अंधाधुंध विकास के फेर में इंसानों ने धरती का पर्यावरण गड़बड़ा दिया। आबोहवा खराब कर दी। शुरुआत विकसित देशों ने की। खामियाजा अब सभी भुगत रहे हैं। दिक्कत यह है कि गरीब देश जब यही जरूरी विकास कर रहे हैं तो उन पर शर्तें और संधियाँ थोपी जा रही हैं। आदिकाल से भारत अपने प्रकृति प्रेम के लिये जाना जाता रहा है। चूँकि अब तेज विकास उसकी बड़ी जरूरत है, लिहाजा पर्यावरण को बचाते हुए विकास के मंत्र उसे भी सीखने होंगे। इस ओर कदम बढ़ भी चले हैं। जरूरत है उसे रफ्तार देने की, लोगों को इसके प्रति जागरूक करने की और कम खपत वाली जीवनशैली अपनाने की। क्योंकि विनाश की कीमत पर हासिल विकास लोगों का भला नहीं कर सकता। इसलिये पर्यावरण को बचाते हुए अपनी ज़रूरतों को पूरी करने की कला हमें जल्दी सीखनी होगी। देश-दुनिया में ऐसे तमाम लोग, संस्थाएं इसे अपना सरोकार बना चुकी हैं। आइए, जनहित जागरण अभियान के तहत दैनिक जागरण के पर्यावरण संरक्षण के सरोकार को आत्मसात करते हुए प्रकृति को बचाएँ।
पिछले कुछ दशकों में हुए आर्थिक विकास से देश लाभांवित तो हुआ है पर हमने इसकी कीमत पर्यावरण को नुकसान पहुँचाकर चुकाई है। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक पर्यावरण नुकसान के चलते हर साल भारतीय अर्थव्यवस्था को 80 अरब डॉलर की चपत लगती है। ऐसे में टिकाऊ विकास का लक्ष्य ऐसी तकनीकों की बदौलत ही हासिल हो सकेगा जो विकास के साथ पर्यावरण भी सहेजें। इसके लिये हमें तीन स्तर पर काम करना होगा।
80 अरब डॉलर पर्यावरण को नुकसान पहुँचने से भारतीय अर्थव्यवस्था को लगने वाली सालाना चपत। |
5.7 फीसद पर्यावरण के नुकसान से होने वाली चपत की जीडीपी में हिस्सेदारी। |
टैक्स लगाकर लोगों को संसाधनों के अत्यधिक दोहन से रोका जा सकता है। इस तरह के टैक्स में मिली राशि पर्यावरण संरक्षण के काम आएगी।
टिकाऊ विकास सुनिश्चित करने के लिये देश को अपने प्राकृतिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी पर ध्यान देना होगा। साथ ही सभी तरह की पारिस्थितिकी को बचाना होगा।
विकास को मापने के पारंपरिक तरीकों से काम नहीं चलेगा। पर्यावरणीय विकास के लिये ग्रीन ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी ग्रीन जीडीपी इंडेक्स विकसित किया जाना चाहिये।
किसी को भी प्रेरित कर देने वाली यह कहानी है देहरादून के दुधई गाँव की। महज 1100 की आबादी वाले इस गाँव ने पर्यावरण प्रेम को ऐसे आत्मसात किया कि वह उनके भरण-पोषण का स्रोत बनता जा रहा है। स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों की हो रही खुली लूट को रोकने के लिये ग्रामीणों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला और जीत हासिल की। इस लड़ाई में उनका हमसफर बना बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट-2002। इसके साथ दुधई गाँव देश का ऐसा पहला गाँव बन गया, जिसने बायोडायवर्सिटी एक्ट के प्रयोग से वित्तीय लाभ कमाना शुरू कर दिया। हालाँकि अभी यह प्रारंभिक स्तर पर है, लेकिन दुधई के लोगों की यह सोच और खुद के पैरों पर खड़ा होने की पहल अन्य गाँवों के लिये भी प्रेरणास्रोत बन गई है। इस बीच उत्तराखंड बॉयोडायवर्सिटी बोर्ड ने राज्य में स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर रहे जिन संस्थानों व कंपनियों से टैक्स के रूप में एक करोड़ रुपये वसूले हैं, उसमें से एक लाख की रकम दुधई बीएमसी (बॉयोडायवर्सिटी मैनेजमेंट कमेटी) को भी मिले हैं। इससे वह गाँव में औषधीय पादपों का बगीचा तैयार कर रही है, जिससे उसकी आय में इजाफा होने की उम्मीद है।
उत्तराखंड बॉयोडायवर्सिटी बोर्ड की पहल पर 2011 में इस गाँव में सात सदस्यीय बीएमसी का गठन हुआ। बीएमसी ने सबसे पहले क्षेत्र के पर्यावरण को महफूज रखने का संकल्प लिया। तब गाँव के नजदीक बह रही स्वारना नदी में खनन माफिया नदी का सीना चीरने में लगा था। यही नहीं, पेड़ों का भी कटान हो रहा था। ग्रामीणों ने अपनी ओर से प्रयास किए, मगर कामयाबी मिली 2013 में जाकर। खनन बंद हुआ तो हरियाली लौट आई और नदी से खेतों का कटाव भी रुक गया। समिति के सामने अब वित्तीय समस्या मुँह बाए खड़ी थी। बॉयोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट में प्रावधान है कि जैविक संसाधनों को बिना बीएमसी की इजाजत के इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता।
इसी प्रावधान ने कमाई के रास्ते खोल दिए। समिति ने सेब के बगीचों पर लाभांश का तीन प्रतिशत टैक्स लेने का निर्णय लिया गया। साथ ही पेड़ों की कटाई पर भी टैक्स वसूलना तय किया गया। इसी बीच बीएमसी को बोर्ड से एक लाख रुपये मिले तो इससे जैव विविधता संरक्षण का कार्य प्रारंभ किया गया। 2016 में औषधीय बगीचा विकसित कर पौधे रोपे गए।
जैविक संसाधनों से वित्तीय लाभ कमाने की दुधई बीएमसी की पहल को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिला है। 22 मई 2016 को मुंबई में हुए अन्तरराष्ट्रीय जैव विविधता समारोह में दुधई को ‘भारत जैव विविधता पुरस्कार 2016’ से नवाजा गया।
(देहरादून के दुधई गांव से इनपुट राकेश खत्री)