हवा में जहरीले रसायनों और नुकसानदायक महीन कणों की तादाद इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि दिल्ली की तुलना ‘गैस चैम्बर’ से की जा रही थी। इस नाजुक मोड़ पर दिल्ली सरकार ने वायु प्रदूषण पर तुरन्त अंकुश लगाने के लिये राजधानी दिल्ली में प्राइवेट मोटर कारों को सड़क पर चलाने के लिये ‘ऑड-ईवन’ योजना लागू कर दी गई।
बात बीते दिसम्बर महीने की है। हमारे पड़ोस में शायराना मिजाज के एक बुजुर्ग रहते हैं। मैंने उन्हें कई दिनों बाद देखा तो पूछ लिया, ‘अंकल, कई दिनों से दिखे नहीं, ना पार्क में, ना मार्केट में।’ उन्होंने अपने अन्दाज में थोड़ी तल्खी से कहा, ‘दम घुटता है दिल्ली के दामन में!’ जब तक मैं कुछ समझता उन्होंने अगला जुमला भी दाग दिया, ‘अब तो हवा भी बेवफा है, इस गुलिस्तां के आंगन में।’ अब बात हमारी समझ में आ गई थी। वे राजधानी दिल्ली की बिगड़ी हवा से नाराज थे। इस हवा ने उन्हें घर में नजरबंद जो कर रखा था। साँस की परेशानी की वजह से डॉक्टरों ने उन्हें सुबह और शाम पार्क में घूमने से मना कर दिया था। हवा में ताजगी कम और खतरा ज्यादा मंडरा रहा था। केवल बड़े-बूढ़े ही नहीं, बल्कि सांस की तकलीफ झेल रहे बच्चों को भी ‘मास्क’ लगाकर स्कूल जाने की हिदायत दी गई थी। दिल्ली की हवा ने माहौल को दमघोंटू बना दिया था। हवा में जहरीले रसायनों और नुकसानदायक महीन कणों की तादाद इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि दिल्ली की तुलना ‘गैस चैम्बर’ से की जा रही थी। दिल्ली की हवा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सुर्खियों में थी।
दिल्ली वाले परेशान और बेहाल थे, और दिल्ली सरकार लाचार-सी दिख रही थी। उच्चतम न्यायालय ने भी इस मसले पर अपनी चिन्ता जाहिर की और सरकार को कोई ठोस कदम उठाने का निर्देश दिया। दरअसल हवा में बढ़ते प्रदूषण के कारण लगभग दो करोड़ दिल्ली वासियों की सेहत जोखिम में पड़ गई थी। इस नाजुक मोड़ पर दिल्ली सरकार ने वायु प्रदूषण पर तुरन्त अंकुश लगाने के लिये राजधानी दिल्ली में प्राइवेट मोटर कारों को सड़क पर चलाने के लिये 1 से 15 जनवरी, 2016 के दौरान ‘ऑड-ईवन’ योजना लागू कर दी गई। यानी ऑड तारीख को केवल वही मोटर कारें सड़क पर निकल सकेंगी, जिनके रजिस्ट्रेशन नम्बर का अंतिम अंक ‘ऑड’ (1,3,5,7,9) होगा। यही नियम ‘ईवन’ तारीखों (2,4,6,8,0) के लिये भी लागू किया गया। परेशान हाल दिल्ली के लोगों ने इस योजना को खुले दिल से अपनाया। इसके लिये सराहना, प्रशंसा और शाबाशी भी मिली। बाद में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस प्रयोग के एक सप्ताह पहले और एक सप्ताह बाद के प्रदूषण स्तर की तुलना करके बताया कि आँकड़े किसी स्पष्ट रुझान की ओर संकेत नहीं करते हैं। साथ ही इस दौरान प्रदूषण स्तर में प्रत्येक दिन काफी उतार-चढ़ाव भी देखने को मिला, जिसकी स्पष्ट व्याख्या करना कठिन है।
दरअसल हवा में प्रदूषण का स्तर उस दिन हवा चलने की गति, तापमान और धूप की दशा जैसे मौसमी कारकों पर भी निर्भर करता है। इसलिये इतने कम दिनों के आँकड़ों के आधार पर यह कहना तर्कसंगत नहीं होगा। कि ‘ऑड-ईवन’ प्रयोग के दौरान प्रदूषण का स्तर सार्थक रूप से कम हो गया। परन्तु सैद्धांतिक रूप से इस प्रयोग में केवल उन दिनों प्रदूषण का स्तर कम करने की संभावना है। और इसी संभावना को देखते हुए दिल्ली सरकार ने एक बार फिर 15 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच इस प्रयोग को दोहराया। इस प्रयोग के दौरान एक अच्छे-इतर प्रभाव के रूप में सभी ने अनुभव किया और अध्ययनों से भी पता लगा कि दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक जाम की परेशानी सार्थक रूप से कम हो गई। विशेषज्ञ बताते हैं कि सड़कों पर ट्रैफिक की कमी प्रदूषण स्तर को घटाने में परोक्ष रूप से सहायता करती है और नागरिकों की कार्य क्षमता तथा उत्पादकता को भी बढ़ाती है। इन अनुकूल प्रभावों को देखते हुए देश के कुछ अन्य शहरों/राज्यों में भी इस प्रकार का प्रयोग करने पर विचार हो रहा है। इसी संदर्भ में ‘कार फ्री डे’ भी लोकप्रिय हो रहा है, जिसे पिछले अक्टूबर से प्रत्येक महीने की 22 तारीख को मनाया जाता है। इसके अन्तर्गत राजधानी दिल्ली के किसी एक क्षेत्र में उस दिन मोटर वाहन नहीं चलाये जाते। इससे उस क्षेत्र में प्रदूषण स्तर पर रोक लगने के साथ ही लोगों में प्रदूषण पर रोक लगाने की चेतना भी उत्पन्न होती है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति, नई दिल्ली | |||||||||
हवा की गुणवत्ता का आकलन (औसत प्रतिदिन, कारकों के मान माइक्रो ग्रा./घन मी. | |||||||||
मैन्युअल स्टेशन | मापदंड व आँकड़ा श्रेणी | ऑड-ईवन से पहले (25-31 दिसम्बर, 2015) | (ऑड-ईवन के दौरान (1-15 जनवरी, 2016) | ||||||
पीएम10 | पीएम 2.5 | नाइट्रोजन ऑक्साइड | सल्फर | पीएम10 | पीएम 2.5 | नाइट्रोजन ऑक्साइड | सल्फर | ||
पीतमपुरा | अधिकतम | 420 | अपर्याप्त | 44 | 9 | 541 | 429 | 98 | 17 |
न्यूनतम | 142 | अपर्याप्त | 43 | 5 | 207 | 116 | 15 | 4 | |
सीरी फोर्ट | अधिकतम |
| 548 | 286 | 98 | 39 | |||
न्यूनतम | 301 | 168 | 33 | 4 | |||||
जनकपुरी | अधिकतम | अपर्याप्त आँकड़े | 614 | 259 | 97 | 34 | |||
न्यूनतम | 367 | 102 | 24 | 4 | |||||
निजामुद्दीन | अधिकतम | 270 | अपर्याप्त | 71 | 13 | 294 | 185 | 81 | 11 |
न्यूनतम | 253 | अपर्याप्त | 51 | 13 | 161 | 84 | 31 | 4 | |
शहजादबाग | अधिकतम | 309 | 233 | 93 | 17 | 607 | 166 | 93 | 15 |
न्यूनतम | 301 | 193 | 52 | 5 | 172 | 81 | 50 | 4 | |
शाहदरा | अधिकतम | अपर्याप्त आँकड़े | 629 | 231 | 106 | 42 | |||
न्यूनतम | 217 | 82 | 26 | 4 | |||||
बहादुरशाह जफर मार्ग | अधिकतम | 454 |
| 166 | 4 | 516 |
| 159 | 17 |
न्यूनतम | 254 |
| 77 | 4 | 169 | 64 | 4 |
हाल ही में केन्द्रीय प्रदूषण निंयत्रण बोर्ड ने दिल्ली की हवा पर एक ताजा रिपोर्ट जारी की है, जिसमें पिछले पाँच वर्षों में (2011-2015) राजधानी के तीन प्रमुख स्थानों पर प्रदूषकों के मात्रा की जाँच से प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण किया गया है। इससे पता चला है कि दिल्ली की हवा में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और बेंजीन जैसे प्रमुख प्रदूषकों के स्तर में गिरावट आ रही है, जबकि सूक्ष्म कण पीएम-10 की मात्रा बढ़ रही है। इसकी वजह यह कि प्रदूषण रोकने के उपाय तो जोर-शोर से से लागू किये जा रहे हैं, लेकिन उड़ती धूल पर रोक लगाने के लिये अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है। तमाम तरह के निर्माण कार्यों, सड़कों पर झाडू लगाने और कच्चे मैदानों से लगातार उड़ती धूल दिल्ली वासियों की सेहत के लिये एक बड़ा खतरा है। दरअसल हवा में उड़ती धूल में हमारी सेहत को नुकसान पहुँचाने वाले सूक्ष्मकण मौजूद होते हैं, जिन्हें ‘पर्टिकुलेट मैटर’ या ‘पीएम’ कहा जाता है। इनमें सल्फेट, नाइट्रेट, अमोनिया, सोडियम क्लोराइड और कार्बन के कण मौजूद हो सकते हैं। धूल के महीन कणों और किसी द्रव की सूक्ष्म बूँदों को भी पीएम में शामिल किया जाता है। धूल, गंदगी, कालिख, धुआँ और उद्योगों तथा मोटर वाहनों का उत्सर्जन पीएम के प्रमुख स्रोत हैं। अपने आकार के हिसाब से उन्हें दो वर्गों में बाँटा गया हैः पीएम-10 और पीएम-2.5।
खेत-खेत धुआँ, शहर-शहर आफत राजधानी दिल्ली और उत्तर भारत के कई शहरों में सर्दी के मौसम की शुरुआत हवा में गहराती एक आफत के साथ होती है। कम तापमान के कारण कुदरती तौर पर हवा में कोहरा छाने लगता है, जिसके साथ धुआँ भी घूल-मिल जाता है। हवा खतरनाक ‘स्मॉग’ धुएँ (धुएँ और कोहरे के अंग्रेजी शब्दों क्रमशः ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ के मेल से बना अंग्रेजी शब्द) में बदलकर परेशानी की बड़ी वजह बन जाती है। खासतौर से सांस के रोगियों, वृद्धों और बच्चों को सांस लेने में परेशानी और सीने तथा आँखों में जलन जैसी तकलीफों की शिकायत होने लगती है। सामान्य रूप से स्वस्थ व्यक्ति भी ‘स्मॉग’ की चपेट में आकर सांस की तकलीफों का शिकार हो जाता है। सवाल उठता है कि इस दौरान अचानक इतना धुआँ कहाँ से आ जाता है। शहरों की हवा को सेहत की दुश्मन बनाने वाला यह धुआँ दरअसल पड़ोसी राज्यों में खेतों में लगायी गई आग से आता है। राजधानी दिल्ली के लिये पड़ोसी राज्यों का मतलब है हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश। खेतों में यह आग किसान खुद लगाते हैं। इस आग का राज जानने के लिये इन राज्यों में खेती के तौर-तरीकों पर एक नजर डालनी होगी। खेती के नजरिये से हमारे देश में दो मौसम हैं - रबी और खरीफ। नवम्बर से अप्रैल तक के फसल मौसम को रबी कहते हैं और इस मौसम की सबसे प्रमुख अनाज फसल गेहूँ है। मई से अक्तूबर के कृषि मौसम को खरीफ कहा जाता है और इस मौसम की प्रमुख अनाज फसल धान या चावल है। इस तरह उत्तर भारत के मैदानी भागों में धान-गेहूँ फसल चक्र लगातार चलता रहता है। अक्तूबर में धान की फसल की कटाई के बाद फसल के ठूंठ खेतों में खड़े रहते हैं, जिन्हें जल्दी हटाकर, खेत को साफ करके गेहूँ की बुवाई के लिये तैयार करना होता है। इस काम के लिये आमतौर पर किसान के पास 20 से 25 दिन होते हैं। किसान इस काम को कम से कम मेहनत और खर्च में करना चाहता है। किसान के लिये इसका सबसे सस्ता और सरल उपाय होता है खेतों में खड़े धान की फसल ठूंठों को आग लगा देना। बस माचिस की एक तीली और सब कुछ स्वाहा। लेकिन आनन-फानन में खेत की सफाई का यह तरीका पर्यावरण और स्वास्थ्य के नजरिये से खतरनाक और नुकसानदायी है। हवा में जहर घोलने के साथ इस प्रक्रिया में अन्यथा मिट्टी में घुल-मिल जाने वाले पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। खेत में लगी आग के धुएँ में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर डाईऑक्साइड जैसे गम्भीर प्रदूषकों के अलावा भारी मात्रा में सूक्ष्मकण भी मौजूद होते हैं, जो सेहत को नुकसान पहुँचाते हैं। उत्तर भारत के राज्यों के अलावा कई अन्य राज्यों में भी फसल अवशेषों को ठिकाने लगाने के लिये यही खतरनाक तरीका अपनाया जाता है। परन्तु पंजाब और हरियाणा इस मामले में सबसे आगे हैं। देश भर की हवा में इस तरह घुलने वाले धुएँ में इन दोनों राज्यों की हिस्सेदारी लगभग 48 प्रतिशत है। |
डीजल और सीएनजी बसों द्वारा प्रदूषण उत्सर्जन की तुलना | |||
प्रदूषक पदार्थ | डीजल | सीएनजी | प्रतिशत कमी |
कार्बनमोनोऑक्साइड | 2.4 ग्रा./कि.मी. | 0.4 ग्रा./कि.मी. | 83 |
नाइट्रोजनऑक्साइड | 21 ग्रा./कि.मी. | 8.9 ग्रा./कि.मी. | 58 |
सूक्ष्म कण (पीएम) | 380 मि.ग्रा./कि.मी. | 12 मि.ग्रा./कि.मी. | 97 |
मेट्रो स्वयं वायु प्रदूषण की चपेट में राजधानी दिल्ली में ट्रैफिक जाम की परेशानी और मोटर वाहनों के कारण बढ़ते वायु प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से 25 दिसम्बर, 2002 को दिल्ली मेट्रो की पहली लाइन का शुभारंभ हुआ, जिसकी लम्बाई मात्र आठ किलोमीटर थी। असाधारण कामयाबी और लोकप्रियता के कारण इसका लगातार विस्तार हुआ और आज दिल्ली मेट्रो 213 किलोमीटर के नेटवर्क के साथ राजधानी दिल्ली के अलावा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को भी अपने 160 स्टेशनों के माध्यम से जोड़ती है। एक मोटे अनुमान के साथ दिल्ली मेट्रो ने पिछले 10 वर्षों में लगभग चार लाख मोटर वाहनों को सड़क पर उतरने से रोका, जिससे हर साल लगभग 2.76 लाख टन ईंधन की बचत हुई और 5.8 लाख टन प्रदूषक तत्व दिल्ली की हवा को नहीं बिगाड़ पाये। परन्तु हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि यह हरित मेट्रो स्वयं वायु प्रदूषण की चपेट में आ गई है, जिससे इसकी कार्य क्षमता प्रभावित हो रही है। दरअसल मेट्रो को निरन्तर बिजली की सप्लाई के लिये इसके ऊपर बिजली के उपकरण लगाये जाते हैं, जिन्हें प्रचलित भाषा में ओएचई यानी इलेक्ट्रिकल ओवरहेड इक्विपमेंट कहा जाता है। दिल्ली मेट्रो के अनुसार, बढ़ते प्रदूषण के कारण इस उपकरण में लगे इन्सुलेटर्स की सतह पर प्रदूषक पदार्थों की परत बन जाती है, जिससे करंट का रिसाव होता है, कई बार शॉर्ट सर्किट हो जाता है और पावर की सप्लाई भी बंद हो जाती है। इससे मेट्रो का आवागमन ठप पड़ जाता है। बार-बार ऐसा होने से यात्रियों को परेशानी झेलनी पड़ती है, मेट्रो को आर्थिक नुकसान पहुँचता है और इसकी प्रतिष्ठा को भी चोट पहुँचती है। इस समस्या की गम्भीरता को आंकने के लिये मेट्रो ने बेंगलुरु स्थित केन्द्रीय पावर अनुसंधान संस्थान के जरिये मेट्रो के रूट और प्रदूषण के स्तर के बीच के सम्बन्ध को जानने का प्रयास किया। पता लगा कि दिल्ली मेट्रो के 22 प्रतिशत क्षेत्र ‘बहुत अधिक प्रदूषण’ से त्रस्त हैं, जबकि 76 प्रतिशत क्षेत्र ‘अधिक प्रदूषण’ की गिरफ्त में है। ‘बहुत अधिक प्रदूषण’ वाले क्षेत्र यमुना के आस-पास हैं या औद्योगिक क्षेत्रों जैसे कीर्तिनगर और आजादपुर से लगे हुए हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए दिल्ली मेट्रो ने ओएचई में आवश्यक सुधार की योजना के साथ फेज-III में इसकी डिजाइन और सामग्री बदलने का फैसला लिया है। इस फेज में लगभग 150 किलोमीटर के रूट पर ओवरहेड इलेक्ट्रिफिकेशन किया जाना है। इसके लिये एक तो इन्सुलेटर्स में ‘क्रीपेज डिस्टेंस’ को बढ़ाया जा रहा है, जिससे शॉर्ट सर्किट और पावर सप्लाई बंद होने की समस्या पर रोक लगेगी। दूसरे गैल्वेनाइज्ड स्टील के कैंटीलीवर की जगह एल्युमिनियम के कैंटीलीवर लगाये जाएंगे, क्योंकि प्रदूषण के प्रति एल्युमिनियम की प्रतिरोधी क्षमता स्टील से बेहतर है। इसी तरह मेट्रो ट्रेन को बिजली सप्लाई करने वाले तारों की सामग्री को भी बदला जा रहा है। पहले की साधारण मिश्र धातु की जगह कॉपर-मैग्नीशियम और कॉपर-सिल्वर के तारों का उपयोग किया जाएगा। इसी तरह दिल्ली मेट्रो ने सुधरी ओएचई के जरिये वायु प्रदूषण का मुकाबला करने के लिये तैयारी कर ली है। |
विभिन्न यातायात साधनों द्वारा कार्बन उत्सर्जन की मात्रा | |
परिवहन | उत्सर्जन मात्रा |
सवारी गाड़ी | 67 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
टैक्सी (सीएनजी) | 72 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
दुपहिया वाहन (पेट्रोल) | 28 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
ऑटो-रिक्शा (सीएनजी) | 35 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
बस | 27 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
मेट्रो | 20 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
स्रोतः यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कॉन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) |
दिल्ली मेट्रो फेज-1 एवं 2 से पर्यावरणीय लाभ | |||
आकलन | फेज-1, वर्ष 2007 | फेज-1 व 2, वर्ष 2011 | फेज-1 व 2, वर्ष 2014 |
सड़कों से मुक्त गाड़ियों की संख्या | 16895 | 117249 | 390971 |
पेट्रोलियम ईंधन की वार्षिक बचत | 24691 टन | 106493 टन | 276000 टन |
प्रदूषकों में वार्षिक कटौती | 31520 टन | 179613 टन | 577148 टन |
डॉ. जगदीप सक्सेना,98, वसुंधरा अपार्टमेंट्स प्लॉट न.- 44, सेक्टर- 9, रोहिणी, दिल्ली- 1100085, (ई-मेलः jgdsaxena@gmail.com)