा के लिए कटाई से पहले खरपतवार हटाते हैं। दस लोगों के साथ पहली कटाई में कम से कम दस दिन लगते हैं और फिर हमारे परिवार की महिलाएं बचा हुआ मखाना इकट्ठा करती हैं।"
मखाना उत्पादन में रोज़गार बढ़ने के बावजूद, मज़दूरी कम बनी हुई है, औसतन लगभग ₹100 प्रति किलो। खेत में चोट लगने का मतलब है बिना वेतन के छुट्टी। अक्सर परिवारों को अकेले सब संभालना पड़ता है। काम मौसमी है, मुख्य रूप से अप्रैल से मई और सितंबर से नवंबर तक। जिन दिनों मखाने का काम नहीं होता उन दिनों मछली पकड़ना ही आजीविका का साधन होता है। क्षेत्र में मखाने की खेती के विस्तार और स्थिरता के लिए मछुआरों का कौशल आवश्यक बना हुआ है।
खेती की प्रक्रिया और कृषि पद्धतियां
किसान सर्दियों के अंत में तालाबों की तैयारी की शुरुआत गाद निकालने और खरपतवार हटाने से करते हैं। जिन किसानों से हमने बात की, वे इसे मछली पालन की तैयारी का सबसे ज़रूरी पहला कदम बताते हैं। तालाब के किनारों को स्थिर रखने के लिए किसान लगभग 45 डिग्री ढलान वाले मिट्टी के बांध बनाए जाते हैं।
इसके बाद, तालाब की मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए किसान सीधे तालाब के तल में ज़रूरी खाद मिलाते हैं, जैसे 600–800 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूना, 4–5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद, और लगभग 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डीएपी उर्वरक। यह सब तालाब की मिट्टी को पोषक बनाता है, जिससे आगे चलकर मछलियों के लिए प्राकृतिक आहार और पानी की गुणवत्ता बेहतर होती है।
मार्च-अप्रैल के दौरान नर्सरी तालाबों में पौध तैयार की जाती है। किसान स्थानीय रूप से सहेजे गए बीज या कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) द्वारा आपूर्ति किए गए बीज का उपयोग करते हैं। अप्रैल के मध्य तक, पौधों को मुख्य तालाबों में रोपित किया जाता है। फसल को शुरू में 2-4 फीट पानी की आवश्यकता होती है, जो कटाई के समय तक 4-6 फीट तक बढ़ जाती है। किसान लगातार बारिश और तालाबों में आने-जाने वाले पानी पर नज़र रखते हैं। यदि पानी कम हो जाए तो वे तालाब में पानी भरते हैं, और अगर ज़्यादा हो जाए तो निकाल देते हैं। इससे फसल के लिए आवश्यक जलस्तर हमेशा संतुलित रहता है।
रोपण चरण के दौरान जलीय खरपतवार बड़ी चुनौतियां पैदा करते हैं। सामान्य प्रजातियों में साइपरस डीफ़ॉर्मिस (सबसे आम), सैजिटेरिया गायनेंसिस, और मार्सीलिया क्वाड्रिफ़ोलिया शामिल हैं। गर्मियों में जब खेत या तालाब का हिस्सा बाढ़ के पानी से भर जाता है, तो ऐसे जलभराव वाले क्षेत्रों में साइपरस रोटंडस और विभिन्न प्रकार के शैवाल उग आते हैं।
किसान इन खरपतवारों को मुख्य रूप से हाथ से निकालकर और पानी का स्तर कम करके नियंत्रित करते हैं। मानसून की बारिश तालाबों को फिर से भर देती है, इसलिए इस मौसम में शाकनाशियों का प्रभाव बहुत कम रह जाता है।
फसल गर्मी के महीनों में बढ़ती है। पानी की गहराई को लगातार बनाए रखना होता है। किसान इस अवधि के दौरान खरपतवार की वृद्धि और पानी की गुणवत्ता की निगरानी करते हैं। सबसे अच्छी वृद्धि तब होती है जब पानी का स्तर और तापमान स्थिर रहता है।
अगस्त-सितंबर के दौरान मल्लाह मज़दूर छाती तक गहरे पानी में उतरकर बिना किसी मशीन के फसल काटते हैं। वे कमल जैसी पत्तियों को खींचते हैं और चाकू या अपने हाथों का उपयोग करके बीज की फलियों की कटाई करते हैं। यह प्रक्रिया प्रतिदिन 6-8 घंटे लेती है और कई हफ्तों तक जारी रहती है, जब तक सभी फलियां एकत्र नहीं हो जातीं। संग्रह के बाद, कच्चे बीज धोने, सुखाने, भूनने और फुलाने सहित प्रसंस्करण चरणों से गुजरते हैं। इन चरणों में आंशिक रूप से मशीनों का इस्तेमाल होता है।
उत्पादन डेटा और क्षेत्रीय वितरण
भारत के मखाना उत्पादन में बिहार का लगभग 90% हिस्सा है। राज्य का मखाना कृषि क्षेत्र 2012-13 में 13,000 हेक्टेयर से बढ़कर 2021-22 में 35,000 हेक्टेयर हो गया। इस अवधि के दौरान बीज उत्पादन 20,800 टन से बढ़कर 56,400 टन हो गया। राज्य योजनाओं के तहत खेती 10 से बढ़कर 16 ज़िलों में फैल गई।
बिहार के ज़िलों में, दरभंगा और मधुबनी भी महत्वपूर्ण उत्पादक ज़िले हैं। इन क्षेत्रों में कुछ किसान अब पारंपरिक तालाबों के साथ-साथ बरसाती धान के खेतों में भी मखाने की खेती करने लगे हैं, जिससे खेती के तरीकों में बदलाव दिख रहा है।
पारंपरिक तालाब-आधारित खेती, जहां पानी स्थिर रहता है और प्रबंधन सीमित होता है, उसमें प्रति हेक्टेयर लगभग 15 क्विंटल उपज मिलती है। इसके विपरीत खेत-आधारित खेती में पानी, खाद और पालन प्रक्रिया को नियंत्रित तरीके से संभाला जाता है, इसलिए इसकी उपज लगभग 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। अनुभवी उत्पादक इसी खेत-आधारित पद्धति से 30 क्विंटल तक उत्पादन हासिल कर लेते हैं।
मिथिला-दरभंगा क्षेत्र
डॉ. मनोज कुमार दरभंगा के राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र (एनआरसीएम) में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। वे इस क्षेत्र में हुए परिवर्तन के बारे में विस्तार से बताते हैं। एनआरसीएम की स्थापना साल 2002 में हुई थी और यह विश्व स्तर पर मखाना अनुसंधान के लिए विशेष रूप से समर्पित एकमात्र अनुसंधान संस्थान है।
पिछले पांच से सात वर्षों में, मखाना की खेती का क्षेत्र लगभग तीन गुना बढ़ गया है। लगभग पांच से सात साल पहले, लगभग 15,000 हेक्टेयर में खेती की जाती थी। आज, यह क्षेत्र 40,000-45,000 हेक्टेयर से ज़्यादा है। डॉ. कुमार इसे किसी भी फसल के लिए एक बड़ा परिवर्तन बताते हैं। इस अवधि के दौरान उत्पादकता में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। पहले, मखाना ज़्यादातर तालाबों में उगाया जाता था, जिससे प्रति हेक्टेयर लगभग 15 क्विंटल उपज होती थी।
खेत-आधारित खेती की शुरुआत के साथ, किसान अब प्रति हेक्टेयर लगभग 25 क्विंटल का उत्पादन करते हैं। अनुभवी उत्पादक 30 क्विंटल तक पहुंच जाते हैं। इस छोटी अवधि में उत्पादकता कम से कम डेढ़ गुना बढ़ गई है।
किसानों के लिए वित्तीय परिवर्तन पर्याप्त रहा है। पांच साल पहले, किसान प्रति हेक्टेयर ₹50,000 की शुद्ध आय अर्जित करते थे, लेकिन अब औसत आय ₹3-4 लाख तक पहुंच गई है। अच्छे बाज़ार वर्षों में, यह प्रति हेक्टेयर ₹5 लाख तक जा सकती है। वर्तमान मखाना बाज़ार लगभग ₹5,000 करोड़ का है।
डॉ. कुमार अनुमान लगाते हैं कि इसके पोषण और औषधीय मूल्य के बारे में बढ़ती वैश्विक जागरूकता को देखते हुए, यह बाज़ार अगले दशक में ₹50,000 करोड़ तक बढ़ सकता है। वर्तमान में, भारत लगभग 35,000 टन मखाने का उत्पादन करता है, जो आने वाले वर्षों में आसानी से दस गुना बढ़ सकता है।
हालांकि, मिथिला क्षेत्र अभी भी मखाने का मुख्य उत्पादन क्षेत्र बना हुआ है, इसकी खेती अब मध्य प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल तक फैल रही है। दरभंगा और मधुबनी ज़िलों को मखाना उत्पादन और प्रसंस्करण की वैश्विक राजधानी माना जा सकता है। यहां के किसानों के पास पारंपरिक कौशल है, जो अनूठा है। अब वे अन्य क्षेत्रों में खेती शुरू करने में मदद कर रहे हैं।
मिथिला मखाना की बात पर डॉ. कुमार स्पष्ट करते हैं की "मिथिला मखाना" को भौगोलिक संकेतक (जीआई) टैग मिला है, लेकिन यह एक किस्म नहीं है, बल्कि एक क्षेत्रीय ब्रांड है। वर्तमान में, दो आधिकारिक रूप से विकसित किस्में प्रचलित हैं: स्वर्ण वैदेही, जिसे एनआरसीएम, दरभंगा ने विकसित किया है और सबौर मखाना-1, जिसे बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर में विकसित किया गया है।
कैसे हो पानी और रसायनों का उपयोग
कृषि रसायनों के उपयोग पर, डॉ. कुमार सावधानी की सलाह देते हैं। मखाना एक जलीय फसल है, इसलिए कृषि रसायनों का अत्यधिक उपयोग जल प्रदूषण का कारण बन सकता है। वे किसानों को दृढ़ता से कीटनाशकों के उपयोग को कम करने और इसके बजाय जैविक और प्राकृतिक तरीकों को अपनाने की सलाह देते हैं। उदाहरण के लिए, नीम-आधारित जैव-कीटनाशकों का उपयोग, 3-5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से किया जा सकता है। लक्ष्य है पर्यावरणीय स्वास्थ्य या उत्पाद की गुणवत्ता से समझौता किए बिना उपज को बढ़ाना।
डॉ. कुमार जल के सतत और संतुलित उपयोग पर बल देते हैं। उनका कहना है कि मखाने की खेती का विस्तार अच्छा है, परंतु इसे उन क्षेत्रों में नहीं उगाया जाना चाहिए जहां खेती मुख्य रूप से अत्यधिक भूजल दोहन पर निर्भर करती है। फसल को केवल प्रचुर सतही या वर्षा जल वाले क्षेत्रों में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे टिकाऊ और जल-सुरक्षित विकास सुनिश्चित हो।
वे बताते हैं कि मखाना और मछली को एक साथ खेती की जा सकती है। कुल जल क्षेत्र का लगभग 15% मछली के लिए खुला छोड़ा जाना चाहिए। हालांकि, घास कार्प (मछली की एक प्रजाति है) से बचा जाना चाहिए, क्योंकि यह मखाना की पत्तियों को नुकसान पहुंचाता है। एकीकृत मछली-मखाना खेती के लिए, पानी की गहराई लगभग 3-4 फीट होनी चाहिए।
मखाने के कारण आया सामाजिक परिवर्तन
डॉ. कुमार मखाना की खेती करने वालों में सामाजिक परिवर्तन भी देखते हैं। पारंपरिक रूप से, मिथिला में कुछ स्थानीय समुदाय जल-आधारित खेती और मखाना उत्पादन में विशेषज्ञ थे। अब, इस फसल के विस्तार और लाभप्रदता के साथ, कई नए किसान और उद्यमी मशीनीकरण और प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा समर्थित तकनीकों को सीख रहे हैं।
मखाना प्रसंस्करण के कई चरण अब मशीनीकृत हो चुके हैं, ग्रेडिंग और धोने से लेकर भूनने और फ्लेवरयुक्त मखाना, भुना-तला मिश्रण, या रेडी-टू-ईट पैक जैसे उत्पाद तैयार करने जैसे मूल्य संवर्धन तक। इससे श्रम की तीव्रता घटती है, दक्षता बढ़ती है, और नए उद्यमियों के लिए अवसर बनते हैं।
काम करने की स्थितियों को लेकर, डॉ. कुमार चुनौतियों को स्वीकार करते हैं। मज़दूर अक्सर कठिन परिस्थितियों में लंबे समय तक पानी में काम करते हैं। इसलिए, दस्ताने और सुरक्षात्मक गियर का उपयोग जैसी सुरक्षा सावधानियां आवश्यक हैं और इनका सख्ती से पालन की जानी चाहिए। वे स्थायी विकास के बारे में सावधानी के साथ निष्कर्ष निकालते हैं। जैसे-जैसे वैश्विक मांग बढ़ती है, क्षेत्र को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विस्तार प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।
मखाना की ताकत उसकी पारिस्थितिक अनुकूलन क्षमता में है, लेकिन इसे ज़िम्मेदार, जैविक और जल-संवेदनशील तरीकों से उगाया जाना ज़रूरी है। इसका मतलब है, तालाबों में रासायनिक उपयोग कम करना, जलस्तर बनाए रखना, स्थानीय किस्मों का संरक्षण करना और प्रसंस्करण में ऊर्जा-कुशल तकनीकों को बढ़ावा देना। तभी लंबे समय में आर्थिक समृद्धि और पर्यावरणीय संतुलन, दोनों को सुनिश्चित किया जा सकता है।
मखाना की कटाई में महत्वपूर्ण शारीरिक श्रम और सुरक्षा जोखिम शामिल हैं। मज़दूरों में अक्सर मल्लाह परिवारों की महिलाएं और किशोर शामिल होते हैं। ये प्रतिदिन 6-8 घंटे तालाबों में उतरते हैं। वे बिना किसी मशीन के मखाना की फलियां निकालते हैं। कटाई के दौरान पानी की गहराई छाती तक होती है और तालाबों में कीचड़ और सांप होते हैं।
मज़दूर कई जोखिमों का सामना करते हैं। डूबने की घटनाएं, सांप और बिच्छू का काटना, जल-जनित बीमारियां, और गर्मी से थकावट। भुगतान एकत्रित कच्चे बीज की प्रति किलोग्राम मात्रा के आधार पर होता है। आम तौर पर मज़दूर दिन में 8 से 10 घंटे तक तालाब में काम करते हैं। इतने लंबे श्रम घंटों के बाद दैनिक कमाई ₹500-800 के बीच रहती है।
मखाना श्रम के लिए कोई मानक मज़दूरी दर मौजूद नहीं है। मज़दूरों के पास सामाजिक सुरक्षा या बीमा कवरेज की कमी है, जिससे स्वास्थ्य समस्या या दुर्घटना होने की स्थिति में इन परिवारों के सामने आय का संकट खड़ा हो जाता है। श्रम प्रतिनिधियों ने खेती के हर चरण, जैसे कि बुवाई, रोपाई और कटाई के लिए सरकार द्वारा निर्धारित वैधानिक मज़दूरी की मांग की है, ताकि कम भुगतान की समस्या से निपटा जा सके।
प्रसंस्करण चरणों के लिए मशीनें मौजूद हैं, लेकिन तालाब की स्थितियों और काम की प्रकृति के कारण खेत की कटाई पूरी तरह से बिना मशीनों के होती है।
मखाने को सुखाने और फोड़ने की प्रक्रियाएं इसके उत्पादन के सबसे कठिन चरणों में से हैं। कटाई के बाद, बीजों को लगभग 10 दिनों तक सुखाया जाता है और फिर कम से कम सात बार भूना जाता है। रमन कुमार, 28 वर्ष के किसान, स्थानीय मछुआरा समुदाय से आते हैं। वे इन भूने हुए बीजों को हाथ से बने हथौड़े से फोड़ते हैं। उनका कहना है कि यह चरण कटाई से कहीं अधिक श्रम-साध्य है। “मेरी पत्नी और मैं इस पर पूरा दिन बिताते हैं,” वे बताते हैं।
फोड़ने की गुणवत्ता सीधे कीमत को प्रभावित करती है। वे मखाने को 600-800 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचते हैं। रमन कुमार बताते हैं कि उन्हें पूरे समय भट्टी के पास खड़ा रहना पड़ता है, लेकिन वे मानते हैं कि यह अभी भी काम के लिए दिल्ली या पंजाब पलायन करने से बेहतर है।
परिवर्तन का नेतृत्व कर रहा है मखाना
बिहार की अर्थव्यवस्था के सामने कई चुनौतियां हैं, जैसे उद्योगों की कमी और लगातार हो रहा पलायन, जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग राज्य के बाहर रोज़गार की तलाश करते हैं। ऐसे समय में मखाने की खेती स्थानीय आजीविका का एक महत्वपूर्ण आधार बन गई है, जिससे लोग अपने ही समुदायों में काम पा लेते हैं। इस क्षेत्र में मज़दूरी अब भी कम है और काम अधिकतर मौसमी रहता है। इसके बावजूद, हाल के वर्षों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, जो इस क्षेत्र में एक सकारात्मक बदलाव दिखाती है।
कई किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) और प्रसंस्करण सूक्ष्म-उद्यमों का नेतृत्व महिलाओं के हाथ में हैं। इन्हें सरकारी योजनाओं में कोटा से समर्थिन मिलता है। यह बदलाव न केवल आर्थिक सशक्तिकरण बल्कि रूढ़िवादी ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन भी ला रहा है। अनिल कुमार, एक एनजीओ से जुड़े और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करते हुए, देखते हैं कि मखाना क्षेत्र के लोगों की पहचान बन गया है। हालांकि, वे क्षेत्र में महत्वपूर्ण असमानताओं की ओर इशारा करते हैं। मखाना की खेती और व्यापार कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित है। कई किसान खुद खेती करने के बजाय अपनी ज़मीन पट्टे पर देते हैं, जो उनके लाभ मार्जिन को कम करता है।
कुमार, क्षेत्र में मखाना खेती के लिए मशीनरी और उत्पादक कृषि उपकरणों की अनुपस्थिति का ज़िक्र करते हैं। महिलाएं खेती और प्रसंस्करण के विभिन्न चरणों में शामिल हैं, लेकिन उचित उपकरण और प्रौद्योगिकी तक पहुंच की कमी है। एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कच्चे मखाना सामग्री को प्रसंस्करण के लिए बिहार के बाहर ले जाया जाता है। यह राज्य के भीतर अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसरों के निर्माण को रोकता है।
मिथिला क्षेत्र की जल-निर्भर कृषि इसे जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाती है। उत्तर बिहार में, पिछले दशक में वर्षा तेज़ी से अप्रत्याशित हो गई है। साल 2025 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अकेले 2024 में 40 नदियां सूख गई थीं, जिससे अप्रैल और मई के दौरान आर्द्रभूमि क्षेत्रों में पानी की कमी हो गई थी। ये परिवर्तन पारंपरिक मछली पकड़ने वाले समुदायों और मखाना किसानों, दोनों को प्रभावित करते हैं, जो खेती के लिए पानी पर निर्भर हैं।
बेमौसम बारिश और बार-बार आने वाली बाढ़ ने किसानों को अपनी खेती के तरीकों में बदलाव करने पर मजबूर किया है। अब उन्हें कभी बहुत ज़्यादा पानी निकालने, तो कभी सूखे के दौरान सिंचाई बढ़ाने के लिए अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। बदलती जलवायु के बीच उत्पादन बनाए रखने के लिए कई किसान कीटनाशकों और शाकनाशियों का सहारा लेते हैं, जिनका अत्यधिक उपयोग मिट्टी और भूजल दोनों को प्रभावित करता है।
जबकि मखाना अनुसंधान केंद्र किसानों को चुनौतियों से निपटने के लिए प्रशिक्षण और कार्यशालाएँ देता है, दरभंगा जैसे इलाकों में जुलाई से सितंबर के बीच बड़ा जल संकट बना रहता है। इसी संकट के बीच मखाने की खेती का भूजल पर बढ़ता भरोसा भविष्य में इसकी स्थिरता और विस्तार को लेकर और भी चिंता पैदा करता है।
सरकार ने मखाने की खेती का समर्थन करने के लिए कई उपाय लागू किए हैं। "मिथिला मखाना" के लिए भौगोलिक संकेतक पंजीकरण साल 2022 में दिया गया था, जिससे कीमतों और ब्रांडिंग में सुधार हुआ। राज्य खेती को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त सब्सिडी देता है। सरकार, प्रति हेक्टेयर मखाना की खेती लागत पर 75% सब्सिडी देती है। कुल लागत लगभग ₹97,000 प्रति हेक्टेयर है, जिसका अर्थ है कि किसान लगभग ₹24,250 वहन करते हैं। यह सब्सिडी बीज उत्पादन और उन्नत उच्च उपज किस्मों, जैसे स्वर्ण वैदेही और सबौर मखाना-1 के लिए दी जाती है।
केंद्रीय बजट 2025-26 ने ₹100 करोड़ के प्रारंभिक निवेश के साथ बिहार के लिए एक मखाना बोर्ड के निर्माण की घोषणा की। उद्देश्य उद्योग को व्यवस्थित करना और बढ़ावा देना, फसल का बेहतर मूल्य सुनिश्चित करना और बाज़ार संपर्क स्थापित करना है। यह अनुसंधान और विकास, मशीनरी प्रावधान, ब्रांडिंग और भंडारण बुनियादी ढांचे के माध्यम से क्षेत्र को विकसित करने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करता है।
दरभंगा और मधुबनी ज़िलों में किसानों को विपणन चैनल देने के लिए इक्कीस सहकारी समितियों का गठन किया गया है। महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है।
मखाना, मिथिला में आजीविका को बदल सकता है, फिर भी इसके लाभ उन कुछ लोगों तक सीमित हैं जो प्रसंस्करण और पैकेजिंग इकाइयों का खर्च उठा सकते हैं। ज़्यादातर कृषि मजदूर कम मजदूरी पाते हैं। मखाना बाज़ार में उछाल का वादा उनकी पहुंच से बाहर रहता है। भारत लगभग 35,000 टन मखाना का उत्पादन करता है, और विशेषज्ञों का मानना है कि यह आने वाले वर्षों में दस गुना बढ़ सकता है। ऐसे में ज़रूरी है कि आने वाले फ़ायदे को निचले स्तर तक पहुंचाया जाए।
बदलते बाज़ार, जल संकट और बढ़ती लागत जैसी चुनौतियां मौजूद हैं। फिर भी, मखाना यहां सिर्फ एक फसल नहीं है, यह मिथिला की आजीविका, परंपरा और स्थानीय अर्थव्यवस्था का आधार है। सही नीतियों और समर्थन से यह क्षेत्र वाकई मज़बूत हो सकता है। आने वाले वर्षों में, यह देखना अहम होगा कि सरकार, अनुसंधान संस्थान और निजी क्षेत्र मिलकर किसानों के लिए कितना अनुकूल माहौल तैयार करते हैं। मिथिला के तालाबों में उगने वाला यह छोटा-सा दाना, यदि अवसर मिले, तो पूरे क्षेत्र की आर्थिक कहानी बदलने की क्षमता रखता है।