इसी साल अप्रैल माह में नेपाल में आये विनाशकारी भूकम्प ने साबित कर दिया है कि इस भूभाग में भूकम्प का सबसे ज्यादा खतरा देश के हिमालय और उसके आस-पास के क्षेत्र पर मँडरा रहा है। यह सब हिमालय की अनदेखी का परिणाम है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। यह भूकम्प हिरोशिमा पर बरसाये परमाणु बम से 504.4 गुना ताकतवर था।
यदि इस भूकम्प का केन्द्र ज़मीन के अन्दर ज्यादा गहराई में न होता तो यह नेपाल के साथ-साथ भारत और समूचे दक्षिण एशिया के लिये और अधिक विनाशकारी होता। इससे पड़ोसी देशों खासकर नेपाल से जुड़े भारतीय क्षेत्र में काफी तबाही हुई। इसके अलावा चीन, भूटान, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक में इसका असर पड़ा। इससे जो मानवीय क्षति हुई, उसकी भरपाई असम्भव है। वह कभी नहीं हो पाएगी।
ग़ौरतलब है कि ज्यादा गहराई में आये भूकम्प का दायरा ज्यादा होता है जिससे कम नुकसान होता है। जबकि ज़मीन की सतह के पास आये भूकम्प का दायरा कम होने से नुकसान की आशंका अधिक बनी रहती है। इस भूकम्प का केन्द्र ज़मीन की सतह से 12 किलोमीटर नीचे होने की वजह से अपेक्षाकृत नुकसान कम हुआ।
इस बारे में वाडिया हिमालयन भूविज्ञान इंस्टीट्यूट के प्रमुख डॉ. सुशील कुमार का कहना है कि अमेरिका ने जापान पर हिरोशिमा में जो परमाणु बम गिराया था, उससे 12.5 किलो टन ऑफ टीएनटी एनर्जी निकली थी, जबकि नेपाल में आये इस भूकम्प की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 7.9 थी। इससे 79 लाख टन ऑफ टीएनटी निकली।
इससे पहले 1991 में उत्तरकाशी में आये 6.5 तीव्रता वाले भूकम्प से चार करोड़ जुल्स के लगभग उर्जा उत्सर्जित हुई थी जबकि 1999 में चमोली जिले में 6.8 तीव्रता वाले भूकम्प से इससे भी ज्यादा उर्जा उत्सर्जित हुई थी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि यह हिमालयी पर्वत शृंखला लगातार आकार ले रही है जिसमें भूकम्प महती भूमिका निभाते रहे हैं।
भूकम्पों का यह सिलसिला फिलहाल थमने वाला नहीं है। इसलिये इस बारे में सोचना बेहद जरूरी हो गया है। इस बारे में कुछ भी करने से पहले हमें इस हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को ध्यान में रखना होगा। विशेषतः इस क्षेत्र में विभिन्न तरह की जारी विद्युत और खनन परियोजनाओं के बारे में गम्भीर होना बेहद जरूरी है जो कभी भी किसी प्राकृतिक आपदा की घड़ी में हमारी अदूरदर्शिता का प्रमाण भी बन सकती है।
इसमें दो राय नहीं है कि भूकम्प के विनाशकारी होेने में एक बड़ी भूमिका उस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना की होती है। अक्सर भयानक भूकम्प वहीं ज्यादा आते हैं जहाँ महाद्वीपों के हिस्से एक-दूसरे से टकराते हैं। हिमालयी क्षेत्र में नेपाल एक ऐसी ही दरार पर है। ये दरारें भारतीय उप महाद्वीप के यूरेशियन महाद्वीप से मिलने की वजह से बनी हैं।
ग़ौरतलब है कि भारतीय उप महाद्वीप हर साल 1.5 इंच की रफ्तार से यूरेशियाई महाद्वीप में मिल रहा है। इन दरारों का पता लगाना इसलिये भी काफी कठिन है क्योंकि मानसून से बहकर आई मिट्टी की मोटी परत और घने जंगल सतह पर मौजूद हैं। इस बारे में दुनिया के वैज्ञानिक लगातार इस कोशिश में हैं कि पूरी दुनिया में ऐसी दरारों का एक नक्शा बनाया जाये ताकि आपदा के वक्त सचेत हुआ जा सके।
देखा जाये तो जापान द्वीप समूह यूरेशियाई महाद्वीप से तकरीब डेढ़ करोड़ साल पहले अलग हुआ था। बहुतेरी भूगर्भीय सतहों के एक-दूसरे से टकराने और मिलने के फलस्वरूप ही यह प्रक्रिया हुई थी। जापान ज्वालामुखियों के एक क्षेत्र में आता है। दूसरी वजह से इस क्षेत्र में भूगर्भीय हलचल आम बात है। अगर समुद्र में भूकम्प आता है तो सुनामी का रूप अख्तियार करती है। यह ज्यादा विध्वंसक होती है।
दरअसल महाद्वीपों के टकराने से पैदा हुई दरारें काफी दूर-दूर तक फैली हुई होती हैं। यही कारण है कि उनके बीच की दूरी भी ज्यादा होती है और उनमें जगह भी ज्यादा होती है। इसमें दो राय नहीं कि बड़ा भूकम्प भी दशकों में एकाध बार ही आता है।
हिमालयी क्षेत्र में स्थित नेपाल में इतना भयानक भूकम्प सन् 1934 के बाद पहली बार आया। ऐसे में सरकारें और जनता भी लापरवाह हो जाती हैं। इसके विपरीत जापान और चिली जैसे देश जो समुद्र के किनारे पर स्थित हैं, वहाँ भूकम्प समुद्री प्लेटों की द्वीपों या महाद्वीपों में गतिविधि से आते हैं। इसीलिये वहाँ पर अमूमन हर साल एकाध बड़ा भूकम्प आ ही जाता है। ऐसे में यह देश भूकम्प की तबाही से बचने की तैयारी भी ज्यादा ही करते हैं।
देखा यह गया है कि जापान में अक्सर रिक्टर स्केल पर 7 से 8 की तीव्रता वाले भूकम्प आते हैं। लेकिन वहाँ पर शायद ही कभी ज्यादा जानें जाती हों। 2011 का भूकम्प एक अपवाद हो सकता है। इस बाबत विशेषज्ञों की मानें तो भूकम्प के बाद राहत और पुर्नवास में जितनी राशि खर्च होती है, उसके पाँचवें हिस्से की राशि से भूकम्प की तबाही से बचने के इंतजाम किये जा सकते हैं। सच तो यह है कि प्रकृति के प्रकोप से बचना तो मुश्किल है ही, लेकिन इस बारे में लापरवाही बरतना अक्षम्य है।
ग़ौरतलब है कि इस साल नेपाल में आये रिक्टर पैमाने पर 7.9 की तीव्रता वाले भूकम्प में हजारों की तादाद में लोग मारे गए, हजारों घायल हुए और लाखों बे-घरबार हो गए। इसकी तुलना यदि पिछले साल चिली में आये भूकम्प से करें, जो 8.2 तीव्रता वाला था, तो उसमें सिर्फ छह लोगों की ही जान गई थी। नेपाल का भूकम्प शायद ही कभी भुलाया जा सकेगा। लेकिन चिली का भूकम्प आज कितने लोगों को याद है।
चिली का भूकम्प नेपाल के भूकम्प से अधिक तीव्रता वाला होते हुए भी उसमें कम नुकसान हुआ था। कारण इसकी एक बड़ी वजह भूकम्प से बचने के इन्तजाम में है। चिली में 9.5 की तीव्रता का भूकम्प 1960 में आया था। उसमें हजारों लोगों की मौत हुई थी। उसके बाद चिली सरकार ने बचाव के इन्तजाम करने में कमर कस ली। उसने इमारतों को भूकम्परोधी बनाया।
नतीजन जान-माल का नुकसान रोका जा सका। इसके लिये दृढ़ इच्छाशक्ति और पैसे की जरूरत थी जो चिली में थी। दूसरी ओर नेपाल जो एशिया का सबसे गरीब देश है, लम्बे समय से राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। लेकिन सिर्फ पैसा और इच्छाशक्ति ही प्रकृति के प्रकोप से बचने के लिये काफी नहीं है।
जापान में सन् 2011 में जो भयानक सुनामी और भूकम्प आया, उसमें जितनी जन-धन की हानि हुई, उतनी शायद ही किसी प्राकृतिक आपदा में हुई हो। उसमें वहाँ 45,700 इमारतें नष्ट हुईं, 1,44,300 इमारतों को नुकसान हुआ और 15,891 लोग मारे गए। जबकि जापान दुनिया के सम्पन्नतम देशों में है और भूकम्प से बचने की तैयारी उससे ज्यादा किसी देश ने नहीं की होगी।
वृक्ष भूकम्पीय ऊर्जा के कुचालक के रूप में कार्य करने की क्षमता रखते हैं। वनों के अन्धाधुन्ध कटान ने भूकम्प की सम्भावनाओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। वन काटकर हम पर्यावरण विनाश के साथ-साथ भूकम्प को भी आमंत्रित कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि आज हिमालय का पर्यावरण इतना बिगड़ चुका है कि अब यहाँ मानसून का स्वागत नहीं होता है। यह विकास की एक दुखद बानगी भर है। आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय ही रक्षा कर सकता है। हिमालय को बचाने का सीधा-साधा मतलब देश की रक्षा करना है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रिक्टर स्केल पर 8 की तीव्रता वाले हर साल 10 से 20 भूकम्प आते हैं। यह एक तरह से फायदेमन्द भी है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो धरती के भीतर इतना तनाव पैदा हो जाएगा जिससे और विनाशकारी भूकम्प आने की सम्भावना बलवती हो जाती है।
भूकम्प एक ऐसी आपदा है जिसे न रोका जा सकता है और न ही इसकी भविष्यवाणी ही की जा सकती है। यह तो वास्तव में धरती के भीतर होेने वाली प्राकृतिक हलचल है। यह लगातार होती ही रहती है। भूकम्प नापने के आधुनिक उपकरण दर्शाते हैं कि धरती पर हर साल पाँच लाख भूकम्प यानी लगभग प्रति मिनट एक भूकम्प आते हैं। इनमें से एक लाख के करीब तो महसूस ही किये जाते हैं।
नियम के अनुसार भूकम्प की तीव्रता जितनी ज्यादा होगी, उसके होने की आशंका उतनी ही कम होगी। इसके हिसाब से अत्यधिक नुकसान करने वाले भूकम्प हर सदी में कुछ ही होते हैं। यह धरती की प्राकृतिक परिघटना है। इसलिये समझदारी इसी में है कि हम अपने उपलब्ध ज्ञान और कौशल से भूकम्प से बचने के उपाय करें।
यह जान लेना जरूरी है कि देश का हिमालयी इलाका ही नहीं, देश के अधिकांश इलाके पर भूकम्प का खतरा मँडरा रहा है। इसलिये इंसानी बसावट की योजना और निर्माण में भूकम्प से बचाव का समुचित ध्यान रखा जाये। इमारतें भूकम्परोधी हों, सड़कें ऐसी हों जिसे आसानी से दमकल और ऐम्बुलेंस घटनास्थल पर पहुँच सकें और लोगों को इस बात का प्रशिक्षण हो कि भूकम्प की स्थिति में लोगों को क्या और कैसे करना है और क्या नहीं करना है।
यह भी कि वनाच्छादित क्षेत्र कुछ हद तक भूकम्प की ऊर्जा तीव्रता को कम कर सकते हैं। माना जाता है कि वृक्ष भूकम्पीय ऊर्जा के कुचालक के रूप में कार्य करने की क्षमता रखते हैं। वनों के अन्धाधुन्ध कटान ने भूकम्प की सम्भावनाओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। वन काटकर हम पर्यावरण विनाश के साथ-साथ भूकम्प को भी आमंत्रित कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि आज हिमालय का पर्यावरण इतना बिगड़ चुका है कि अब यहाँ मानसून का स्वागत नहीं होता है। यह विकास की एक दुखद बानगी भर है।
आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय ही रक्षा कर सकता है। हिमालय को बचाने का सीधा-साधा मतलब देश की रक्षा करना है। इसलिये अब देर करना अपने दुर्भाग्य को दावत देना है। जहाँ तक भूकम्प का सवाल है, हमारा इतिहास यह बताता है कि इस बारे में हमारी तैयारी अधूरी है। जबकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालयी क्षेत्र में और देश के समूचे उत्तरी इलाके में बड़े भूकम्प का खतरा बरकरार है। लम्बे समय से इस क्षेत्र में बड़ा भूकम्प नहीं आया है।
इस वजह से जमीन के अन्दर ऊर्जा जमा होने का खतरा बना हुआ है। यह ऊर्जा भूकम्प के रूप में कब बाहर निकलेगी, यह कहना मुश्किल है। लेकिन खतरा बना हुआ है, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। भूकम्प विज्ञानी डॉ. हर्ष गुप्ता का मानना है कि अभी इस भूकम्प से हिमालय क्षेत्र में धरती के नीचे एकत्र भूगर्भीय ऊर्जा का सिर्फ पाँच फीसदी ही बाहर निकला है। इसलिये भविष्य में बड़े भूकम्प की आशंका को नकारा नहीं जा सकता।
उनके अनुसार पिछले 50 सालों में बड़े भूकम्प नहीं आए हैं। इससे पहले के 50 सालों में कम-से-कम चार बड़े भूकम्प शिलांग, हिमाचल, अरुणाचल और नेपाल बार्डर में आये थे। ये आठ या उससे अधिक तीव्रता वाले भूकम्प थे। इसलिये आने वाले खतरे की आशंका को दरगुजर नहीं किया जा सकता। बहरहाल इस भूकम्प ने हमें चेता दिया है कि हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं और अब तक क्या नहीं कर पाये हैं। इसलिये अब कुछ करने के सिवाय कोई चारा नहीं है।