फसलों की अच्छी गुणवत्ता और अधिक उत्पादकता के लिए पिछले कई दशकों से देश के कई राज्यों में फसल उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक बढ़ते इस्तेमाल से वायु, जल और मृदा प्रदुषण में लगातार वृद्धि हो रही है। जिसके फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान परिवेश को देखते हुए मृदा को प्रदूषित होने से बचाना अत्यंत आवश्यक है जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति का नुकसान न हो सके। इसके लिए फसलों में इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों का अनुचित व असंतुलित मात्रा में बिना सूझ-बूझ के उपयोग में कमी लाने की आवश्यकता है, अन्यथा मृदा में उपस्थित लाभकारी बैक्टीरिया व अन्य जीवों की मात्रा और उनकी सक्रियता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और इनकी अनुपस्थिति में मृदा में होने वाली अपघटन तथा विघटन आदि क्रियाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। जिससे पोषक तत्वों एवं खनिज लवणों का बहुत बड़ा हिस्सा पौधों को प्राप्त नहीं हो सकेगा। साथ ही रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती कीमतों व उनके कम उत्पादन होने की वजह से लघु व सीमांत किसान बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। आजकल फसलों का अच्छा उत्पादन लेने में जैविक उर्वरकों का उपयोग लाभदायक सिद्ध हो रहा है। जैविक उर्वरकों का उपयोग करने से खेती में उपयोग हो रहे अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों की निर्भरता में अवश्य ही कमी आएगी। साथ ही साथ प्रदूषित हो रही मृदा में भी कमी होगी। अतः फसलों से अच्छी गुणवत्ता की अधिक पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक उर्वरकों के उपयोग की पर्याप्त संभावानएं हैं। केवल एक ग्राम मिट्टी में एक बिलियन से अधिक जैविक कोशिकाएं होती हैं। जिनमें बैक्टीरिया, एक्टिनोमाइसीट तथा कवक शामिल होते हैं। ये सूक्ष्म जीव मिट्टी के कुछ कार्यों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिनमें प्रमुख हैं- पोषक तत्वों की प्राप्ति, जैविक खादों का अपघटन, नाइट्रोजन और कार्बन परिसंचरण आदि। इसके अलावा ये सूक्ष्म जीव मिट्टी के निर्माण कार्यों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सरकारी प्रयास और योजनाएं
किसानों को खेती में हरित प्रौद्योगिकियों के प्रति आकर्षित करने के लिए सरकार की ओर से अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसी क्रम में हाल ही में पीएम प्रणाम योजना की शुरुआत भी की गई है। पीएम प्रणाम योजना किसानों के लाभ के लिए है। इसमें वैकल्पिक उर्वरकों को बढ़ावा देने के लिए राज्यों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। सरकार ने रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम करने के लिए पीएम प्रणाम योजना को मंजूरी दी है। इसके तहत कोई राज्य 10 लाख टन रासायनिक खाद की खपत में 3 लाख टन कमी लाता है, तो 3,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी बचेगी। उस राज्य को 1,500 करोड़ रुपए मिलेंगे। इस योजना के प्रचार-प्रसार के लिए एक लाख से अधिक किसानों को किसान समृद्धि केंद्रों के माध्यम से प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है।
अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि रासायनिक उर्वरकों के निरंतर और बढ़ते इस्तेमाल का मृदा स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। साथ ही मृदा की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है। रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती खपत से खेती में उत्पादन लागत भी बढ़ती जा रही है। जिसके परिणामस्वरूप किसानों को मिलने वाले लाभ में भी कमी देखी जा रही है। उपरोक्त समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा जैविक खादों/उर्वरकों को प्रोत्साहन देने के लिए 'पीएम प्रणाम योजना' की शुरुआत की गई है। इस योजना के अंतर्गत रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खादों/जैविक उर्वरकों का उपयोग करने हेतु किसानों को जागरूक एवं प्रोत्साहित किया जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अधिकांश राज्यों में उर्वरकों के असंतुलित, अत्यधिक और बिना सोचे-समझे इस्तेमाल से मृदा उत्पादकता में गिरावट देखने को मिल रही है अथवा उत्पादन में स्थिरता आ रही है। पंजाब में वर्ष 2017-18 से 2022-23 के दौरान कृषि उत्पादन में 16 प्रतिशत की कमी रेकार्ड की गई है और इस अवधि में रासायनिक उर्वरकों की खपत यहां पर 10 प्रतिशत तक बढ़ी है। अन्य राज्यों में भी यह स्थिति देखने को न आए, इसीलिए 'पीएम प्रणाम योजना' का कार्यान्वयन पूरे देश में किया जा रहा है। इसी क्रम में मृदा स्वास्थ्य को सशक्त बनाए रखने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसी के साथ बंजर होती जा रही जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिए व रासायनिक उर्वरकों पर बढ़ रही निर्भरता को कम करने के लिए जैविक खादों, जैविक उर्वरकों और नैनो उर्वरकों को बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकार यह भी कोशिश कर रही है कि इससे यूरिया के बढ़ते आयात पर अंकुश लग सकेगा। साथ ही वर्ष 2025 तक इस निर्भरता को समाप्त किया जा सकेगा।
राइजोबियम सर्वाधिक प्रयोग में आने वाला जैविक उर्वरक है। विभिन्न दलहनी फसलों को नत्रजन यानी नाइट्रोजन उपलब्ध कराने के लिए अलग-अलग तरह के राइजोबियम बैक्टीरिया की आवश्यकता होती है। इस जाति के बैक्टीरिया मुख्यतः दलहनी फसलों में वायुमंडल से नाइट्रोजन की स्थिरीकरण करते हैं। ये बैक्टीरिया दलहनी फसलों की जड़ों में गाठें बनाते हैं। इन गाठों में राइजोबियम बैक्टीरिया निवास करते हैं। राइजोबियम बैक्टीरिया वायुमंडल में उपस्थित स्वतंत्र नाइट्रोजन को ग्रहण करके दलहनी फसलों को उपलब्ध कराते हैं। ये बैक्टीरिया सामान्यतः 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन मृदा में एकत्रित करते हैं। इस प्रकार दलहनी फसलों की नाइट्रोजन मांग को पूरा करने के बाद शेष बची हुई नाइट्रोजन अगली अदलहनी फसलों को प्राप्त हो जाती है। आजकल राइजोबियम बैक्टीरिया उर्वरकों का उपयोग बहुत लोकप्रिय हो रहा है। इस संबंध में किसानों को और अधिक जागरूक करने की आवश्यता है।
एजैटोबैक्टर मिट्टी व पौधों की जड़ों के आसपास मुक्त रूप से रहते हुए वायुमंडलीय नाइट्रोजन को पोषक तत्वों में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं।
एजैटोबैक्टर सभी गैर दलहनी फसलों में उपयोग किया जा सकता है। एजैटोबैक्टर पौधों की पैदावार में वृद्धि करने वाले हार्मोन भी बनाते हैं, जो फसल के विकास में सहायक होते हैं। इनके उपयोग से फसल की पैदावार में 10-20 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है। एजैटोबैक्टर जैविक उर्वरक को निम्नलिखित फसलों में उपयोग किया जा सकता है:
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के अनुसंधान फॉर्म पर गेहूं की फसल की बढ़वार और पैदावार पर एजैटोबैक्टर के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए अनेक प्रयोग किए गए। आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया गया कि अनुपचारित फसल की तुलना में एजैटोबैक्टर द्वारा उपचारित गेहूं की बढ़वार और पैदावार में सार्थक वृद्धि देखी गई। एजोस्पिरिलम जैविक उर्वरक एजोस्पिरिलम जैविक उर्वरक पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करते हैं। ये जैविक उर्वरक उन फसलों के लिए लाभकारी हैं जो गर्म व तर जलवायु में उगाई जाती हैं। इस जैविक उर्वरक से पौधों की नाइट्रोजन की आवश्यकता आंशिक रूप से पूरी हो सकती है। यह ज्वार, बाजरा, मक्का, धान, गन्ना, कपास, केला तथा अन्य फल व सब्जियों वाली फसलों के लिए उपयुक्त है। इनके उपयोग से लगभग 15 से 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेअर की बचत की जा सकती है।
इन्हें नीली हरी काई भी कहते हैं। यह वायुमंडल से लगभग 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन/हैक्टेअर प्रतिवर्ष स्थिरीकरण करती है। जिन फसलों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है वहां ये बहुत उपयोगी पायी जाती है। इसका उपयोग धान की फसल में रोपाई के 7 दिन बाद 10 किलोग्राम/हैक्टेअर की दर से किया जा सकता है। नील-हरित शैवाल सूर्य की ऊर्जा से अपना भोजन बनाती है। इसकी प्रमुख जातियों में नॉस्टाक, टोलीपोथिरिक्स, अनाबीना आदि शामिल हैं। अनेक अनुसंधानों द्वारा यह भी पाया गया है कि धान की फसल में नील-हरित शैवाल का टीका खेत में डालने से मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में सकारात्मक सुधार होता है।
अजोला जैविक उर्वरक की संस्तुति मुख्य रूप से धान की फसल के लिए ही की गई है। अजोला पानी पर तैरने वाला जलीय फर्न है, जो एलगी यानी काई (एनाबीना एजोली) के साथ संयोजन करके वातावरणीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है। यह पानी के ऊपर हरी चादर बनाती है जो बाद में लाल घूसर रंग की हो जाती है। भारत में मुख्यतः एनाबीना पीन्नाटा नामक फर्न पाया जाता है। अजोला के प्रभावी उपयोग के लिए धान के खेतों में लगभग 5-8 सेंटीमीटर पानी हमेशा भरा रहना चाहिए। इसका उपयोग 0.8-1.0 टन प्रति हैक्टेअर की दर से उपयुक्त माना जाता है। प्रयोगों द्वारा अजोला का मृदा उपचार अत्यधिक प्रभावी पाया गया है। इसका उपयोग रोपाई के 8-10 दिनों बाद लाभकारी रहता है। रोपाई से पहले या रोपाई के समय उपयोग करने से धान के पौधों को हानि पहुंचने का अंदेशा रहता है। अजोला में शुष्क भार के आधार पर 3-5 प्रतिशत नाइट्रोजन पाया जाता है। धान की फसल में अलोला का इस्तेमाल करने पर 25-30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेअर की बचत की जा सकती है।
माइकोराइजा जो कि एक फफूंद है, भी जैविक उर्वरकों की श्रेणी में आता है। लंबे समय तक खेती करने से मृदा में कुछ तत्वों की कमी हो जाती है। फसलों की जड़ें एक निश्चित गहराई तक ही पहुंच पाती हैं। मृदा की निचली सतहों से पोषक तत्वों को पौधों तक पहुंचाने के लिए माइकोराइजा बहुत उपयोगी है। इसके प्रयोग से सुदूर स्थानों से फॉस्फोरस व जिंक जैसे पोषक तत्व पौधों को आसानी से मिल जाते हैं। माइकोराइजा पौधों की जड़ों के साथ भागीदारी करके अपनी पोषण संबंधी आवश्यकता को पूरा करते हैं। ये पौधों द्वारा पानी के अवशोषण को भी बढ़ाते हैं। यह विभिन्न फल वाले पौधों, मोटे अनाजों, मूंगफली और सोयाबीन आदि के लिए उपयुक्त है।