आज हमें भूजल के भयावह संकट के रूप में भुगतना पड़ रहा है। इसका इलाज भी हमें ही खोजना होगा। यह सच है कि पंच तत्वों में शामिल पानी सबसे अमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। पानी के बिना जीवन असम्भव है। लेकिन दुख इस बात का है मानव के अस्तित्व के लिये जरूरी जल को वही मानव सुरक्षित नहीं रख सका। इसका कारण यह रहा कि पानी धरती पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। लिहाजा पानी के प्रति मानव के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने जलस्रोतों के खात्मे के द्वार खोल दिये। आज समूची दुनिया में पेयजल का सबसे बड़ा स्रोत भूजल गम्भीर संकट में है। बेतहाशा बढ़ती आबादी, कृषि और उद्योगों के विकास के कारण एक तिहाई भूजल बेसिन में पानी तेजी से कम होता जा रहा है। अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा के ट्विन ग्रेस उपग्रहों की तस्वीरों में यह खुलासा हुआ है कि जितना पानी इन बेसिन में पहुँचता है, उससे कहीं ज्यादा उसका अवशोषण हो रहा है।
इस तरह भूजल बेसिन में पानी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है और यदि यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में यह समस्या और विकराल रूप धारण कर लेगी। वर्ष 2003 से 2013 के बीच किये गए इस अध्ययन में खुलासा हुआ है कि समुद्र में ज्यादा पानी पहुँचने से यह समस्या और गम्भीर होती जा रही है। यदि इस पर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में भारत, चीन, अमेरिका और फ्रांस में बहुत बड़ी तादाद में लोग पानी के लिये तरस जाएँगे।
देखा जाए तो आज पूरी दुनिया में 37 बड़े भूजल बेसिन हैं। इन बेसिनों से तकरीब 2 अरब से अधिक लोगों को पानी मिलता है। इनमें 13 की सबसे ज्यादा खराब स्थिति है जबकि 21 बेसिनों में पानी लगातार तेजी से कम होता जा रहा है। गौरतलब है कि समूची दुनिया में 35 फीसदी पेयजल आपूर्ति भूजल बेसिन से ही होती है। सूखे की स्थिति में इन पर दबाव और बढ़ जाता है। कारण उस दौरान नदी, नहर जैसे पानी के बाकी स्रोत सूख जाते हैं। कैलीफोर्निया इसका जीता-जागता सबूत है।
आज कैलीफोर्निया भयंकर सूखे की मार झेल रहा है। अभी वहाँ तकरीब 60 फीसदी से ज्यादा पानी की आपूर्ति भूजल से ही हो रही है। जबकि सामान्य रूप से वहाँ पानी की आपूर्ति भूजल से केवल 40 फीसदी ही होती है। इसका सबसे ज्यादा असर उत्तरी-पश्चिमी भारत, पाकिस्तान और उत्तरी अफ्रीका पर पड़ रहा है क्योंकि यहाँ पर पानी के वैकल्पिक साधन उपलब्ध न होने से स्थिति ने भयावह रूप धारण कर लिया है।
अध्ययन की मानें तो उत्तर-पश्चिम भारत, कृषि से सम्पन्न कैलीफोर्निया की सेंट्रल वैली, लीबिया और नाइजर का मुरजुक-डिजादो बेसिन के अलावा इराक और सउदी अरब का अरब बेसिन पर सबसे अधिक दबाव है। अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता जे फेमिग्लिटी कहते हैं कि सोना, लोहा, गैस और तेल के खनन से भी भूजल बेसिन प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या में बढ़ोत्तरी से भविष्य में और स्थिति खराब होने की आशंका है।
असलियत में भूजल के अविवेकपूर्ण उपयोग के कारण भूजल स्तर में तेजी से हो रही गिरावट से गम्भीर जल संकट खड़ा हो गया है। हमारे देश में आबादी के हिसाब से पहले से ही कम जल की उपलब्धता और कम होते जाने और अपने स्वामित्व वाली भूमि से मनचाहा भूजल निकालने की प्रवृत्ति ने इस संकट को और गहरा दिया है।
अनुपचारित औद्योगिक अपशिष्ट और नालों से बहने वाले मल से जहाँ जल संसाधनों का प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीं भूजल में टॉक्सिक यथा फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक जैसे विषैले तत्व और अन्य रसायनों की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इसमें कारखानों से निकलने वाले कचरे और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की अनुपलब्धता ने अहम भूमिका निभाई है। इससे भूजल पीने वालों की सेहत पर खतरा मँडराने लगा है। राष्ट्रीय तकनीकी पर्यावरण अनुसंधान संस्थान इसकी पुष्टि कर चुका है। यह हालत कमोबेश पूरे देश की है।
गौरतलब है कि सदियों से हमारे देश में वर्षाजल का संचय होता आया है। कुछ मनुष्य और कुछ प्रकृति के द्वारा। लोगों के सरकारी तन्त्र पर आश्रित होने के चलते जल प्रबन्धन में सामुदायिक हिस्सेदारी का पतन हो गया। नतीजतन सदियों से चली आ रही वर्षाजल भण्डारण परम्परा का खात्मा हो गया। हमारे देश में वर्षाजल का संग्रह और भविष्य की जरूरतों के लिये उनके संरक्षण पर सदियों से अमल किया जाता रहा है।
वर्षाजल संरक्षण की तकनीक उस जमाने में न केवल ज्ञान और कौशल का परिचायक थी बल्कि जल संरक्षण हमारी मुख्य चिन्ता थी। परम्परागत रूप से देश में इस तकनीक के तहत बावड़ी, स्टेपवेल, झिरी, लेक, टैंक आदि का इस्तेमाल किया जाता रहा है। ये सभी ऐसे जल संग्रह निकाय हैं जिनके द्वारा घरेलू और सिंचाई की ज़रूरतों को पूरा किया जाता था। इन स्रोतों का रखरखाव लोगों द्वारा खुद किया जाता था।
अब हमने जबसे जल प्रबन्धन से अपना नाता तोड़ लिया है, तभी से प्रकृति विवश है। दिनों-दिन जल संकट के भयावह रूप धारण कर लेने से अब जल प्रबन्धन प्रणाली में सुधार करने और पानी की परम्परागत प्रणाली को पुनर्जीवित करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। कारण स्पष्ट है। क्योंकि पहले ज्यादातर भूमि कच्ची होती थी जिसके चलते वर्षाजल रिस-रिस कर धरती की कोख में समाता रहता था।
नतीजतन भूजल स्तर उपर बना रहता था। आज के दौर में तेजी से बढ़ते फर्श के कंक्रीटीकरण ने प्रकृति को बेबस कर दिया। अब शहर तो शहर गाँव भी इससे अछूते नहीं रहे। वहाँ यह प्रक्रिया धीमी है परन्तु आधारभूत सुविधाओं में तरक्की हुई है। आज देश की अधिकांश जमीन असंगत रूप से पक्के फर्श में तब्दील हो चुकी है। इसका नतीजा यह हुआ कि कुदरती तौर पर हमने खुद भूजल स्तर के रिचार्ज होने की प्रक्रिया असम्भव कर दी।
नतीजा आज हमें भूजल के भयावह संकट के रूप में भुगतना पड़ रहा है। इसका इलाज भी हमें ही खोजना होगा। यह सच है कि पंच तत्वों में शामिल पानी सबसे अमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। पानी के बिना जीवन असम्भव है। लेकिन दुख इस बात का है मानव के अस्तित्व के लिये जरूरी जल को वही मानव सुरक्षित नहीं रख सका। इसका कारण यह रहा कि पानी धरती पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। लिहाजा पानी के प्रति मानव के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने जलस्रोतों के खात्मे के द्वार खोल दिये। नतीजन पानी की गुणवत्ता और मात्रा में गिरावट की शुरूआत हुई। आज स्थिति यह है कि एक-एक बूँद पानी का महत्त्व है।
सच है कि लोगों को पानी उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी नगर निगम या नगर पालिकाओं की है लेकिन वे लोगों की प्यास बुझाने में असमर्थ हैं। यह स्थिति पूरे देश की है। ऐसी हालत में पानी की कमी को पूरा करने के लिये लोग ज़मीन से पानी निकाल रहे हैं। यह सिलसिला बेरोकटोक जारी है। इस पर कोई अंकुश नहीं है। नतीजन भूजलस्तर लगातार नीचे गिरता चला जा रहा है।
दुखद यह है कि भूजल स्तर को सन्तुलित करने के लिये कोई कारगर कदम नहीं उठाए जा रहे। इसका एकमात्र स्थायी समाधान है वर्षाजल संचयन यानी रेन वाटर हार्वेस्टिंग की तकनीक का प्रयोग। रेन वाटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से भूजल का पुनर्भरण एक लम्बी और सतत प्रक्रिया है। यह वर्षाजल को संग्रहीत करने की प्रक्रिया है जो छत से गिरकर सड़क, मैदान आदि में बह जाता है। इसके तहत वर्षाजल को उन भूमिगत टंकियों में जमा किया जाता है जो पाइप लाइन से जुड़ी होती हैं। इस पानी को गैर पीने योग्य कार्यों जैसे बागवानी, सिंचाई, साफ-सफाई और अन्य कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस सिस्टम को बहुमंजिला इमारतों, संस्थानों, स्कूल-कालेजों, होटलों, विश्वविद्यालयों, अस्पतालों, उद्योगों और निजी मकानों व स्लम आदि में स्थापित किया जा सकता है। दरअसल यह जलापूर्ति का अतिरिक्त स्रोत हो सकता है जो भूजलस्तर को बढ़ाता है और धरातलीय जल यानी सरफेस वाटर को संरक्षित करता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक बार स्थापित होने के बाद इसके न्यूनतम रखरखाव की जरूरत होती है। इससे जहाँ एक ओर भूजल की गुणवत्ता बेहतर होती है, मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद मिलती है जिससे सतह के अपवाह यानी सरफेस रनऑफ में कमी आती है, वहीं दूसरी ओर पानी की नालियों में जमाव तथा मानसून के दौरान सड़कों पर पानी के बहाव में कमी आती है।
दरअसल तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और शहरीकरण ने जलापूर्ति के अन्तर को और चौड़ा कर दिया है। जलवायु परिवर्तन से जल उपलब्धता की कमी और बढ़ी है और देश का जल चक्र खतरे में पड़ गया है। आवश्यकता है दुर्लभ भूजल संसाधन के इस्तेमाल को लेकर और जल दुरुपयोग नियन्त्रित किये जाने हेतु कानूनी ढाँचा बनाए जाने की जो हर राज्य को जल संचालन का आवश्यक विधायी आधार उपलब्ध कराए। मौजूदा वास्तविकताओं के मद्देनज़र जल संसाधन के संरक्षण की बेहतर योजना, विकास और प्रबन्धन की दिशा में तुरन्त कारगर कदम उठाने होंगे।
यह सच है कि भूजल संसाधन एक बैंक की तरह है। उससे जितना हम निकालते हैं, उतना उसमें डालना यानी रिचार्ज भी करना पड़ता है। भूजलस्तर में वृद्धि हेतु रेन वाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प है। इसे भवनों की छतों के पानी को ही संचित करने तक सीमित नहीं होना चाहिए। झीलों, तालाबों आदि प्राकृतिक जलस्रोतों के संरक्षण की भी जरूरत है। आइए हम वर्षाजल संचय कर देश और समाज के हितार्थ अपनी भूमिका का सही मायने में निर्वहन करें, तभी इस समस्या से छुटकारा सम्भव है।