वायु प्रदूषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव इंसान के स्वास्थ्य पर पड़ता है। हानिकारक गैसें और धूल आदि हमारे श्वसन तंत्र को बुरी तरह से प्रभावित करती है, जिससे श्वास संबंधी रोग बड़ी तेजी से फैलते हैं। ऑक्सीजन की कमी के कारण लोगों में दम घुटने की शिकायत होना आम बात है। फेफड़ों के कैंसर, श्वास नली तथा गले की समस्या का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है।
वायु प्रदूषण की विडम्बना यह है कि यह दिखाई नहीं देता या कुछ समय बाद अदृश्य हो जाता है, लेकिन विनाशकारी गैसें वायुमंडल में उपलब्ध रहती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड दमघोटू गैस है, इससे रक्तवाहिकाओं के ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है। सल्फर डाईऑक्साइड सीधे हमारी गले की नली को प्रभावित करती है। इससे कंठनली से जुड़े रोग पैदा होते हैं। हवा में व्याप्त धूल सिलिकोसिस नामक बीमारी का कारण बनती है।
सल्फर डाई ऑक्साइड की 1 से 5 पीपीएम सांद्रता तो मनुष्य सहन कर - सकता है, लेकिन इससे अधिक सांद्रता - स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। इसकी 6 से 12 प्रतिशत सांद्रता नाक व गले में शीघ्रता से उत्तेजक प्रभाव डालती है। यही नहीं, त्वचा पर खुजली होने का कारण भी बनती है। जो लोग इस गैस की अधिकता में रहते हैं, उन्हें कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह आदि होने की -आशंका अधिक रहती है।
हाइड्रोजन सल्फाइड भी एक घातक गैस है। इसकी 100 पीपीएम या इससे अधिक सांद्रता को सूंघने पर मनुष्य चंद मिनटों में ही अपनी सूंघने की शक्ति खो बैठता है। इसी प्रकार, इसकी कम सांद्रता, सिरदर्द और बेहोशी का कारण बनती है।
वायुमंडल में धातु तत्व भी पाए जाते हैं, जिसमें लेड, जिंक, कैडमियम, मर्करी, कॉपर, निकिल, क्रोमियम एस्टेट्स आदि प्रमुख हैं। ये सभी तत्व सेहत पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। कैडमियम से कैंसर के साथ-साथ अति तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है। मर्करी की वायुमंडल में उपस्थिति से सिरदर्द, आलस्य, मूख की कमी आदि होती है। वेरिलियम से श्वसन संबंधी बीमारियां होती है, जिसमें खांसी, कफ, साइनस आदि प्रमुख हैं। निकिल, क्रोमियम तथा एस्बेस्टम कैंसर रोग का कारण बनती है। लेड से तंत्रिका तंत्र संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। मैग्नीज की वजह से मैग्नीज न्यूमोनियम होता है, जो काफी घातक होता है।
ओजोन अत्यधिक क्रियाशील गैस है। वायुमंडल में इसका प्राकृतिक निर्माण ऑक्सीजन पर होने वाले विद्युत विसर्जन के प्रभाव के कारण होता है। इसको अत्यधिक मात्रा में ग्रहण करने से अस्थमा की समस्या उत्पन्न हो जाती है। ओजोन अत्यधिक विषैली गैस है। इसकी 1.25 ppm सांद्रता का एक घंटे तक उपयोग करने पर फेफड़े, सामान्य से कहीं कम फूलते हैं। सांस के साथ अधिक सांद्रता ग्रहण करने से फेफड़ों में विशिष्ट प्रकार के तरल इकट्ठे हो जाते हैं।
विदेशों में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सुदृढ इंतजाम किए गए हैं, लेकिन हमारे यहां इस संबंध में उदासीनता बरती जा रही है। वैसे तो अच्छा वही होगा कि जहां से यह प्रदूषण फैलता है, उसी स्त्रोत पर उसका नियंत्रण किया जाए।
कुछ उन्नत तकनीकों का उपयोग करके हम भी वायु प्रदूषण में थोड़ी कमी कर सकते हैं, जैसे सीसा रहित पेट्रोल का इस्तेमाल करना। पेट्रोल, इंजन की बजाय विद्युत इंजन के उपयोग से वायु प्रदूषण कम फैलता है, अतः उसे प्राथमिकता देनी चाहिए। वैसे सौर ऊर्जा से यदि वाहन चलाए जाएं, तो वे किसी तरह से वायु प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। इसी प्रकार, पुरानी तकनीक के यंत्र और उपकरणों की बजाय नई तकनीक के उन्नत यंत्रों और उपकरणों का उपयोग करना चाहिए। उद्योगों में भी नई तकनीक अपनानी चाहिए, जो न्यूनतम वायु प्रदूषण फैलाती है। उद्योगों को आवासीय क्षेत्रों से काफी दूर स्थापित किया जाना चाहिए तथा चिमनियों की ऊंचाई भवनों से तीन गुना अधिक होनी चाहिए।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। गेहूं और धान यहां की मुख्य फसल है। फसल कटाई के पश्चात अवशेषों को आमतौर पर किसान जला देते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे पराली जलाना कहते हैं। इससे पैदा होने वाले धुंए से वायु अत्यधिक प्रदूषित हो जाती है। यद्यपि कानूनी तौर पर इसे जलाना जुर्म है। इसके बावजूद किसान अवशेष निपटान का सबसे सरल उपाय मानते हुए इसे जला देते हैं। हर साल लाखों टन कृषि अवशेष जलाने से सल्फर डाई ऑक्साइड, कणिका तत्व, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाई ऑक्साइड और राख वायुमंडल में प्रदूषण फैलाती है जो हवा के बहाव के साथ-साथ फैलती जाती है।
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने वर्ष 2015 में कुछ राज्यों में पराली जलाने पर रोक लगा दी थी। गौरतलब है कि सल्फर डाई ऑक्साइड व नाइट्रोजन ऑक्साइड के कारण आंखों में जलन तथा चर्म रोग होने की आशंका रहती है। यह कैंसरकारक भी होता है। फसल अवशेषों के निपटान को ऊर्जा में परिवर्तित करके इस समस्या को थोड़ा कम किया जा सकता है। जैसे कंपोस्टिंग, बायोचार उत्पादन तथा मशीनीकरण। फसल अवशेषों को जलाने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस निकलती है। कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर अनाज के पुआल और ठूंठ और तिलहन, मटर और फलियों के अवशेषों को खेतों में जलाना अवैध है।
आमतौर पर लोग सार्वजनिक वाहनों के स्थान पर निजी वाहनों को प्राथमिकता देते हैं। बच्चों को स्कूल छोड़ने, ऑफिस जाने, बाजार जाने आदि में दोपहिया, चार पहिया, ऑटोरिक्शा, आदि का उपयोग करते हैं। इसके स्थान पर वे सार्वजनिक वाहन जैसे सिटी बस, स्कूल बस, लोकल ट्रेन आदि की सेवाएं लें, तो वायु प्रदूषण में कमी आ सकती है। इसी प्रकार, डीजल-पेट्रोल की बजाय सौर ऊर्जा पर चलने वाले वाहनों को प्राथमिकता देनी चाहिए। विद्युत कारें भी इसका अच्छा विकल्प है।
चिमनियों के लिए फिल्टर का इस्तेमाल करने से वायु में हानिकारक गैसों के प्रभावों को कम किया जा सकता है।
खरीफ की फसल के बाद अर्थात शरद ऋतु के साथ ही आसपास के क्षेत्रों से सोयाबीन हस्क यानी पराली जलाए जाने की खबरें आने लगती हैं, जिससे शहर की वायु जहरीली होने लगती है। इंदौर के GSITS के छात्र और प्रोफेसर ने सोयाबीन हस्क पर शोध कर इसका उपाय ढूंढा है। सोयाबीन हस्क का प्रयोग कर उन्होंने ऐसी सीमेंट बनाई है, जो सामान्य सीमेंट के मुकाबले काफी सस्ती और मजबूत है। उनका यह शोधकार्य इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स (इंडिया) और अमेरिकन सोसायटी ऑफ इंटरनेशनल जनरल में प्रकाशित हो चुका है। संस्था जल्द ही पेटेंट के लिए आवेदन करने वाली है।
GSITS कॉलेज की जानपद अभियांत्रिकी विभाग के स्नातक अभियांत्रिकी के छात्र अमर गुर्जर ने विभाग के सहायक प्रोफेसर विवेक तिवारी के निर्देशन में 2 साल के शोध के बाद यह उत्पाद बनाया है। पराली जलाने की प्रक्रिया से अमर वाकिफ है, इसीलिए उन्होंने यह उत्पाद बनाया है। अमर ने बताया कि हमने 10 प्रतिशत सोयाबीन हस्क, 15 प्रतिशत मार्बल पाउडर और 75 प्रतिशत सीमेंट को मिलाकर इसे बनाया। दो साल में हमने कई टेस्ट किये, जिनमें यह सामने आया कि यह सीमेंट सामान्य सीमेंट से 65 प्रतिशत अधिक टिकाऊ, 10 प्रतिशत अधिक मजबूत और 30 प्रतिशत सस्ता है।
प्रो. विवेक तिवारी ने बताया कि यह सामान्य सीमेंट के मुकाबले 50 प्रतिशत कम जल की खपत करता है। इससे कार्बन उत्सर्जन भी 25 प्रतिशत कम होगा। अमर ने बताया कि हमने जब बीम टेस्टिंग की, तो यह 50 टन तक का लोड झेल गई। मतलब सोयाबीन हस्क से बनी सीमेंट अपने वजन से तीन गुना तक का वजन झेलने में सक्षम हैं। एक माह तक सायक्लिक लोड करने पर पता चला कि इस सीमेंट की लाइफ 50 साल ज्यादा है। भार क्षमता भी सामान्य सीमेंट के मुकाबले 65 प्रतिशत ज्यादा रही।
इससे किसानों को भी फायदा होगा। सोयाबीन हस्क (पराली) जलाने के बजाय बेचने के काम आएगी। किसानों की कमाई भी बढ़ेगी और पराली जलने से होने वाला प्रदूषण भी नहीं होगा। बढ़ती अर्थव्यवस्था और त्वरित विकास के बीच वायु प्रदूषण को रोकना मुश्किल तो है, लेकिन यह नामुमकिन भी नहीं है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान का मानना है कि यदि इस प्रदूषण को उत्पन्न होने से पहले इसके स्त्रोत पर ही खत्म कर दिया जाए, तो इस समस्या से काफी हद तक राहत मिल सकती है। इस बीच वाहनों से होने वाले प्रदूषण को लेकर उसने केन्द्र और राज्य सरकारों से सम्बद्ध संस्थाओं को एक कार्य योजना भी तैयार करके दी है। जिसमें वाहनों के प्रदूषण की जांच करने वाले प्रत्येक केन्द्र के पास ही एक सर्विस सेंटर भी खोलने का सुझाव दिया है। ताकि जांच के दौरान वाहन में किसी तरह की गड़बड़ी पाई जाए, तो उसे तुरंत ठीक भी कराया जा सके। वैसे भी वायु प्रदूषण में वाहनों से होने वाले प्रदूषण का एक बड़ा भाग होता है। दिल्ली जैसे शहरों में यह 30 प्रतिशत से अधिक है।
पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में कार्यरत वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद से सम्बद्ध संस्था नीरी (NEERI) की ओर से वायु प्रदूषण से निपटने को लेकर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय सहित अनेक संस्थानों को इससे पहले भी कई सुझाव दिए गए हैं। हालांकि नीरी से जुड़े विशेषज्ञों की मानें, तो वायु प्रदूषण से निपटने के लिए जो कार्य योजना दी गयी थी, उस पर कहीं भी प्रभावी ढंग से कार्य नहीं हो रहा है। ऐसे में वायु प्रदूषण के स्तर के कम होने की उम्मीद लगाना ठीक नहीं है। विशेष वात यह है कि राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के अन्तर्गत जिन 132 शहरों में वायु की गुणवत्ता को स्वच्छ करने का अभियान चलाया जा रहा है, उसकी कार्य योजना भी नीरी की मदद से ही तैयार की गयी है। उसमें वायु प्रदूषण के स्रोत पर ही प्रहार करने की बात कही गई है।
नीरी से जुड़े एक वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण को जिस तरह से स्रोत के स्तर पर ही खत्म करने का सुझाव दिया गया है, उसी तरह से उद्योगों से उठने वाले धुंए और धूल को भी कम करने के लिए पूरी योजना बनाकर दी गई है। लेकिन उन योजनाओं पर सख्ती से अमल का अभाव है। अभी भी मिट्टी, गिट्टी व कचरे आदि की दुलाई को लेकर कोई प्रोटोकाल नहीं है, बगैर ढके ही उसकी ढुलाई की जाती है।
इंसान की जिंदगी स्वच्छ पर्यावरण पर निर्भर करती है। पर्यावरण को अनुकूल बनाए रखने के लिए पेड़-पौधों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। घने वन, लहलहाते पेड़-पौधे वायु को शुद्ध करते हैं। इससे ऑक्सीजन का स्तर बढ़ता है जो कि हमारी प्राणवायु है।