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आर्सेनिक का कहर (Arsenic havoc)

Author : सीएसई

भारतवासी जिस भूजल को पीते हैं, उसमें जहरीला आर्सेनिक (संखिया) आखिर किस हद तक फैल चुका है? दिल्ली में एक डाॅ. के फोन ने

‘डाउन टू अर्थ'

को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में जाने पर मजबूर किया। इस देश की राजधानी से 950 किलोमीटर की दूरी पर हमने गाँव के गाँव को आर्सेनिक से प्रभावित पाया- इस तरह देश में आर्सेनिक के दूषण का एक नया नक्शा ही बन गया है। सरकार इस महामारी के बारे में किस हद तक चिन्तित है? दिल्ली में, भारतीय नागरिकों को सुरक्षित पानी की गारण्टी देने या इसकी गुणवत्ता की निगरानी करने वाले संस्थान स्थापित किए गए हैं, जो बड़ी बेशर्मी से इस समस्या से दूर भाग रहे हैं। 950 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बलिया शहर के सरकारी अधिकारियों ने भी इसी तरह से बड़े रूखे अंदाज में इसकी उपेक्षा की है। आगे की कहानी डाउन टू अर्थ के सितम्बर 15, 2004 के अंक में प्रकाशित हुई है।

दीनानाथ सिंह के बाएँ पैर में कैंसर का जख्म है, जिसमें से निरन्तर खून और मवाद निकलता रहता है। उनके पूरे शरीर में काले और सफेद धब्बे हैं। 61 वर्षीय सिंह त्वचा के कैंसर से भी पीड़ित हैं। उनके बाएँ हाथ की दो उँगलियों में फोड़े हो गए थे। इसकी वजह से उँगलियों को काटना पड़ा। उनमें कई रोग हैं, परन्तु उन सभी का कारण एक ही है- आर्सेनिक, जिसे हिन्दी में

‘संखिया’

कहा जाता है।

दीनानाथ उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एकावाना राजपुर गाँव में रहते हैं। वे जून 2004 में डॉक्टरी सलाह के लिए दिल्ली स्थित

‘आॅल इण्डिया इंस्टिट्यूट आॅफ मेडिकल साइंसेज (एम्स)’

में पहुँचे। एम्स में त्वचा विज्ञान के प्रोफेसर नीना खन्ना और उनके सहकर्मी अमित मल्होत्रा को दीनानाथ के दस्तावेज देखने के दौरान कुछ चौंका देने वाली बातें जानने को मिलीं। तारीख 12 मई, 2004 को खून की जाँच रिपोर्ट से पता चला कि दीनानाथ के शरीर में 34.40 पार्टस पर बिलियन (पीपीबी) का आर्सेनिक है, जबकि अग्रणी विष-विज्ञान नियमावलियों में मात्र 1-4 पीपीबी सीमा का ही उल्लेख किया गया है।

“खून में आर्सेनिक की इतनी ज्यादा मात्रा तभी सम्भव है, जब इसका चिरकालिक प्रभाव पड़ा हो,”

ऐसा खन्ना महसूस करती हैं। वे इस कारण ज्यादा व्याकुल थीं क्योंकि दीनानाथ बलिया के रहने वाले हैं, जहाँ भूजल में आर्सेनिक के दूषण का कोई इतिहास नहीं था। चिन्ताग्रस्त होकर उन्होंने सीएसई की पत्रिका 'डाउन टू अर्थ' को फोन किया। वे जानना चाहती थीं कि उनके मरीज की विकराल बीमारी के पीछे कौन सा सम्भावित कारण हो सकता है। हमारी तरह उन्होंने भी पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में संख्यिा के प्रकोप के बारे में सुन रखा था।

“परन्तु ये तो बलिया से हैं,”

उन्होंने कहा। फिर इन्हें क्यों? यह आर्सेनिक कहाँ से आ रहा है?

हम भी चक्कर में पड़ गए। हमने सोचा कि हो सकता है इसका स्रोत औद्योगिक हो। 'डाउन टू अर्थ' ने फैसला किया कि डाॅक्टर और उनके मरीज से इसकी दास्तां समझी जाए।

एम्स में जब 'डाउन टू अर्थ' ने दीनानाथ से उनकी बीमारी का कारण पूछा, तो उनका जबाव काफी चौंका देने वाला था। उनका मानना था कि वे अपने गाँव में जिस हैंडपम्प से पानी निकालकर पीते हैं, वह आर्सेनिक से सराबोर है।

“जो आप कह रहे हैं, उसका आपके पास क्या सबूत हैं?”

हमने पूछा।

“बनारस हिन्दूू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के डाॅक्टरों ने मुझे बताया कि हो सकता है पानी दूषित हो,”

उन्होंने जवाब दिया। हमने अपने सवाल जारी रखे।

“लेकिन क्या आपका कुआँ दूषित है?”

नहीं। बल्कि, मैं जानता नहीं हूँ। उनकी लाचारी साफ झलक रही थी।

“कृपया आप मुझे बताएँ,”

उन्होंने 'डाउन टू अर्थ' से कहा,

“क्या मेरे कुएँ में कोई समस्या है? मेरा पूरा परिवार यह पानी पीता है। मुझे पता होना चाहिए।”

कुछ विचित्र तो था

“इसका क्या सबूत है कि उनमें आर्सेनिक से होने वाली बीमारी आर्सेनिकोसिस उनके कुएँ के पानी से ही हुआ हो?”

हमने पूछा।

दीनानाथ ने अपने 39 वर्षीय बेटे, अशोक सिंह से हमारा परिचय कराया। अशोक अपने गाँव के बाहर कभी नहीं गया था। लेकिन इसकी त्वचा में भी फोड़े थे। किसी ने भी उसके खून की जाँच नहीं की थी। 'डाउन टू अर्थ' ने उसके खून की जाँच का भुगतान किया। नमूने उसी प्रयोगशाला में भेज दिए गए, जहाँ दीनानाथ के खून की जाँच हुई थी। परिणाम चौंका देने वाले थे। इस जाँच से इस बात की पुष्टि हुई कि अशोक के खून में 34.50 पीपीबी मात्रा में आर्सेनिक है।

अब हम और ज्यादा जानना चाहते थे। इस गाँव के अन्य लोगों का क्या हुआ? वैसे भी, इससे सिर्फ दीनानाथ का ही घर प्रभावित नहीं हुआ होगा। उन्होंने हमारे लिए भी एक सवाल खड़ा कर दिया।

“मुझे बताओ कि क्या मेरा कुआँ विषैला है? मुझे बताओ कि अपने परिवार वालों से मुझे क्या कहना चाहिए?”

'डाउन टू अर्थ' ने बलिया के भ्रमण का निर्णय लिया।

भयावह स्थल

सरकारी अज्ञानता, वैज्ञानिक सहायता

आर्सेनिक के स्तरों में पाया गया अंतर काफी चौंका देने वाला है

संगठन

जाँचे गए नमुनों की संख्या

अधिकतम सांद्रता (पीपीबी में

*)

न्यूनतम सांद्रता (पीपीबी में

**)

सीमा के ऊपर के नमुनों की संख्या (

%

में

#)

इंडस्ट्रीयल टॉक्सकोलॉजी रिसर्च सेन्टर

17**

30

1.2

41

जादवपुर विश्वविद्यालय

2,404

3,191

<3

55.4

*

पार्ट्स पर बिलियन,

* *

उपलब्ध रिपोर्टों के आधार पर,

#

पीपीबी की संशोधित सीमा के आधार पर 

झकझोरने वाले सबूत

'डाउन टू अर्थ' ने बलिया जिले में क्या पाया

नमूनों के प्रकार

/

उपयोगकर्ता

/

गाँव

आर्सेनिक (पीपीबी में

*

)

सीमा (पीपीबी में

*

)

पानी, दीनानाथ, राजपुर

73

10

पानी, रामसागर सिंह, राजपुर

47

10

पानी, सामुदायिक हैंडपम्प, तिवारीटोला

15

10

पानी, विष्णुगौर, तिवारीटोला

129

10

बाल, रामबहादुर सिंह, राजपुर

6,310

रिक्त (सामान्य: 80-250)

बाल, जानकी देवी, चौबे छपरा

4,790

रिक्त (सामान्य: 80-250)

नाखून, मुखेश्वर सिंह पांडे, तिवारीटोला

2,480

रिक्त (सामान्य: 430-1,080)

*

पार्ट्स पर बिलियन


आस-पास के गाँवों-सुघड़ छपरा, तिवारी टोला, गंगापुर और चौबे छपरा में भ्रमण से पता चला कि यह बीमारी अच्छी तरह से फैल गई है। इन सभी गाँवों के लोग विभिन्न अवस्थाओं में आर्सेनिक से पीड़ित थे। इन सभी गाँवों में कुछ और बातें भी देखी गईं। लोग पानी पीने के लिए हैंडपम्प पर निर्भर थे, जबकि उनके घर के सामने से नदी बहती है।

“इस नदी से पानी लाने में काफी समय लगता है। हैंडपम्प इस गाँव के चप्पे-चप्पे में लगे हैं,”

दीनानाथ की पत्नी बसंती ने बताया, उनके त्वचा पर भी फोड़े हैं। किसी ने भी उन्हें नहीं बताया था कि नदी और कुएँ के बीच जीवन-मरण का अंतर है।

इन्हीं हैंडपम्पों से, जिन्हें जमीन के नीचे 27-36 मीटर गहरा खोदा गया है, उनके जीवन में आर्सेनिक का प्रवेश हुआ।

“ये हैंडपम्प 70 के दशक की शुरुआत में खोदकर लगाए गए थे। इन्हें लगाने के बाद से हमें त्वचा रोग के मामले सुनने को मिलने लगे। लेकिन किसी ने भी इन दोनों के बीच सम्बन्ध नहीं बनाया,”

ऐसा 68 वर्षीय राम बहादुर सिंह का कहना है, जो राजपुर के निवासी हैं और जिनमें वाराणसी स्थित विनीत स्किन इंस्टीट्यूट की जाँच से त्वचा के कैंसर की पुष्टि हुई है।

“हमने इससे मरने वाले लोगों की संख्या की गिनती करना बंद कर दिया है। अब तो यह नदी भी अपना रुख बदल रही है। हो सकता है कि हम आर्सेनिक से पहले इस नदी द्वारा ही मारे जाएँ,”

ऐसा उनकी बहु कांती का कहना था।

दीनानाथ का खुद का परिवार आर्सेनिक के जोखिम की दुखद मिसाल है। उनकी दो बेटियाँ- अमीता, उम्र 35 वर्ष और अंजू, उम्र 25 वर्ष पिछले दो वर्षों में गुजर गईं। अशोक की तरह अरविन्द- दीनानाथ के छोटे बेटे भी त्वचा के फोड़ों से पीड़ित हैं।

ये फोड़े सामाजिक कलंक हैं, खासकर लड़कियों के लिए।

“घाव के धब्बों के कारण कोई भी हमारे गाँव की लड़कियों से शादी करना नहीं चाहता है। गाँव के सभी लोगों को दूल्हे के परिवारवालों के सामने यह साबित करने के लिए आधे नंगे होकर घूमना पड़ता है कि समूचे गाँव को यह बीमारी लगी हुई है, हम ही सिर्फ ऐसे नहीं है।”

उर्मिला देवी ने बताया, जिन्हें अपनी बेटी रूबी के लिए वर ढूँढने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। गाँव की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है। आर्सेनिक से वो हाथ अपंग हो गए हैं जिनसे उर्वर जमीन की खेती हो सकती थी।

बेदर्दी सरकार का बर्ताव

‘स्कूल आॅफ इन्वायरमेंटल स्टडीज’

के निदेशक हैं, अपने सह-कर्मियों को बलिया भेजने का जोखिम उठाया।

“बिहार स्थित भोजपुर और बक्सर के आस-पास के क्षेत्रों की जाँच कर लेने के बाद मुझे पूरी तरह से आभास हो गया था कि बलिया दूषित हो सकता है। मैं जानता था कि इन सभी की भौगोलिक स्थिति समान है। मुझे अपने कम्प्यूटर से मदद मिली- इससे जो आँकड़े मिले उससे मेरा शक सही निकला। अतः मैंने अपने सह-शोधकर्ताओं को भेजने का निर्णय लिया। और यह प्रयास सार्थक साबित हुआ,”

चक्रवर्ती ने बताया।

उनकी टीम ने इस जिले के 55 गाँवों के 2,404 पानी के नमूनों की जाँच की। इनमें आधे से ज्यादा नमूनों में आर्सेनिक का स्तर 10 पीपीबी की भारतीय मार्गदर्शिका के मात्रा से ज्यादा था और इनमें से आठ प्रतिशत नमूनों में तो आर्सेनिक का स्तर 500 पीपीबी से भी ज्यादा पाया गया। मई 2004 में, चक्रवर्ती ने इन परिणामों को गोरखपुर स्थित उत्तर प्रदेश जल निगम के मुख्य अभियन्ता एन सी गुप्ता को भेजा।

जब गुप्ता से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने बताया,

“हमने चक्रवर्ती को इसका जवाब भेजा और उनसे पूछा कि क्या ये हमारे इण्डिया मार्क-।। के हैंडपम्प हैं जो दूषित हुए हैं। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। हम तो अपने खुद के लगाए हैंडपम्प से सरोकार रखते हैं। फिर हमने लखनऊ आधारित इंडस्ट्रीयल टाॅक्सीकाॅलोजी रिसर्च सेंटर (आईटीआरसी) से पाँच बार पानी की जाँच कराई और हमें इसमें कोई दूषण नहीं मिला। हमें इसमें कोई संदेह नहीं कि बलिया का पानी सुरक्षित है।”

इसी बीच 'डाउन टू अर्थ' को एक उलझन में डालने वाली जानकारी मिली। अप्रैल 2004 में उत्तर प्रदेश जल निगम के लखनऊ कार्यालय के अधिकारियों ने एक पुणे स्थित कम्पनी,

‘वोटेक वॉटर टेक्नॉलाॅजी प्राइवेट लिमिटेड’

से आग्रह किया कि वे पानी से आर्सेनिक दूर करने वाली झिल्लिका प्रौद्योगिकी के आधार पर बना एक उपक्रम लगाए। वोटेक के प्रबंधन निदेशक, अनिर्बान सरकार के अनुसार, अधिकारियों का कहना था कि यह जिला आर्सेनिक के भीषण दूषण की समस्या का सामना कर रहा है। वोटेक ने लखनऊ के कार्यालय में दस लाख से भी ज्यादा कीमत का एक उपक्रम भेजा, परन्तु बलिया के जल निगम कार्यालय ने यह कहते हुए इसे लेने से इन्कार कर दिया कि यहाँ ऐसा कोई दूषण नहीं है।

“इस संगठन में काफी अनिश्चितता बनी हुई है जिसका इसी बात से पता चल जाता है कि अधिकारियों को पता ही नहीं है कि यहाँ ऐसी कोई समस्या है,”

सरकार ने जोर देकर कहा। यह उपक्रम आज भी लखनऊ में पड़ा हुआ है और कम्पनी इसके भुगतान की प्रतीक्षा कर रही है।

धुंधलाते तथ्य

“यहाँ इस स्थिति पर राजनीति ज्यादा है और आर्सेनिक कम। ऐसा राजनीतिक लाभ उठाने के लिए किया जा रहा है।”

इनके उप-अभियन्ता इस्लामुद्दीन ने कहाः

“हमने सिर्फ उन्हीं स्थलों के पानी की जाँच की है, जहाँ इस दूषण की ज्यादा आवाज और चीख-चिल्लाहट है।”



इसी प्रकार, जब 'डाउन टू अर्थ' ने बलिया जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी आर.के सिंह से बातचीत की, तो उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय की खोजों की तुरन्त ही भर्त्सना कर डाली।

“इस विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के पीछे काफी हो-हल्ला हुआ है। परन्तु उनकी रिपोर्ट सही नहीं हो सकती है, क्योंकि इनके द्वारा जाँच किए गए नमूनें आर्सेनिक युक्त करार दिए गए, जोकि स्पष्ट रूप से सम्भव नहीं है।”

उनकी टिप्पणी से उनकी अज्ञानता ही झलकती है, क्योंकि रिपोर्ट में जाँच किए गए नमूनों में काफी ज्यादा अंतर पाया गया है। उन्हें आर्सेनिक के जहर के लक्षणों की कोई जानकारी नहीं है।

प्रशासन के लिए यह स्थिति सामान्य थी। जब 'डाउन टू अर्थ' ने 28 जुलाई, 2004 को सवाल खड़ा किया, तो जिला मजिस्ट्रेट विनोद कुमार मलिक ने घोषणा की कि,

“मेरे क्षेत्र में पानी के दूषण की कोई समस्या नहीं है।”

मलिक अपने सिद्धान्तों का खुलासा करने लगे।

“नदी के कटाव से गाँवों का विनाश हो सकता है, परन्तु इससे आर्सेनिक की समस्या का स्वतः समाधान निकलेगा। सम्भवतः त्वचा की समस्या पार्थेनियम के कारण उत्पन्न हुई है - जो कि एक ऐसा अपतृण है, जिससे पूरे जिले में महामारी फैल रही है।”

अंधेरा ही अंधेरा

हम आर्सेनिक की जाँच करते हैं

परन्तु अंधकार कायम है …

“जिला प्रशासन को गलत ठहराने के लिए गलत, निराधार व गैर-जिम्मेदार वक्तव्य छापे गए हैं।”

इन वक्तव्यों से जनता प्रशासन के विरुद्ध उत्तेजित हो सकती है, ऐसा इस नोटिस में कहा गया है। अभिप्राय यह है कि 'डाउन टू अर्थ' का यह लेख राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध है।

विडम्बना यह है कि यह कानूनी नोटिस यह भी कहते हैं कि

“डाउन टू अर्थ ने जान-बूझ कर बलिया गाँव की एक भंयकर तस्वीर प्रस्तुत की है। लेख के वर्णन से लगता है कि जैसे बलिया प्रशासन समस्या की जान-बूझ कर उपेक्षा कर रहा है।”

आज तक इस समस्या के समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं, यह इस बात का प्रचुर प्रमाण है कि प्रशासन सचमुच इस समस्या की जानकर अवहेलना कर रहा है। यह नोटिस मात्र 'डाउन टू अर्थ' को डराने के लिए भेजे गए थे। परन्तु बलिया प्रशासन के अधिकारियों से साक्षात्कार रिकार्डर में अभिलेखित हैं। इसलिए वे अपने वक्तव्यों को न्यायालय में अस्वीकार नहीं कर सकते।

आश्चर्यजनक और गैर-कानूनी बात यह है कि यह कानूनी नोटिस राज्य सरकार की अनुमति के बिना भेजे गए, जोकि आगे की कार्यवाही के लिए आवश्यक है (आर 17, आॅल इंडिया इण्डियन सर्विसेस (कन्डक्ट) रूल्स, 1968, बद्रीनाथ केस (1987) 4 एससीसी 654 के साथ पढ़ें तथा सीआर पीसी की धारा 199)। इसलिए, 'डाउन टू अर्थ' उलटा अधिकारियों पर मुकदमा कर सकता है। अपने वकीलों द्वारा पत्रिका ने कानूनी नोटिस का उत्तर भेजा कि वह अपने लेख का सर्मथन करता है जो कि जनता के हित में छापा गया था। जैसा कि प्रत्याशित था, इसके पश्चात बलिया प्रशासन की आरे से कोई सूचना नहीं है।

परन्तु बलिया प्रशासन के कानूनी नोटिस काफी उलझाने वाले थे। उनसे कई सवाल उठते हैंः प्रभावित जनता यदि प्रशासन से मदद नहीं माँगेगी, तो किससे मदद माँगेगी? यह प्रशासन की नहीं तो किसकी जिम्मेदारी है कि वह जनता को अराजकता से बचाए, चाहे वो पारिस्थितिकीय ही क्यों न हो?

'डाउन टू अर्थ' का ऐसे सवालों से बार-बार सामना होता है। लोग हमें लिखते हैं कि किस तरह वे मदद के लिए सरकार के ऊँचे दरवाजों तक नहीं पहुँच पाते। हमें भी इसी समस्या का सामना करना पड़ता है, हालाँकि हमारा संविधान हमें सूचना पाने का अधिकार देता है (राइट टू इन्फॉरमेशन)।

हमारी व्यवस्था किससे चलती हैः जनता के प्रति जिम्मेदारी से या जानबूझ कर की गई लापरवाही से? भारत एक महान लोकतन्त्र है। परन्तु इसमें इस नासूर को बढ़ने कैसे दिया गया है, वो भी इतने विशाक्त रूप में? इस अधिकारी तन्त्र को चलाने के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? केवल चलाने के लिए ही नहीं, बल्कि जनता के लिए व जनता के साथ चलने के लिए? स्थानीय सरकार व केन्द्रीय सरकार के बीच एक मात्र कड़ी है जिला मैजिस्ट्रेट। यदि यही कड़ी कमजोर है तो सामाजिक न्याय कैसे सुनिश्चित होगा?

सचमुच, यदि राज्य सकारात्मक रवैये की जगह नकारात्मक रवैया अपनाएगा तो केवल एक ही परिणाम हो सकता हैः ‘राष्ट्रीय हित’ में रोग व मृत्यु, जैसा कि बलिया प्रशासन के व्यवहार से प्रत्यक्ष है।

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