बाढ़ आपदा अपनी अधिक आवृर्ति (Frequency), व्यापकता और विनाशकारी प्रभावों के कारण, सम्भवतः विश्वभर में सबसे अधिक खतरनाक प्राकृतिक आपदायों में से है। भारत दुनिया के सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित देशों में से एक है। बांगलादेश के बाद, भारत सबसे अधिक बाढ़ वाला क्षेत्र है, जिसमें लगभग कुल भौगोलिक क्षेत्र का 1/8वाँ भाग बाढ़ प्रभावित है (लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर)।
भारत में सबसे अधिक बाढ़ आने की संभावना जिन राज्यों में रहती है उसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा एवं गुजरात प्रमुख हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्र तो लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ की चपेट में रहते हैं। बाढ़ से होने वाले प्रमुख प्रभाव सीधे तौर पर लोगों की जीविका पर होते हैं। भू-कटान से कृषि योग्य भूमि नष्ट हो जाती है। अतः लोगों के विस्थापित होना पड़ता है। मानव के सामूहिक और सामुदायिक जीवन पर बाढ़ का विशेष प्रभाव पड़ता है। बाढ़ के कारण पूरे क्षेत्र की मृदा सतह की और जन-धन की क्षति तो होती है, जन पलायन भी एक बड़ी समस्या है। संपर्क व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। बाढ़ से आर्थिक प्रभाव, कृषि क्षेत्र में नुकसान, फसल का नुकसान, पेय जल की समस्या और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
नदी का असामान्य स्तर/उच्च स्तर जिस पर नदी अपने बैंकों (मुहानों) को ओवरफ्लो करती है और आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न करती हो ‘‘बाढ़’’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। जल का अप्रत्याशित स्तर जिसमें नदी या बंधों के किनारों से ऊपर पानी निकलकर बड़े क्षेत्र को डूबा कर और अपार जन-धन की स्थिति को ही बाढ़ की विभिषिका/आपदा कहा जाता है। बाढ़ के कारण नदी के आस-पास के समतल क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं (चित्र- 8.1) और खेती, पशु-धन और मकानों आदि को प्रभावित करते हैं जिससे जान-माल की क्षति होती है। वास्तव में क्षति का कारण जल स्तर में उत्तरोत्तर वृद्धि, नदी के मैदानों की भू आकृति, नदी बहाव के पूर्व पथ में शहरीकरण अथवा कृषि भूमि और आवासों का निर्माण होने की स्थिति ही बाढ़ आपदा का कारण होता है।
बाढ़ की आवृति, एक विशेष समय अंतराल के दौरान किसी क्षेत्र में आयी बाढ़ की संख्या को दर्शाती है। जबकि ‘बाढ़ की अवधf समय अंतराल की लम्बाई को दर्शाती है, जिसके दौरान किसी विशेष क्षेत्र में बाढ़ आती है। बाढ़ का मुख्य कारण स्थल का भौतिक वातावरण ही है (चित्र- 8.2)। जल निकासी बेसिन का आकार, आकृति, भू-वैज्ञानिक संरचना, वनस्पति, वायुमंडलीय स्थिति के साथ-साथ चैनल की ज्यामिति आदि के परस्पर संबंध् के कारण बाढ़ के स्थान भी बदलते रहते हैं। इस कारण ही बाढ़ के परिमाण और आकृति भी भिन्न-भिन्न होती है। जल निकास बेसिन और नदी चैनल की मानवीय सहभागिता एवं प्रबंधन की बाढ़ निर्वहन को नियंत्रित करने में एक प्रभाववाली भूमिका है। बड़े पैमाने पर बाँध निर्माण भी बाढ़ की विभिषिका को प्रभावी रूप से कम कर सकते हैं। नदियों द्वारा जमा गाद (अवसाद) और कटान के कारण नदी अपना रास्ता बदल लेती है, जिसे ‘‘मियन्डरिंग’’ (Meandering) के रूप में जाना जाता है। नदी के एक मुहाने पर गाद/अवसाद जमा होने और दूसरे पर कटाव या क्षरण के कारण नदी के बहाव में एक घुमावदार आकृति विकसित होती है, जिस कारण नदी का ‘मेयन्डर’ (घुमाव) विकसित होता है (चित्र- 8.3)। बाढ़ के मैदान, आर्द्रभूमि और मृदा के जमाव के लिए नदियों की यह प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। नदी के घुमाव से हटकर जब नदी अपना मार्ग बदलती है तब ‘‘ऑक्स-वो-झील’’ का सृजन होता है (चित्र- 8.4)।
बाढ़ की गम्भीरता बाढ़ के कारण हुये नुकसान पर निर्भर करती है जबकि बाढ़ वर्गीकरण भी उससे हुये नुकसान के प्रकार और परिमाण (Magnitude) पर निर्भर करता है।
बाढ़ आपदा एक जटिल प्राकृतिक घटना है जो अनेकों मापदंडों पर निर्भर करती है, अतः इस प्राकृतिक घटना का माॅडल करना एक कठिन कार्य है। किसी नदी जलग्रह (Catchment) में बाढ़ घटना, उसकी भूआकृति, वर्षा जल और पूर्ववृत्ता (Antecedents) कारकों पर और उनके परस्पर सम्बंध पर आधरित होती है। अतः बाढ़ का उच्चतम स्तर का आकलन करना भी कठिन हो जाता है। बाढ़ के परिमाण (Magnitude) को जानने के लिए अनेकों विधियां हैं, किन्तु बाढ़ आवृति विधि एक सरलतम सांख्यिकी गणना है जिसके अनुसार किसी नदी जलग्रह विशेष में, वार्षिक अधिकतम जल (बाढ़) के आंकड़ों को वर्षा के क्रमानुसार कर एक वार्षिक शृंखला के रूप में एकत्र किया जाता है। प्रत्येक घटना की सम्भाव्यता (Probability) की गणना की गणना की जा सकती है।
यह आवश्यक नहीं है नदी, के जल स्तर बढ़ जाने से बाढ़ की स्थिति पैदा हो, ऐसा भी देखा गया है जहाँ किसी प्रकार की नदी नहीं थी वहां पर बाढ़ की विभिषिका देखी गई, जिसका कारण अधिक वर्षा और जल निकास का कोई साधन उपलब्ध न होना होता है। जब अधिक वर्षा हो और चट्टानी सतह अथवा मृदा के भीतर पानी न जा पाये अर्थात सतह पर ही रहे, ऐसी स्थिति भी बाढ़ का कारण बन सकती है।
बाढ़ की विकरालता, समय और स्थान का पूर्वानुमान लगाना सम्भव नहीं है। पानी/ जल का एकत्र होना (प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक) बाढ़ को प्रभावित करता है। जहाँ प्राकृतिक क्षीलें, तालाब अधिक हो वहां प्रायः बाढ़ की संभावना कम होती हैं क्योंकि अधिकतर जल इस प्रकार के प्राकृतिक गड्ढे में समा जाता है। बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है जिसकी पुनरावृत्ति होती रहती है लेकिन यह आपदायिक रूप धारण करती है, जब मनुष्य बाढ़ के मैदानों का प्रयोग करता है। बाढ़ के मैदानों का प्राकृतिक उपयोग अधिक जल को समाहित करना होता है किन्तु मनुष्य अपने क्रिया-कलापों के विस्तार रूप में ऐसे मैदानों का प्रयोग करता है जिस कारण आपदायिक स्थिति पैदा होती है। बाढ़ के मैदानों में रिहायश का कारण जनसंख्या का दबाव, आर्थिक व सामाजिक परिस्थिति व अन्य जीविका के साधन आदि हो सकते हैं।
बाढ़ आपदा कई प्रकार से हो सकती है जैसे- आकस्मिक, नदी, ज्वार के द्वारा तथा बांधें के टूटने के कारण होने वाली बाढ़। बाँध अथवा बंधों के टूटने के कारण बाढ़, लगातार अधिक वर्षा से बाँधें के टूटने की स्थिति द्वारा घटित होती है। भूमि के निरन्तर क्षरण से भी इस प्रकार का प्रभाव देखा गया है। बाँध के टूटने की स्थिति में, बाढ़ का जलस्तर बाँध के नीचे की ओर कम होता जाता है। अतः बाँध के समीपतम क्षेत्र में ही अधिकतम क्षति होती है।
क्षेत्र की विशेष भू-आकृतिकी विशेषतायें, सक्रिय नदी चैनल, निष्क्रिय नदी चैनल, चैनल बार, जलग्रस्त क्षेत्रों, आक्स-बो-झीलों, जल भराव के स्थानों, चैनल अखलन और भू-विवर्तिकी गतिशीलता क्षेत्र में व्यापक बाढ़ आपदा के लिए उत्तरदायी होती है। अतः बाढ़ न्यूनीकरण के लिए इन क्षेत्रों का चिन्हीकरण, मानचित्रण और जोखिम तत्वों की पूर्व पहचान करना सार्थक होता है।
जल संसाधनों के व्यापक प्रबंधन हेतु, नदियों को जलअधिकता वाले क्षेत्रों से जल-दबाव क्षेत्रों की ओर जोड़ना और बाँधें/वैराज का उचित स्थल चयन कर निर्माण करना, बाढ़ आपदा के समग्र न्यूनीकरण में सहायक होता है। इस प्रयास में आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी, स्पेस टेक्नोलॉजी तथा भूतकनीकी समीक्षा एक महत्वपूर्ण पहलू है।
इसके अतिरिक्त बाढ़/आपदा की रोकथाम और उसकी तीव्रता और प्रभावों को कम करने हेतु कुछ संरचनात्मक (Structural) एवं गैर-संरचनात्मक (Non-Structural) उपायों को अपनाकर आपदा प्रभावों को भी कम किया जा सकता है-
जहाँ यह अति आवश्यक है कि बाढ़ की स्थिति में तत्काल राहत और राहत सामग्री जैसे भोजन, जल, आश्रय, चिकित्सा, विशुद्धिकरण आदि की समयानुसार व्यवस्था की जाय। लोगों को उचित स्थान पर सुरक्षित पहुंचाया जाए और मूलभूत सुविधाओं को यथाशीघ्र उपलब्ध कराया जाए। इसके अतिरिक्त बहुत से प्रयास किये जा सकते है जिससे बाढ़ के आपदायिक प्रभावों का न्यूनीकरण सम्भव है।
भारत में बाढ़ एक मुख्य आपदा है जिससे प्रतिवर्ष अपार जन-धन की क्षति होती है और अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारत का लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ आपदा से प्रभावित है। एन.डी.एम.ए. के अनुमान के अनुसार, वर्ष 1977 में बाढ़ से सबसे अधिक मृत्यु हुई (11316)। बाढ़ आपदा की आवृति पाँच वर्षों में एक या उससे अधिक है। देश के मुख्य बाढ़ प्रभाव क्षेत्र व प्रक्षेत्र निम्न प्रकार हैं:
असम भारत का पूर्ववर्ती राज्य है जहाँ लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ का खतरा बना रहता है। असम में दो विशाल नदियाँ- ब्रह्मपुत्र एवं बराक और उनकी सहायक नदियों में बाढ़ की स्थिति मानसून के समय रहती हैं जिससे राज्य का एक बड़ा भाग प्रभावित होता है। शिवसागर, लखीमपुर, घेमाजी, गोलाघाट, जोरहाट, नोगान, चिरंग और वारपेटा जिले लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ग्रस्त रहते हैं। बाढ़ का मुख्य कारण क्षेत्र में अधिक वर्षा (1927 मी.मी.), जलवायु और हिमालय पर्वत से निकली विशाल नदियाँ हैं।
असम की जलवायु एवं वर्षा पर दक्षिण-पश्चिम मानसून का प्रभाव अत्यधिक है। अप्रैल और अक्टूबर के मध्य यहाँ अधिक वर्षा होती है, जबकि कुछ वर्षा शीत ऋतु में भी होती है। वार्षिक वर्षा का औसत लगभग 1600 मि.मी. और 4300 मि.मी. के मध्य होता है। औसत रूप से 2900 मि.मी. वर्षा जून-जुलाई के मध्य हो जाती है। असम की सभी नदियाँ बाढ़ के लिए उपयुक्त हैं, जिसका मुख्य कारण क्षेत्र में अधिक वर्षा का होना है। सभी नदियों में अपरदन की क्रिया गतिशील रहती है और अत्यधिक गाद या अवसाद तथा अन्य जलोढ़ नदी के द्वारा जमा किये जाते हैं, जिससे
बाढ़ के विशालतम मैदान बने हैं। ये समतल मैदान प्रतिवर्ष नदी की बाढ़ से प्रभावित होते हैं। अतः बाढ़ आपदा का खतरा प्रतिवर्ष बना रहता है। नदियों के मुहानों का अपरदन/ क्षरण, राज्य की विशाल समस्या है, जिस कारण जन-पलायन होता है और नदी तट पर बसे गाँव विलुप्त हो रहे हैं। राज्य सरकार के एक आकलन के अनुसार विगत 50 वर्षों में लगभग 386476 हैक्टेयर भू-भाग, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7 फीसद है, नदियों के तीव्र क्षरण द्वारा समाप्त हो गया।
ब्रह्मपुत्र नदी के बीच बना ‘मझौली द्वीप’, जो विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है(;चित्र- 8.6)। नदी अपरदन द्वारा निरन्तर संकुचित होता जा रहा है। यह द्वीप ब्रह्मपुत्र नदी के जल-पथ में बदलाव के कारण बना। वर्ष 2014 तक इसका कुल क्षेत्र लगभग 352 वर्ग कि.मी. था जो निरंतर नदी क्षरण से घट रहा है।
राज्य में वर्ष 1950 से पूर्व लगभग छः बाढ़ आपदाओं का विवरण मिलता है (1897, 1910, 1911, 1915, 1916 एवं 1931) जिससे मुख्यतः ब्रह्मपुत्र नदी का उत्तरी छोर विशेष रूप से प्रभावित हुआ। इसके बाद लगभग प्रतिवर्ष राज्य की प्रमुख नदियों जैसे ब्रह्मपुत्र, बराक और मानस में बाढ़ की स्थिति रहती है। वर्ष 1950-1980 के दशकों में, एक अनुमान के अनुसार 2534 गाँव बाढ़ अपरदन के कारण विलुप्त हो गये जिससे लगभग 90726 परिवार प्रभावित हुये। 1984, 1987 और 1988 की बाढ़ आपदायें अति विनाशकारी रहीं जिससे राज्य का कुल 28 फीसद भाग बाढ़ ग्रस्त रहा और अत्यधिक जन-धन की क्षति हुयी। ब्रह्मपुत्र नदी 26 दिवसों तक खतरे के जलस्तर से ऊपर रही।
वर्ष 2012 की ब्रह्मपुत्र नदी की बाढ़ भी अप्रत्याशित थी जिससे न केवल 124 लोगों की मृत्यु हुयी बल्कि काजीरंगा राष्ट्रीय पार्क में दुर्लभ राईनो और अन्य वन जीवों क मृत्यु हुयी। इसके बाद वर्ष 2013, 2015, 2016, 2017, 2018 और 2019 में भीषण बाढ़ आपदा को रिपोर्ट किया गया जिससे प्रदेश के जन-धन की क्षति के साथ-साथ, क्षेत्र की जैव-विविधता भी प्रभावित हुई (चित्र- 8.7)।
गंगा नदी की अनेकों सहायक नदियाँ हैं जिनमें यमुना, सोन, घाघरा, राप्ती, गंडक, बुढ़ी गंडक, बाघमती, कमला-बलान, कोसी और महानंदा मुख्य हैं। ये सभी उत्तराखंड, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों को मुख्यतः कवर करती हैं। क्षेत्र में वार्षिक वर्षा औसत रूप से 600 मि.मी. से 1900 मि.मी. के मध्य होती है जो दक्षिण-पश्चिम मानसून द्वारा आती है। मुख्यतः गंगा नदी के उत्तरी भाग बाढ़ की चपेट में रहते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के कुछ भाग बाढ़ व नदी अपरदन से ग्रसित हैं। विगत कुछ वर्षों से राजस्थान और मध्य प्रदेश भी बाढ़ प्रभावित हुए हैं।
बिहार का मैदानी भाग, बाढ़ आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील है जिसका प्रमुख कारण क्षेत्र की भू-आकृति और हिमालयी नदियों के प्रवाह क्षेत्र में स्थित होना है। उत्तरी बिहार ने पिछले कई दशकों से सबसे अधिक बाढ़ आपदाओं को झेला है और आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में निरन्तर फैलाव हुआ है। मुख्य रूप से कोसी और गंडक नदियां तथा अन्य नदियों जैसे बुढ़ी गंडक, बागमती और कमला-बलान के बहाव और आस-पास के क्षेत्रों में बाढ़ आपदा का प्रभाव अधिकतम है।
राज्य का कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 68.80 लाख हेक्टेयर है जो बिहार के कुल भौगोलिक क्षेत्र (94.16 लाख हेक्टेयर) का 73.06 प्रतिशत है और भारत के कुल बाढ़ प्रणव क्षेत्र (400 लाख हेक्टेयर) का 17.20 प्रतिशत है। उत्तरवर्ती बिहार में विशेषतः उत्तर बिहार की स्थिति बाढ़ की दृष्टि से अत्यधिक गंभीर है (चित्र- 8.8)। इसका मूल कारण
उत्तर बिहार की प्रायः सभी नदियां नेपाल के अधिक ढलान वाले भाग से बिहार राज्य की समतल भूमि में प्रवेश करती हैं। एकाएक बड़े स्लोप में कमी के कारण इन नदियों के जल बहाव के साथ आये अवसाद (सिल्ट), बिहार राज्य की नदियों की पेटी (तलहटी) में जमा हो जाता है। राज्य में बाढ़ समस्या के निदान के लिए 3748 कि.मी. तथा नेपाल में 68 कि.मी. तटबंध निर्मित है, जो बाढ़ सुरक्षा के लिए एक अल्पकालीन प्रबंध है। तटबंधों का उच्चीकरण, सुदृढ़ीकरण एवं कटान निरोधक भी बाढ़ सुरक्षा के महत्वपूर्ण पहलू हैं। बिहार में बाढ़ त्रासदी का इतिहास रहा है। लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ आपदा किसी-न-किसी क्षेत्र में आती रहती है, जिससे जन-धन की अपार क्षति होती है। विगत् 50-60 वर्षों से बाढ़ की अनेकों आपदायिक घटनायें हुईं। वर्ष 1954 की भीषण बाढ़ की स्मृतियाँ आज भी उत्तरी बिहार के जनमानस को याद हैं, जिससे 2.54 मिलियन आबादी को बुरी तरह से प्रभावित किया। लगभग 811 गाँव बाढ़ की चपेट में आ गये, 63 लोगों की मृत्यु हुयी और 1,59,451 घर ध्वस्त हो गये।
इस आपदा के पश्चात् वर्ष 1974, 1978, 1987, 1948, 2004 एवं 2007 में भी बाढ़ आपदा का प्रकोप उत्तरी बिहार में रहा। इन वर्षों में बिहार में अत्यध्कि परिणाम की बाढ़ आपदायें आयी और बाढ़ के क्षेत्रफल में भी अधिकाधिक वृद्धि हुयी।
वर्ष 2004 की बाढ़ आपदा सबसे तीव्र आपदा रही जिससे 23490 वर्ग कि.मी. का क्षेत्र, बागमती, कमला और अधिवारा ग्रुप की नदियों के अप्रत्याशित जल स्तर बढ़ने से बाढ़ ग्रस्त हो गया। दुवाधर स्थल पर बागमती नदी सबसे उच्चतम स्तर 1.18 मी. तक आ पहुँची। इसी प्रकार बूढ़ी गंडक और कमला-बलान का भी जल स्तर 15 जुलाई और 10 जुलाई के मध्य रिकाॅर्ड रूप से बढ़ गया। अनेकों स्थानों पर तटबंध टूट गये और अपार कृषि भूमि, जल-धन की क्षति हुई और 885 लोगों की मृत्यु हुयी।
कोसी नदी, जिसे बिहार का अभिशाप कहा जाता है, ने अपने जलमार्ग के बहुत अधिक पार्श्व-परिवर्तन’ किये हैं, जिस कारण क्षेत्र में व्यापक नुकसान लगभग हर वर्ष होते हैं। महाभारत काल में कोशिकी या कोसी का उद्गम सुदूर नेपाल के हिमालयी भाग में है और नदी का अधिक ढलान नदी अवसादों के जमाव तथा क्षेत्र की भूविवर्तिकी संरचना के कारण इसका पार्श्व (Lateral) पथ बदलता रहता है। इस कारण इसके आपदायिक प्रभाव और अधिक व्यापक हो जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार अभी तक लगभग 133 कि.मी. का पार्श्व पथ कोसी ने बदला है। अतीत में कई वैज्ञानिकों ने आकलन किया कि कोसी नदी ने पिछले 200 वर्षों के दौरान पूर्व से पश्चिम तक 133 कि.मी. से अधिक अपना जल मार्ग स्थानांतरित किया है। वर्ष 1760 से 1960 तक के मानचित्रों की समीक्षा कर पाया गया कि एक लंबी अवधि में यह स्थानांतरण पूर्व की ओर भी रहा है अतः नदी का यह पार्श्व-विचरण एक क्रमिक रूप में हुआ है (चक्रवर्ती आदि 2010)।
2008 की कोसी नदी बाढ़ भी उल्लेखनीय बाढ़ आपदा के रूप में जानी जाती है। 15 जून 2008 की 160 मि.मी. वर्षा (कनपटिया), 141 मि.मी. वर्षा (सिकंदरपुर) एवं 92.2 मि.मी. (खगड़िया) की तीव्र वर्षा और जुलाई एवं अगस्त में अधिक वर्षा दिवसों के कारण कोसी नदी में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हुयी। जिसके कारण कुशाह ग्राम (नेपाल) के कि.मी. 12.9 पर पूर्वी कोसी तटबंध 18 अगस्त 2008 को ध्वस्त हो गया। नेपाल के सुनसरी एवं सप्तरी जिले और बिहार के सुपौल, मधेपुरा, अररिया, सहरसा, कटिहार और पुरलिया जिले अप्रत्याशित, बाढ़ आपदा से ग्रस्त हुये। इस विशाल बाढ़ त्रासदी एवं नदी अवसाद की दशा के फलस्वरूप कोसी नदी ने अपना जल-पथ भी बदल लिया।
इस क्षेत्र की प्रमुख नदियाँ- सिन्धु, सतलज, व्यास, रावी, चिनाब व झेलम हैं, जो मानसून के समय काफी मात्र में जल और जलोढ़ लाती है। ये नदियाँ और इनकी सहायक नदियाँ जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान राज्यों को सिंचित करती है। इस क्षेत्र में अनेकों बाढ़ आपदायें घटित हुईं, पर निम्न बाढ़ आपदा उल्लेखनीय है।
सितंबर, 2014 में झेलम नदी में आयी बाढ़ एक विशाल बाढ़ आपदा के रूप में जानी जाती है। इस बाढ़ से झेलम नदी के बाढ़ के स्तर अभिलेखीय हाइड्रोलोजिकल इतिहास में सर्वोच्च थे। कश्मीर घाटी में सितम्बर माह में 26.6 मि.मी. वर्षा औसतन होती है, लेकिन सितम्बर 2014 में दक्षिण कश्मीर में लगभग दो गुनी वर्षा हुई जिस कारण जल स्तर में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी। इसके अतिरिक्त, झेलम नदी की सहायक नदियों में उच्च हिमपात वाले भागों में भी पिछले चार वर्षों से पर्याप्त हिमपात की मात्रा भी अधिक जलस्तर का एक कारक हो सकता है।
झेलम नदी इस अति वृष्टि के कारण अपने तटबंधों से ऊपर बहने लगी। दक्षिण कश्मीर (संगम नदी क्षेत्र) में 5 सितम्बर 2014 को जलस्तर 36 फीट तक पहुँच गया और यहाँ कुल बाढ़ का ऑकलन 1,20,000 क्यूसेक तक किया गया, जबकि तटबंधों पर 1 मीटर से ऊपर जलस्तर आँका गया। बाढ़ से झेलम नदी के दोनों छोरों पर लगभग 2 कि.मी. का क्षेत्र जलमग्न हो गया। झेलम नदी बेसिन का कुल बाढ़ मैदान 1760 वर्ग कि.मी. है, जिसमें 912 वर्ग कि.मी. भाग बाढ़ की प्रलय की चपेट में आ गया। लगातार अतिवृष्टि से बचाव अभियान लगभग असंभव हो गये। झेलम नदी की अपर्याप्त जल क्षमता, विशेषकर संगम और खंडनार तक के कारण बाढ़ का जल शहरी क्षेत्र में भी आ गया। राजधनी श्रीनगर का 30 फीसद भाग जलमग्न हो गया और जलस्तर 20 फीट तक बढ़ गया। बाढ़ आपदा से राज्य के 2600 गाँवों पर बाढ़ का सीधा असर हुआ लगभग 300 लोगों की मृत्यु और अनेकों सड़क मार्ग, पुल और भवन ध्वस्त हो गये। लगभग 5,56,000 लोगों को बाढ़ के प्रकोप के कारण अस्थाई रूप से 1841 और 1893 में भी रिकाॅर्ड की गयी थी, किन्तु 2014 की बाढ़ अप्रत्याशित थी जिससे अपार जन-धन की क्षति हुयी (चित्र- 8.9)। झेलम बेसिन की भूआकृति, विविध भू-संरचना, जलविज्ञान की स्थिति बेसिन में बाढ़ की स्थिति में सहायक हैं।
इस क्षेत्र की मुख्य नदियाँ नर्मदा, तापी, महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी हैं, जो एक निश्चित पथ पर बहती हैं। सामान्यतः इस सभी नदियों में प्राकृतिक रूप से बाढ़ के जल को समावेश करने की क्षमता है। केवल इन नदियों के डेल्टा क्षेत्र ही अधिक बाढ़ प्रभावित होते हैं। इस क्षेत्र में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा, महाराष्ट, गुजरात और मध्यप्रदेश के कुछ भाग शामिल हैं। क्षेत्र में बाढ़ आपदा की संभावना अपेक्षाकृत कम है। केवल उड़ीसा राज्य में महानदी, ब्राह्मणी, वैतरणी, और स्वर्णरेखा नदियाँ बाढ़ प्रभावित हैं। तापी और नर्मदा नदियाँ में यदा-कदा निचले भाग, बाढ़ की स्थिति बन जाती है। यह क्षेत्र मुख्यतः गुजरात राज्य में आता है। ‘पश्चिमी घाट’ क्षेत्र भी बहने वाली मौसमी नदियाँ में भी अतिवर्षा की स्थिति में बाढ़ग्रस्त हो जाते हैं।
इसके अतिरिक्त भारत के द्वीप समूह जैसे अंडमान-निकोबार व लक्षद्वीप के तटीय भाग अधिक वर्षा व समुद्री ज्वार से प्रभावित होते रहते हैं।
16 अगस्त, 2018 में हुई शताब्दी की अधिकतम वर्षा (औसत से 116 फीसद से अधिक) जो कि 48 घंटों से लगातार हुयी (310 मी.मी.) केरल राज्य बाढ़ आपदा की चपेट में आ गया। यह राज्य की सबसे भीषण बाढ़ आपदा थी जिसमें 483 लोगों की मृत्यु हुयी और सभी जिले प्रभावित हुये। यह आपदा 1924 में आयी बाढ़ के बाद सबसे प्रमुख बाढ़ आपदा थी। अधिक वर्षा के कारण, राज्य में 30 बांधों के गेट पूरी तरह से खोल दिये गये। बाढ़ के कारण कोचीन का हवाई अड्डा कुछ दिवसों के लिए बंद करना पड़ा।
लगभग एक वर्ष बाद पुनः (8 अगस्त 2019) अधिक वर्षा से केरल राज्य के 9 जिले बाढ़ आपदा से ग्रस्त हो गये। लाखों लोगों को विस्थापित किया गया और 101 लोगों की मृत्यु हो गयी। दो दिन की वर्षा से लगभग 80 भूस्खलनों की घटनाएं भी हुईं।
वयनाड़, मालापुरम, कोजीकोट, कन्नूर, पलक्कड़, चिसूर और ईरनाकुलम जिले विशेष रूप से प्रभावित हुये। (चित्र- 8.10) केरल में बाढ़ की बढ़ती आवृति को क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्षा के दिवसों, आवृति, सघनता के क्षेत्राीय परिवर्तन और भू-आकृति की परिवर्तन, सघन जनसंख्या के कारण बाढ़ आपदा जोखिम को बढ़ा देते हैं।