लेख

तालाब सिर्फ पानी का स्रोत नहीं, संस्कृति का भी केन्द्र

Author : कुमार कृष्णन


मौजूदा समय में तालाब का संरक्षण एवं विकास एक बड़ा सवाल बन गया है। तालाब का मानव से जीवंत रिश्ता रहा है। यह एक सामूहिक और साझा संस्कृति का एक स्थल रहा है। आज तालाब सिकुड़ते जा रहे हैं। इसकी संख्या निरंतर घटती जा रही है। तालाबों के अतिक्रमण और भरे जाने की प्रक्रिया के कारण आज भूजल का संकट ज्यादा गहरा हो गया है। पानी, नदी और तालाब तीनों का पारिस्थितिकी के साथ गहरा रिश्ता रहा है। इन्हीं सवालों पर भागलपुर के कलाकेन्द्र में 'परिधि' की ओर से 'तालाब, नदी, पानी ' विषय पर संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया। संवाद कार्यक्रम में पर्यावरण से जुड़े समाजकर्मियों ने हिस्सा लिया। इस कार्यक्रम में भागलपुर तथा उसके आस-पास के तालाबों को अति​क्रमण से मुुक्त कराने और उसे जीवंत स्वरूप प्रदान करने का संकल्प लिया। एक समय था जब सिर्फ भागलपुर के शहरी क्षेत्र में सौ के करीब तालाब होते थे। विकास के मौजूदा ढाँचे इस व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है।

कार्यक्रम का आरंभ- 'जंगल हमारा है, धरती हमारी है, नदियाँ हम सबकी जान हैं' सामूहिक गीत से हुआ। ​विषय-वस्तु पर प्रकाश डालते हुए परिधि के उदय ने कहा कि झारखंड हो या छत्तीसगढ़ या बिहार सब जगह पानी का हाहाकार है। झारखंड में पहले से तालाब की संस्कृति रही है। हाल में सरकार ने यहाँ कुछ तालाब और डोभा का निर्माण कराया है। इससे ​सिंचाई तथा मछली-पालन का काम होता है। प्राकृतिक संसाधनों पर जीने का एक जरिया है तालाब। उन्होंने कहा कि मीठे पानी का सबसे बड़ा स्रोत नदी है। इसके बाद तालाब का स्थान है। तीन हिस्सा जल का होने के बाद भी मनुष्य, जानवर और धरती पानी के लिये परेशान है। जल संकट का मूल कारण मनुष्य की उसकी कारगुजारियाँ है। मात्र तीन फीसदी ही मीठा जल उपलब्ध है यानी पीने योग्य पानी। उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में तालाब न सिर्फ जलस्रोत है, बल्कि संस्कृति का केन्द्र है। हमारे धार्मिक अनुष्ठान से लेकर अन्य संस्कार तालाब के ​किनारे होते आए हैं।

मैदानी इलाके में तालाब से हम बहुत कुछ सीखते हैं। उन्होंने इस बात पर चिंता का इजहार किया कि विकास के मौजूदा स्वरूप के कारण तालाब खत्म हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि आज गौराडीड प्रखंड जहाँ हैं, वहाँ कभी तालाब हुआ करता था। प्रखंड की घोषणा होने के बाद उस इलाके में तालाब को भर ​​दिया गया। पहले जल संसाधनों के साथ लोक प्रबंधन जुड़ा हुआ था। लोक प्रबंधन खत्म होने की वजह से अतिक्रमण तथा गंदे पानी का केन्द्र हो गया है। गाँवों में शहरीकरण के प्रभाव ने तालाब के वजूद को मिटाने का काम किया है। मौजूदा समय में जिस तरह से जलसंकट का खतरा है, उस हाल में तालाबों का पुनर्जीवन जरूरी है।

रजौन प्रखंड से आए गुलशन ने कहा कि उनके प्रखंड के सुजानकोरासा में 10 एकड़ में तालाब था। उसे भर ​दिया गया और उस पर मकान आबाद हो गया। उन्होंने घोषणा की कि अपने क्षेत्र में अपनी जमीन का इस्तेमाल तालाब के रूप में करेंगे, ताकि जल संरक्षण का काम हो सके। वहीं राहुल राजीव ने कहा कि वे गोड्डा जिले के ठाकुरगंगटी प्रखंड से आते हैं। वहाँ काफी पहले सूखा पड़ा था। चांदा गाँव के लोगों ने इससे सबक लिया। चांदा में खेल का मैदान नहीं है, ​लेकिन गाँव में छह तालाब हैं। वहाँ खेती बोरिंग से नहीं होती है। खेती में तालाब के पानी का ​ही इस्तेमाल होता है। तालाब के आबाद रहने के कारण भूजल के स्तर में परिवर्तन आया है। वहाँ का लोकप्रबंधन ऐसा है कि पीसीसी सड़क के बावजूद पानी तालाब में एकत्र होता है। खेती में उपज भले ही कम या ज्यादा हो, लेकिन सूखे की नौबत नहीं आयी है।

गौराडीह के अरविंद कुमार ने कहा कि उनके यहाँ सार्वजनिक तालाब अतिक्रमण का शिकार है। 11 एकड़ में फैले दिग्धी पोखर के किनारे के पेड़ों को काट लिया गया है। वहीं नागेश्वर ने भी तालाब के अतिक्रमण की कहानी बतायी। जयकरण सत्यार्थी ने बताया कि तालाब से संस्कृति और कई तरह की मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। उनके गाँव के जिच्छौ और मरच्छौ तालाब हैं। वहाँ नि:संतान महिलाएँ संतान की कामना से स्नान करती हैं। डॉ सुनील अग्रवाल ने कहा कि 15 साल पहले भी भागलपुर में तालाब ​थे। अब उसे भर ​दिया गया है। नगर निगम क्षेत्र का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वाटर बॉडी स्थिति बहुत दयनीय है। इसके फलस्वरूप भूजल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। गोलाघाट, सबौर, मुदीचक मिरजान में कई तालाब और पोखर हुआ करते थे, लेकिन आज उसका वजूद खत्म हो गया है। पूर्णिया के किशोर ने कहा कि उनके यहाँ कसवा, जलालगढ़ में तालाब होते थे। ईंट भट्टे के खनन के कारण वे खत्म हो रहे हैं।

गंगा मुक्ति आंदोलन के रामपूजन ने कहा कि जब आदमी प्रकृति पर पूरी तरह से आश्रित था तो उसकी जीवन शैली पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी हुई थी। आधुनिकता ने जहाँ जीवन शैली को प्रभावित किया है, वहीं हर चीज के लिये बाजार पर निर्भर रहना पड़ता है। उस तालाब का पानी भी स्वच्छ था। तालाब की मिट्टी का इस्तेमाल गाँव के लोग खेत में डालने या घर लीपने के काम में करते थे। इस तरह से सफाई भी होती थी। गाँव का सामूहिक श्रम लगता था। आज स्थिति बदल गयी है। पारम्परिक ढाँचे को जब हमने ध्वस्त किया तो बाजार हावी हो गया। आटा और चावल के भाव में लोग पानी खरीद रहे हैं। भूजल लगातार दूषित हो रहा है। संवाद कार्यक्रम में सुषमा प्रिया, ललन, विक्रम सहित कई लोगों ने अपने विचार रखे।
 

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