1.1 स्तर
हमारे देश के पर्वतीय क्षेत्रों की प्रवाही प्रणालियों में महाशीर मछलियों की पैदावार का सटीक मूल्यांकन नहीं हो पाया है जिसका प्रमुख कारण दुर्गम पर्वत श्रृंखलाएँ, दुरूह पहाड़ी मार्ग, मत्स्य संग्रहण केन्द्रों का अभाव, सुव्यवस्थित सामुदायिक मात्स्यिकी एवं मत्स्य प्रजातियों की पैदावार के विभिन्न आंकड़े उपलब्ध न होना है। पर्वतीय क्षेत्रों की मात्स्यिकी के समुचित तुलनात्मक विवेचना के लिये मत्स्य जीव वैज्ञानिकों द्वारा किए गए सर्वेक्षण तथा आखेटकों के पर्यवेक्षण के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला गया है कि महाशीर मात्सियकी गम्भीर पतन की दिशा में अग्रसर है।
1.2 समस्याएँ
अधिकांश महाशीर प्रजातियाँ संकटग्रस्त हो चुकी हैं जिस कारण प्राकृतिक जलस्रोतों में इनकी पैदावार में काफी कमी पायी गयी है। इन मछलियों के ह्रास के कगार तक पहुँचने के विविध कारण हैं जिनमें जल संसाधनों की विकृत पारिस्थतिकी, नदी घाटी परियोजनाओं के अन्तर्गत बनाए गए बाँध तथा अन्य अवरोधक, कार्बनिक एवं अकार्बनिक प्रदूषण तथा मत्स्य बीज एवं प्रजनकों का अवांछित दोहन मुख्य कारक है। महाशीर मात्स्यिकी की यह दशा मुख्यतः प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से हुई है। हिमालय क्षेत्र के वह जलस्रोत जिनमें आखेटकों को लुभाने वाली यह शिकार के लिये उत्कृष्ट मछली कभी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी अब लगभग समाप्त प्राय हो चुकी है। वास्तव में अब यह प्रजाति मात्र कुछ नदी नालों की गहरी ताल तलैयों में ही शेष रह गयी है तथा वहाँ पर भी इस प्रजाति की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। पूर्वोत्तर क्षेत्रों के विभिन्न जलस्रोतों में भी इस अनुपम मत्स्य प्रजाति (टौर प्युटिटोरा) की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। नवीन आंकड़ों के अनुसार इनकी पैदावार में 40-60 प्रतिशत की गिरावट आ गयी है। हंस तथा कामेग, भोरली तथा कोपिल नदी (आसाम) के ऊपरी भागों में वहाँ की जनजाति व गैर कानूनी विस्थापकों द्वारा 100 ग्राम से कम भार वाली मछलियों का भी शिकार किया जाने लगा है जबकि पूर्व में इन जलस्रोतों में 25 कि.ग्रा. तक भार वाली मछलियों की उपलब्धता थी।
हिमाचल प्रदेश के जलाशयों में तथा मध्य हिमालय में कुमायूँ की झीलों में सुनहरी महाशीर की स्थिति समानरूप से निराशाजनक है। दोनों ही पोंग व गोबिन्द सागर जलाशयों में न केवल इस प्रजाति की संख्या में अपितु इसके आकार में भी अत्यन्त गिरावट आयी है (कुमार 1988)। अकेले गोबिन्द सागर जलाशय में इन मछलियों की पैदावार जोकि 1960 में 40 प्रतिशत थी 1980 में मात्र 5 प्रतिशत रह गयी थी। व्यास-सतलुज लिंक परियोजना के अन्तर्गत व्यास नदी पर पंडोह बाँध के निर्माण का सुनहरी महाशीर-मात्सियकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। विभिन्न अन्वेषणों से पता चलता है कि जूनी नाला जो कभी मध्य हिमालय की दक्षिण पूर्वी श्रृंखलाओं से पंडोह के नजदीक व्यास नदी में बहता था अब लगभग 13 कि.मी. लम्बी सुरंग की खुदाई के फलस्वरूप उसके मलबे के कारण बन्द हो चुका है। यह नदी सुनहरी महाशीर मछलियों की मुख्य प्रजनन स्थली थी। यह मछली जो कि कभी विस्थापन के दौरान कुल्लू तक पायी जाती थी अब पंडोह बाँध की वजह से व्यास नदी के ऊपरी भाग में नहीं पहुँच पाती है। इन मछलियों के ऊपर चढ़ने के लिये जिन मार्गों का प्रावधान किया गया था वह भी अब निष्क्रिय होकर मछली पकड़ने के साधन मात्र बन कर रह गए हैं। खान (1940) द्वारा यमुना नदी में ताजेवाला मुहाने पर सुनहरी महाशीर पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि यह मछली अप्रैल-मई में नदी के ऊपरी भाग में चढ़ना शुरू करती है, किन्तु ताजेवाला अवरोधक के कारण इसका विस्थापन पूर्णतः बाधित हो गया है। सितम्बर के अंतिम सप्ताह में जब मानसून की बरसात समाप्त हो जाती है और नदी में पानी कम हो जाता है तो सुनहरी महाशीर मछली जो कि नदी के ऊपरी भागों में या सहायक नालों में अण्डे दे चुकी होती है। पानी के बहाव के साथ नीचे आना शुरू करती है तथा ताजेवाला के स्लूस गेट बन्द हो जाने पर वहाँ से निकलने वाली नहरों में बढ़ना शुरू कर देती है। जो मछली एक बार नहरों में चली जाती है उसका मुख्य नदी में वापस लौटना कठिन हो जाता है। लगभग 18 कि.मी. लम्बी पश्चिमी यमुना नहर में नीचे बढ़ने पर 60 मीटर लम्बा तथा 5 मीटर ऊँचा तीव्र बहाव का उतार है जिसमें महाशीर मछलियों का ऊपर चढ़ना असम्भव हो जाता है और इसके नीचे मछलियों को पकड़ना आसान हो जाता है। ऐसी ही परिस्थितियाँ चिनाब नदी में सलाल, भागीरथी नदी में टिहरी तथा गंगा के लक्ष्मण झूला नामक स्थानों पर भी है। जिम कार्बेट ने नैनीताल झील से 22.50 कि.ग्रा. की महाशीर पकड़ी थी (राज, 1947) मगर अब इस झील में महाशीर का अभाव हो गया है। जिला नैनीताल में सुनहरी महाशीर की पैदावार 1982-83 में 8.92 क्विंटल से घटकर 1989-90 में 4.16 क्विंटल रह गयी है अधिकतर कुमायूँ की झीलों में काफी अधिक संख्या में महाशीर अंगुलिकाओं के संचय के बावजूद भी इसकी मात्सियकी में आशातीत सफलता नहीं मिल पायी है। श्रेष्ठा (1994) की रिपोर्ट के अनुसार नेपाल के नदी नालों में भी महाशीर मछलियों की पैदावार में कमी आयी है।
भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय कृषि आयोग ने अपनी मात्स्यिकी से सम्बन्धित रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि महाशीर मछलियों के प्रजनक एवं छोटी-बड़ी मछलियों के शिकार के अविवेकपूर्ण एवं असंतुलित तरीकों से तथा नदी घाटी परियोजनाओं के कुप्रभावों से इसकी पैदावार में असामान्य कमी आयी है तथा संस्तुति की गयी थी कि शीतजल मात्स्यिकी की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शीतजल मात्स्यिकी केन्द्र द्वारा 1989 में शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान एवं विकास की आवश्यकताओं पर आयोजित कार्यशाला में तथा राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक अनुसंधान ब्यूरो द्वारा सन 1994 में आयोजित संकटग्रस्त मछलियों से सम्बन्धित सेमिनार में मात्स्यिकी वैज्ञानिकों व विद्वानों द्वारा आम सहमति बनायी गयी थी कि हिमालय क्षेत्र में मात्सियकी अनुसंधान एवं विकास के कार्य करने की आवश्यकता है। वर्तमान में सुनहरी महाशीर मछलियों की पैदावार में होने वाली लगातार कमी इन मछलियों के प्रत्यारोपण प्रयासों की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता पर बल देती है तथा समुचित कानूनी तौर-तरीकों से इसके संरक्षण की तरफ संकेत करती है। वैज्ञानिक तौर-तरीकों में विभिन्न किस्म के जालों का उपयोग तथा प्रजनन काल में मछलियाँ पकड़ने में प्रतिबन्ध मुख्य है। पर्वतीय नदी-नालों में इन मछलियों के पुनर्स्थापन के लिये हैचरियों का निर्माण कर उनमें बीज उत्पादन तथा अंगुलिकाओं का उत्पादन करना भी प्रमुख कार्य है।
1.3 अनुसंधान एवं विकास पहल
इस शताब्दी के सातवें दशक में प्राकृतिक जलस्रोतों से प्राप्त महाशीर मछलियों के कृत्रिम प्रजनन में सर्वप्रथम सफलता कुमायूँ क्षेत्र में प्राप्त की गई (त्रिपाठी, 1977, जोशी, 1982-88)। पठानी तथा दास (1978) को पिट्यूटरी हारमोन के द्वारा इस मछली के कृत्रिम प्रजनन में आशातीत सफलता नहीं मिल पायी। 1989 में राष्ट्रीय शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान केन्द्र की स्थापना के पश्चात सुनहरी महाशीर के बीज उत्पादन के लिये हैचरी का निर्माण, कृत्रिम प्रजनन की तकनीकी का मानकीकरण, तथा नर्सरी का प्रबन्धन आदि कार्यकलापों को प्राथमिकता दी गई। इस अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य हिमालय क्षेत्र के नदी नालों में संकटग्रस्त महाशीर प्रजाति के पुनर्स्थापन के लिये स्वस्थ बीज (जीरा/अगंलिकाएं) का उत्पादन करना है।
2.1 भोजन
सुनहरी महाशीर मछलियाँ अधिकतर तालाबों में व नदी नालों में पानी की सतह से नीचे भोजन चुगती हैं तथा जीवनकाल की कुछ अवस्थाओं में यह मछलियाँ नदी नालों की तलहटी से भी भोजन लेती हैं। भोजन की प्राप्ति के अनुरूप इन मछलियों के भोज्य पदार्थों में मुख्यतः सूक्ष्म जीव-जन्तुओं से लेकर बड़े-बड़े कीड़े-मकोड़े तक शामिल हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी छोटी मछलियों का भी भक्षण कर लेती हैं। युवा मछलियाँ अत्यधिक मात्रा में भोजन करती हैं तथा जन्तु प्लवक मुख्यतः क्रस्टेशियन्स और छोटे-छोटे कीड़े इनकी प्राथमिकता है। नौटियाल (1994) के अनुसार सुनहरी महाशीर मछलियों में भोजन लेने की क्षमता इनकी बढ़ोत्तरी के साथ-साथ कम होती जाती है। जोशी एवं कुमार (1980) ने इन मछलियों के भोजन चक्र का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकाला है कि अंगुलिकाएं एवं युवा महाशीर मछलियाँ मुख्यतः जलीय कीड़े-मकोड़े एवं वानस्पतिकीय प्लवकों पर निर्भर रहती है।
3.1 जलापूर्ति
हैचरी का निर्माण सदैव ऊँची जगह पर किया जाना चाहिए, जहाँ आवश्यकता पड़ने पर बहुतायत से शुद्ध जल उपलब्ध हो। ऐसी जगह को प्राथमिकता देनी चाहिए जहाँ हैचरी या फार्म में जल की उपलब्धता भूमि तल से आसानी से हो सके। रासायनिक तौर पर पानी शुद्ध व ताजा होना चाहिए जिसमें प्रत्येक मौसम में हर समय प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन (7.5-9.0 मि.ग्रा./ली.) उपलब्ध रहे। हैचरी के नियमित कार्य-कलापों एवं मत्स्य पोषण के लिये 20.0 डिग्री से 25.0 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान वाला जल सर्वोत्तम माना गया है। हैचरी में जल की आपूर्ति साधारणतः ऐसे स्रोत से की जानी चाहिए जिसमें पोषक तत्वों की प्रचुरता हो किन्तु सिल्ट (गाद) की अधिकता न हो। छोटे-छोटे नालों या स्रोत से उपजने वाला जल काफी अनुकूल होता है। हैचरी या प्रक्षेत्र बाढ़ स्थल से दूर सुरक्षित स्थान पर होना चाहिए। जल आपूर्ति प्रदूषण तथा ऐसे विषैले पदार्थों से मुक्त होनी चाहिए जो कि मछलियों के लिये हानिकारक होते हैं। महाशीर मछलियों के जीवन चक्र की विभिन्न दशाओं के लिये निम्न मात्रा में जलापूर्ति करना श्रेयस्कर है-
जल प्रवाह | मत्स्य बीज पोषक क्षमता |
1.0-1.5 ली/मि. | 20.25° से. तापक्रम पर 2000 अण्डों व स्फुटनिकाओं (नवजात शिशु मछली) का ऊष्मायन, स्फुटन एवं पालन पोषण |
3.0-4.0 ली/मि. | 20-27° से. ताक्रम पर 2000 शिशु मछलियों (0-3 माह) का पालन पोषण |
4.0-6.0 ली./मि. | 20-30° से. तापक्रम पर 1500 शिशु मछलियों अंगुलिकाओं (4-9 माह) का पालन पोषण |
3.2 उत्पादन इकाई
प्रत्येक हैचरी में एक उत्पादन इकाई का होना नितांत आवश्यक होता है जिसमें निषेचित अण्डों का स्फुटन कराया जाता है और शिशु मछलियों को पाल-पोस कर बड़ा किया जाता है ताकि अधिक मात्रा में संग्रह करने हेतु उचित आकार की अंगुलिकाओं का उत्पादन किया जा सके। इन्हीं बातों के दृष्टिगत अण्डों की अधिक स्फुटन क्षमता, शिशु महाशीर की अधिक जीवितता तथा बीज उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिये राष्ट्रीय शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान केन्द्र ने कुमायूँ हिमालय के भीमताल नामक स्थान पर एक सतत जल प्रवाही मत्स्य बीज पोषकशाला विकसित की है जिसके मुख्य अवयव निम्न हैं-
1. जल प्रवाही इकाई एवं उपरली जल संग्रहण टंकी जो कि अनुमानतः भूमि सतह से 5 मी. की ऊँचाई पर स्थित की जाती है इसमें पम्प द्वारा पानी भर कर हैचरी के विभिन्न ट्रफों व टैंकों में पानी प्रवाहित किया जाता है।
2. हैचरी ट्रफ साधारणतः लोहे की पतली चादरों से या फाइबर ग्लास द्वारा निर्मित होते हैं इनमें आवश्यकतानुसार हैचरी ट्रे को फिट करने की सुविधा होती है। इनका आकार 220 ×60×30 से.मी. होता है तथा पानी भरने व निकासी की व्यवस्था भी होती है। पानी निकालने की ऐसी व्यवस्था की जाती है कि ट्रफ की तलहटी का पानी पहले निकलता है ताकि ट्रफों में लगातार समान रूप से ताजे पानी का प्रवाह होता रहे।
3. हैचरी ट्रे 50×30×10 से.मी. लकड़ी के फ्रेम में प्लास्टिक/सिन्थेटिक जाली से निर्मित होती है और ट्रे को ट्रफ की सतह में फिट कर दिया जाता है। एक ट्रफ में 5 ट्रे को रखने की व्यवस्था होती है। ट्रफों में शावर द्वारा भी पानी दिया जाता है ताकि अण्डों/बच्चों को पानी से उचित ऑक्सीजन मिलती रहे। एक हैचरी ट्रे में 5000-6000 अण्डों का आसानी से स्फुटन कराया जा सकता है।
4. नर्सरी टैंकों द्वारा निर्मित पोषक इकाई में 10000-15000 नवजात शिशु महाशीर प्रति टैंक रखने की क्षमता होती है। यह नर्सरी टैंक पी.वी.सी. या फाइबर ग्लास (120×70×40 से.मी.) द्वारा निर्मित होते हैं तथा इनमें जल प्रवाह तथा जल निकासी की उचित व्यवस्था की जाती है।
5. शिशु महाशीर (फ्राई) एवं अंगुलिकाओं को पालने के लिये जी आई. शीट के बने हुए रियरिंग टैंकों का आकार 2.0 वर्ग मि. होता है तथा गहराई 45 से.मी. होती है और इनमें 5000-10000 महाशीर के बच्चे बड़ी आसानी से पाले पोसे जाते हैं।
एन.आर.सी. द्वारा भीमताल में विकसित जल-प्रवाही पोषणशाला में 2.5-3.0 लाख निषेचित अण्डों को स्फुटित कराकर 2.0-2.5 लाख महाशीर बीज उत्पादन की क्षमता है। भीमताल हैचरी में सभी रियरिंग इकाईयों को सतह से 0.25-0.5 मी. ऊँचे लोहे के स्टैंड पर रखा गया है और पूरी हैचरी को एक पी.वी.सी. शेड के अन्दर निर्मित किया गया है ताकि मौसम के दुष्परिणामों से इसे सुरक्षित रखा जा सके।
हैचरी स्रोत में पानी की कमी होने पर तथा हैचरी में आवश्यकता पड़ने पर लगातार पानी प्रवाहित करने हेतु एक आर्टीजन ट्यूबवेल का प्रबन्ध भी किया गया है। हैचरी स्रोत एवं ट्यूबवेल का पानी सर्वप्रथम ट्रफों व टैंकों में प्रवाहित किया जाता है।
4.1 कृत्रिम प्रजनन
राष्ट्रीय शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान केन्द्र, भीमताल द्वारा प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त सुनहरी महाशीर के कृत्रिम गर्भाधान में बिना पिट्युटरी ग्रन्थि अथवा किसी अन्य हारमोन के उपयोग से सफलता प्राप्त की गई है। जोशी (1982, 1988), सहगल तथा मलिक (1991, 1992), सुन्दर इत्यादि (1992) तथा मोहन इत्यादि (1994)। सुनहरी महाशीर के कृत्रिम प्रजनन के अंतर्गत निम्नलिखित मुख्य क्रियाकलाप शामिल हैं- आवश्यक प्रजनकों का संग्रह, कृत्रिम गर्भाधान तथा निषेचन, ऊष्मायन, स्फुटनिकाओं तथा फ्राई एवं अगुलिकाओं का उत्पादन आदि।
4.1.2 अण्डदोहन विधि
हिमालयन महाशीर से अण्डे प्राप्त करना अत्यधिक सरल है। केवल जीवित तथा परिपक्व मछलियों को ही अण्डे प्राप्त करने हेतु उपयोग किया जाता है। प्राप्त किए गए अण्डे नर मछलियों के शुक्राणुओं से ‘शुष्क विधि’ द्वारा निषेचित किए जाते हैं। कृत्रिम प्रजनन की अवधि में एक व्यक्ति मादा महाशीर को इस प्रकार से पकड़ता है कि मछली का सिर ऊपर व पूँछ वाला भाग नीचे की ओर तश्तरी के ऊपर थोड़ा झुका रहे, दूसरा व्यक्ति जो पहले वाले व्यक्ति के सामने बैठा होता है मछली के पेट को धीरे-धीरे अपने अंगूठे और तर्जनी द्वारा ऊपर से नीचे की तरफ दबाता है। इस प्रकार सभी परिपक्व अण्डे ट्रे में एकत्रित कर लिये जाते हैं। कभी-कभी इस प्रक्रिया के दौरान अण्डों के साथ रक्त अथवा अपरिपक्व अण्डे भी आ जाते हैं। इस परिस्थिति में अण्डे प्राप्त करने की प्रक्रिया को रोक देना हितकर होता है। विशेष परिस्थतियों में अण्डे प्राप्त करने की प्रक्रिया एक व्यक्ति द्वारा भी सम्पादित की जा सकती है। इस प्रकार एक परिपक्व मादा से 2500-6000 अण्डे/कि.ग्रा. की दर से प्राप्त किये जा सकते हैं। परिपक्व मादा से अण्डे प्राप्त करन के साथ ही नर मछलियों से उक्त प्रक्रिया द्वारा मत्स्य शुक्र प्राप्त किया जाता है। नर से प्राप्त मत्स्य शुक्र व मादा मछलियों से प्राप्त अण्डों को ट्रे में निकालकर बड़ी सावधानी पूर्वक चिड़ियां के पंख की सहायता से परस्पर मिलाया जाता है। ऐसा देखने में आया है कि एक चम्मच शुक्ररस की उपलब्धता 2-3 परिपक्व मादा से प्राप्त किए गए अण्डों के लिये पर्याप्त होती हैं। थोड़ी देर तक निषेचित अण्डे इसी स्थिति में रखे जाते हैं और फिर थोड़ा जल मिलाकर पुनः अण्डों पर शुक्ररस को मिलाया जाता है ताकि सभी अण्डे निषेचित हो सकें। इसके 2-3 मिनट के पश्चात ट्रे में रखे गए अण्डों को कई बार धोने के पश्चात अनुपयुक्त शुक्ररस या अनावश्यक पदार्थों को बाहर कर दिया जाता है। 2-3 घण्टे के अन्तराल के लिये इनको छाया में रख दिया जाता है। महाशीर अण्डों का रंग हल्का पीला से हल्का नारंगी होता है तथा प्रत्येक का व्यास 2.5 से 3.6 मिमी होता है जो बाद में जल सुदृढ़ीकरण के पश्चात 3.0-3.6 मिमी हो जाता है। निषेचित अण्डों को 5 प्रतिशत ग्लेसियल एसिटिक एसिड में 24 घण्टे रखने के पश्चात इनकी निषेचित दर का पता लगाया जाता है। निषेचित और विकसित अण्डे पारदर्शी होते हैं जबकि अविकसित अण्डे सफेद नजर आने लगते हैं। अण्डे प्राप्त करने व निषेचन प्रक्रिया को सही ढंग से सम्पादित करने पर निषेचन दर 95-100 प्रतिशत तक प्राप्त की जा सकती है।
5.1 आंकड़ा आधार (डाटा-बेस) का सृजन
हिमालय क्षेत्र में उपलब्ध जलस्रोतों में महाशीर मछलियों के पुनर्वासन अथवा उत्पादन के लिये यह आवश्यक है कि सभी जलस्रोतों (नदी, झील, तालाब आदि) से सम्बन्धित पूर्ण जानकारी जैसे- इन जलस्रोतों में मछली उत्पादन, मछलियों की संख्या, प्रजाति, आखेट के तरीके आदि को एकत्र कर उनका संश्लेषण-सम्प्रेषण कर लिया जाना आवश्यक है जिससे भविष्य में इन जलस्रोतों के मात्स्यिकी प्रबन्धन की समुचित योजनाएँ बनायी जा सकें।
5.2 प्रतिबन्ध
इस प्रजाति/वर्ग की मछलियों के छोटे-बच्चों व प्रजनक भण्डार की सुरक्षा के लिये कानून अथवा अन्य सम्भाव्य साधनों को अपनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में अभी तक मात्सियकी क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों का कोई राजनैतिक तथा सामाजिक हल नहीं निकल पाया है। उत्तरांचल की भाँति अन्य राज्यों के पर्वतीय जिलों में कुछ जल क्षेत्रों में वन विभाग का नियंत्रण है। कुछ राज्यों में अनियमितताएं भी हैं जो कानून के उचित निर्वाह में बाधा डालती हैं।
5.3 अभ्यारण्य
झीलों तथा नदी प्रणालियों दोनों में ही मत्स्य संग्रहक अथवा मत्स्य अभ्यारण्य की स्थापना, महाशीर मछलियों के भण्डारण/संरक्षण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। हमारे देश में कुछ ऐसे मंदिर तथा अन्य धार्मिक स्थान है जहाँ धार्मिक पवित्रता या कुछ अन्य कारणों से मछली पकड़ना प्रतिबन्धित है। ऐसे प्रतिबन्धित स्रोतों में हिमाचल प्रदेश के पंचरुखी ग्राम के समीप आवा नदी पर अंधरेटा मछियाल, मण्डी में नाग-चुला, औवा खड, मामता एवं कांगड़ा जिले में सामतोल अभ्यारण्य, उत्तरांचल में बैजनाथ के पास गोमती नदी (जिला-अल्मोड़ा) नल-दमयन्तीताल (जिला-नैनीताल) ऋषीकेश व हरिद्वार में गंगा नदी के तीर्थ स्थल तथा कार्बेट पार्क के पास पश्चिमी रामगंगा नदी मुख्य है। यदि मत्स्य प्रजनकों एवं मत्स्य बीज को संरक्षण दिया जाए तो निश्चय ही मत्स्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो सकेगी और इस प्रजाति को ह्रास से बचाया जा सकेगा प्रजननकाल में मछलियाँ नदी नालों में ऐसे सुदूर स्थानों में विस्थापन करती है जहाँ इनकी शिकारमाही को प्रतिबन्धित करना कठिन होता है जिससे प्रजनक ही नहीं बल्कि मत्स्य बीज का भी ह्रास होता है।
5.4 व्यवस्थित शिकारमाही
ठण्डे पानी की मछलियों का दोषपूर्ण विधियों द्वारा अंधाधुंध दोहन रोका जाना चाहिए तथा इसे कानून द्वारा अपराध घोषित किया जाना चाहिए। सुरक्षा कर्मियों तथा वार्ड स्टाफ की अपर्याप्त संख्या के कारण प्राकृतिक जलस्रोतों में इस तरह की गतिविधियों जैसे- विस्फोटक सामग्री का प्रयोग, जहर, भालो का प्रयोग तथा अन्य कृत्रिम वस्तुओं का प्रयोग बढ़ा है। यहाँ तक कि जाल द्वारा अंगुलिकाएं एवं छोटी-छोटी मछलियों को न पकड़ने का आधारभूत सिद्धांत भी नहीं अपनाया जा रहा है। प्रजनन काल के समय मछली के शिकार में पूर्ण प्रतिबंध भी नहीं लगाया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश की सरकारों ने मछली पकड़ने को नियंत्रित व व्यवस्थित करने तथा मछलियों के भण्डारण को संरक्षण देने के उद्देश्य से इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं।
5.5 जल अवरोधन
विभिन्न नदियों में चलायी जा रही नदी-घाटी परियोजनाओं से ठण्डे पानी की मछलियों की पैदावार काफी प्रभावित हुयी है। यद्यपि नदी-घाटी परियोजनाओं में जो बाँध बनते हैं उनसे हमें मत्स्य पालन का क्षेत्र बढ़ाने में सहायता मिलती है पर साथ ही नीचे की तरफ पानी का बहाव कम हो जाने से विशेषकर महाशीर तथा साइजोथोरासिड मछलियों के प्रजनन तथा भोजन उपलब्धता के क्षेत्रों में कमी आती है। नदी-घाटी परियोजनाओं से समाज को बहुत लाभ मिलता है अतएव पर्यावरण के दबाव को काम करना मुश्किल है। अतः मत्स्य संस्थाओं को मत्स्य पुनर्वासन के लिये मत्स्य बीज उत्पादन की दिशा में प्रत्यनशील होना चाहिए।
5.6 जन-चेतना
पर्यावरण की क्षति की रोकथाम के लिये ऐसे कार्यक्रमों में लोगों की भागीदारी के साथ जन-चेतना अभियान चलाया जाना नितांत आवश्यक है। कर्नाटक राज्य वन विभाग (वाइल्ड लाइफ) ने कावेरी नदी का 23 कि.मी. का पट्टा वाइल्ड लाइफ एसोसिएशन ऑफ साउथ इंडिया (वासी) को दिया है जो इसकी सुरक्षा किराए के गार्डों की सहायता से बड़ी मुस्तैदी से कर रही है। अभी भी वासी, सी डब्लू.ए. तथा कनार्टक टूरिज्म विभागों को नदी के विस्मित जल खण्डों को पट्टे पर दिया गया है जिन्हें शिकारमाही के लिये सफलता पूर्वक संरक्षण दिया जा रहा है। यहाँ तक कि इंग्लैण्ड, यूरोप तथा जापान के शिकारियों को भी इस ओर आकर्षित किया जा रहा है। इस प्रकार नदी नालों व जलस्रोतों को पट्टे पर देने के कार्यक्रम से भविष्य में देश के अन्य भाग भी लाभान्वित हो सकते हैं। पिछले ढाई दशकों में विभिन्न संघ जैसे हिमाचल एलिंग एसोसिएशन (पालमपुर), असम (भरौली) एंगलर्स एशोसिएशन (तेजपुर) अस्तित्व में आए हैं जिनका उद्देश्य हिमालयन महाशीर को सुरक्षित रखना तथा पुनः बसाना है। अपने अथक तथा लगातार प्रयासों से उन्होंने निम्न प्रशंसनीय कार्य किए हैं-
- अकुशल एवं व्यावसायिक मछुवारों में चेतना का प्रसार
- मछलियों के प्राकृतिक निवास स्थलों की सुरक्षा
- मत्स्य कृषि का नियंत्रण
- समय-समय पर आखेट प्रतियोगिताओं का आयोजन ताकि मत्स्य शिकारमाही को बढ़ावा मिल सके।
ऐसे ही कई स्वयंसेवी तथा स्थानीय संस्थाएं संकटग्रस्त मत्स्य जैविकी को सुरक्षित रखने में सहायक हो सकती है जो कि देश-विदेश के आखेटकों के लिये विशेष आकर्षण है।