लेख

गंगा : आस्था और तिजारत के बीच

Author : अनिल शुक्ल

हवा, पानी, रोशनी, वर्षा इनका कोई जाति धर्म नहीं होता। कुदरत की ये नियामतें संपूर्ण जीव-जगत का आदार हैं, पर इस सियासत और तिजारत की भाषा का क्या करें जो अपने राजनीतिक मुनाफे के लिए भेद करने में किसी तरह का संकोच नहीं करती। कांग्रेस नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने मोदी सरकार के गंगा शुद्धिकरण से जुड़े प्रयासों पर संप्रदाय विशेष अभियान बनाए जाने की कोशिश पर सवाल खड़ा किया है वहीं ‘नमामि गंगे’ योजना के तहत गंगा में जलमार्ग के व्यापारिक उपयोग पर संत समाज ने नाराजगी व्यक्त की है। गंगा मुक्ति से जुड़े कुछ इन्हीं सवाल की पड़ताल करती सामयिकी।

महानदी गंगा वैसे तो युगों-युगों से चर्चा में रही है लेकिन इधर नए तरीके से चर्चा में आ जाने की खास वजह है उसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आंख का तारा बन जाना। जब प्रधानमंत्री की आंख का तारा बन गई है तो समूची भारतीय जनता पार्टी के अंग-अंग का तारा बनने में कितने देर लगती? कांग्रेस भला इस सब को कैसे हजम करे?

राजीव गांधी के सपना देखने बावजूद गंगा सुधर नहीं पाई और उनका अरबों-खरबों रुपये का ‘गंगा एक्शन प्लान’ सिर्फ सरकारी नौकरशाही को ही तरह पाया, तो इसमें राजीव गांधी या राहुल बाबा क्या करें? भाजपाई कहते फिर रहे हैं कि कांग्रेस ने कुछ नहीं किया। अब ऐसे में फौरन चिंता हुई और तत्काल प्रतिक्रिया आ गई कि गंगा का शुद्धिकरण हिंदूवाद के एंगल से न करें! बड़ी समस्या आन खड़ी है कि गंगा किसकी? मेरी या तेरी? पंडित जी की या शेख साहब की? अगड़े की या पिछड़े की? जुलाहे की या मोची की? दलित की या अति महादलित की? समाजवादी या पूंजीवादी? सांप्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष? मेरा खयाल है इससे या उससे पूछने की बजाय यह सवाल सीधे गंगा से ही पूछा जाना चाहिए।

भारत की कुल आबादी के 40 प्रतिशत भाग की जीवन संगनी, 11 राज्यों और 2 देशों में पसरी, 2510 किमी. लम्बी गंगा सहस्त्राब्दी से भारतीय संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ती रही है। ऋग्वेद में तो सिंधु और सरस्वती की महिमा का बखान है लेकिन शेष तीनों वेदों से लेकर प्राचीन वैदिक सभ्यता से जुड़े सभी प्रमुख ग्रंथों में आस्था, प्रकृति और विज्ञान के दृष्टिकोण से गंगा के महत्व पर विषद चर्चा मिलती है। प्राचीन और मध्यकालीन भारत के तीन साम्राज्य (मौर्य, मगध और मुगल) और नगर (पाटलिपुत्र, कन्नौज, कड़ा, काशी, प्रयाग, कम्पिल्य, मुर्शिदाबाद, बहरामपुर, कोलकाता आदि) इसी गंगा के मुहानों पर पुष्प-पल्लवित हुए हैं।

कभी दुनिया भर के देशों में अपने पानी की आन रखने वाली गंगा आज विश्व की पांचवे नंबर की ऐसी सर्वाधिक गंदी नदी बन चुकी है जिसका जल पीने, नहाने, धोने और कृषि आदि कार्यों के लिए जहर बन चुका है और प्रतिबंधित है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इक्कीसवीं सदी की गंगा ‘लाइफलाइन’ से ‘डेथलाइन’ में तब्दील हो चुकी है। अब सवाल यह है कि इस मृत्यु रेखा पर जो चलेगा वही मरेगा। चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। दूसरी तरफ गौर करें तो इसे विषभान बनाने में सबसे ज्यादा योगदान हिंदुओं का ही है। मुसलमान, क्रिश्चियन, सिख, पारसी और दूसरों का कम क्योंकि वे देश की जनसंख्या का अल्पमत हैं।

गंगा का सीना चीरकर देखें तो साफ दिखेगा कि इसकी हत्या के दो कारण हैं- पहला बाहरी और दूसरा भीतरी। यहां तक बाहरी कारणों का सवाल है, अनट्रीटेड पानी, केमिकल उद्योगों का कचरा, खेती में प्रयोग होने वाले उर्वरक, कीटनाशक और दूसरे रसायनों का इसमें बहाव इसके पानी को नष्ट करने वाले प्रमुख तत्व हैं। बड़े-बड़े बांधों से समूचे देश को पाट दिया गया है। पर्यावरण की दृष्टि से यो तो यह बांध समाज के लिए भयावह थे ही, इन्होंने जीवंत नदियों को भी चूस डाला। गंगा के ऊपर बने बांधों ने इसकी निर्बाध जल धारा को पूरी तरह रोक दिया।

1986 में राजीव गांधी ने गंगा शुद्धिकरण का शंखनाद किया। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि ठीक दो साल पहले जिस प्रचंड वोट प्रवाह में बहकर राजीव गांधी सत्ता के शिखर तक पहुंचे थे वह एक उन्मादी हिन्दू प्रवाह था। लगातार चार साल की पंजाब अशांति, स्वर्णमंदिर पर भारतीय फौज का ‘आक्रमण’, तदोपरांत श्रीमती गांधी की नृशंस हत्या और उस हत्या का मीडिया से सम्मोहक प्रचार, नतीजे के तौर पर पूरे उत्तर भारत में सिख विरोधी कत्लेआम ने समूचे देश को हिन्दू बनाम गैर हिन्दू संप्रदायों में तब्दील कर दिया। इतना ही नहीं, प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद भी राजीव और उनकी कांग्रेस की रथ का हिन्दू प्रवाह थमा नहीं। बाद के सालों में बाबरी मस्जिद का ताला खुलना, शाहबानो प्रकरण पर संविधान संशोधन, असम चुनाव में कांग्रेस का खांटी सांप्रदायिक पैंतरा-आजादी के आंदोलन के वक्त से चली आ रही कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि को तार-तार करके ‘पापी वोट के लिए कुछ भी करेगा’ पार्टी में तब्दील कर दिया। भारतीय समाज और आधुनिक राजनीति में यह एक ऐसा काला अध्याय था जिसने बुनावट के मुल धागों को ही पूरी तरह उलझाकर रख दिया। गंगा के प्रदूषण के खिलाफ उठी देशव्यापी लहर, वैज्ञानिकों की चिंताओं के लगातार ऊंचे होते जाते पहाड़ और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के समांतर एक हिन्दू प्रधानमंत्री ने ‘पवित्र मां’ के बचाव के लिए ‘गंगा एक्शन प्लान’ का एलान कर डाला। पूर्णतः येाजना विहीन, अवैज्ञानिक आधार वाली इस हवा हवाई योजना को आगे चलकर ध्वस्त होना था और आखिरकार वह धराशायी हो गई। गंगा एक्शन प्लान से राजनेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों की पौ बारह हुई परंतु इससे न तो गंगा का भला हुआ और न देश और समाज का कुछ फायदा।

गंगा का सीना चीरकर देखें तो साफ दिखेगा कि इसकी हत्या के दो कारण हैं- पहला बाहरी और दूसरा भीतरी। यहां तक बाहरी कारणों का सवाल है, अनट्रीटेड पानी, केमिकल उद्योगों का कचरा, खेती में प्रयोग होने वाले उर्वरक, कीटनाशक और दूसरे रसायनों का इसमें बहाव इसके पानी को नष्ट करने वाले प्रमुख तत्व हैं। बड़े-बड़े बांधों से समूचे देश को पाट दिया गया है। पर्यावरण की दृष्टि से यो तो यह बांध समाज के लिए भयावह थे ही, इन्होंने जीवंत नदियों को भी चूस डाला। गंगा के ऊपर बने बांधों ने इसकी निर्बाध जल धारा को पूरी तरह रोक दिया। बनारस की लोकसभा सीट बरकरार रखने के नरेन्द्र मोदी के फैसले से देश के लोगों को उम्मीद हुई कि वह अब गंगा शुद्धिकरण अभियान के लिए नई, तार्किक और वैज्ञानिक नीति के आधार वाली कोई योजना लेकर आएंगे, लेकिन सरकार गठन के सवा महीने बीत जाने के बाद उनकी गंगा मंत्री साध्वी उमा भारती के वक्तव्य उनके फैसले, उनके मंत्रालय के इर्द-गिर्द जमा साधु-संतों और पंडा-पंडियों का शिव से माता गंगा की मुक्ति का कोरस गान, और दूसरी तरफ गंगा अभियान पर पहले बेतुके बजट आवंटन से लोग खासा निराश हुए। बीएचयू और आईआईटी सहित देश भर के वैज्ञानिक आज चिल्ला रहे हैं कि सूखी नदी पर गडकरी जी का जल परिवहन का हास्यास्पद प्लान गंगा के प्रदूषण की मात्रा को और भी गहरा करेगा।

गंगा बचाने के लिए पूर्व में भी अनेक साधुओं ने अपना सर्वस्व होम किया है। स्वामी निगमानंद सरस्वती जैसे महात्मा तो इसके बचाव के लिए अपने आमरण अनशन के दौरान ‘शहीद’ हो गए लेकिन सरकार के कान पर जूं भी नहीं रेंगी। स्वामी शिवानंद, समर्थ योगी अरविन्द और जीडी अग्रवाल जैसे मनीषियों ने भी इसके लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। अलबत्ता सियासत के गेरुए चोगों में लिपटे साधुओं ने असके लिए न पहले कोई कुर्बानी दी और न अब भविष्य में देते दिख रहे हैं। उनके लिए गंगा सिर्फ वोट राजनीति का एक वैसा ही ताना है जैसा बाना अब तक कांग्रेस के सफेदपोश साधुओं के लिए था। अब यह साफ-साफ दिखने लगा है कि नरेन्द्र मोदी की भविष्य की योजना क्या रंग लाएगी। यूं तो हर देश के लिए हर नदी बेहद महत्त्वपूर्ण और जीवनदायिनी होती है, लेकिन भारत के लिए गंगा सिर्फ नदी भर नहीं है।

यद्यपि इसका पानी दुनिया की नदियों की तुलना में ज्यादा जीवंत और युगों-युगों तक दूषित न होने वाला है साथ ही इसमें कृषि और दूसरे उत्पादन की विराट क्षमता है। लेकिन मात्र नदी से बहुत आगे बढ़कर यह देश के लिए ताजमहल और दूसरे स्मारकों से भी कहीं ज्यादा बड़ी और महान सांस्कृतिक विरासत है। यह एक ऐसी विरासत है जिसने प्राचीन भारत के कई काल मध्यकालीन और आधुनिक युग के अनेक दिवसों का निर्माण किया है। इसका महत्त्व किसी धर्म या संप्रदाय विशेष तक कैसे सीमित रह सकता है। यह न सिर्फ समूचे देश की संपदा है बल्कि सारी दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली महानदी है। इसे बचाना है, इसे बचाने के लिए सिर्फ फाख्ता उड़ाने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।

(लेखक वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी हैं।)

जिनके लिए व्यापार है गंगा

डॉ. श्रीगोपालनारसन

गंगाः एक नजर में

-जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री
-राजनाथ सिंह, केंद्रीय गृहमंत्री, भारतीय सरकार
-अरुण जेटली, वित्त मंत्री भारत सरकार
-उमा भारती, केंद्रीय जल संसाधन मंत्री (राष्ट्रीय संवाद ‘गंगा मंथन के दौरान)
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