बाढ़ से बचाव के लिए नदियों पर बनाई गई संरचनाएं नदियों को और भी ज्यादा ताकतवर बनाती हैं जैसा कि हम तटबन्धों के मामले में देख आये हैं। नदियों पर ऊँचे-ऊँचे बाँध बनने से उनकी मारक शक्ति और भी ज्यादा बढ़ेगी। भारत में सर्वाधिक बड़े बांध महारष्ट्र और गुजरात में है। 2005 और 2006 में इन बांधों के बावजूद और उनके कारण भी वहाँ भीषण बाढ़ें आईं। इन बाधों की उपादेयता पर कम से कम बाढ़ के संदर्भ में बहस होनी चाहिए। बाढ़ के साथ जीवन यापन की विधा अभी तक पुनर्जीवित तो नहीं हो पाई है मगर यह काम देर-सबेर करना ही पड़ेगा। आधुनिक समय में फ्लड प्लेन जोनिंग की बात करने के अलावा सरकार की तरफ से कोई भी काम नहीं हुआ है। जब तक नेपाल में प्रस्तावित बांधों का भूत हमारे सिर पर सवार रहेगा तब तक इस दिशा में कोई काम होगा भी नहीं। अब यह चुनौती इंजीनियरों के लिए है कि वह बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में किसी प्यासे को एक गिलास शुद्ध पानी किस तरह पिलाते हैं? क्या वह अपनी तकनीक को एक आम आदमी के स्तर तक ला सकते हैं? क्या उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि उन्हें इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलाने में, परोक्ष रूप से ही सही, इन गरीब लोगों ने भी मदद की थी?
हमारी सारी कोशिशें बाढ़ को बर्दाश्त कर लेने की सीमा में लाने की होनी चाहिये ताकि पानी जो कि आज एक उपद्रवी शक्ति के रूप में देखा जाने लगा है, उसे एक उपयोगी संसाधन में बदला जा सके। यह काम शक्ति से नहीं युक्ति से ही संभव हो सकेगा। हम लोग ईमानदारी पूर्वक यह निर्धारित करें कि क्या संभव है और क्या नहीं? कैन्सर या एड्स का इलाज अभी संभव नहीं हो पाया है, ऐसा डॉक्टर खुलेआम कहते हैं और सारा समाज उन पर विश्वास करता है। डॉक्टरों को यह आजादी है क्योंकि उन्होंने कभी अपने ऊपर सुश्रुत, चरक या धन्वन्तरि को हावी नहीं होने दिया। समाज इंजीनियरों को वही भाषा बोलने की आजादी नहीं देता क्योंकि उसने इंजीनियरों को भगीरथ और विश्वकर्मा का खि़ताब दे रखा है। इंजीनियरों ने भी गद्गद होकर इस उपाधि को स्वीकार किया हुआ है और उनकी सारी ताकत अपनी इस छवि को बरकरार रखने में खत्म हो जाती है। अपनी इस छवि को बचाये रखने के लिए वह एक के बाद एक गलतियाँ भी करते हैं।
हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जितनी भी सिंचाई या बाढ़ नियंत्रण की योजनाएं बनती हैं उनका जीवन काल 25, 50 या 100 साल में एक बार आने वाले सर्वाधिक प्रवाह के लिए होता है। इसका मतलब यह नहीं होता कि अब कुछ भी बुरा होगा तो वह 25, 50 या 100 साल के बाद होगा। इतने एहतियात के बावजूद 100 साल में एक बार नदी में आने वाला प्रवाह कल आ सकता है। इसलिए बाढ़ नियंत्रण की सारी संरचनाएं इस बाधा से ग्रस्त रहती हैं। किसी भी संरचना की उपादेयता पर बहस तभी होती है जब विपत्ति उसे समेट लेती है। उस समय विभागीय इंजीनियर बड़ी आसानी से यह कह कर दामन झाड़ लेते हैं कि हमने तो फलां-फलां संरचना 25 साल की या 50 साल में एक बार आने वाली बाढ़ के लिए डिजाइन की थी। 100 साल वाली बाढ़ आ गई तो वह क्या कर सकते हैं? सवाल इस बात का है कि योजना के निर्माण के समय 25/50 या 100 साल की बात आम जनता के साथ कभी नहीं की जाती। उस समय तो जनता को सीधा स्वर्ग ही दिखाया जाता है। जब कोई दुर्घटना होती है तब उस वक्त जो परिस्थितियाँ पैदा होती हैं उसका मुकाबला समाज अक्सर अकेले और अपने दम पर करता है। 1984 में नवहट्टा के पास कोसी तटबन्ध का टूटना इसका एक उदाहरण है जब दुर्घटना के 10-12 दिन बाद तक कोई बाहरी सहायता वहाँ नहीं पहुँच पाई थी। क्या हमारे इंजीनियर हमें बतायेंगे कि किस जगह उनके ज्ञान और अनुभव की सीमाएं समाप्त हो जाती हैं और कहाँ से समाज की भूमिका फिर शुरू होती है? क्या समाज यह भूमिका स्वीकार करने की स्थिति में है या रहेगा और क्या वह इसकी कीमत जानता है? परियोजना, खास कर बाढ़ नियंत्रण परियोजना, के इस पहलू पर विचार विमर्श के लिए क्या हम तैयार हैं?
बाढ़ से बचाव के लिए नदियों पर बनाई गई संरचनाएं नदियों को और भी ज्यादा ताकतवर बनाती हैं जैसा कि हम तटबन्धों के मामले में देख आये हैं। नदियों पर ऊँचे-ऊँचे बाँध बनने से उनकी मारक शक्ति और भी ज्यादा बढ़ेगी। भारत में सर्वाधिक बड़े बांध महारष्ट्र और गुजरात में है। 2005 और 2006 में इन बांधों के बावजूद और उनके कारण भी वहाँ भीषण बाढ़ें आईं। इन बाधों की उपादेयता पर कम से कम बाढ़ के संदर्भ में बहस होनी चाहिए। बांध निर्माण क्षेत्र में पल रहे स्वार्थ वाले लोग और संस्थाएं बांधों के निर्माण के इस काम को हमेशा आगे बढ़ायेंगी और न चेतने पर समाज इसकी कीमत अदा करने को अभिशप्त होगा।