कपास को अक्सर हमारी टेक्सटाइल अर्थव्यवस्था का ‘सफेद सोना’ कहा जाता है। हर साल इसके खेतों की हरियाली और सफेदी, उत्पादन की सफलता का संकेत देती है। लेकिन इसी उत्पादन प्रक्रिया के भीतर एक ऐसा संकट पनप रहा है, जो आंकड़ों और बाज़ार मूल्यों में कहीं दर्ज नहीं होता, और न ही इस पर किसी का ध्यान ही जाता है। कपास की खेती में कीटनाशकों और रसायनों का लगातार प्रयोग, छिड़काव के सुरक्षित साधनों की कमी और खेतिहर मज़दूरों में इसकी जानकारी के अभाव का असर इसे पैदा करने वालों की आंखों पर हो रहा है। कई कपास उत्पादक इलाकों में किसानों के आंखों की रोशनी में कमी आने, आंखों में बार-बार चोट लगने और कुछ मामलों में स्थायी रूप से नेत्रहीन हो जाने के मामले भी देखने को मिले हैं। यह एक धीमी गति से बढ़ने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है, जो पैदावार या आमदनी के आंकड़ों में नहीं दिखती, लेकिन ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता को लगातार कमजोर कर रही है।
डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार अलीगढ़ और अमरावती जैसे ज़िला-स्तरीय क्लिनिकों से लेकर यवतमाल और बठिंडा के सरकारी अस्पतालों तक, नेत्र रोग विशेषज्ञों के सामने आने वाले मामलों का स्वरूप बदल रहा है। आंखों में लगातार जलन, बार-बार होने वाले संक्रमण, अपेक्षाकृत कम उम्र में मोतियाबिंद और धीरे-धीरे बढ़ता दृष्टि-क्षय - इन लक्षणों वाले मरीज़ों की संख्या में तेज़ी आने लगी है। डॉक्टरों का मानना है उन इलाक़ों में ऐसे मामलों की संख्या ज़्यादा है जहां कपास की खेती में कीटनाशकों का बहुत अधिक प्रयोग होता है। इनमें महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र, विशेषकर यवतमाल, तेलंगाना के वारंगल, पंजाब के बठिंडा, गुजरात और कुछ अन्य कपास-उत्पादक इलाके प्रमुख हैं। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि उपलब्ध क्लिनिकल ऑब्जरवेशन और क्षेत्रीय रिपोर्ट इस बात का संकेत देती हैं कि रसायनों के साथ लंबे समय तक संपर्क और छिड़काव के दौरान होने वाला ड्रिफ्ट-एक्सपोज़र समय के साथ आंखों और नेत्र-तंत्रिका पर गंभीर असर डाल रहा है।
भारत में कपास अपेक्षाकृत कम कृषि भूमि पर उगाई जाती है, लेकिन इसके बावजूद देश में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों का एक असामान्य रूप से बड़ा हिस्सा इसी फसल पर खर्च होता है।
कपास उत्पादन में रसायनों पर बढ़ती निर्भरता अब केवल खेती की तकनीकी समस्या नहीं रह गयी है। बल्कि यह इस काम से सीधे जुड़े लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बनती जा रही है। कीटनाशकों के नियमित और भारी मात्रा में इस्तेमाल, इसकी तीव्रता और स्थानीय तौर-तरीकों को देखते हुए कपास-उत्पादक इलाकों में बढ़ रही आंखों से जुड़ी परेशानियों के कारण स्पष्ट हैं।
कपास पर असमान रूप से भारी कीटनाशक निर्भरता: भारत में कपास भले ही कम कृषि भूमि पर उगाई जाती हो, लेकिन देश में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों का बड़ा हिस्सा इसी फसल पर खर्च होता है। शोध और क्षेत्रीय विश्लेषण बताते हैं कि कपास की खेती वैश्विक स्तर पर कुल कृषि भूमि का बहुत छोटा हिस्सा घेरती है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया में इस्तेमाल होने वाले पेस्टिसाइड का लगभग 4.7 फ़ीसद और कीटनाशकों की बिक्री का करीब 10 फ़ीसद हिस्सा इसी फसल से जुड़ा हुआ है।
बहुत खतरनाक पेस्टिसाइड (हाई क्वालिटी हजार्डस पेस्टीसाइड) की ज़हरीली प्रकृति इंसानों और पर्यावरण को खतरे में डालती है। एक अध्ययन के अनुसार, हर साल लगभग 44 फ़ीसद किसान पेस्टिसाइड के ज़हरीले प्रभावों की चपेट में आते हैं। इन रसायनों का असर केवल तात्कालिक नहीं होता बल्कि लंबे समय में ये कैंसर, तंत्रिका-तंत्र से जुड़ी बीमारियों जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के जोखिम को बढ़ाते हैं। साथ ही जल स्रोतों के प्रदूषण तथा खाद्य पदार्थों में रासायनिक अवशेषों के ज़रिये पर्यावरण पर भी अपना स्थायी असर छोड़ते हैं।
असुरक्षित छिड़काव: छोटी जोत वाले किसानों के पास सीमित संसाधन होते हैं। ऐसे में वे मास्क, चश्मे, दस्ताने या सुरक्षा किट का उपयोग नहीं कर पाते। इसके पीछे खर्च, उपलब्धता की कमी और पर्याप्त जानकारी का अभाव जैसे कारक काम करते हैं। खेतों में कीटनाशक का छिड़काव करते समय हवा में मौजूद बहुत बारीक रासायनिक कण अक्सर आंखों पर बैठ जाते हैं। इससे शुरू में हल्की जलन, चुभन, खुजली या धुंधला दिखने जैसी परेशानियां होती हैं, जिन्हें किसान अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। लेकिन यही बार-बार होने वाला संपर्क धीरे-धीरे आंख की बाहरी सतह यानी कॉर्निया को नुकसान पहुंचा सकता है। इसके अलावा कुछ मामलों में, आंख से मस्तिष्क तक दृश्य सूचना पहुंचाने वाली ऑप्टिक नर्व पर भी असर डाल सकता है।
हाइब्रिड/बीटी कीट-प्रतिरोधी नस्लों के साथ नए कीटनाशक-प्रयोग: कपास की इन क़िस्मों में पाए जाने वाले कीट एक समय के बाद छिड़काव वाले कीटनाशकों और पेस्टीसाइड के प्रति अभ्यस्त हो जाते हैं। ऐसे में फसल को सुरक्षित रखने के लिए किसानों को इन कीटनाशकों के छिड़काव की मात्रा और आवृति दोनों बढ़ानी पड़ती है। नतीजतन एक ऐसा दुष्चक्र बन जाता है जिसमें हर बार समस्या बढ़ती जाती है। रिकॉर्ड बताते हैं कि विदर्भ (यवतमाल, महाराष्ट्र), बठिंडा, मानसा और फाजिल्का, हिसार, सिरसा, फतेहाबाद, जींद जैसे ज़िलों में फसल के सबसे सक्रिय मौसम में किसान औसतन 20-30 बार, और कहीं-कहीं इससे भी ज़्यादा बार कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं।
जोखिम उठाने वाली आदतें: मिश्रित कीटनाशक (कॉम्बिनेशन स्प्रे), अनुचित भंडारण, जिन हाथों से कीटनाशक छू रहे हैं, बिना धुले उन्ही हाथों से आंखों को छूने पर ख़तरा बढ़ जाता है। यवतमाल जैसी जगहों से फील्ड-फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट में भी इसका ज़िक्र है कि मिश्रित और प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग गंभीर स्वास्थ्य परिणामों से जुड़ा रहा है।
इसके अलावा तेज जलन, बार-बार कंजंक्टिवाइटिस या कॉर्निया पर खरोंच या घाव, आंखों में सूखेपन की समस्या, उम्र से पहले मोतियाबिंद, ऑप्टिक नर्व डैमेज और कुछ मामलों में स्थायी दृष्टि-क्षय। इससे किसानों की रोज़मर्रा की कार्यक्षमता घटती है और खेत में काम, फ़सलों की निगरानी और बाजार-मोलभाव तक प्रभावित होते हैं।
जब खेत में काम करने वाला मुख्य व्यक्ति काम करने की स्थिति में नहीं रह जाता तो कुछ इस तरह की स्थितियां पैदा होती हैं:
परिवार की आय घटती है, उधार बढ़ता है और अक्सर जमीन बेचना या बच्चों को स्कूल से हटाकर काम पर लगाना पड़ता है।
पुरुष खेती से जुड़ी जिम्मेदारियां, जैसे छिड़काव, बुवाई, मोल-भाव आदि नहीं कर पाते।
मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक-समावेशन पर भी असर पड़ता है।
दरअसल देखने की क्षमता में लगातार आ रही कमी, आर्थिक दबाव और उम्मीदों का टूटना अवसाद और कभी-कभी आत्महत्या के जोखिम से जुड़ा हुआ पाया गया है। चिकित्सा संबंधी अध्ययनों में देश में पेस्टिसाइड-सम्बन्धी मृत्यु और जहर के उपयोग के आंकड़े दर्ज हैं। कॉलमनिस्ट और क्लाइमेट शोधकर्ता अनुस्रीता दत्ता बताती हैं कि लगातार पेस्टिसाइड एक्सपोज़र किसानों की दृष्टि को धीरे-धीरे छीन रहा है। कपास बेल्ट में किसानों की नेत्रहीनता की समस्या से निपटने और स्थिति को गंभीर होने से रोकने के लिए त्वरित मान्यता और कार्रवाई ज़रूरी है।
लगातार पेस्टिसाइड एक्सपोज़र किसानों की दृष्टि को धीरे-धीरे छीन रहा है। कपास बेल्ट में किसानों की नेत्रहीनता की समस्या से निपटने और स्थिति को गंभीर होने से रोकने के लिए त्वरित मान्यता और कार्रवाई ज़रूरी है।अनुस्रीता दत्ता, कॉलमनिस्ट और क्लाइमेट शोधकर्ता
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट बताती है कि कई किसान स्थानीय एनजीओ, किसान-सहकारी समितियों और कुछ स्वास्थ शिविरों द्वारा दी जाने वाली जागरूकता और मुफ्त स्क्रीनिंग का सहारा ले रहे हैं। लेकिन ये तमाम प्रयास अस्थायी, अनियमित और छोटी अवधि में किए जा रहे हैं। हालांकि कुछ समुदायों ने पीपीई-शेयरिंग और सामुदायिक स्प्रे-कैलेंडर जैसे नवाचार अपनाए हैं, लेकिन उनका विस्तार व्यापक नहीं हैं।
वर्तमान सरकारी नीतियां और उनकी खामियां: राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय कृषि विभाग एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम), बायो-पेस्टिसाइड प्रमोशन और केवीके-स्तरीय प्रशिक्षण की दिशा में पहल कर रहे हैं। लेकिन जमीन पर सम्मिलित अभ्यास और निरीक्षण की स्थिति कमजोर है।
ये वो आकड़े हैं जो आधिकारिक रूप से रिकॉर्ड नहीं हो पाते हैं। रिपोर्ट का अनुसार ऐसा कोई राष्ट्रीय रजिस्टर नहीं है जो पेस्टिसाइड-सम्बन्धी आंखों की बीमारियों को ऑक्यूपेशनल-एटिओलॉजी के रूप में दर्ज करे। अस्पतालों के आंकड़े अक्सर लक्षण-आधारित होते हैं न कि कारण-आधारित। हालांकि एक-दो अच्छे और सफल उदाहरण भी मौजूद हैं। मसलन यवतमाल के फील्ड-इंस्पेक्शन और नागरिक रिपोर्ट बताती हैं कि खेत और गांव में स्थानीय स्तर पर किसानों को पर प्रशिक्षण देकर और फेरेमोन-टैपिंग, बायो-कंट्रोल जैसे विकल्पों को अपनाकर की के विषाक्त प्रभाव में कमी लाई जा सकती है। लेकिन इसे नीतिगत रूप से स्केल अप करना यानी विस्तार देना अभी बाकी है।
किसानों की आंखों और स्वास्थ्य पर पेस्टिसाइड और कीटनाशकों के गंभीर असर को देखते हुए अब सिर्फ जागरूकता ही नहीं, बल्कि संगठित और स्थायी उपाय अपनाना ज़रूरी हो गया है। इसके तहत कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं, जो सुरक्षा, निगरानी और तकनीकी मदद को एक साथ जोड़ते हैं:
पेस्टिसाइड-आंख रोग रजिस्टर बनाना: उच्च-जोखिम वाले जिलों में सर्जिकल/क्लिनिक रिकॉर्डिंग के साथ एक ओक्यूपेशनल नेत्र-रजिस्टर को अनिवार्य किया जाना चाहिए। इससे हॉटस्पॉट मैपिंग, कम्पेन्सेशन पॉलिसी और लक्षित हस्तक्षेप संभव होंगे।
पीपीई और नेत्र-सेफ्टी सब्सिडी: मास्क, गॉगल और ऑल-बॉडी सूट पर सब्सिडी दिया जाना चाहिए, साथ ही सामुदायिक शेयरिंग-मॉडल और माइक्रो-लोन के ज़रिये छोटे किसानों तक पहुंच को सुनिश्चित करने से भी इस समस्या में कमी लाई जा सकती है।
आईपीएम और वैकल्पिक नियंत्रणों का त्वरित विस्तार: केवीके, कृषि विभाग और किसान संगठनों के साथ मिलकर चलाए जाने वाले कार्यक्रमों में फेरेमोन-ट्रैप, जैविक कीटनाशक और पॉलिकर्स जैसे उपाय शामिल किए जा सकते हैं। ऐसा करने बार-बार कीटनाशक छिड़कने की किसानों की ज़रूरत में कमी आ सकती है।
रसायन-विवरण और रेगुलेशन कड़ाई से लागू करें: एचएचपी के उपयोग पर कड़ा नियंत्रण, मिश्रण-विक्रय पर निगरानी और लेबलिंग और भाषा-सम्बन्धी जागरूकता भी ज़रूरी है। ऐसा करने से इन कीटनाशकों का उपयोग करने वाले किसानों को इनसे होने वाली बीमारियों और नुक़सान की जानकारी मिल सकेगी।
स्वास्थ्य-जांच और सुरक्षित खेती का प्रशिक्षण: प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और ग्रामीण अस्पतालों को पेस्टिसाइड एक्सपोज़र की पहचान, नेत्रीय स्क्रिनिंग और रेफरल-प्रोटोकॉल का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
विदर्भ (यवतमाल), पंजाब (बठिंडा) और तेलंगाना (वारंगल) के कपास बेल्ट में कीटनाशक के लगातार इस्तेमाल से किसानों में आंखों से जुड़ी समस्याएं, दृष्टि-क्षय और अन्य स्वास्थ्य लक्षण देखने को मिल रहे हैं। यवतमाल में जुलाई‑सितंबर में लगभग 300 से अधिक किसान उल्टी, चक्कर और दृष्टिदोष की शिकायत के साथ अस्पताल में भर्ती हुए, जबकि बठिंडा के अध्ययन में 23-24 फ़ीसद लोगों के रक्त और मूत्र में कीटनाशक अवशेष पाए गए। वहीं 35 वर्ष से अधिक उम्र वाले किसानों में कैटरैक्ट व जल्दी दृष्टि-क्षय में वृद्धि दर्ज हुई। वारंगल में कई किसान धीमी दृष्टि-गिरावट और जलन के मामलों के साथ आए, जिनके प्राथमिक लक्षण अक्सर नजरअंदाज किए जाते हैं।
बातचीत में यवतमाल के एक किसान का कहना था, “हमने इतनी मेहनत से फसल उगाई, पर जब आंखों का जलन शुरू हुआ तब लगा कि खेती सिर्फ खेत तक सीमित नहीं है बल्कि इस बीमारी की जड़ खेत में है।”
वहीं बठिंडा के कपास उत्पादकों में से एक ने आपबीती सुनाई, “हम अपने खेतों में रसायनों का छिड़काव करते हैं ताकि फसल सुरक्षित रहे। पर आज वही रसायन हमारी आंखों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।”
वारंगल के किसानों का हाल भी कमोबेश वैसा ही है। उनका कहना है कि “हम सोचते हैं आंखों की रोशनी के कम होने का कारण बढ़ती उम्र है लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। दरअसल यह खेत में किए जाने वाले हमारे काम की कीमत है।
हम कृषि विकास की कहानियों में अक्सर उत्पादन और उपज के आंकड़ों तक ही सिमट जाते हैं, जबकि इनके पीछे छिपी मानवीय कीमत अनदेखी रह जाती है। कपास के आर्थिक लाभ की वास्तविक लागत आज छोटे किसानों की आंखों की रोशनी के रूप में चुकाई जा रही है। यह केवल स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का भी सवाल बन चुका है। ज़रूरी है कि इस संकट को स्वीकार किया जाए, ताकि ठोस नीतियां, भरोसेमंद आंकड़े, प्रशिक्षण और सब्सिडी-आधारित हस्तक्षेप प्रभावी हो सकें। अगर समय रहते समुचित कार्रवाई नहीं हुई तो ‘सफेद सोना’ कहलाने वाली यह फसल किसानों की आंखों की कीमत पर ही चमकती रहेगी।