वाटरशेड प्रबंधन योजनाओं द्वारा ही भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश की जनता के लिए भविष्य की भोजन की मांग को पूरा किया जा सकेगा। यह कार्यक्रम मनुष्य को जल के कारण उत्पन्न खतरों, रोग और दोषपूर्ण जल पीने के दुष्प्रभाव से बचाता है। वाटरशेड कार्यक्रम द्वारा हरियाली और वन-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है, जो भविष्य के पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी आवश्यक है।जल का जीवन से गहरा संबंध है। पृथ्वी पर उपलब्ध जल का जितना प्रयोग हो रहा है, उससे अधिक जल प्रदूषित हो रहा है और व्यर्थ बहकर बर्बाद हो रहा है। इसलिए आज जल प्रबंधन की महती आवश्यकता है।
1. जल-संसाधन प्रबंधन एवं प्रशिक्षण योजना-
सन् 1984 में भारत सरकार केंद्रीय जल आयोग ने सिंचाई अनुसंधान एवं प्रबंध-संगठन की स्थापना की। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य सिंचाई प्रणालियों को सुधारना था। सिंचाई संस्थाओं को कुशल बनाना तथा अनुरक्षण करना इसका उद्देश्य था।
2. राष्ट्रीय जल-प्रबंध परियोजना-
भारत सरकार ने सन् 1986 में विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय जल-प्रबंध परियोजना प्रारंभ की है। इस परियोजना को भारत के कृषि-क्षेत्र को विकसित करने के उद्देश्य से प्रारंभ किया गया।
3. प्रौद्योगिकी हस्तांतरण-
केंद्रीय जल आयोग ने राज्यों के प्रतिनिधियों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का कार्यक्रम प्रारंभ किया। इसके अंतर्गत राज्यों से आए प्रतिनिधियों को कार्यशाला के आयोजन, सेमिनार, श्रम इंजीनियर के आदान-प्रदान इत्यादि कार्यक्रमों द्वारा भारत के विभिन्न राज्यों में प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण किया जाता है।
4. अधोभौमिक जल संसाधनों के लिए योजना-
केंद्रीय जल आयोग ने भारत के उन क्षेत्रों में जहां अधोभौमिक जल के उपयोग के क्षेत्र में अधिक कार्य नहीं हुआ, जैसे भारत का पूर्वी क्षेत्र, वहां नलकूप निर्माण और उन्हें क्रियाशील बनाने के लिए केंद्रीय योजना तैयार की है।
5. नवीन जल-नीति-
भारत सरकार ने 31 मार्च, 2002 से नवीन जल-नीति लागू की। इसके अंतर्गत जल-संरक्षण को एक मुख्य विषय के रूप में अगली पंचवर्षीय योजना में सम्मिलित किया गया।
1. जिन क्षेत्रों में ढाल अधिक नहीं है, उन क्षेत्रों में (मंटुआर बंध) पुश्ते लगाए जा सकते हैं, जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में किसान आपसी सहयोग से जो ऊपर, वह पुश्ता लगा ले तो उनके खेत में जब पानी भर जाएगा तो अतिरिक्त पानी नीचे के खेत में जाकर भरने लगेगा।
2. भूमिगत बांधों का निर्माण किया जाए, जिससे गैर-मानसून महीनों मे भूमिगत (नाली के जल को नदी के चैनलों में जाने से रोका जाए, इससे नदी का जल प्रदूषित होने से रोका जा सकेगा।
3. छोटे और बड़े पोखर और तालाबों का निर्माण किया जाए, जो 10 मीटर तक गहरे हों। जहां वर्षा कम होती है, उन क्षेत्रों में ऐसे आधे हेक्टेयर क्षेत्रफल के तालाबों में जल ग्रहण की क्षमता 50 हेक्टेयर तक होनी चाहिए।
4. जो क्षेत्र दूर-दूर तक फैले हैं, उन क्षेत्रों में विशेष प्रकार के तालाब बनाए जा सकते हैं, जिनमें पानी का रिसाव होता है, इन्हें सतही परिस्रवण ताल कहते हैं।
5. यदि क्षेत्र के कुएं का जलस्तर घट रहा है तो पंप की सहायता से नदी का पानी कुओं में भर दिया जाए।
6. जहां बड़ी नदियां हैं और प्रतिवर्ष बाढ़ आती है, ऐसे क्षेत्रों में नदियों की बाढ़ को उन क्षेत्रों में मोड़ देना चाहिए, जिन क्षेत्रों में कुएं और तालाब हों।
7. देश के कृषकों को यह बात समझाई जाए कि जो वर्षा का जल खेतों में भर जाता है, उन्हें खेतों से बाहर बहकर जाने से रोकने का उपाय वे स्वयं करें।
8. गांव अथवा नगर की नालियों को नदी के संपर्क से दूर रखने के लिए लोगों को जागरूक करने की योजना अमल में लाई जाए।
भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण देश के अनेक क्षेत्रों में ग्रीष्मकाल में पेयजल संकट उत्पन्न हो जाता है। प्रतिवर्ष भूमि पर गिरने वाले वर्षाजल में से 4000 घन कि.मी. अर्थात् दो-तिहाई भाग व्यर्थ बह जाता है। इसे रोकने के लिए ऊपरी छत से वर्षाजल के संरक्षण की योजना बनाई गई है।
आजकल भवन या मकान की छतें आर.सी.सी. या आर.बी.सी. तकनीक से बनाई जाती हैं, जिससे छत पर वर्षा जल का प्रभाव न पड़े। अब ऊपरी छत से वर्षाजल के संरक्षण हेतु भवन की छत से पाइप लगा दिया जाता है। भूमि पर पाइप द्वारा छत वाले पाइप को जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार से पाइप का एक किनारा वर्षाजल प्राप्त करने के लिए छत से जुड़ा होता है, वहीं उसका दूसरा सिरा भवन से कुछ आगे एक कुएं से जुड़ा होता है। यदि कुआं न हो तो पिच गड्ढा खोदा जाता है या पुनर्भरण खाई खोद दी जाती है। इस तकनीक द्वारा वर्षा का जल भूमि के अंदर पहुंचा दिया जाता है, इससे भूमिगत जलस्तर को बढ़ाया जा सकता है।
समय-समय पर भूमि के पाइप वाले सिरे की सफाई आवश्यक है, ताकि वह जाम न हो जाए। इस प्रकार समय-समय पर इसका निरीक्षण किया जाना चाहिए।
जलभारण या वाटरशेड भूमि पर एक जल निकास क्षेत्र है, जो वर्षा के बाद बहने वाले जल को किसी नदी, झील, बड़ी धारा अथवा समुद्र में मिलाता है। यह किसी भी आकार का हो सकता है। इस उपाय के अंतर्गत कृषि भूमि के लिए ही नहीं, अपितु भूमि जल-संरक्षण, अनुपजाऊ एवं बेकार भूमि का विकास, वनरोपण और वर्षाकाल के जल का संचयन कार्य किया जा सकता है।
1. वाटरशेड प्रबंधन द्वारा प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, जल और कृषि-संपदा का संरक्षण और विकास किया जा सकता है।
2. वाटरशेड प्रबंधन द्वारा भूमि पर बहने वाले वर्षाजल को रोकने की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। कृषि उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।
3. वाटरशेड प्रबंधन द्वारा वर्षाजल का संचयन करके जल पुनर्भरण का कार्य किया जा सकता है।
4. वाटरशेड प्रबंधन द्वारा वर्षाजल का संचयन करके हरियाली, वृक्ष, फसलें और घास उगाई जा सकती है।
5. वाटरशेड प्रबंधन द्वारा ग्रामीण मानवशक्ति और जल ऊर्जा-प्रणाली को विकसित किया जा सकता है।
6. वाटरशेड प्रबंधन द्वारा मानव समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है।
वाटरशेड कार्यक्रम को भारत में तीन चरणों में क्रियान्वित किया जा सकता है-
प्रथम चरण के वाटरशेड कार्यक्रम में निम्न बातें महत्वपूर्ण हैं-
1.वाटरशेड कार्यक्रम के लिए भौगोलिक क्षेत्रों का पता लगाना, उनका वर्गीकरण करना और प्राथमिकता निश्चित करना।
2. नवीन तकनीक जैसे सुदूर संवेदन द्वारा वाटरशेड कार्यक्रम का मास्टर प्लान तैयार करना।
3. आधारभूत वैज्ञानिक कार्य जैसे कंपोस्ट का प्रयोग इस कार्यक्रम में सम्मिलित करना।
4. समुचित लाभकारी निवेश का प्रारंभ करना। उदाहरणतया बैलों द्वारा हल खींचना और गाड़ी चलाना।
5. वाटरशेड संबंधी समस्त आंकड़ों को आम आदमी की पहुंच तक लाना।
6. वाटरशेड कार्यक्रम के प्रसार के लिए समुचित प्रशिक्षण प्रदान करना और जन-संचार माध्यम जैसे समाचार-पत्र, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वाटरशेड कार्यक्रम के जन-जागरूकता अभियान को बढ़ाना।
वाटरशेड कार्यक्रम हेतु भारत के संदर्भ में निम्न तथ्य महत्वपूर्ण हैं-
1. वाटरशेड कार्यक्रम में समुचित ग्रामीण प्रौद्योगिक-प्रणाली को अपनाना।
2. ऊपरी प्रदेशों और क्षेत्रों में वाटरशेड प्रबंधन करना।
3. निचले क्षेत्रों एवं तटीय प्रदेशों में इस कार्यक्रम को संचालित करना।
4. क्षेत्रीय स्तर पर डाटा बैंक स्थापित करना।
5. सक्षम कृषि-औद्योगिक आधारभूत ढांचे का निर्माण करने का प्रयास, जिसमें बिजली आपूर्ति और उन्नत बीज शामिल हैं।
6. वाटरशेड प्रबंधन के संकल्पनात्मक पहलू जैसे खाइयों की लंबाई और चौड़ाई के बीच का अंतर पर अनुसंधान।
7. वाटरशेड कार्यक्रम पर एक साथ कानून बनाना और उन्हें लागू करना।
वाटरशेड कार्यक्रम के तीसरे चरण में निम्न बातें महत्वपूर्ण हैं-
1. वाटरशेड कार्यक्रम में स्थानीय लोगों को शामिल करना।
2. प्रत्येक वाटरशेड कार्यक्रम में तकनीकी इकाइयों को शामिल करना।
3. वाटरशेड कार्य में उपयुक्त प्रौद्योगिकी तथा स्वस्थ पर्यावरण को प्राथमिकता देना।
4. वाटरशेड कार्यक्रम का केंद्रीकरण करने के लिए एक प्राकृतिक संसाधन मंत्रालय का गठन करना।
5. क्षेत्र के लोगों को पिछड़ेपन, सामाजिक अवरोधों तथा धार्मिक अनुकरण से बचाना।
वाटरशेड प्रबंधन योजनाओं द्वारा ही भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश की जनता के लिए भविष्य की भोजन की मांग को पूरा किया जा सकेगा। यह कार्यक्रम मनुष्य को जल के कारण उत्पन्न खतरों, रोग और दोषपूर्ण जल पीने के दुष्प्रभाव से बचाता है। वाटरशेड कार्यक्रम द्वारा हरियाली और वन-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है, जो भविष्य के पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी आवश्यक है।
गुरुद्वारा के पास, दयालबंद, बिलासपुर