समस्तीपुर जिले के छोटे से गांव धर्मपुर में गेंदा और गुलाब के खेत सुनहरी धूप में लहलहा रहे हैं। गेंदा का फूल पूजा-पाठ, शादी-विवाह और त्योहारों में अहम भूमिका निभाता है। इसके पीले और नारंगी रंगों को शुभ माना जाता है, और यह सांस्कृतिक तथा धार्मिक रूप से लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है।
प्रभा देवी के लिए, ये फूल जीवनयापन का साधन हैं। दिल्ली में काम करने वाले पति के साथ, वह मैरिगोल्ड की खेती करके, उन्हें मालाओं में पिरोकर स्थानीय बाज़ार में बेचती हैं। वह कहती हैं, "इससे मेरे परिवार को सहारा मिलता है और आमदनी स्थिर रहती है।"
बिहार में गेंदा फूल केवल सौंदर्य और सजावट तक सीमित नहीं है, बल्कि यह छोटे किसानों के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक महत्वपूर्ण साधन बन रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से पारंपरिक फसलों की उत्पादकता पर नकारात्मक असर पड़ रहा है, जिससे किसानों को नए और टिकाऊ विकल्पों की तलाश करनी पड़ रही है। ऐसे में फूलों की खेती, विशेष रूप से गेंदा की खेती, एक मजबूत और लाभदायक विकल्प के रूप में उभर रही है। यह न केवल कम समय में बेहतर मुनाफा देती है, बल्कि जल संकट से जूझ रहे क्षेत्रों के लिए भी एक आदर्श समाधान साबित हो रही है।
धर्मपुर गांव की प्रभा देवी के लिए यह महज एक खेती नहीं, बल्कि जीवन का सहारा है। उनके पति दिल्ली में मजदूरी करते हैं, लेकिन वहाँ से भेजे गए पैसों से घर का खर्च चलाना मुश्किल होता था। जब गाँव में कुछ लोगों ने गेंदा की खेती शुरू की, तो उन्होंने भी इसे आजमाने का फैसला किया। उनके पास ज़्यादा ज़मीन नहीं थी, लेकिन उन्होंने छोटे से खेत में मेहनत से काम करना शुरू किया।
प्रभा देवी याद करती हैं, "पहले डर था कि ये खेती चलेगी या नहीं, लेकिन जब पहले सीजन में ही अच्छा मुनाफा हुआ, तो यकीन हो गया कि मैं अपने दम पर घर चला सकती हूँ। अब मैं न सिर्फ अपने खेत में गेंदा उगाती हूँ, बल्कि मालाएँ बनाकर भी अच्छी कमाई कर लेती हूँ।"
उनका बेटा हर तीन दिन में खेत से ताजे फूल तोड़कर लाता है और प्रभा देवी उन्हें माला में पिरोकर पास के बाजार में बेचती हैं। 20 फूलों की एक माला (जिसे स्थानीय भाषा में 'कुरी' कहते हैं) 30 से 40 रुपये में बिकती है। त्योहारों और शादी के मौसम में तो मांग इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें पड़ोसी गाँवों से भी फूल मंगवाने पड़ते हैं। धीरे-धीरे, यह काम उनके लिए केवल एक आय का साधन नहीं, बल्कि एक आत्मनिर्भरता की मिसाल बन गया।
गेंदा की खेती करना अपेक्षाकृत सरल है और इसमें ज्यादा पूंजी की आवश्यकता नहीं होती। इसके बीजों को अच्छी तरह से तैयार की गई मिट्टी में जैविक खाद के साथ बोया जाता है। मानसून की शुरुआत या सर्दी के आगमन के समय इसकी बुआई करना सबसे उपयुक्त माना जाता है। बीज अंकुरित होने में 7 से 10 दिन लगते हैं और 45 से 50 दिनों में पौधों में कली आने लगती है। लगभग 60 से 70 दिनों के भीतर फूल पूरी तरह तैयार हो जाते हैं।
गेंदा के फूलों की ताजगी बनाए रखने के लिए उन्हें सुबह-सुबह तोड़ा जाता है और फिर स्थानीय बाजारों में भेजा जाता है। यह फूल अधिक समय तक ताजा रहते हैं, जिससे इन्हें बाजार तक पहुँचाने में किसानों को ज्यादा कठिनाई नहीं होती। खेती के इस मॉडल से किसानों को कम समय में अच्छा मुनाफा प्राप्त होता है, जो पारंपरिक फसलों की तुलना में एक महत्वपूर्ण लाभ है।
बिहार के कई गाँवों में जल संकट एक बड़ी समस्या बनी हुई है। धर्मपुर गांव के पास शांतिनदी नाम की एक नदी बहती है, लेकिन यह केवल बरसात के मौसम में ही पानी से भरती है। बाकी समय किसानों को ट्यूबवेल और बिजली से चलने वाले पंपों पर निर्भर रहना पड़ता है। इनका किराया ₹50 से ₹70 प्रति कट्ठा तक होता है, जो किसानों के लिए एक अतिरिक्त खर्च है।
पारंपरिक फसलों जैसे धान, मक्का और गेहूं की तुलना में फूलों की खेती में पानी की कम आवश्यकता होती है। गेंदा के पौधों को केवल 30 से 40 सेंटीमीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि गुलाब को 40 से 60 सेंटीमीटर पानी चाहिए। इसके विपरीत, मक्का को 50 से 80 सेंटीमीटर, गेहूं को 40 से 50 सेंटीमीटर और धान को 100 से 150 सेंटीमीटर तक पानी चाहिए। इस लिहाज से गेंदा की खेती जल संकट वाले क्षेत्रों के लिए एक व्यवहारिक विकल्प बनती जा रही है।
गांव के पंचायती प्रतिनिधि मिंटू कुमार का मानना है कि फूलों की खेती से किसानों को फायदा हो रहा है, लेकिन अभी भी उचित बाजार व्यवस्था की कमी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। पंचायत स्तर पर सिंचाई की बेहतर व्यवस्था के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, ताकि किसानों को पानी की कमी का सामना न करना पड़े।
यूपीएससी की तैयारी कर रहे युवा किसान मुकेश कुमार बताते हैं, "मैंने अपनी छोटी जमीन पर गेंदा उगाया है। यह गेहूं और मक्का की तुलना में जल्दी मुनाफा देता है। पूसा के कृषि अनुसंधान संस्थान से हमें फूलों की खेती के लिए तकनीकी सहायता मिल रही है।" हालाँकि, वे मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में हो रहे बदलाव खेती के लिए नई चुनौतियाँ पेश कर रहे हैं।
फूलों की खेती में समय का बहुत बड़ा महत्व होता है। फूल तोड़ने के बाद जितनी जल्दी बाजार तक पहुँचाए जाएँ, उतना ही बेहतर दाम मिलते हैं। शादी और त्योहारों के दौरान फूलों की मांग बढ़ जाती है, जिससे किसानों को अच्छी कीमत प्राप्त होती है। मुकेश कुमार बताते हैं, "हर तीन दिन में फूल तोड़ता हूँ और बाजार में बेचता हूँ। छोटे किसानों के पास लंबी अवधि की फसलें उगाने का विकल्प नहीं होता, इसलिए फूलों की खेती जल्दी आमदनी देती है।"
फूलों की खेती में समय का बहुत बड़ा महत्व होता है। फूल तोड़ने के बाद जितनी जल्दी बाजार तक पहुँचाए जाएँ, उतना ही बेहतर दाम मिलते हैं। शादी और त्योहारों के दौरान फूलों की मांग बढ़ जाती है, जिससे किसानों को अच्छी कीमत प्राप्त होती है। छोटे किसान अब डिजिटल प्लेटफॉर्म और स्थानीय फूल मंडियों के माध्यम से अपने उत्पादों को ऑनलाइन भी बेच रहे हैं आधुनिक कृषि तकनीकों का उपयोग कर किसान अपनी उपज बढ़ा सकते हैं। जैविक खाद, वर्मी कम्पोस्ट और ड्रिप इरिगेशन जैसी तकनीकें फूलों की खेती में कारगर साबित हो रही हैं। बिहार कृषि विश्वविद्यालय और पूसा कृषि अनुसंधान संस्थान किसानों को नई तकनीकों की जानकारी दे रहे हैं, जिससे फूलों की खेती का भविष्य उज्जवल दिख रहा है।
बिहार में फूलों की खेती छोटे किसानों के लिए एक नई आशा लेकर आई है। यह न केवल उनकी आय को स्थिर रखती है, बल्कि जल संकट जैसी समस्याओं के समाधान में भी योगदान देती है। लेकिन यह पूरी तरह से तभी सफल हो सकती है जब सरकार और संबंधित संस्थाएँ किसानों को उचित बाजार, सिंचाई की बेहतर सुविधाएँ और आवश्यक तकनीकी सहायता उपलब्ध कराएँ। मुआवजे पर आधारित योजनाओं से आगे बढ़कर, यदि सरकार संरचनात्मक बदलाव करती है, तो फूलों की खेती बिहार में कृषि क्षेत्र के लिए एक स्थायी समाधान बन सकती है।