जल, जीवन और संगीत एक दूसरे से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। जीवन जल में पैदा हुआ है, और जीवन व जल एक दूसरे के साथ चलते हैं। जल तरंग की तरह यह जानना-समझना जरूरी है कि पात्र में कितना जल है, उसमें कितना आघात करना है क्योंकि यही संगीत की मधुरता को सुनिश्चित करता है। जैसे हमारे जीवन में जीवन शैलीगत व्याधियां बढ़ी हैं, उसी तरह हमारे जीवन दर्शन की त्रुटियों ने भी हमारे जीवन में संकट को गहरा किया है। इसमें जल संकट भी शामिल है। हम जागते तब हैं, जब पानी सिर के ऊपर चला जाता है। बेंगलुरु शहर की जल आपदा भी इसी तरह की है।
जल संकट का समाधान ढूंढने के लिए हमें जल के महत्व को समझने से अधिक जल और जीवन की एकात्मकता को पहचान कर जल का सम्मान करना सीखने की जरूरत है। अध्यात्म में भी, चाहे वह कोई भी धर्म हो, हम देखते हैं कि उसमें हर जगह संस्कारों के समय जल एवं जलस्रोतों की उपस्थिति रहती है। जलसंकट की जड़ में जल को सिर्फ उपयोगिता और आर्थिक संसाधन की दृष्टि से देखने वाली सोच है। यही वजह है कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका, जो साधन-संपन्न है, जल संकट को संसाधनों के प्रबंधन की दृष्टि से देखता है, उन्हें लगता है कि वे आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं तो ज्यादा पैसे खर्च कर इसका समाधान ढूंढ़ लेंगे। शहरी समाज का जीवन जल स्रोतों से इतना दूर चला गया है कि उनसे उनका कोई प्रेम नहीं है। होगा भी कैसे? बिना परिचय के प्रेम नहीं उपजता। अगर कुएं सूख गए या तालाब सूख रहे हैं तो वे उनकी चिंता में शुमार नहीं होते। शहरी संपन्न लोग सोच के स्तर पर इतने विपन्न होते हैं कि गरीबों की तरह तत्क्षण में ही जीते है। सोचते हैं कि उनकी समस्या का समाधान वॉटर कैन दूर कर देगा। बड़ी कंपनियां उनके घरों तक पानी उपलब्ध करा देंगी। अगर भूजल का स्तर नीचे जा रहा है, तो वे अधिक शक्तिशाली मोटर लगाकर और नीचे के स्तर से जल को हासिल कर लेंगे। पर वे अपने स्तर पर समाधान में योगदान की नहीं सोचते। नहीं सोचते कि उनकी जीवन शैली में जो जल का कुप्रबंधन है, उसको भी दुरुस्त किया जाए। उन्हें सिर्फ अपनी चिंता होती है। चाहे नहाने-धोने में अधिक जल खर्च करने की बात हो या ऐसे जल, जिसे पिया भी जा सकता है, को कार धोने से लेकर घर साफ करने जैसे कामों में खर्च करना। वे उस बारे में थोड़ा भी गौर नहीं फरमाते हैं।
आजकल उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग में सुरक्षित स्वस्थ जल के नाम पर हर घर में आरओ का प्रचलन बढ़ा है, जिसमें तथाकथित बेहतर स्वास्थ्यवर्धक एक लीटर जल हासिल करने के लिए कई लीटर जल बर्बाद करना पड़ता है। बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां और फार्मा कंपनियों ने इस भय को और अधिक बढ़ाया है, ताकि लोगों को इस बात के लिए राजी किया जा सके कि जल सामुदायिक संपत्ति नहीं होकर हमारी निजी संपत्ति है। हमारे संविधान में हमें जीवन का अधिकार दिया गया है, जो मूलभूत अधिकार में शामिल है। हर किसी को स्वच्छ जल उपलब्ध कराना सरकार की जवाबदेही है पर सरकार इस जिम्मेदारी से पीछे हट रही है। समाज, जहां पहले जल को लेकर मुनाफाखोरी की बात को सामाजिक स्तर पर अत्यंत बुरा माना जाता था और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना धर्म का काम माना जाता था, भी अब बदल रहा है। रास्ते में सार्वजनिक स्थानों पर पेयजल मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों तक को उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाती थी। पर आज सार्वजनिक प्याऊ गायब हैं।
जल को लेकर बदली सोच का आलम यह है कि भ्रामक प्रचार का इस्तेमाल करते हुए 200 मिमी. पानी की बोतल को 100 रुपये तक में बेचा जाता है। इसमें किसी को किसी तरह का अपराध बोध नहीं होता। ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट और राजनीतिक लोगों की समाधान की तात्कालिक सोच और अधिक से अधिक यश पाने की लालसा ने जल संकट को और भी अधिक गहरा किया है। योजनाएं अक्सर ऊपर के स्तर पर तय की जाती हैं, जिनमें न तो स्थानीय ज्ञान का सम्मान होता है और न ही स्थानीय भागीदारी का। राजनीतिक- आर्थिक बड़े लाभ पर नजर होने की वजह से अक्सर बड़ी योजनाओं को सही समाधान के तौर पर पेश किया जाता है। राजनीतिक लाभ के लिए किसानों को सस्ती दरों पर बिजली और कृषि ऋण उपलब्ध कराते वक्त यह नहीं बताया जाता कि भूजल के अतिरिक्त दोहन और अतिशय सिंचाई से क्या समस्या आएगी जिसकी वजह से न तो किसानों को लाभ पहुंचता है और न प्रकृति को। हां, राजनीतिज्ञों और कॉरपोरेट जगत को जरूर इसका फायदा पहुंचता है। कॉरपोरेट कंपनियां आपको ऐसे उत्पाद बेचने में लग जाती हैं। अहसास कराने लगती हैं कि अगर सतही जलस्रोत और भूजल आपको जल उपलब्ध नहीं कराते हैं, तो हम आपको हवा की नमी से जल उपलब्ध करा कर देंगे। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती कि हवा में नमी कहां से आएगी। उन्हें सिर्फ अपनी चिंता होती है।
इसीलिए आजकल जल का इस्तेमाल करने वाले समाज के विभिन्न घटकों के बीच टकराव बढ़ने लगे। चाहे उद्योग बनाम कृषि का टकराव हो या फिर शहरों में अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों का किसानों के साथ जो एक ही जल स्रोत पर निर्भर होते हैं। मुनाफाखोर मध्यस्थ कंपनियां, जो टैंकरों के जरिए जल उपलब्ध कराती हैं, इस बात की चिंता नहीं करतीं कि सारा जल उनके मुनाफे के लिए नहीं है, किसी और की जरूरत के लिए भी है। भवन निर्माण उद्योग के लिए बहुमंजिला इमारतें बनाते वक्त इस बात का ख्याल नहीं रखा जाता है कि यहां दीर्घकालीन जल की उपलब्धता कैसे सुनिश्चित होगी। वे इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं करते हैं कि मकान बनाते समय वहां के स्थानीय ड्रेनेज पैटर्न किस तरह प्रभावित होंगे। इलाके के जल छाजन क्षेत्र किस तरह से प्रभावित होंगे। जमीन के नीचे कितना भूजल उपलब्ध है, और कितने लोगों के लिए कितने दिनों तक के लिए पर्याप्त है।
आपात समाधानों को हर वक्त काम पर लगाया जाता है। ऐसा ही एक उपाय रेनवाटर हार्वेस्टिंग भी है। लोगों को यह नहीं समझाया जाता है कि यह बैंक में पैसे जमा कर निकालने जैसा नहीं है। भूजल की उपलब्धता सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करती कि धरती के नीचे जल है, बल्कि इस पर भी निर्भर करती है कि मिट्टी की प्रकृति कैसी है, भूगर्भीय संरचना क्या है। जल संकट को पैदा करने में हमारे उपभोग की प्रकृति और बाजारवाद का बड़ा योगदान है। उन्होंने बाजार पर नजर रखते हुए ऐसी फसलों को बढ़ावा दिया जो नगदी फसलें थीं और जिनका निर्यात कर पैसे कमाए जा सकते थे। ये फसल ज्यादा जल की मांग करती थीं। सरकार ने सिंचाई की व्यवस्था कर ज्यादा उत्पादन और ज्यादा लगान की व्यवस्था पर ध्यान दिया। इन उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने के लिए परिवहन प्रणाली का विकास करते वक्त नदी परिवहन प्रणाली, जो ज्यादा सस्ती और प्रकृति के अनुरूप थी, के बजाय रेल परिवहन पर जोर दिया गया क्योंकि इसमें औपनिवेशिक शासन का बड़ा निवेश लगा हुआ था और शेयरधारी को मुनाफा उपलब्ध कराना था। रेल परिवहन का जाल बिछाते समय नदियों के प्रवाह मार्ग का ख्याल बिल्कुल नहीं किया गया। छोटी नदियों, जो बड़ी नदियों को जल आपूर्ति करती थीं या फिर उनके जल छाजन क्षेत्र में थीं, को नष्ट किया गया। नतीजा हुआ कि पहले छोटी नदियां सूखीं और फिर बड़ी भी सूखने लगीं।
बड़े शहरों द्वारा ली गई नदियों ने किस तरह शहर में दोनों प्रकार के जलसंकट खड़े किए हैं, इसकी गवाही मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई जैसे शहर हर साल देते रहते हैं। वे एक और साल के कुछ महीने के जल संकट से जूझते है, तो दूसरी तरफ साल के कुछ महीने जल की अधिकता से बाढ़ जैसी स्थिति का सामना करते हैं। उत्तर की तुलना में दक्षिण में जल संकट ज्यादा तीखा है। एक ओर जहां यहां की नदियां हिमालय से निकलने वाली नदियों की सराह सदानीरा नहीं है, वहीं वहां पूरे साल नदी में पानी नहीं रहता है। दूसरा, वर्षा की मात्रा भी उत्तर और उत्तर-पूर्व के मुकाबले कम होती है। कहाँ खेती की प्रकृति में आया बदलाव भी जल संकट को बहाने में योगदान देता है। दक्षिण में मिट्टी की भूगर्भीय संरचना उत्तर के मुकाबले अलग है। भूजल धारण करने की क्षमता गंगा-जमुना के मैदानी इलाकों की तुलना में कम है। गंगा के मैदानी इलाकों में जलोढ़ मिट्टी है और भूजल ज्यादा उपलब्ध है। प्रदूषण से जलस्रोत भी अनुपयोगी हो गए। अतिशय देहन से भूजल प्रदूषण आर्सेनिक, क्लोरीन और नाइट्रेट प्रदूषण की समस्या भी बढ़ी है, जिसने जल संकट को और भी गहरा दिया है।