पानी और उसके भविष्य के संकट को जिस दूर-दृष्टि से रहीम दास ने देखा, उतना तो आज की व्यवस्था और समाज भी नहीं देख पा रहा है। रहीम की इस पंक्ति का एहसास गर्मी के इस मौसम में कुछ ज्यादा ही होता है-
‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून..।’
जो पानी कल तक धार्मिक और सामाजिक सरोकार का विषय हुआ करता था, आज वह बाजार के मुनाफे का सरोकार बन गया है। नि:शुल्क स्वच्छ पानी की कल्पना अब इतिहास का विषय बन गया है। कुएँ, बाबरी और प्याऊ की संस्कृति लगभग नष्ट ही हो चुकी है। निजीकरण के दौर में पानी के निजीकरण का सवाल पानी से जुड़े भविष्य और उसके संकट को लेकर सिरहन पैदा करता है। पानी को लेकर पूरा समाज और व्यवस्था गहरी नींद में सोए हैं। पानी को लेकर संघर्ष की संस्कृति भी अपने पैर पसार रही है। पानी से जुड़े ऐसे ही सवालों की गहरी पड़ताल करती यह सामयिकी..
बोतलबन्द पानी की पहली कम्पनी 1845 में पोलैंड के मैनी शहर में लगी। इस कम्पनी का नाम था
‘पोलैंड स्प्रिंग बाटल्ड वाटर कम्पनी’
था। 1845 से आज दुनिया में दसियों हजार कम्पनियाँ इस धन्धे में लगी हुई हैं। बोतलबन्द पानी का यह कारोबार आज 100 अरब डालर पर पहुँच गया है। भारत में बोतलबन्द पानी की शुरूआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कम्पनी बिसलरी ने मुम्बई महानगर से की। शुरूआत में मिनिरल वाटर की बोतल सीसे की बनी होती थी। इस समय भारत में इस कम्पनी के 8 प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कम्पनियाँ हैं। बिसलरी का भारत के कुल बोतलबन्द पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर कब्जा है। पारले ग्रुप का बेली ब्राण्ड इस समय देश में पाँच लाख खुदरा बिक्री केन्दों पर उपलब्ध है। इस समय अकेले इस ब्राण्ड के लिए देश में 40 बॉटलिंग प्लांट काम कर रहे हैं।
आने वाले समय में देश के भीतर सबसे ज्यादा किल्लत पानी की होने वाली है। प्यास बुझाने के लिए लोगों को स्वच्छ पानी मुहैया नहीं हो पा रहा है। दिल्ली और एनसीआर में पानी की भारी किल्लत हो रही है जिसकी मुख्य वजह है पानी की अवैध ब्लैक मार्केटिंग। गर्मी के मौसम में पानी की ब्लैक मार्केटिंग करने के लिए कई कम्पनियाँ सक्रिय हो जाती हैं। यही वजह है कि आज जल उत्पादन का अधिकतर हिस्सा चोरी हो रहा है। हाल ही में पानी पर किए गए एक सर्वे के मुताबिक लगभग 100 करोड़ रुपए के जल की सालाना चोरी हो रही है।
इस बात से सभी वाकिफ हैं कि
‘जल ही जीवन है’,
फिर इसकी तरफ से हम इतने बेपरवाह क्यों हैं? क्यों इसका अथाह दोहन किया जा रहा है अगर यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो हम जिन्दगी की इस सबसे अहम जरूरत से महरूम हो जाएँगे और बूंद-बूंद पानी के लिए तरसेंगे। पानी की मौजूदा किल्लत यह संकेत देने के लिए काफी है कि आने वाले समय में, देश में स्वच्छ जल की भयावह स्थिति उत्पन्न होने वाली है। सालों से दिल्ली सरकार पानी के निजीकरण के पक्ष में हैं उनका तर्क है कि पानी को निजी हाँथों में देने से पानी की समस्या को दूर किया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो वह दिन दूर नहीं होगा जब पानी भी तेल की कीमत में बिकेगा। साथ ही इससे पानी की ब्लैक मार्केटिंग और बोतल बन्द प्रथा को बढ़ावा मिलेगा।
शहर के लोग मजबूर होकर बोतल बन्द पानी पी रहे है। क्योंकि जो साधन पानी के लिए मुहैया हैं उनका पानी इतना गन्दा है कि पीने के लायक ही नही है। इसके पीछे भी सरकार की कलाकारी है। कभी पानी में सुपरबग होने का प्रचार किया जाता है ताकि लोग पानी को खरीदकर पीये जिससे कम्पनियों और सरकार दोनों को फायदा होता है। हमारे पास जितना पानी उपलब्ध है, उसकी धड़ल्ले से ब्लैक मार्केटिंग हो रही है। ऐसा नहीं कि सरकार को इस बात की भनक नहीं है। जरूर है! सरकार खुद पानी को बड़ी-बड़ी कम्पनियों को बेच रही है। कुछ वर्ष पहले जहाँ एक बोतल पानी की कीमत चार या पाँच रुपए हुआ करती थी, वहीं अब इन बोतलों की कीमत बारह से पन्द्रह रुपए तक जा पहुँची है।
दुनिया के प्रमुख शहरों की तुलना में देश की राजधानी दिल्ली में जल की उपलब्धता बहुत कम है। यहाँ प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन जल की उपलब्धता करीब 327 लीटर है। अनुमानित तौर पर सिर्फ दिल्ली में ही सैकड़ों एमजीडी पानी की कमी महसूस की जा रही है। इस शहर में पानी की किल्लत पहले इतनी नहीं थी लेकिन जबसे यमुना किनारे बने ताल-तालाब एवं कुँए पाटे गए हैं और उनके स्थान पर बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण कराया गया तब से पानी की कमी हुई है।
यमुना के किनारे जहाँ कभी बरसात का पानी इकट्ठा होता था, उस जगह पर राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के दौरान रिहायसी खेलगाँव बना दिया गया है। यमुना के तट पर अब बड़ी-बड़ी पहाड़ जैसी इमारतें खड़ी दिखाई दे रही हैं। जाहिर है हम खुद पानी को अपने आप से दूर करते जा रहे हैं। आज दिल्ली में प्रतिदिन की पेयजल आपूर्ति सिर्फ 750 मिलियन गैलेन (एमजीडी) रह गई है। इसकी भरपाई होना भविष्य में नामुमकिन दिखता है। पानी की कमी का यह आँकड़ा प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। समय रहते अगर इस समस्या पर काबू नहीं पाया गया तो पूरा देश रेगिस्तान बनने की कगार पर पहुँच जाएगा। दिन प्रतिदिन गहराते जा रहे जल संकट ने पूरी मानव जाति को हिला कर रख दिया है। स्वयं हमारे अपने देश में तो नौबत यहाँ तक आ गई है कि नदियों के पानी के बँटवारे को लेकर कई राज्यों में हमेशा ठनी रहती है।
इन हालात को देखकर यह अवधारणा चरितार्थ होती प्रतीत हो रही है कि सम्भवत: अगला विश्वविद्ध जल को लेकर होगा। देश के कई जलाशय तो ऐसे हैं जो पिछले कुछ सालों से लगातार पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के रिहंद जिले के जलाशय की स्थापित क्षमता 399 मेगावाट है। इसके लिए अप्रैल 2005 से जनवरी 2006 तक 938 मिलियन यूनिट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन वास्तविक उत्पादन 847 मिलियन यूनिट ही हो सका। मध्य प्रदेश के गाँधी सागर में भी इसी अवधि के लक्ष्य 235 मिलियन यूनिट की तुलना में मात्र 128 मिलियन यूनिट और राजस्थान के राणा प्रताप सागर में 271 मिलियन यूनिट के लक्ष्य की तुलना में सिर्फ 203 मिलियन यूनिट विद्युत का उत्पादन हो सका। अगर अब इन तकनीकों का गम्भीरता से मूल्यांकन करके सुधार नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के सामर्थ्य की बात नहीं रह जाएगी।
इस समय भारत में बोतलबन्द पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपए का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबन्द पेय का 15 प्रतिशत है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय दुनिया की ज्यादातर बड़ी कम्पनियाँ भारत के बाजार में अपने पेय पदार्थों को बेच रही हैं। कुछ साल पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बोतलबन्द पेय पदार्थ सिर्फ यहाँ के धनी तबके की पसन्द हुआ करती थी, लेकिन आज औसत आदमी भी इन कम्पनियों का बोतलबन्द पानी और दूसरे पेय पदार्थों को खरीद रहा है। हाँलाकि यहाँ इनके माल का स्टैंडर्ड यूरोप, अमेरिका और एशिया के दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा हुआ है। इस समय हमारे देश में कुल 200 बोतलबन्द कम्पनियाँ अपना माल बेच रही हैं। भारत में बोतलबन्द पानी के व्यापार में लगी 80 प्रतिशत कम्पनियाँ देशी हैं। दुनिया में बोतलबन्द पानी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबन्द पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, 2004 में यह आँकड़ा 500 करोड़ लीटर पर पहुँच गया।
प्रदूषित वातावरण का गहरा प्रभाव जल प्रदूषण के रूप में देखने को मिल रहा है। मथुरा हो या आगरा दोनों ही शहरों का पानी सर्वाधिक प्रदूषित जल में शुमार है। स्वास्थ्य के प्रति सजगता के चलते शहरों में तो विशेष तौर पर बोतलबन्द पानी या फिर आरओ का प्रचलन देखने को मिल रहा है। प्रदूषित पानी सबसे ज्यादा बीमारियों को आमंत्रण दे रही है। यही कारण है कि आज पानी का कारेाबार तेजी से अपने बाजार में पैर पसार चुका है। इस बात की कोई गांरटी भी नहीं है कि बोतलबन्द पानी में मानकों का अनुपालन किया जा रहा है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। हर शहर में पानी के प्लांट तेजी से बढ़ रहे हैं।
प्रकृति का जीवनदायी अमोघ वरदान पानी आज बाजार के लिए मुनाफे का खरा सौदा सिद्ध हो रहा है। अब तो पानी को लेकर माफियागर्दी देखी जा सकती है। प्रमाण के तौर पर रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड देखे जा सकते हैं, जहाँ यात्रियों की सुविधा हेतु की गई जल व्यवस्था को बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन पर पानी माफिया ने पूरी तरह ध्वस्त कर रखा है। शीतल जल की प्याऊओं के गन्दगी से हालात इतने बदतर हैं कि यात्रियों का खुद पानी पीने का मन नहीं करता। पानी अगर है तो नल की टोंटी गायब है। तब ऐसे में मजबूरन आदमी को बोतल बन्द पानी का साहरा लेने को मजबूर होना पड़ता है। पानी से जुड़ी माफियागयर्दी भविष्य के संकट का संकेत है।
ब्रज धार्मिक पर्यटन का क्षेत्र है। यहाँ पानी को धार्मिक सरोकार यानी प्यासे को पानी पिलाना पुण्य वाली मान्यता का अनुपालन करते हुए आर्थिक रूप से समर्थ लोग प्याऊ का निर्माण करवाते थे और गर्मी के लिए अस्थाई प्याऊ लगवाते थे। आगरा में श्रीनाथजी जल सेवा लम्बे समय से लोगों को पानी पिलाने का काम कर रही है। गर्मी में शहर के लोगों की जुबान पर श्रीनाथजी जल सेवा का नाम स्वत: ही आ जाता है। आगरा शहर में श्रीनाथजी की प्याऊ कई स्थानों पर देखने को मिल जाएँगी। तमाम जगह प्याऊ की प्रसिद्धि की वजह से वह स्थान अपने पुराने नाम से जाने जाते हैं। ब्रज में विशेष धार्मिक महात्यमों पर ही परिक्रमा मार्गों पर अस्थाई प्याऊ लगवाते हैं। उनमें धार्मिक ट्रस्ट, समिति, व्यापारी संगठनों को गिना जा सकता है। गर्मी के दौरान ब्रज में पड़ने वाले विशेष पर्वों पर मीठे या शरबत की प्याऊ भी आपको देखने को मिल जाता है। कभी प्याऊ को लेकर लोगों में इतना उत्साह देखा जाता था कि पानी में बेला के फूलों की खुशबू होती थी तो कहीं केवड़े की और कहीं गुलाब की। लेकिन बदलती प्रयोजनवादी संस्कृति में अब ये सब बातें स्मृतियों में सिमट कर रह गई है।
मई का महीना, दोपहर का वक्त और आसमान से बरसती आग, गर्म तवे की तरह तपती धरती और सूनी सड़कें। ऐसे में आपको राह चलते प्यास लगे और प्यास में गला सूख रहा हो तब ऐसे में आस-पास ठण्डा पानी नजर न आए, उस बेचैनी और परेशानी का एहसास किया जा सकता है। पानी तलाशती इन आँखों को कुछ कदम चलने पर ठण्डा पानी मिल जाए तो यह आपके लिए अमृत से कम नहीं होगा। भीषण गर्मी के इस दौर में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र में ऐसा हाल हर शहर और कस्बे में देखा जा सकता है और पारा 45 डिग्री सेल्सियस पार कर जाता हो। गर्म हवा जानलेवा बन जाती है। आगरा, मथुरा, लखनऊ, कानपुर फिर दिल्ली ही क्यों न हो, गर्मी के मौसम शुरू होते ही मुख्य सड़कों के किनारे राहगीरों के लिए अब प्याऊ अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलती हैं। मुनाफे की बाजारवादी संस्कृति ने पानी के सरोकार को बदल दिया है।
एक जमाना था जब समाज में सामर्थवान लोग राहगीरों के लिए प्याऊ की व्यवस्था करते थे। हर तबके का आदमी-चाहे अमीर या गरीब, अपनी प्यास बुझाता था, पर अब यह बीते जमाने की स्मृति बनकर रह गई है। बदले समय में अब पानी की बोतलों का जमाना है। अगर कहीं प्याऊ है भी, तो वह गरीब वर्ग के लोग, जो पानी खरीद नहीं सकते, वे ही अपना गला तर कर लेते हैं। अभी ब्रजांचल से जुड़े हुए शहरों में गर्मी की शुरूआत के साथ ही सड़क के किनारे प्याऊ देखने को मिल जाएँगी। सड़क किनारे कई घड़े रख दिए जाते थे और एक झोपड़ीनुमा प्याऊ तैयार हो जाता था। सड़क वाली तरफ एक चौकोर छेद बनाया जाता था और वहीं से प्याऊ में तैनात आदमी प्यासे लोगों को नि:शुल्क पानी पिलाता था। गर्मी में राहगीरों के लिए प्याऊ एक मात्र साधन हुआ करती थी, तो अमीर, गरीब, स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी प्याऊ पर पानी पीते थे। लेकिन अब समय बदल चुका है। पहले लोग धोती कुर्ता पहनते थे। अब शर्ट पैंट पहनते हैं। पहले प्याऊ में जाते थे अब बोतल खरीदते हैं, जो बोतल नहीं खरीद सकता वो एक रुपए का पानी का पाउच खरीदता लेता है। बदलते समय के साथ लोग पीने वाले पानी के प्रति भी जागरुक हो गए हैं, शायद इसलिए भी कोई अब प्याऊ पर नहीं रुकते।