जल को जीवन का आधार मानने वाले जल के प्रति ही हम इतने असहिष्णु हो गए कि देश की 150 से ज्यादा जीवनदायिनी नदियों के प्रति सहिष्णुता दिखाकर उन्हें साफ एवं शुद्ध करने का ढोल पीटते रहे एवं अन्दर-ही-अन्दर असहिष्णु होकर प्रदूषित करते रहे। देश के लगभग 900 शहरों एवं कस्बों का 70 प्रतिशत गन्दा पानी बगैर परिष्कृत किये आसपास की नदियों में डाला जाता है। भूजल का स्तर न केवल नीचे जा रहा है अपितु आर्सेनिक एवं नाइेट्रट से प्रदूषित भी हो रहा है। शहरों के विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाकर हमने अपने वहाँ के प्राकृतिक जलस्रोत समाप्त कर दिये।
देश भर में असहिष्णुता पर चर्चाएँ जारी हैं। सम्बन्धित लोग इसे अपने-अपने ढंग और विचारों से समझाने का प्रयास कर रहे हैं। सभी चर्चाओं एवं विवाद में प्रकृति और पर्यावरण की ओर लालची मानव की बढ़ी हुए असहिष्णुता का कहीं कोई जिक्र नहीं है।
वैश्विक, राष्ट्रीय, स्थानीय एवं पारिवारिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर मानव ने प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति जो असहिष्णुता बरती है उसी का परिणाम है प्रदूषण एवं पर्यावरण की अन्य समस्याएँ। पेड़ पौधों, जीव जन्तुओं, वायु, जल एवं ज़मीन, किसी के प्रति भी मानव सहिष्णु नहीं है।
यदि मानव इनके प्रति सहिष्णु होता तो वैश्विक स्तर पर बड़े सम्मेलन व समझौते ग्लोबल वार्मिंग को कम करने, जलवायु परिवर्तन को रोकने तथा जैवविविधता के घटने की चिन्ता में आयोजित नहीं किये जाते।
वैश्विक स्तर की बात छोड़कर यदि हम राष्ट्रीय स्तर का परिदृश्य देखें तो ऐसा लगता है कि प्रकृति या पर्यावरण के सारे भाग हमारी असहिष्णुता के घेरे में आ गए हैं।
जल को जीवन का आधार मानने वाले जल के प्रति ही हम इतने असहिष्णु हो गए कि देश की 150 से ज्यादा जीवनदायिनी नदियों के प्रति सहिष्णुता दिखाकर उन्हें साफ एवं शुद्ध करने का ढोल पीटते रहे एवं अन्दर-ही-अन्दर असहिष्णु होकर प्रदूषित करते रहे।
देश के लगभग 900 शहरों एवं कस्बों का 70 प्रतिशत गन्दा पानी बगैर परिष्कृत किये आसपास की नदियों में डाला जाता है। भूजल का स्तर न केवल नीचे जा रहा है अपितु आर्सेनिक एवं नाइेट्रट से प्रदूषित भी हो रहा है। शहरों के विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाकर हमने अपने वहाँ के प्राकृतिक जलस्रोत समाप्त कर दिये।
वर्तमान में चेन्नई में हुआ महाजलप्रलय स्थानीय जलस्रोतों के प्रति दर्शाई असहिष्णुता का ही परिणाम था। वट सावित्री एवं आँवला नवमी पर पेड़ों की पूजा करने वाले हमारे देश में पेड़ों एवं वनों के प्रति घोर असहिष्णुता जारी है।
इस असहिष्णुता का ही परिणाम है कि देश में जहाँ उचित प्राकृतिक सन्तुलन हेतु 33 प्रतिशत भाग पर वन होना चाहिए परन्तु है केवल 22.23 प्रतिशत भाग पर ही। इनमें भी 2 से 3 प्रतिशत सघन वन है, 11 से 12 प्रतिशत मध्यम तथा 9 से 10 प्रतिशत छितरे वन है।
वनों में 80 प्रतिशत जैव विविधता पाई जाती है, परन्तु वनों के घटने से उस पर भी संकट मँडरा रहा है। 20 प्रतिशत से ज्यादा जंगली पौधों व अन्य जीवों पर विलुप्ति का खतरा है।
भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है जहाँ भरपूर जैव विविधता है परन्तु बढ़ती असहिष्णुता से इस पर संकट छा गया है। पेड़ों एवं वनों के प्रति असहिष्णुता की पराकाष्ठा सितम्बर 2015 में म.प्र. सरकार ने की जब 53 प्रजातियों के पेड़ों की लकड़ी को टी.पी. (ट्रांजिट पास) से स्वतंत्र करने का आदेश जारी किया।
असहिष्णु मानव ने इस आदेश का सहारा लेकर बेरहमी से पेड़ काटे। इस अधिकृत आदेश के जारी होने से पहले जून-जुलाई में इसके प्रारूप (जो स्वीकृत एवं अधिकृत नहीं था) को ही आदेश मानकर इतने पेड़ काट दिये कि प्रदेश भर के लकड़ी के बाजारों में 40 करोड़ रु. मूल्य की लकड़ी पहुँच गई थी।
सरकार के इस आदेश में लम्बे आयु वाले एवं पूजनीय बड़, पीपल व गुलर भी शामिल हैं। अभी दो तीन माह पूर्व ही इन्दौर शहर के विजयनगर क्षेत्र स्थित बगीचों के पेड़ों ऊपरी पत्तियोें वाले भाग केवल इसलिये काट दिये गए कि यातायात व्यवस्थित करने हेतु लगाए कमरे ठीक कार्य कर सकें।
यदि पेड़ों के प्रति सहिष्णुता होती तो कमरे के स्थान एवं ऊँचाई बदले जा सकते थे। वायु के देवता व रूप के प्रति तो ऐसी असहिष्णुता दर्शाई कि देश के ज्यादातर शहर वायु प्रदूषण से घिर गए।
देश के 50 से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की समस्या काफी गम्भीर है। देश की राजधानी दिल्ली अब प्रदूषण की भी राजधानी बन गई है। देश के 180 शहरों में से केवल केरल के दो शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर से कम है।
वायु के प्रति बरती गई असहिष्णुता का ही यह परिणाम है कि देश के लोगों की श्वसन क्षमता पश्चिम देशों के लोगों की तुलना में 25 से 30 प्रतिशत कम है। कई शहर कैंसर व अस्थमा के केन्द्र बनते जा रहे हैं।
भूमि को माँ के समान मानकर भूमि-पूजन करने वाले देश ने माँ के प्रति ही ऐसी असहिष्णुता जारी रखी कि 15 करोड़ हेक्टेयर के लगभग भूमि खराब हो गई एवं 10-12 करोड़ हेक्टेयर में पैदावार कम हो गई।
कृषि प्रधान देश में कृषि भूमि ही संकटग्रस्त है। कृषि से ही जुड़ा पशुधन भी असहिष्णुता का शिकार हो चुका है।
आज़ादी के समय देश के गाँवों में पशुओं की संख्या 20 करोड़ के लगभग थी जो अब काफी घट गई है। देश के कारख़ानों में लगभग 1500 लाख पशु एवं 3000 लाख पक्षी प्रतिवर्ष काटे जाते हैं।
विदेशी में मेढकों की पिछली टांग का आचार लोकप्रिय होने से असहिष्णुता पूर्वक इतने मेढकों का निर्यात किया कि कई क्षेत्रों में ये विलुप्ति की कगार पर पहुँच गए।
राष्ट्रीय पक्षी मोर के अवैध शिकार के समाचार हमेशा ही प्रकाशित होते रहते हैं। हाथी दाँत एवं गेंडे के सींग का बाजार भाव अधिक होने से उनका शिकार भी लगातार किया जा रहा है जिससे उनकी संख्या धीरे-धीरे घट रही है।
वर्ष 1982 में मध्य प्रदेश के खंडवा के पास दहिनाला में असहिष्णुता का एक दर्दनाक हादसा हुआ था जब कुछ वनकर्मियों ने हजारों भेड़ों का गाजर मूली की तरह कत्ले आम कर दिया।
लालची मानव की प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की लालसा एवं विज्ञान व तकनीकी के माध्यम से उसे बर्बाद करने या जरूरत से ज्यादा दोहन असहिष्णुता को ही दर्शाता है।
डॉ. ओ. पी. जोशी स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते रहते है।