yamuna river in 1856 
लेख

यमुना की दिल्ली

Author : अनुपम मिश्र

पहले हमारा समाज अक्सर ऐसी नदियों के दोनों किनारे एक खास तरह का तालाब भी बनाता था। इनमें वर्षा के पानी से ज्यादा नदी की बाढ़ का पानी जमा किया जाता था। नद्या ताल यानि नदी से भरने वाला तालाब। अब नदी के किनारे ऐसे तालाब कहां बचे हैं। इनके किनारों पर हैं स्टेडियम, सचिवालय और बड़े-बड़े मंदिर। कभी यह दिल्ली यमुना के कारण बसी थी। आज यमुना का भविष्य दिल्ली के हाथ उजड़ रहा है।

सबसे पहले तो एक छोटा-सा डिस्क्लेमर! मैं वास्तुकारों की बिरादरी से नहीं हूं। मेरी पढ़ाई-लिखाई बिलकुल साधारण-सी हुई और उसमें आर्किटेक्चर दूर-दूर तक कहीं नहीं था। जिन शहरों में पला-बढ़ा और जिन शहरों में आना-जाना हुआ करता तो वहां की गलियों में, बाजारों में घूमते फिरते दुकानों के अलावा कुछ भी बोर्ड पढ़ने को मिलते। इन बोर्डों में अक्सर वकील और डॉक्टरों के नाम लिखे दिखते। हमारे बचपन में ये बोर्ड भी थोड़े छोटे ही थे। फिर समय के साथ विज्ञापनों की आंधी में ये बोर्ड उखड़े नहीं बल्कि और मजबूत बन कर ज्यादा बड़े होते चले गए।

फिर हमारे बड़े संयुक्त परिवार में एकाध भाई डॉक्टर बना, एक वकील बना और बाद में एक भाई आर्किटेक्ट भी। दो के बोर्ड लग गए लेकिन आर्किटेक्ट भाई का बोर्ड नहीं बना। बाद में उन्हीं से पता चला कि उनके प्रोफेशन में कोई एक अच्छी एसोसिएशन है जो बड़ी सख्ती से इस बात पर जोर देती है कि उसका कोई भी मेम्बर अपने नाम और काम का विज्ञापन नहीं कर सकता।उसका नाम तो क्लाइंट्स के बीच में उसके कामों से ही फैलना चाहिए। इसलिए आज जब लैण्डस्केप आर्किटेक्चर में आपके प्यार के कारण कुछ लिखने का मौका मिल रहा है तो आर्किटेक्चर के इस सुंदर प्रोफेशन को एक जोरदार सलाम करने की इच्छा होती है। यह जानते हुए भी कि आज हमारे सभी शहरों में गुड़गांव जैसा बहुत ही भद्दा और खराब किस्म का आर्किटेक्चर, कांक्रीट और भड़कीले ग्लास का जंगल बड़ी तेजी से फैल रहा है।

आपने मुझसे उम्मीद की है कि मैं नदियों के बारे में कुछ लिखूं। इसलिए मैं अपने शहर दिल्ली और उसकी नदी यमुना से ही शुरू करता हूं।

1857 के गदर के ठीक पहले की दिल्ली। एक सुंदर, व्यवस्थित शहर के हर गुण देखे जा सकते हैं।

इसका एक बड़ा कारण है दिल्ली में उसके पूरब में बहने वाली यमुना। लेकिन यमुना कोई छोटी नदी नहीं है। यह लगभग 1300 किलोमीटर बहती है। फिर दिल्ली उजड़ कर इसी के किनारे कहीं और आगे-पीछे क्यों नहीं बसाई गई? शायद इसका एक बड़ा कारण पूरब में बहने वाली नदी के इस हिस्से के ठीक सामने कुछ करोड़ साल से खड़ी अरावली भी है। ये शहर के उत्तरी कोने से दक्षिणी कोने तक शहर को कुछ इस तरह से सुरक्षा देती है जैसी सुरक्षा इस हिस्से के अलावा यमुना के किसी और हिस्से में नहीं मिलती।

इस अरावली से छोटी-छोटी अठारह नदियां पूरी दिल्ली को उत्तर से दक्षिण में काटते हुए यमुना में आकर मिलती थीं। इसलिए दिल्ली को सिर्फ इस दिल्ली में ही बार-बार उजड़ कर बसना था। इस तरह देखें तो हम कह सकते हैं कि यमुना दिल्ली की सबसे बड़ी ‘टाउन प्लेनर’ है।

अठपुला -दिल्ली के लोधी गार्डन में अकबर के शासनकाल में बना। इसे किसी नवाब बहादुर ने बनवाया था। जाहिर है, पुल है तो नीचे नदी भी रही होगी।

हमारी पौराणिक कथाओं में वर्षा के देवता इंद्र का एक नाम पुरंदर भी है। पुर यानी शहर या किला, जहां बड़ी आबादी एक ही जगह बस गई हो। भला इंद्र को शहरों से ऐसी क्या नफरत या शिकायत थी कि जब देखो तब वह शहरों को तोड़ देता था। इसमें दोष इंद्र का नहीं, प्रायः हमारे शहरों के नियोजन का ही रहा होगा।

शहरों को तोड़ने में इंद्र का सबसे बड़ा हथियार वर्षा ही था। लेकिन दिल्ली में छोटे-बड़े आठ सौ तालाबों की उपस्थिति के कारण इंद्र का यह हथियार कारगर साबित नहीं हो पाता था। शहर के ऊपर इस कोने से उस कोने तक जब घने बादल घनी वर्षा करते थे तो हरेक मुहल्ले का, बसावट का पानी उन घरों, उन तक आने जाने वाली सड़कों को डुबोने के बदले बहुत व्यवस्थित ढंग से आसपास सोच समझकर बनाए तालाबों में भर जाता था।

हौज़-ए-शम्सी -कोई 800 साल पुराना यह सुंदर तालाब इतना बड़ा था कि इब्न-ए-बतूता इसका आकार देख कर चकित रह गए थे।

फिर दिल्ली को अंग्रेजों ने राजधानी बनाना तय किया। रायसीना हिल्स पर आज खड़ी राज करने वाली इमारतों को बनाने से पहले यहां का सर्वे करने ल्युटिन्स को हाथी पर चढ़ कर घूमना पड़ा था क्योंकि तब इस इलाके में घास का एक बड़ा जंगल था और उसकी ऊंचाई अंग्रेज आर्किटेक्ट से कम नहीं थी। आज के इंडिया इंटर नेशनल सेंटर और लोदी गार्डन के पास से एक सुंदर नदी बहती थी। इसके उस पार जाने के लिए पत्थरों का एक सुंदर और मजबूत पुल भी बना था। नदी कहीं सफदरजंग मकबरे की तरफ से आते हुए खान मार्केट के सामने होकर पुराना किले की खाई को भरते हुए यमुना से गले मिलती थी। दिल्ली ने पिछले सौ सालों में अपनी ऐसी कुछ नदियों को न जाने किस मजबूरी में नक्शों से हटा दिया है और जो बची रह गई हैं उन्हें पूरी तरह से गंदे नालों में बदल दिया है।

अब सब कुछ खोकर हम अहमदाबाद की साबरमती की तरह यमुना को भी रिवर फ्रंट बनाकर शहर की सुंदरता बढ़ाना चाहते हैं। नदियों का स्वभाव और उस हद तक प्रकृति का स्वभाव भी ड्राफ्टिंग बोर्ड पर स्केल रख कर खिंची गई सीधी लाईनों में बने का नहीं होता। यूरोप के अनेक शहरों ने कम से कम अपने हिस्से में बहने वाली शहरी नदियों को चैनल में बहाने की कोशिश जरूर की है। अपने शहरों को सुधारने के लिए ऐसी योजना यहां लाना ठीक होगा या गलत, कहना बड़ा कठिन है। लेकिन यूरोप और भारत के हमारे शहरों में बहने वाली इन नदियों में इन्हें लागू करने से पहले एक बड़ा फर्क हमेशा याद रखना चाहिए। वहां मानसून नहीं है। हमारे यहां चार महीने यानि चौमासा मानसून के लिए है। थोड़ा बहुत मौसम बदला जरूर है लेकिन अक्सर मानसून औसत पानी गिराकर ही जाता है।

अठपुला के नीचे से निकल कर यह नदी पुराना किला तक यहीं से बहती थी। आज बहती तो खान मार्केट के बगल से होकर गुजरती।

पहले हमारा समाज अक्सर ऐसी नदियों के दोनों किनारे एक खास तरह का तालाब भी बनाता था। इनमें वर्षा के पानी से ज्यादा नदी की बाढ़ का पानी जमा किया जाता था। नद्या ताल यानि नदी से भरने वाला तालाब। अब नदी के किनारे ऐसे तालाब कहां बचे हैं। इनके किनारों पर हैं स्टेडियम, सचिवालय और बड़े-बड़े मंदिर। कभी यह दिल्ली यमुना के कारण बसी थी। आज यमुना का भविष्य दिल्ली के हाथ उजड़ रहा है। शहर के तालाब मिटा दीजिए। शहर के भीतर बहने वाली नदियां पाटकर उन पर सड़कें बना दीजिए। फिर जो पानी गिरेगा वह और उसमें नदी की बाढ़ से आने वाला पानी और जोड़ लीजिए-दुखद चित्र पूरा हो जाता है। तब ऐसी मुसीबतों को प्राकृतिक आपदा या नेचुरल डिजास्टर कहना एक बड़ा धोखा होगा।

हमारे शहरी नियोजक ऐसी बातों पर भी विचार करें और इस चिंता में समाज और राज को शामिल करें तो नदियों के किनारे बसे दिल्ली जैसे शहर आबाद बने रहेंगे।

ओखला बराज पर दिल्ली से विदा लेती यमुना। उसका पानी तो पहले ही निकाल लिया जाता है। बहाव में बहता है सिर्फ मैला और उस पर पनपने वाली जलकुंभी।

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