मरुप्रदेश राजस्थान में सिंचाई का मिथक टूट रहा है। अब यहां भी सिंचाई सुविधाओं का पूरी तरह विस्तार हो रहा है। विभिन्न राज्यों की तर्ज पर यहां भी खेतों में फसलें लहलहा रही हैं। नहरों और चेकडैमों से पानी खेतों तक पहुंच रहा है। राज्य में अब 90 फीसदी से अधिक भूमि सिंचित हो गई है। तो आइए, जानते हैं कि सरकारी प्रयास का किस तरह किसानों को लाभ मिला और सरकार ने अपने किसानों के लिए ऐसा क्या किया, जिसकी वजह से मरुप्रदेश में हरियाली लौटती नजर आ रही है। पेश है एक रिपोर्ट..
राजस्थान का नाम सुनते ही प्रदेश के विभिन्न हिस्से में रह रहे लोगों के जेहन में रेतनुमा इलाके की छवि जेहन में आती होगी। यह माना जाता है कि राजस्थान की ज्यादातर भूमि खेती योग्य नहीं है। कभी यह सच था, लेकिन अब यह मिथक टूट रहा है। राज्य में भले पानी की कमी हो, लेकिन यहां पानी बचाने का काम भी व्यापक स्तर पर चल रहा है। अगर हम राजस्थान की भौगोलिक स्थिति पर गौर करें तो क्षेत्रफल की दृष्टि से यह सबसे बड़ा राज्य है। इसका क्षेत्रफल करीब 3,42,239 वर्ग किलोमीटर है। इस राज्य के श्रीगंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर जिले पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे हुए हैं और यह सीमा करीब 1070 किलोमीटर है। राज्य का उत्तर -पश्चिमी इलाका रेतीला है, तो मध्य पर्वतीय एवं दक्षिण-पूरब का हिस्सा पठारी है। सिर्फ पूर्वी हिस्सा मैदानी है। इसके बाद भी इलाके के हर हिस्से में खेत लहलहाते हुए दिखाई पड़ते हैं।
यहां की प्रमुख फसल मक्का, ज्वार, गेहूं, चना एवं अन्य दलहनी फसलें मानी जाती हैं लेकिन अब करीब-करीब हर फसल यहां उग रही हैं। इसका सबसे बड़ा कारण सिंचाई योजनाओं का विस्तार है। यह सच है कि आजादी के बाद यहां कुछ समय तक सिंचाई सुविधाओं का उस अनुपात में विस्तार नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था। आंकड़े बताते हैं कि छठी पंचवर्षीय योजना तक कृषि एवं सिंचाई मद में सिर्फ 30 फीसदी ही खर्च हुआ। आठवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि एवं सिंचाई मद में बढ़ोत्तरी हुई, लेकिन सिंचाई-तंत्र नदियों पर आधारित रहा। राज्य की ज्यादातर नदियां कुछ समय बाद सूख गईं। ऐसे में लघु सिंचाई परियोजनाएँ परवान नहीं चढ़ पायीं। यह भी सच है कि सिंचित क्षेत्र में इतना उत्पादन हुआ कि राज्य खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रहा, लेकिन एक बड़े इलाके को सिंचाई सुविधाओं का अभाव खलता रहा। इसके बाद सरकारों ने उत्पादन बढ़ाने का मूलमंत्र सिंचाई सुविधाओं का विस्तार माना। कृषि विकास एंव सिंचाई को वरीयता प्रदान की गई। सिंचाई के परंपरागत साधनों को विकसित करने के साथ ही नई तकनीकी को लागू करने पर ध्यान दिया गया। लघु सिंचाई योजनाओं को विस्तारित किया गया।
साथ ही नहरों के कार्य को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त बजट की व्यवस्था की गई और वैज्ञानिकों की ओर से दिए जा रहे सुझावों के अनुरूप योजनाएं बनाई गईं। यह सफरनामा इस कदर आगे बढ़ा कि अब सरकार की ओर से जल का समुचित उपयोग सुनिश्चित करने के लिए फरवरी 2010 से नई जलनीति जारी की गई है। इसके अलावा केंद्र एवं राज्य सरकार के सहयोग से राज्य में सिंचाई सुविधाओं का निरंतर विकास हो रहा है। यही वजह है कि अब राज्य के ज्यादातर हिस्से में सिंचाई की समस्या खत्म होती नजर आ रही है। कुछ इलाकों में नहरों का पानी खेतों तक पहुंच रहा है और खेत फसल से लहलहा रहे हैं तो कुछ इलाकों में सिंचाई के दूसरे संसाधनों के जरिए किसान अपनी फसल उगाने में सफल हैं।
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा की तरह ही राजस्थान में भी करीब-करीब सभी फसलें उगाई जा रही हैं। केंद्र सरकार सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के लिए पर्याप्त आर्थिक मदद मुहैया करा रही है और राज्य सरकार विभिन्न योजनाओं के जरिए किसानों को लाभान्वित कर रही हैं। यह अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार ने जहां राष्ट्रीय कृषि विकास परियोजना में राज्य को 11.44 करोड़ उपलब्ध कराए, वहीं राष्ट्रीय बागवानी मिशन में 70 करोड़। विभिन्न योजनाओं का ही असर है कि राज्य का उत्पादन ही नहीं उत्पादकता भी दिनोंदिन बढ़ रही है। केंद्र सरकार की ओर से मिलने वाले सहयोग के जरिए राज्य सरकार किसानों को बेहतर सिंचाई सुविधाएं मुहैया कराने में जुटी हैं।
कृषि एवं किसानों के विकास के लिए हर क्षेत्र की जलवायु व क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए जिला स्तर पर योजनाएं तैयार कराई जा रही हैं। इससे किसानों को काफी फायदा मिल रहा है क्योंकि राज्य में अलग-अलग इलाके में अलग तरीके के सिंचाई संसाधन है और वहां की जलवायु भी अलग है। इसलिए जिला स्तर पर योजनाएं तैयार करने से किसानों को काफी फायदा मिल रहा है। राज्य में वर्षाजल को संग्रहित कर, संरक्षित जल से फसलें प्राप्त कर सकें, इसके लिए 577 जल संग्रहण ढांचों का भी निर्माण कराया जा चुका है और वर्ष 2010-11 में 730 जल संग्रहण ढांचों का निर्माण कराने का प्रावधान किया गया है।
राज्य की भौगोलिक स्थिति के अनुसार यहां बूंद-बूंद सिंचाई (फौव्वारा प्रणाली) सबसे उपयुक्त मानी जाती है क्योंकि ज्यादातर खेत ऐसे हैं कि इनमें पानी रुकना संभव नहीं है। इस प्रणाली के विकसित होने के बाद किसान असमतल भूमि पर भी खेती करना शुरू कर दिए हैं। बूंद-बूंद सिंचाई प्रणाली को विकसित करने में सरकारी स्तर पर भी सहयोग मिल रहा है, इसलिए इसके प्रति किसानों का विशेष आकर्षण है। बूंद-बूंद प्रणाली के लिए कनेक्शन लेने वाले किसानों को पांच हेक्टेयर तक के क्षेत्रफल के लिए कुल लागत में 70 फीसदी का अनुदान कृषि विभाग की ओर से दिया जा रहा है।
यह प्रणाली जहां हर तरह के खेत के लिए उपयोगी है वहीं इसके तहत सिंचाई व्यवस्था करने में ज्यादा लागत की भी जरूरत नहीं पड़ती है, इसलिए भी किसान इस योजना के प्रति काफी आकर्षित हैं। बूंद-बूंद सिंचाई के लिए कनेक्शन भी प्राथमिकता के स्तर पर दिए जा रहे हैं। इसी तरह सूक्ष्म सिंचाई योजना के तहत ड्रिप संयंत्र स्थापना पर सभी सफलों के लिए 70 फीसदी का अनुदान दिया जा रहा है। राज्य में जहां समुचित सिंचाई सुविधाएं विकसित की जा रही हैं वहीं पानी बचाने की भी कोशिशें जारी हैं।
पानी की किसी भी कीमत पर दुरुपयोग न होने पाए, इसके लिए सबसे ज्यादा तवज्जो उन योजनाओं पर दी जा रही है, जिनके जरिए सिंचाई भी हो जाए और पानी का एक बड़ा हिस्सा भी बचा रहे। यही वजह है कि सूक्ष्म सिंचाई योजना के तहत 1,79,774 हेक्टेयर क्षेत्र में फव्वारा सिंचाई संयंत्र एवं 16,769 हेक्टेयर क्षेत्र में बूंद-बूंद सिंचाई एवं मिनी स्प्रिंकलर संयंत्र स्थापित किए गए हैं। इसे और विस्तारित करने की तैयारी चल रही है। सरकार की कोशिश है कि इसे हर किसान तक पहुंचाया जाए, जिससे राज्य सभी प्रकार के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन सके तथा साथ ही यहां के किसानों की माली हालत में भी सुधार हो सके।
यह सच है कि संपूर्ण भारत में कुओं का जलस्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। ऐसे में सरकार नए कुएं खुदवाने के साथ ही पुराने कुओं की उपयोगिता बनाए रखना चाहती है। राज्य में सरकारी खर्चे पर एक लाख 25 हजार 428 कुओं का उर्जीकरण कराया गया। इन कुओं में फिर से पानी आ गया है और अब इनकी सहायता से खेती की जा रही है। उर्जीकृत किए गए कुओं में 3149 कृषि कुएं जनजातीय इलाके के थे। चूंकि राजस्थान में अभी भी जनजातीय इलाके में उतना विकास नहीं हो पाया है, जितने की जरूरत है। यही वजह है कि जनजातीय इलाके को विशेष तवज्जो दी गई और कुओं को उर्जीकृत कराने के साथ ही 1832 जनजातीय कृषकों के कुओं को ब्लास्टिंग से गहरा कराया गया। इसका फायदा यह हुआ कि ये किसान फिर से खेती के काम में जुट गए।
राज्य के किसानों की माली हालत को देखते हुए राज्य सरकार ने केंद्र की मदद से किसानों को डीजल पंपसेट वितरण कार्यक्रम चलाया। इसके तहत तय किया गया कि जो किसान आर्थिक रूप से डीजल पंपसेट खरीदने की स्थिति में नहीं हैं, उन्हें सरकार पंपसेट उपलब्ध कराएगी, बशर्ते वे इसका उपयोग सिर्फ और सिर्फ खेती में करेंगे। इस तरह सरकार की ओर से चालू वित्तीय वर्ष में करीब पांच हजार लोगों को डीजल पंपसेट उपलब्ध कराए जाने की योजना है। इसमें 1706 किसान जनजाति परिवार के चुने जा चुके हैं।
राज्य में आमतौर पर बारिश का औसत काफी कम होता है। हालांकि इस वर्ष बारिश सामान्य से अधिक हुई है। सिंचाई की समस्या के समाधान के लिए सरकारी स्तर पर एनिकटों का निर्माण कराया गया ताकि पानी इकट्ठा हो और उस पानी का किसान सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकें। 274 एनिकट आदिवासी इलाके में निर्मित किए गए।
राज्य में कृषि कनेक्शन लेने वाले किसानों को सरकार की ओर से कई तरह के अनुदान दिए जा रहे हैं। इस वजह से लघु एंव सीमांत किसान भी इस ओर आकर्षित हुए हैं। सरकार ने यह व्यवस्था की है कि जो किसान तीन स्टार या उससे अधिक ऊर्जा दक्षता पंप सेट स्वेच्छा से स्थापित करते हैं उन्हें नए कनेक्शन पर पांच सौ रुपये प्रति अश्वशक्ति का अनुदान बिजली के बिल के माध्यम से 12 समान किस्तों में विद्युत वितरण निगम की ओर से दिया जाएगा।
राज्य में ज्यादातर मिट्टी बलुई है। कुछ स्थान बलुई दोमट है। ऐसे में यदि किसान नाली के जरिए खेत तक पानी लाते हैं तो पानी का काफी हिस्सा नाली की मिट्टी सोख लेता है। इससे पानी का एक बड़ा हिस्सा निरर्थक खत्म हो जाता है। इस पानी को बचाने के लिए किसानों को उन्नत सिंचाई तकनीक का प्रशिक्षण दिया गया। राज्य में उपलब्ध पानी को सिंचाई में समुचित प्रयोग करने के लिए सिंचाई पाइप लाइन पर भी अनुदान की व्यवस्था की गई। मार्च 2010 तक करीब 8097 किलोमीटर में सिंचाई पाइप लाइन पर किसानों को करीब 1485 लाख का अनुदान दिया गया। इसी तरह वर्ष 2010-11 में पांच हजार किलोमीटर पाइप लाइन के लिए किसानों को 937.50 लाख के अनुदान का प्रावधान किया गया है।
सरकार के इस प्रयास से किसान पाइप लाइन बिछाने में काफी रुचि ले रहे हैं। निश्चित रूप से इससे पानी का एक बड़ा हिस्सा बच रहा है।
इस योजना के तहत भी राज्य सरकार की ओर से डिग्गियों का निर्माण कराया जा रहा है। इस योजना में केंद्र सरकार की ओर से भी विशेष रुचि दिखाई जा रही है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत वर्ष 2009-10 में 1439 डिग्गियों का निर्माण कराया गया और 2107.74 लाख का अनुदान किया गया। इसी तरह मार्च 2010 तक 779 हौज पर 272.65 लाख का अनुदान एवं 1635 फार्म-पाॅण्डस पर 425.90 लाख का अनुदान दिया गया। इसी तरह राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में वर्ष 2011 में पांच हजार डिग्गी निर्माण के लिए सौ करोड़, 15 सौ फार्म-पाॅण्ड्स के लिए छह सौ लाख, एक हजार जल हौज के लिए पांच का निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। किसानों को डिग्गयों का निर्माण कराने से काफी फायदा मिला है। किसानों का कहना है कि इससे वे बारिश के पानी को अलग-अलग सीजन में आसानी से प्रयोग कर सकते हैं।
रेगिस्तान में नहरों से किसानों को पानी मुहैया कराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा लग रहा था, लेकिन वर्षों की मेहनत के बाद अब यह सपना सच होता दिख रहा है। राज्य में नहरों का विकास भी व्यापक स्तर पर किया जा रहा है।
इंदिरा गांधी नहर की शुरुआत 31 मार्च, 1958 में हुई। इसे दो नवंबर, 1984 से राजस्थान नहर के नाम से भी जाना जाता है। यह राजस्थान के उत्तर-पूर्व हिस्से में बहती है। इस परियोजना का असर पहली बार वर्ष 2001 में दिखा। हनुमानगढ़ जिले में रबी खाद्यान्न में शीर्ष पर पहुंचा तो गंगानगर तिलहन के मामले में नंबर वन रहा। इस परियोजना के जरिए जहां कभी रेत के धोरे होते थे वहां नहर बन गई और 1741 लाख हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित भूमि में तब्दील हो गया। रेत वाले खेतों में हरी फसलें लहलहाने लगीं। इस परियोजना से अब राज्य के साहवा, गजनेर, फलौदी, पोकरण और बांगरसर लिफ्ट परियोजनाओं के कुछ हिस्से में ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिस्टम से सिंचाई करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
इंदिरा गांधी नहर परियोजना से 12 लिफ्ट सिंचाई योजनाएं निर्मित की गईं। आगे छह लिफ्ट परियोजनाएं और बनाने की योजना है। इससे 28,732 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई सुविधा उपलब्ध हो जाएगी। इस नहर का पानी सिंचाई के अलावा पेयजल एवं औ़द्योगिक काम में भी प्रयोग किया जाता है। इस परियोजना के तहत 12 सौ क्यूसेक पानी केवल पेयजल, उद्योग, सेना एवं ऊर्जा परियोजनाओं के लिए आरक्षित किया गया है। खासतौर से चुरू, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर एवं नागौर जिलों में इस नहर के पानी का प्रयोग होता हे।
नर्मदा नहर परियोजना गुजरात और राजस्थान के बीच एक समन्वय का भी काम करती है। मुख्य नहर का करीब 75 किलोमीटर हिस्सा राजस्थान में है। राजस्थान में इस नहर का प्रवेश जालौर जिले के सांचौर तहसील के सीलू गांव से होता है। मुख्य नहर से त्रिस्तरीय वितरिकाएं बनाई गई हैं, जो पश्चिमी राजस्थान के करीब 1477 किलोमीटर हिस्से तक पानी पहुंचाती हैं। इस नहर से सिंचाई के अलावा करीब 124 गांवों को पीने का पानी भी मुहैया कराया जाता है। नर्मदा नहर परियोजना पर फव्वारा सिंचाई पद्धति अनिवार्य की गई है। इस परियोजना के तहत राजस्थान सीमा में विभिन्न गांवों तक वितरिकाओं का निर्माण कराया जा रहा है। अक्टूबर 2010 तक इस पर 250.22 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं।
बताया जाता है कि राजस्थान में वर्ष 1899 में पड़े भयंकर सूखे को देखते हुए बीकानेर स्टेट के तत्कालीन राजा गंगा सिंह ने नहर खुदाई का काम शुरू कराया, जो 1903 में पूरा हुआ। इसके बाद बीकानेर सहित आसपास के इलाके में इसी नहर से सिंचाई सुविधाएं किसानों को मिलती रहीं। बाद में इस नहर को सतलुज वैली प्रोजेक्ट से जोड़ा गया। अंग्रेजी हुकूमत के कार्यकाल में श्रीगंगानगर सहित आसपास के इलाकों में भी इस नगर से जलापूर्ति की गई।
राज्य में जब नहरों का विकास हुआ तो सिंचाई को लेकर झगड़े भी शुरू हो गए क्योंकि हर गांव के किसान की यह अभिलाषा होती है कि नहर का पानी सबसे पहले उसे मिलना चाहिए। इसलिए राज्य में जल उपभोक्ता संगठन बनाए गए। इससे जहां सिंचाई संबंधी झगड़े खत्म हुए वहीं जल वितरण में किसानों की भागीदारी बढ़ी। सिंचाई विभाग की ओर से जल-उपभोक्ता संगठनों से लगातार संपर्क कर सिंचाई संबंधी समस्या का समाधान किया जाता है। इस संगठन की सलाह पर सिंचाई विभाग यह तय करता है कि किस इलाके में पहले पानी दिया जाए। जनवरी 2010 तक 518 जल-उपभोक्ता संगठनों के चुनाव कराए गएं इसके अलावा राजस्थान लघु सिंचाई सुधारीकरण परियोजना के तहत 305 जल-उपभोक्ता संगठनों का गठन किया गया। साथ ही 169 नर्मदा उपभोक्ता समितियों का भी गठन किया गया। इसी तरह कोटा में 228 जल-उपभोक्ता संगम गठित किए गए।
(लेखक बैंकिंग सेवा से जुड़े हैं)