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भारत के जलनायक

प्राचीन वैदिक काल में ही नहीं बल्कि मध्यकाल और उसके बाद के समय में भी जल विकास और संचयन के क्षेत्रों में उत्कृष्ट निर्माण कार्य किए गए। जल विकास और संचयन के अनेक प्रमुख कार्य तो स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ ही चलाए गए जिनके निर्माण में भारतीय इंजीनियरों, स्वतंत्रता सेनानियों, रजवाड़ों और राजघरानों के शासकों और अनेक अज्ञात नायकों ने उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त करके देश में अपनी अमिट छाप लगा दी। Not only in the ancient Vedic period but also in the medieval period and thereafter, excellent construction works were done in the fields of water development and harvesting. Many major works of water development and harvesting were carried out simultaneously with the freedom struggle, in the construction of which Indian engineers, freedom fighters, rulers of princely states and royal families and many unknown heroes achieved remarkable successes and left their indelible mark in the country.

Author : वरुण गोयल, डॉ वी सी गोयल, डॉ अर्चना सरकार

यद्यपि भारत ने ब्रिटिश काल के दौरान 200 वर्ष तक अनेक दुःख झेले परंतु उस कठिन समय में भी उसकी संघर्ष की भावना में ज़रा भी कमी नहीं आई। भारत एक अमर पक्षी की भाँति अपने काले अतीत से निकलकर इस समय विश्व के प्रमुख देशों की पंक्ति में शामिल हो रहा है। प्राचीन वैदिक काल में ही नहीं बल्कि मध्यकाल और उसके बाद के समय में भी जल विकास और संचयन के क्षेत्रों में उत्कृष्ट निर्माण कार्य किए गए। जल विकास और संचयन के अनेक प्रमुख कार्य तो स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ ही चलाए गए जिनके निर्माण में भारतीय इंजीनियरों, स्वतंत्रता सेनानियों, रजवाड़ों और राजघरानों के शासकों और अनेक अज्ञात नायकों ने उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त करके देश में अपनी अमिट छाप लगा दी। 

हमारे पूर्वजों को जल संचयन और प्रबंधन का अनोखा ज्ञान था। उदाहरण के तौर पर यूनानी यात्रियों के अनुसार नहर से सिंचाई की व्यवस्था भारत के लिए नई बात नहीं थी और अर्थशास्त्र में भी इस तथ्य का उल्लेख है और दक्षिण बिहार क्षेत्र में आहार-पाइन सिंचाई प्रणाली अब भी अपनाई जा रही है। बाद में तो अनेक सूबों और रजवाड़ों ने नहरें, झीलें, जलाशय, बाँध और सिंचाई के लिए और घरेलू इस्तेमाल के लिए जल-निर्माण कार्य और सेवाएँ बनवाई। इतिहास में अनेक समर्थ भारतीय इंजीनियरों, जल योद्धाओं और अज्ञात नायकों के अनगिनत योगदान का उल्लेख है जिन्होंने अछूते क्षेत्रों की खोज करके उन्हें विकास साधनों में शामिल किया और नदियों के उद्गम का पता लगाकर विभिन्न जल व्यवस्थाएँ विकसित करके उन्हें कार्यरूप प्रदान किया और इनमें से कई जल प्रणालियाँ आज भी इस्तेमाल की जा रही हैं। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के समय के विशेष योगदान की खोजबीन के दौरान हमारे भारतीय जलनायकों के योगदान को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है; ये हैं: 'जल सत्याग्रह', 'जल-सेवाएं' और 'जल तंत्र'।

जल-सत्याग्रह

समाज के सभी वर्गों के लिए पानी उपलब्ध कराने की माँग के लिए कई विरोध-प्रदर्शन हुए। पानी के इस्तेमाल पर अनुचित अनुपात में कर लगाए जाने पर भी आक्रोश सामने आया। जमीन और वनों का पानी से बुनियादी सम्बन्ध है तथा खासकर जनजातीय क्षेत्रों में जल जंगल जमीन के मुद्दे पर अनेक विरोध-प्रदर्शन हुए। मुत्तादारों (ज़मींदारों) के खिलाफ 1862 में कोया विद्रोह शुरू किया गया था क्योंकि औपनिवेशिक शासकों ने इन ज़मीदारों को कर वसूलने का जिम्मा सौंपा था। जनजातीय लोगों ने 1879 में तमन्ना डोरा के नेतृत्व में अधिकारियों पर हमला कर दिया। 1922-24 में यही आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ जुड़ गया जिसका नेतृत्व पश्चिम गोदावरी जिले में अल्लूरी सीताराम राजू कर रहे थे। हैद्राबाद प्रांत से गोंडा जनजाति के क्रांतिकारी नेता कोमारम भीम (1901-40) ने 'जल, जंगल, जमीन' का नारा दिया जिसमें अतिक्रमण और शोषण के विरुद्ध भावना को उठाया गया था।

 जल सेवाएँ

जल सम्बन्धी विरोध करने और जल तंत्रों के निर्माण के साथ ही हमारे जल योद्धाओं और अज्ञात नायकों ने जल स्रोतों की पहचान के लिए नए क्षेत्र खोजने और जल योजनाएँ तथा संस्थान बनाने के उद्देश्य से सर्वेक्षण और खोजबीन के काम भी किए।

अमरकोट (जो अब पाकिस्तान में है) के सूद समुदाय ने अपनी पानी की जरूरतें पूरी करने के वास्ते जल संचयन और जल संग्रहण की अनेक परंपरागत तकनीकें अपनाई। अविभाजित पंजाब के कांगड़ा क्षेत्र के मुहिन, गर्ली और गढ़ गाँवों तथा आसपास के इलाकों में इस सूद समुदाय ने 1860 से 1920 की अवधि में ठीक आज के समय जैसे जल सप्लाई मिशन और पाइपों के ज़रिये पीने का पानी सप्लाई करने की योजना क्रियान्वित की थी।

फसलों की सिंचाई के लिए नहरों के पानी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने की बात पहली बार पंजाब के राजा महाराजा रणजीत सिंह ने सोची थी। उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू में ही वर्षभर पानी वाली और वर्षा के जल पर आधारित नहरों की खुदाई कराके उनका विस्तार किया गया था। लाहौर राज्य में बरसाती नहरों को और खासकर दक्षिण पश्चिम में, मुल्तान में और डेरा जाट में नहरों की खुदाई करके उनका विस्तार किया गया तथा सतलुज, चेनाब और सिंधु नदियों से इनमें पानी पहुँचाया गया।

हिमालय क्षेत्र में खोज के लिए जाने वाले पहले भारतीय खोजी नैन सिंह रावत (1830-82) थे जिनकी प्रमुख उपलब्धियों में ब्रह्मपुत्र नदी का एकदम सही उद्गम स्थल ल्हासा की सही भौगोलिक स्थिति को मानचित्र में लाना सबसे अहम मानी जाती है।

रुड़की के थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी इंजीनियर गंगाराम ने मोंटगुमरी जिले की 20,000 हेक्टेयर बंजर और असिंचित (परती) ज़मीन को लहलहाते खेतों में बदलकर इस क्षेत्र का कायापलट कर दिया। उन्होंने जलविद्युत (पनबिजली) संयंत्र की मदद से पानी को ऊपर उठाकर 1000 मील लम्बाई वाली सिंचाई नहरों के जरिए इन खेतों तक पहुँचाया तथा ये सभी निर्माण कार्य उन्होंने अपने पैसे से किए। यह अपनी तरह का सबसे बड़ा निजी प्रयास था, जिसकी पहले कभी कोई कल्पना भी नहीं की गई थी।

मूसी और अस्सी नदियों में 1908 की विनाशकारी बाढ़ आने के बाद हैदराबाद के निज़ाम महबूब अली खां ने शहर को बाढ़ से बचाने की व्यापक योजना तैयार करने का जिम्मा सर एम. विश्वेश्वरैया को सौंप दिया। पुणे के समीप मुठा नदी पर खड्गवासला बाँध और उसके समीप के जलाशय पर खड़गवासला झील का निर्माण भी सर विश्वेश्वरैया ने कराया था। यह झील पुणे के आसपास के क्षेत्रों में पानी पहुँचाने का मुख्य साधन है।

थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, रुड़की के ही एक और छात्र अजुध्यानाथ खोसला ने भाखड़ा बाँध परियोजना का सर्वेक्षण और खोज कार्य कराया था। इंजीनियर खोसला ने पंजाब प्रांत के झंग जिले में चेनाब नदी पर त्रिम्मू बराज का डिज़ाइन अपने ही तरीके से विकसित किया था और इसका निर्माण कार्य केवल दो वर्षों (1937-1939) में पूरा करा दिया ताकि बाढ़ का फालतू पानी निकल जाए। इंदिरा गाँधी नहर के जनक माने जाने वाले इंजीनियर कुंवर सैन गुप्ता ने 1940 में इस नहर के निर्माण का विचार रखा था। यह भारत की सबसे लम्बी नहर है और विश्व की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना भी यही है। थॉमसन कॉलेज के ही प्रतिभावान छात्र राजा ज्वाला प्रसाद ने 1924 में गंगा नहर ग्रिड योजना तैयार की थी।

जल तंत्र

राजघरानों और रजवाड़ों के शासकों ने जल संचयन और जल संग्रहण की अनेक सुविधाओं का निर्माण कराया था। 19वीं शताब्दी के बाद अनेक बड़े भौगोलिक और आर्थिक परिवर्तन हो रहे थे। इसी अवधि में देश में कई बार अकाल पड़ा था। अकाल और बार-बार सूखा पड़ने की स्थिति से निपटने के लिए नहरों और कुओं का बड़ी संख्या में निर्माण कराया गया। दक्षिण भारत में मुख्य रूप से कृत्रिम झीलें और तालाब बनाए गए। स्वाधीनता से कुछ पहले ही 'बहुद्देशीय जलाशयों' की परियोजनाएँ तैयार की गई।

कांगड़ा की रानी ने रानिया कुई (1890) सिंचाई प्रणाली का पुनर्निमाण कराया। इन कुओं से सिंचाई के लिए तो पानी मिलता ही था, आसपास के गाँवों में पेयजल की आपूर्ति भी होती थी। देवी अहिल्या बाई होल्कर ने इन्दौर में 1835 के आसपास बाणेश्वर मंदिर के निर्माण के साथ-साथ ही सरकारी बगीचा की बावड़ी भी बनवाई। कर्नाटक के मांड्या जिले में शिवनसमुद्र में एशिया की सबसे पहली पनबिजली परियोजना शेषाद्रि अय्यर ने शुरू की थी, जिसमें 1905 में कोलार की सोना खानों और बेंगलुरू के लिए बिजली उत्पादन शुरू हो गया था।

अहमदाबाद के समीप थोल झील अभ्यारण्य में बना जलाशय 1912 में बनवाया गया था जब बड़ौदा के महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ इस क्षेत्र के शासक थे। कोल्हापुर शहर की रणकला झील को छत्रपति शाहूजी महाराज ने 1890 के दशक में बनवाया था। 

पुणे में लोनावाला के समीप वलवान बाँध का निर्माण जमशेदजी टाटा की पहल पर 1916 में हुआ था और इससे खोपोली पनबिजली संयंत्र के लिए पानी की सप्लाई तथा लोनावाला-खंडाला और आसपास के गाँवों में पेयजल की आपूर्ति होती है।

निज़ाम सागर तेलंगाना का सबसे पुराना बाँध है। इसका निर्माण हैदाराबाद के सातवें निज़ाम मीर उस्मान अली खां ने करवाया था और इसका डिज़ाइन जाने माने इंजीनियर अली-नवाज़ जंग बहादुर ने तैयार किया था। इसका निर्माण गोदावरी की सहायक नदी मंजीरा पर 1931 में हुआ था जो तेलंगाना के कामारेड्डी जिले के अच्चमपेट और बंजापल्ले गाँवों के बीच बहती है।

पुणे जिले की मुल्शी तहसील में मुला नदी पर बना मुल्शी बाँध टाटा इंडस्ट्रीज ने 1927 में पनबिजली उत्पादन के लिए बनवाया था। जलाशय में जमा होने वाला पानी सिंचाई के काम में इस्तेमाल होता है और टाटा पावर कंपनी द्वारा संचालित भिड़ा पनबिजली परियोजना को भी उपलब्ध कराया जाता है। गाँधीवादी क्रांतिकारी सेनापति बापत के नेतृत्व में हुए मुल्शी सत्याग्रह के दौरान यह परियोजना एक मुख्य मुद्दा थी।

बीकानेर स्टेट के महाराजा गंगा सिंह ने सतलुज नदी का पानी लाकर बीकानेर राज्य में सिंचाई की व्यवस्था करने का विचार बनाया। 5 दिसंबर, 1925 को फिरोज़पुर में कनाल हैडवर्क्स की आधारशिला रखी गई और 89 मील लम्बी नहर का निर्माण कार्य 1927 में पूरा कर लिया गया था।

कर्नाटक में अर्कावती और कुमुदावती नदियों के संगम पर थिप्पागोडानाहल्ली जलाशय (1930-34) का निर्माण मैसूर के राजा चामराज वाड्यार अष्टम ने कराया था। बेंगलुरू जल प्रदाय और सीवरेज बोर्ड इसे पेयजल सप्लाई के मुख्य साधन के रूप में इस्तेमाल करता है।

केरल में पहली जल विद्युत परियोजना पल्लीवासल में महाराज श्री चितिरा थिरुनल बलराम वर्मा के शासनकाल में बनी थी। इसे तीन चरणों में 1940-42 में कमीशन किया गया था। भाखड़ा बाँध हिमाचल प्रदेश में बिलासपुर के नजदीक भाखड़ा गाँव में सतलुज नदी पर बनाया गया था। इस परियोजना के समझौते पर पंजाब के राजस्व मंत्री सर छोटूराम ने बिलासपुर के राजा के साथ नवंबर, 1944 में हस्ताक्षर करके परियोजना के प्लान को 8 जनवरी, 1945 को अंतिम रूप दिया था। इस बाँध का निर्माण 1948 में शुरू हुआ था और इंजीनियर कुंवर सिंह सैन गुप्ता की देखरेख में यह कार्य पूरा किया गया।

यह जानकर बहुत गर्व अनुभव होता है कि हमारे निष्ठावान सम्राटों, प्रतिभाशाली इंजीनियरों, देशभक्त स्वतंत्रता सेनानियों और अज्ञात नायकों ने ब्रिटिश शासन से भारत को आजाद कराने का संघर्ष करने के साथ ही किस प्रकार जल संसाधनों के विकास और जल संचयन कार्यों में इतना जबरदस्त योगदान किया।

डॉ वी. सी. गोयल रुड़‌की राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान में वैज्ञानिक 'जी' हैं और डॉ अर्चना सरकार वैज्ञानिक 'एफ' हैं तथा वरुण गोयल इसी संस्थान में रिसोर्स पर्सन (वरिष्ठ) हैं। ईमेल: veg@nihr.gov.in; archana@nihr.gov.in; varun_water09@yhahoo.co.in

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