आधुनिक समय में हमारे पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो गया है। हमारी मृदा, जल, वायु व वन सभी प्रदूषित हो रहे हैं। जिसके कारण जैव-विविधता के लिए संकट, बाढ़, सूखा व अन्य प्राकृतिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इस कारण अब समय यह चेतावनी दे रहा है कि हमें प्राकृतिक स्रोतों की शुद्धता बनाए रखने के लिए प्रयास करना होगा। प्राकृतिक स्रोतों की शुद्धता बनाए रखने में सूक्ष्म जीवों का कितना बड़ा योगदान है ? बता रहे हैं, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के डॉ. खलील खान एवं डॉ. ममता राठौर
मृदा में मुख्य रूप से फफूंद ही है, जो उपस्थित रहते हैं तथा इनकी पदार्थों के अपघटन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इनका मुख्य कार्य हानिकारक पदार्थों को पोषक तत्वों में परिवर्तित करना होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कम्पोस्टिंग, जो पूर्ण रूप से एक जैविक प्रक्रिया है, जिसमें फफूंद द्वारा ही वायुवीय दशाओं में जैविक पदार्थों का जैविक अपघटन होता है। फफूंद अपघटित पदार्थों की अपघटित क्रिया के द्वारा ही कम्पोस्ट बनाने में सहायता करते हैं। अपने वातावरण को शुद्ध रखने के लिए तथा मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए इन्हें किसानों के मित्र के रूप में जाना जाता है। फसल के अवशेषों को जलाने से उसमें उपस्थित मुख्य पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश जलकर नष्ट हो जाते हैं और बहुत-सी विषैली व जहरीली गैसें कार्बन डाईऑक्साइड, मोनो ऑक्साइड, मीथेन, बेंजीन आदि प्रभाव वातावरण को दूषित करता है, इस कारण फसल अवशेषों को कम्पोस्ट में परिवर्तित कर देना चाहिए, जिससे मृदा में जीवांश कार्बन की बढ़ोत्तरी होती है।
कृषि कार्य में सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल का उपयोग होता है। कृषि में उपयोग होने वाले पानी के उस भाग को छोड़कर जो कि वाष्पित हो जाता है या भूमि द्वारा सोख लिया जाता है, शेष बहकर पुनः जल धाराओं में मिल जाता है। इस तरह यह जल खेतों में डाली गई प्राकृतिक या रासायनिक उर्वरकों सहित कीटनाशकों, कार्बनिक पदार्थों, मृदा एवं इसके अवशेषों आदि को बहाकर जलस्रोतों में मिला देता है।
मल-जल या इसी प्रकार के दूषित जल जिसमें कार्बनिक पदार्थ बड़ी मात्रा में उपस्थित होते हैं, स्वच्छ जलस्रोतों में मिलकर उनका बीओडी (बायोलॉजिक ऑक्सीजन डिमांड) भार बढ़ा देते हैं अर्थात कार्बनिक पदार्थ जो कि जैविक रूप से विनष्ट होते हैं, के जलस्रोतों में मिलने से सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता से जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। साथ ही हानिकारक बैक्टीरिया के पेयजल में होने से डायरिया, हेपेटाइटिस, पीलिया आदि रोगों सहित अनेक चर्म रोगों के होने का खतरा भी हो जाता है।
फफूंद से जैविक विघटन की क्रिया के बाद खाद बनाने का नया विचार आजकल आधुनिक कृषि में बहुत उपयोगी है। इसके लिए लिग्नीसेल्युलोलिटिक फफूंद का कम्पोस्ट कल्चर बनाया जाता है। यह कम्पोस्ट मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों का सुधार कर देती है, अतः इसे जैविक खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है।
मित्र जीवाणु प्रकृति में स्वतंत्र रूप से भी पाए जाते हैं लेकिन उनके उपयोग को सरल बनाने के लिए इन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार करके बाजार में पहुँचाया जाता है, जिससे कि इनके उपयोग से फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों से बचाया जा सकता है।
यह एक बैक्टीरिया आधारित जैविक कीटनाशक है। इसके प्रोटीन निर्मित क्रिस्टल में कीटनाशक गुण पाए जाते हैं, जो कि कीट के अमाशय के लिए घातक जहर है। यह लेपिडोपटेरा और कोलिओपेटेरा वर्ग की सुडियों की 90 से ज्यादा प्रजातियों पर प्रभावी है। इसके प्रभाव से सुडियों के मुखांग में लकवा हो जाता है जिससे की सुडियाँ खाना छोड़ देती है और सुस्त हो जाती हैं तथा 4-5 दिन में मर जाती हैं। यह जैविक सुंडी की प्रथम और द्वितीय अवस्था पर अधिक प्रभावशाली है। इनकी चार अन्य प्रजातियाँ बैसिलस पोपुली, बैसिलस स्फेरिक्स, बैसिलस मोरिटी, बैसिलस लेतीमोर्बस भी कीट प्रबंधन के लिए प्रभावी पाई गई हैं। इस जीवाणु से विभिन्न फसलों में नुकसान पहुँचाने वाले शत्रु कीटों जैसे-चने की सुंडी, तम्बाकू की सुंडी, सेमिल पर लाल बालदार सुंडी, सैनिक कीट एवं डायमंड बैक मोथ आदि के विरूद्ध एक किग्रा, प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर अच्छा परिणाम मिलता है।
यह वायरस प्राकृतिक रूप से मौजूद सूक्ष्म जैविक है। वे सूक्ष्म जीव जो केवल न्यूक्लिक एसिड एवं प्रोटीन के बने होते हैं, वायरस कहलाते हैं। यह कीट की प्रजाति विशेष के लिए कारगर होता है।
इस सूक्ष्मजैविक वायरस का प्रयोग सूखे मेवे के भण्डार, कीटों, गन्ने की अगेती तनाछेदक, इटंरनोड़ बोरर और गोभी की सुंडी से बचने के लिए किया जाता है। यह विषाणु संक्रमित भोजन के माध्यम से कीट के मुख में प्रवेश करता है और मध्य उदर में वृद्धि करता है। कीट की मृत्यु पर विषाणु वातावरण में फैलकर अन्य कीटों को संक्रमित करते हैं। गन्ने और गोभी की फसल में कीट प्रबन्धन के लिए 1 किग्रा. पाउडर का 100 ली. पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से कीड़ों की रोकथाम में मदद होती है। सुंडी के लिए एन.पी.वी. का प्रयोग किया जाता है।
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