मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के दिवास्वप्न दिखा रही है, पर विदर्भ, पंजाब और तेलंगाना जैसे राज्यों में किसानों की बदहाली बदस्तूर है। पंजाब में 2000 एवं 2015 के बीच साढ़े 16 हजार से अधिक किसान बेतहाशा कर्जों के कारण खुदकुशी पर मजबूर हो गए। 2015 में तेलंगाना में जहाँ 1358 किसानों ने आत्महत्या की थी, वहीं 2016 में यह आँकड़ा कम होकर 632 पर आ गया। इस सकारात्मक बदलाव के पीछे बड़ी भूमिका रयैत बन्धु, जिसे हिन्दी में किसान मित्र कह सकते हैं, की रही। विदर्भ में त्रासदी यह है कि कागजों पर जनकल्याण वाली कई सारी योजनाओं का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन नहीं हो रहा।
आर्थिक मोर्चे पर जहाँ देश की आर्थिक विकास दर आठ प्रतिशत को छूने की ओर सरपट भागी जा रही है और हम फ्रांस को पीछे छोड़ पाँचवीं आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहे हैं, वहीं आज भी बड़ी संख्या में किसान खेती छोड़ने और खेती से जुड़े बेतहाशा खर्चों की वजह से आत्महत्याएँ करने को मजबूर हैं। सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के दिवास्वप्न दिखा रही है, पर विदर्भ, पंजाब और तेलंगाना जैसे राज्यों में किसानों की बदहाली बदस्तूर है।
पंजाब की बात करें तो जिस पंजाब को अधिकांश भारतीय हरित क्रान्ति का जनक, समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक और भांगड़ों से जोड़ कर देखता रहा है, उसी पंजाब में वर्ष 2000 एवं 2015 के बीच साढ़े 16 हजार से अधिक किसान बेतहाशा कर्जों के कारण खुदकुशी को मजबूर हो गए। ये आँकड़े पंजाब सरकार की ओर से राज्य के तीन विश्वविद्यालयों की मदद से पहले आधिकारिक डोर टू डोर सर्वे के हैं। आत्महत्या करने वाले इन 16,606 किसानों में से कुल 87 प्रतिशत मामलों में किसानों ने खेती से जुड़े खर्चों के लिये कर्ज लिया था और न चुका पाने की वजह से उन्हें खुदकुशी करने को मजबूर होना पड़ा। जान देने वाले इन किसानों में से 76 प्रतिशत छोटे किसान हैं, जिनके पास 5 एकड़ से भी कम जमीन है। कुछ किसान केवल खेतिहर मजदूर हैं, जिनके पास कोई जमीन नहीं है।
पंजाब के किसान जी तोड़ मेहनत करते हैं। ज्यादातर के पास एक एकड़ जमीन भी नहीं है। इस जमीन पर केवल जानवरों के लिये चारा उपजता है। खेती के लिये उन्हें किराये पर खेत लेने पड़ते हैं। पंजाब का एक परिवार है, जिसके घर के सभी सदस्यों को खुद फसल की रोपाई, देखभाल, सिंचाई, जानवरों के लिये ठंड में देखभाल के लिये खेतों पर जाना पड़ता था। फसल के साथ न देने पर पशुओं का दूध बेच कर किसी तरह रोटी का इन्तजाम हो रहा है, बेटा परीक्षाओं में बार-बार फेल हो रहा है, बेटियों की शादी नहीं हो रही, रिश्ते नहीं मिल रहे। उसका परिवार कर्ज के एक ऐसे दुश्चक्र में फँस चुका था, जो साल दर साल उसके परिवार के सदस्यों को निगल रहा था।
नई मुआवजा और राहत नीति
ऐसे ही एक और परिवार ने पिछले साल 15 एकड़ जमीन ठेके पर लेकर खेती की थी। सारी फसल तैयार खड़ी थी कि साल के आखिर में ओले पड़ गए। सारी खड़ी फसल बर्बाद हो गई। उस परिवार पर पहले ही आठ लाख रुपए का कर्ज था। फसल खराब हुई तो हालात बेकाबू हो गए और फिर मायूसी में परिवार के मुखिया ने मौत को गले लगा लिया। वर्ष 2015 में पंजाब सरकार ने किसान आत्महत्याओं के लिये एक नई मुआवजा और राहत नीति लागू की। इसके तहत अब किसान आत्महत्याओं के सभी मामलों में पीड़ित परिवारों को तीन लाख रुपए दिए जाने का प्रावधान है। बड़े पैमाने पर पंजाब के किसानों को लगता है कि खेती करने से बेहतर है कि उनके बच्चे कोई दुकान खोल लें या मजदूरी कर लें या फिर किसी फैक्ट्री में लग जाएँ। खेती में आमदनी होती नहीं, खेती करने के खर्चे बढ़ते जा रहे हैं। जब कोई रास्ता नहीं बचता तो खुदकुशी ही एकमात्र रास्ता नजर आता है।
तेलंगाना की हालत भी पहले ऐसी ही थी। यहाँ के किसानों में भी आत्महत्या करने वालों का ऊँचा प्रतिशत था। कपास, चावल, मक्का जैसी फसलों की खेती के लिये किसानों को साहूकारों से लाखों रुपए कर्ज के रूप में लेना पड़ता था और फसल के अच्छे न होने की सूरत में कर्ज के बोझ तले दबकर बड़ी संख्या में किसानों ने खुदकुशी की। पर केन्द्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने संसद में बताया कि 2015 में तेलंगाना में जहाँ 1358 किसानों ने आत्महत्या की थी, वहीं 2016 में यह आँकड़ा कम होकर 632 पर आ गया। इस सकारात्मक बदलाव के पीछे बड़ी भूमिका रयैत बन्धु, जिसे हिन्दी में किसान मित्र कह सकते हैं, की रही।
तेलंगाना में शुरू हुई इस योजना के तहत राज्य के सभी जमीन धारक किसानों को हर फसल पर प्रति एकड़ 4 हजार रुपए दिए जाते हैं। तेलंगाना सरकार ने कर्ज माफी के अतिरिक्त किसानों के लिये 24 घंटे मुफ्त बिजली और खेतों के लिये पानी की भी व्यवस्था की है, छोटे-छोटे तालाब बनवाए। यह योजना किसानों के लिये एक प्रकार की इन्वेस्टमेंट स्कीम है, जो उन्हें खेती के खर्चे उठाने तथा फसल नुकसान की स्थिति में भी मदद करती है। हालांकि तेलंगाना के कई गाँवों में किसान आज भी अपनी फसल के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिये तरस रहे हैं। इसके अलावा, बड़ी संख्या में ऐसे किसान भी हैं, जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है। इनके हितों का क्या होगा? इसे लेकर रयैत बन्धु योजना में स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं है।
विदर्भ के किसान और सुविधाएँ
फिर भी सरकारी सुविधाओं का शायद इतना बढ़िया इन्तजाम विदर्भ के किसानों को अभी भी मयस्सर नहीं हो पा रहा है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, बीते दो दशकों में महाराष्ट्र में 60 हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस साल के शुरुआती तीन महीनों में ही तकरीबन 700 किसानों ने बढ़ते कर्ज एवं खेती में नुकसान के कारण अपनी जान दे दी। यहाँ कई ऐसे मामले थे जब कागजों पर तो किसानों के ऊपर के कर्ज माफ हो चुके होते थे पर वास्तव में वहाँ कर्ज का वजूद बना हुआ था। लोगों ने खेती के लिये जमीन किराये पर ली, खेती के लिये साहूकार से लेकर माइक्रो फाइनेंस कम्पनियों तक से कर्ज लिया। फिर मजदूरी, कीटनाशक एवं खाद-पानी के लिये कर्ज लिया। एक मामले में ऐसा कुल कर्ज 1.5 लाख रुपए का था, जबकि फसल से कुल रिटर्न केवल 90 हजार रुपए का हो पाया। दरअसल, यहाँ की त्रासदी यह है कि कागजों पर जनकल्याण वाली कई सारी योजनाओं का जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन नहीं हो रहा। यहाँ के किसानों में तनाव आर्थिक भी है और भावनात्मक भी। न्यूनतम समर्थन मूल्य भी किसानों तक समुचित रूप से नहीं पहुँच पा रहा। खेती में निवेश अधिक है और प्राप्ति उसके मुकाबले बेहद कम। यही यहाँ के किसानों की आत्महत्याओं के पीछे की सबसे बड़ी वजह है। सरकार बेशक, अपनी तरफ से प्रयास कर रही है। कर्जा माफी और पानी के संचयन से लेकर किसानों की मानसिक स्थिति को सुधारने पर ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन अभी भी इसका अपेक्षित प्रभाव देखने में नहीं आ रहा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।