किसी को आशा नहीं थी कि 19 अगस्त को गठित संगठन के आह्वान पर 2000 लोग अपने खर्चे से उदयपुर पहुँच जायेंगे। प्रदर्शन से पूर्व एकत्र लोग एक दूसरे से भले ही अपरिचित हों लेकिन दुख सबका एक था, प्रदर्शन में नारे क्या लगे, रैली के बाद सभा में भाषण कौन दे, यह सब भी लोगों ने वही टाउन हॉल में बैठकर निर्धारित किया और शहर के मध्य से लोगों का जुलूस गुजरा तो लोगों ने स्वयं एहसास किया कि वे अकेले नहीं हैं, वे इस क्षेत्र की एक बड़ी शक्ति हैं तथा उन्हें आज तक छला गया है। इस जुलूस रैली का सभी वर्गों में मिश्रित असर हुआ मगर इस रैली में शरीक लोगों पर इसका व्यापक असर पड़ा। रैली के बाद संभागीय आयुक्त को ज्ञापन दिया गया, उसमें यह माँग की गई कि जंगल-जमीन पर सन 1980 से पूर्व काबिज लोगों की पहचान का कार्य सरकार अपने घोषित आदेशानुसार शीघ्र करवाये और यदि यह कार्य शीघ्र नहीं हुआ तो लोग बड़ा धरना देने को मजबूर होंगे।अपने बारे में खुद निर्णय लेने, अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को सुरक्षित एवं विकसित करने तथा जीवन व संपत्ति को शाँतिपूर्ण तरीके से रख सकने के अधिकार, दुनिया भर में स्वीकृत अधिकार हैं तथा इनको सभी मान्यता देते हैं। किताबों में ये अधिकार हमारे देश में भी लिखे हुए हैं। लेकिन धरातल पर सच्चाई इसके विपरीत है। दक्षिणी राजस्थान की जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा इन अधिकारों से न केवल वंचित है वरन उसकी कल्पना करवाना भी उसके लिये दूर की बात है।
भारतीय उप महाद्वीप के आदिवासी समुदायों ने अपने अस्तित्व में आने के बाद अपनी जमीन, संसाधनों व संस्कृति पर पहली बार अंग्रेजों के जमाने में योजनाबद्ध प्रहार झेले। जिसे वे अपनी जमीन मानते थे, उनसे छीनी गई। उनके अधिकारों को रियायतों में बदल दिया गया। उनसे कहा गया कि उसकी न भाषा है, न संस्कृति है और न इतिहास। वे असभ्य जंगली हैं। उन्हें सभ्य बनाकर, कपड़े पहनाकर शिक्षित करके तबाही से बचाया जायेगा। आदिवासियों के बारे में यही नीति आजादी के बाद भी कायम रही तथा लगातार एक व्यवस्थित मुहिम चलाकर उन्हें उखाड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं।
इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिये भूमि ऐसी पवित्र चीज रही है, जिसे खरीदा, बेचा या नष्ट नहीं किया जा सकता। जमीन के बारे में इस धारणा का तात्पर्य है कि लोग न केवल अपने लिये बल्कि भावी पीढ़ियों के लिये भी जमीन व संसाधनों की देखभाल करना अपना दायित्व मानते हैं। भूमि की यह अवधारणा राज्य की चालू नीति में प्रतिकूल है, क्योंकि वर्तमान नीति के अनुसार जमीन मात्र मुनाफे का स्रोत है। जमीन व प्रकृति के बारे में लोगों की समझ तथा इनका सम्मान लोगों की साधारण जीवन शैली की आशा जगाती है और दिशा देती है कि वैकल्पिक मानव समाज कैसा होना चाहिये और कैसा हो सकता है। इसके विपरीत हमारी सरकार ने धरातल से अलग हटकर पश्चिमी चकाचौंध में खेती को स्थाई खेती की वस्तु मान लिया तथा जो भूमि खेती की नहीं मानी उसे राज्य की संपत्ति बना दिया। भूमि के सर्वेक्षण में 9 डिग्री ढलान से नीचे वाली जमीन तो पहले से ही प्रभावशाली लोगों के आधिपत्य में थी। इसके ऊपर की जमीन पर समाज के बहुसंख्यक लोग काबिज थे, वे अतिक्रमणी हो गये। इन जमीनों का लोग पीढ़ियों से बिना नुकसान पहुँचाये उपयोग करते आ रहे थे जिससे उन्हें वंचित कर दिया गया।
हमारे क्षेत्र में भूमि आधारित संसाधनों जैसे- गाँव में जंगल, चरागाह तथा पानी के स्रोत, जिन पर परम्परागत सामूहिक अधिकार थे, उन्हें छीन लिया गया। तमाम वादों एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों के बावजूद हमारे क्षेत्र के बहुसंख्यक लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं।
राष्ट्र के विकास के लिये प्रत्येक पंच-वर्षीय योजनाओं में अधिकारों का उल्लेख किया गया लेकिन सरकारी लोगों का ही मानना है कि ये प्रयास अपर्याप्त थे। विकास के पहले चरण में देश के अन्य भागों की तरह हमारे क्षेत्र में चलाये गये सामुदायिक विकास कार्यक्रमों का लाभ केवल उन्हीं लोगों तक पहुँचा, जिनके प्रशासन से सम्बन्ध थे। दूसरे चरण में विकास खंड बनाये गये, जिनके माध्यम से नौकरशाहों को दानदाताओं की तरह उभारने का प्रयास किया गया। अगले चरण में पाँचवी पंच-वर्षीय योजना के दौरान जिला व प्रखंड स्तर पर आदिवासी सघनता का क्षेत्र, सीमांकित एकीकृत क्षेत्र, विकास कार्यक्रम चलाया गया तथा इस कार्यक्रम में होने वाले खर्चे का बजट अलग दिखाया गया। आदिवासी उपयोजना पहुँच की सफलता का सूचक सरकारी क्षेत्रों में आदिवासी विकास पर होने वाला व्यय माना गया। कई अविभाज्य मदों में होने वाला खर्चा आदिवासी विकास पर दिखाया गया। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ बी.के. राय बर्मन का मानना है कि
‘हकीकत में ऐसे प्रमाण हैं कि आदिवासी उपयोजना पहुँच के तहत हुए व्यय का, आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक जीवन पर उल्टा असर हुआ है।’
यह कथन हमारे यहाँ की हकीकत से मेल खाता है। आदिवासी उपयोजना का पैसा बड़े बाँधों को बनाने में खर्च हुआ, जिसका लाभ आदिवासियों को मिलने की बजाय उन्हें विस्थापित होना पड़ा। हमारे क्षेत्र में सैकड़ों ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जहाँ विकास के नाम पर उन्हें विस्थापित तो कर दिया गया, मगर मुआवजा कुछ भी नहीं दिया गया। जहाँ कहीं थोड़ा-बहुत मुआवजा दिया गया तो व्यक्तिगत खेती का दिया गया, लेकिन सामूहिक साधनों में लोगों की हिस्सेदारी को मुआवजों के आँकलन से बाहर रखा गया।
भारत के संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों की विशिष्ट हालत को स्वीकार किया तथा संविधान में इसका प्रावधान भी रखा, लेकिन व्यवहार में कुछ भी नहीं किया गया। भारत सरकार की आदिवासी समुदाय के लिए क्या नीति होगी, इसके लिये भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किये, वे इस प्रकार हैं-
1. लोगों को स्वयं ही विकसित होने दिया जाना चाहिये। हमें उन पर कुछ थोपने से बचना चाहिये। और हमें उनकी परम्परागत संस्कृति व कलाओं को हर तरह से प्रोत्साहित करना चाहिये।
2. जमीन व जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिये।
3. हमें उनके अपने लोगों में से नेतृत्व तैयार कर प्रशिक्षित करना चाहिये जिससे वे प्रशासन व विकास का कार्य सम्भाल सके।
4. हमें इनके इलाकों पर ज्यादा प्रशासन नहीं लादना चाहिये और न ही उन पर भारी-भरकम योजनाएँ लादनी चाहिये। हमें तो बस सीधे काम करना चाहिये और वह भी उनके अपने सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा न करते हुए।
5. हमें इसके आँकड़े देखकर या कितना पैसा खर्च हुआ है जाँच करके ही परिणाम नहीं आँकने चाहिये बल्कि आँकलन यह देखकर करना चाहिये कि मानव चरित्र की गुणवत्ता कितनी बनी है।
इस कानून के तहत 1981 में बने नियमों के अंतर्गत क्षतिपूर्ति वनरोपण को लेकर :
धारा 3-2 (5) क्षतिपूरक वनरोपण के लिये गैर वन भूमि की अनुपलब्धता को केन्द्र शासन द्वारा केवल तभी विस्तार किया जायेगा जब उस राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा इस आशय का प्रमाण पत्र दिया जायेगा।
धारा 3-2 (1) गैर वन भूमि के बराबर क्षेत्र पर क्षतिपूरक वनरोपण किया जायेगा।
धारा 3-2 (6) ऊपर धारा 3-2 (1) के अपवाद स्वरूप निम्नलिखित किस्म के प्रस्तावों के सम्बन्ध में उपयोग में लाये जा रहे, अनारक्षित किये जा रहे वन क्षेत्र के दुगने अवक्रमित वन में क्षतिपूरक वनरोपण किया जायेगा।
इस प्रावधान से विकास के नाम पर वन भूमियों के उपयोग में ज्यादा आसानी हो गई। विकास परियोजनाओं में वन भूमियों के उपयोग को लेकर दोगुनी राशि का भुगतान किया तब जाकर वन भूमियों का उपयोग होने लगा।
कानून में 1988 में संशोधन किया गया एवं धारा 2 के प्रयोग के लिये वनेत्तर प्रयोजन धारा (ख) पुनर्वनरोपन से मात्र प्रयोजन के लिये, किसी वन भूमि या उसके प्रभाग को तोड़ना या काट कर साफ करना अभिप्रेत है, किन्तु इसके अंतर्गत वनों और वन प्राणियों के संरक्षण, विकास और प्रबंध से सम्बन्धित या उसका आनुषंगिक कोई कार्य अर्थात चौकियों, बिजली लाइनों, संचार स्थापना, बाढ़ और पुल, बाँधों, जल, खाई, पाइप लाइनों का निर्माण या अन्य वैसे ही प्रयोजन नहीं हैं।
कानून की धारा 2 में किये गये प्रावधानों के कारण वन क्षेत्रों में बसे वनवासियों को मौलिक सुविधायें मिलनी भी बंद हो गईं। किसी गाँव में बिजली पहुँचाना, रास्ता बनवाना है, उसके लिये भी भारत सरकार से अनुमति लेना आवश्यक है।
वन ग्रामों में स्कूल बनवाना, चिकित्सा भवन बनवाना, पेयजल के लिये कुआँ निर्माण करना भी कानून की परिधि में माना गया और भारत सरकार से अनुमति लेना आवश्यक कर दिया गया।
भारत सरकार ने 1988 जो संशोधन किये इसमें भी वन प्रबंधन एंव वन्यजीव संरक्षण को ध्यान में रखकर कुछ कार्य करने की अनुमति तो प्रदान की गई, लेकिन सदर वन क्षेत्रों में बसे आदिवासियों के विकास और उन्हें मौलिक सुविधाओं को उपलब्ध करवाये जाने की दिशा में कोई कार्यवाही नहीं की गई।
भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 20 धारा 20 अ, धारा 29 के तहत घोषित वन भूमियों पर शासन के द्वारा इस कानून के बनने से पहले अनेक कारणों से, खासकर वन प्रबंधन में मदद करने के उद्देश्य से आदिवासियों को बसाकर उन्हें कृषि करने की अनुमति भी प्रदान की थी, लेकिन काबिजों को लेकर भी कानून ने मौन साध लिया बल्कि इस कृषि के उपयोग में लाई जा रही भूमि को मालिकाना हक पर आवंटित करने के पूर्व भारत सरकार से इसी कानून के तहत अनुमति लिये जाने के प्रावधान लागू कर समतुल्य भूमि या क्षतिपूरक वनरोपन हेतु दुगनी राशि की माँग की जाती रही है।
कानून के लागू होने के बाद से ही केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारें वन भूमियों के गैर वानिकी प्रयोजन को लेकर दोहरा मापदंड अपनाती आई हैं। विकास के नाम पर वन भूमियों का गैर वानिकी उपयोग बिना अनुमति के होता आया। यह बात माननीय उच्चतम न्यायालय में दायर सिविल याचिका 202/95 के संदर्भ में सामने आई। कानून का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध दंड की व्यवस्था तो वन संरक्षण कानून में कर दी गई, लेकिन उन प्रक्रियाओं का निर्धारण 1998 में तब किया गया जब मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में कोमला परियोजनाओं को लेकर विवाद सड़कों पर उतर आया।
भारतीय वन अधिनियम की धारा 20अ के तहत औरेंज एरिया मान ली गई लाखों हेक्टेयर भूमि पर 1980 के बाद से विकास परियोजनाओं के नाम पर बिना भारत सरकार की अनुमति प्राप्त किये कब्जे किये, खुद जिला स्तरीय अधिकारियों ने उक्त भूमि आवंटित की, लेकिन जब इस तरह की भूमियों पर काबिजों के व्यवस्थापन की बात आई तो इसी कानून की आड़ लेकर इनकार किया गया।
वन संरक्षण कानून, विकास के नाम पर वन भूमियों के उपयोग एवं वनाश्रित समाज को एक बात सामने रखकर अगर विचार-विमर्श किया जाये तो यह बात बहुत ही स्पष्ट तरीके से उभरकर सामने आती है कि इस कानून की कम से कम वनाश्रित समाज के संदर्भ में व्यापक एवं गहरी समीक्षा होनी चाहिये।
माही व कड़ाना बाँध इसके उदाहरण हैं जहाँ आदिवासियों की भूमि तो परियोजना विकास के नाम पर ले ली गई परन्तु उनके व्यवस्थापन की व्यवस्था नहीं की, इसके परिणामस्वरूप सीतामाता के जंगलों में जाकर लोग बस गये। अब उन्हें वहाँ से भी बेदखल करने की तैयारी चल रही है।
जंगल-जमीन जन आन्दोलन के बैनर तले 7 सितम्बर, 1998 से यहाँ संभागीय आयुक्त कार्यालय पर सैकड़ों आदिवासियों ने वन भूमि से बेदखली के खिलाफ धरना शुरू किया और एलान किया गया कि धरना तभी समाप्त होगा जब आदिवासियों की वन भूमि से बेदखली रोकने के बारे में ठोस फैसला हो।
जंगल-जमीन जन आन्दोलन ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, पाली, उदयपुर, सिरोही जिले की आदिवासी तहसीलों से बड़ी संख्या में आदिवासी स्त्री व पुरुष टाउन हॉल पर एकत्र हुए और रैली के रूप में बापूबाजार, देहलीगेट, अस्पताल रोड, चेतक सर्कल होकर संभागीय आयुक्त कार्यालय पहुँचे। जुलूस में शामिल आदिवासी हाथों में अपनी माँगे लिखी तख्तियाँ लिये हुए थे और नारे लगा रहे थे। जुलूस संभागीय आयुक्त कार्यालय पहुँचकर सभा में बदल गया। इसी दौरान आन्दोलन के कर्ता-धर्ता-किशोर संत, भंवरसिंह चदाणा, गणेश पुरोहित, रमेश नंदवाना व विभिन्न तहसीलों से आये 15 व्यक्तियों के प्रतिनिधि मंडल ने संभागीय आयुक्त सीएस मीणा से उनके कक्ष में बातचीत की। बातचीत में अतिरिक्त आयुक्त एन के जैन अतिरिक्त जिला कलेक्टर (नग) बीआर भाटी, अपर पुलिस अधीक्षक, भारत सिंह सिसोदिया व वन विभाग के अधिकारी भी मौजूद थे। बातचीत के दौरान आन्दोलनकारी लोगों ने कहा कि जिन 12 हजार आदिवासियों की सूची उन्होंने पूर्व में प्रस्तुत की है, उन सभी मामलों में आदिवासियों की बेदखली रोकी जाये और सूची पर इसका लिखित आश्वासन दिया जाये। इसके अलावा स्वशासन कानून लागू करने की प्रकिया शुरू की जाये। आन्दोलन के कर्ता-धर्ताओं ने कहा कि वन विभाग सात साल की अवधि में भी कब्जों के नियमन की कार्रवाई पूरी नहीं कर पाया है और अब यह धरना तभी खत्म होगा जब बेदखली रोकने की घोषणा हो।
संभागीय आयुक्त ने इस पर राज्य सरकार व वन सचिव से वार्ता करने की बात कही।
धरनास्थल पर सभी वक्ताओं ने आरोप लगाया कि राज्य की भाजपा सरकार पूँजीपतियों की संरक्षक बनी हुई है जबकि गरीब आदिवासियों की माँग को लेकर उसने आँखें मूँद रखी है।
वक्ताओं ने कहा कि वर्ष 1980 से पूर्व के कब्जों के नियमन के लिये आदेश 1991 में जारी हुए, लेकिन सात साल में यह तय नहीं किया जा सका कि किसका कब्जा कहाँ है और नियमन के दायरे में आता है या नहीं। इस काम के लिये लगाये गये शिविर मखौल बनकर रह गये।
शिविरों में अधिकारी व अन्य लोग पहुँचे नहीं। जंगल-जमीन जन आन्दोलन ने अपने स्तर पर यह कार्य करके 12 हजार लोगों की सूची एक साल पहले दे दी लेकिन उस पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। वक्ताओं ने राज्य सरकार पर भेदभाव-पूर्ण नीति अपनाने का आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार ने महाजन, व्यापारी वर्ग के दवाब में आकर चुँगी समाप्त कर दी। उच्चतम न्यायालय ने वन क्षेत्र में खनन पर पाबंदी लगाई तो 6 माह में प्रस्ताव बनाकर केन्द्र को भेज दिये गये और अनुमति मिल गई लेकिन गरीब आदिवासी के कब्जों का सात साल में भी नियमन नहीं हो पाया। सरकार अपनी ही घोषणा पर अमल नहीं कर पा रही है।
दूसरे दिन यह तय हुआ कि 26 सितम्बर तक तहसीलवार धरने दिये जायेंगे। जंगल-जमीन जन आन्दोलन की ओर से यहाँ संभागीय आयुक्त कार्यालय पर आयोजित इस धरने पर मंगलवार को कोटड़ा, कुंभलगढ़, गोगुंदा, खेड़वाड़ा, सराड़ा, सलूम्बर, वल्लभनगर, गिर्वा आदि तहसीलों एवं पाली जिले की देसूरी व बाली तहसील तथा सिरोही व डूंगरपुर जिले के आदिवासी बैठे। धरना स्थाल पर सभी को जंगल-जमीन जन आन्दोलन के रमेश नंदवाना, किशोर संत, मजदूरी किसान शक्ति संगठन, भीम के शंकर सिंह आदि ने सम्बोधित किया। साथ ही नारायण लाल संत, डूंगरपुर, जागरण जन विकास समिति की राधिका, पेमा, जयसमंद, गिर्वा प्रधान धर्मा मीणा, दुर्गावती वैष्णव, महिला विकास मंच, जवान राम मीणा, गलाब तावड़, बगडून्दा, डी एस पालीवाल, आदिवासी विकास मंच, काटड़ा की न्याय संगत माँग को शीघ्र पूरा करे। वक्ताओं ने रोष व्यक्त किया कि सात वर्ष की अवधि में भी वन विभाग ने कब्जों की पहचान की कार्यवाही नहीं की इस बीच दोपहर 12 बजे जनजाति आयुक्त ने आन्दोलन के प्रतिनिधिमंडल को वार्ता के लिये आमंत्रित किया।
वार्ता में आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने आयुक्त को बताया कि जब तक जंगल-जमीन जन आन्दोलन द्वारा दी गई 12 हजार लोगों की सूची के आधार पर कब्जे नहीं हटाने का लिखित में आश्वासन नहीं दिया जाता आन्दोलन जारी रहेगा। वन विभाग के अधिकारियों ने कहा कि वे मौखिक रूप से कब्जे नहीं हटाने की बात पर सहमत हैं मगर लिखित आश्वासन नहीं दे सकते हैं। आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने बताया कि कब्जे नहीं हटाने के लिखित आश्वासन की माँग काफी लम्बा समय गुजर जाने के बाद की गई है। प्रारम्भ में आन्दोलन की माँग कब्जों के पहचान करवाने की रही मगर वन विभाग द्वारा बार-बार दिये गये आश्वासनों के बाद भी कब्जों की पहचान नहीं हुई, जिस पर आन्दोलन को अपने स्तर पर कब्जों की पहचान का कार्य करवाना पड़ा। वार्ता में कब्जों की पहचान के लिये समयबद्ध कार्यक्रम चलाने एवं जिला व संभाग स्तर पर मूल्यांकन के लिये बैठकें आयोजित किये जाने का आन्दोलन के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया। प्रशासन द्वारा लिखित आश्वासन नहीं दिये जाने पर वार्ता बीच में ही समाप्त हो गई।
उधर जिलाधीश ने उच्च स्तर पर बातचीत कर स्थिति से आन्दोलन को अवगत कराने का आश्वासन दिया। जनजाति आयुक्त के साथ हुई वार्ता से धरनार्थियों को अवगत कराया और सभी की एकमत से राय थी कि जब तक पट्टे या बेदखली नहीं करने का लिखित आश्वासन नहीं मिले तब तक धरना जारी रहेगा। धरनास्थल पर हुई सभा में उदयपुर में उच्च न्यायालय की खंडपीठ की स्थापना के चल रहे आन्दोलन को पूरा समर्थन देने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया तथा प्रस्ताव में कहा गया कि आन्दोलन में जिस तरह का सहयोग जंगल-जमीन जन आदोलन से अपेक्षित होगा, सहयोग प्रदान किया जायेगा। इस प्रस्ताव में माँग की गई कि सरकार उदयपुर में खंडपीठ की स्थापना तुरंत करें अन्यथा इस आन्दोलन के साथ जंगल-जमीन जन आन्दोलन सक्रिय भागीदारी निभायेगा। इस बीच उदयपुर में धरने का कार्यक्रम तहसील अनुसार इस प्रकार तय किया गया। 9 व 10 सितम्बर गिर्वा, सरू एवं पई क्षेत्र, 11 व 12 वली व अन्य गिर्वा क्षेत्र, 13 व 14 कोटड़ा व आबूरोड, 15 व 16 गोगुंदा व बाली, 17 व 18 झाड़ोल, 19 व 20 कुंभलगढ़, घाणेराव, 21 व 22 खेरवाड़ा, 23 व 24 वल्लभनगर, 25 व 26 सलूम्बर, धरियावद, 27 व 28 सराड़ा, 29 व 30 डूंगरपुर। यह तय किया गया कि 26 सितम्बर को सभी जिलों व तहसीलों के लोग उदयपुर आयेंगे तथा केन्द्रीय समिति आदोलन का स्वरूप तय करेगी।
जंगल-जमीन जन आन्दोलन के तत्वावधान में दक्षिण राजस्थान में वन भूमि पर 1980 से पूर्व में काबिज आदिवासियों को पट्टे देने की माँग को लेकर बुधवार को तीसरे दिन भी धरना जारी रहा। तेज बारिश के बावजूद कल रात एवं आज दिनभर आदिवासी संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष धरने पर डटे रहे। रातें भजन गाकर तथा दिन नारे लगाकर गुजार रहे हैं। बुधवार को कोटड़ा, कुंभलगढ़, गोगुंदा, खैरवाड़ा, सराड़ा, सलूम्बर, वल्लभनगर, गिर्वा आदि तहसीलों के लोगों ने धरने में भाग लिया। धरनास्थल पर लोगों ने अपने क्षेत्रों की दुखद स्थिति के बारे में जानकारी दी। बारिश के कारण आन्दोलनकारियों का तम्बू अस्त-व्यस्त हो गया। बारिश में तम्बू में पानी टपक रहा था तथा लोगों के कपड़े भीग गये थे।
अधिकतर लोगों के पास एक ही जोड़ा कपड़े होने के कारण वे उन्हीं कपड़ो में धरनास्थल पर ठिठुरते रहे। बारिश के कारण राशन, बैनर व अन्य सामग्री भी भीग गईं। बारिश थमने के बाद उन्होंने तम्बू ठीक किया तथा वापस नये जोश से नारे लगाते हुए प्रशासन के समक्ष यह जाहिर करते रहे कि वे हर आँधी-तूफान से लड़ते हुए अपने हक को हासिल करने तक वहीं जमे रहेंगे। राजस्थान जनजातीय चहुंमुखी विकास संस्थान के अध्यक्ष अमृत मीणा ने जंगल-जमीन आन्दोलनकारियों की माँगों का समर्थन किया है तथा माँगे नहीं माने जाने के लिये सरकार की निंदा की।
जंगल-जमीन जन आन्दोलन के तत्वावधान में 1980 से पूर्व वन भूमि पर काबिज आदिवासियों को पट्टे देने एवं राज्य में स्वशासन कानून लागू करने की माँग को लेकर चौथे दिन भी धरना जारी रहा।
गिर्वा के सरू एवं पई क्षेत्रों के लोग गुरुवार को हरिशंकर व खेमराज मीणा के नेतृत्व में धरने पर बैठे। इस अवसर पर आयोजित सभा में सरू के उप सरपंच नारायणलाल ने बताया कि सरू गाँव में करीब भी लोगों को 1977 में राजस्व विभाग ने पट्टे जारी किये थे, लेकिन 1980 के बाद वन विभाग ने इस भूमि को अपना बताकर लोगों को परेशान करना शुरु कर दिया। वन विभाग के लोग आये दिन उनकी फसलें उखाड़ देते हैं तथा चारदीवारी तुड़वा देते हैं। गाँव वालों को हमेशा चौकस रखना पड़ा है। गोगुंदा तहसील के सिवडिया गाँव में धरने पर आ गज्जा ने भी बताया था कि उसके 35 वर्ष पुराने कब्जे को हटाने वन विभाग वाले आतंकित करते रहते हैं।
सरू गाँव के फूला, मनु, कुबेरा, लक्ष्मण का कहना था चार पीढ़ी से वन भूमि पर कब्जा है, लेकिन वन विभाग वालों ने दो साल पहले खेतों में गड्ढे खोद डाले। खरेड़ी फलां के गल्ला, पिता चौखा थावरा, पिता, होमा, रामजी, किशोर, पिता, भगवाना, वजा, पिता, भौमा को 1972 में जमीन आवंटित हुई, लेकिन अमलदरामद नहीं हुई और अब बेदखल करने की कार्यवाही हो रही है।
मोखी गाँव के टीलाराम ने बताया कि उसका वन भूमि पर 1978 के पहले का कब्जा है। वन विभाग वालों ने उसके यहाँ यह कहकर पौधरोपण कराया कि पौधे उसके रहेंगे, मगर बाद में आकर कब्जा हटाने की धमकी दे रहे हैं। बायड़ी (खैरवाड़ा) के कल्ला ने बताया कि उसका एवं 20 अन्य लोगों का 40 वर्ष पुराना कब्जा है, मगर उन्हें भी आकर परेशान किया जाता है। जूनी पादर (कोटड़ा) से आई देऊ बाई ने बताया कि उसके परिवार ने कुआँ भी अपने कब्जे में कर लिया, उसी कुएँ का उपयोग कर वन विभाग ने देऊ बाई की जमीन पर नर्सरी बना ही है। जंगल-जमीन जन आन्दोलन के माध्यम से चलाये जा रहे धरने को आज विभिन्न जन संगठनों ने अपना समर्थन दिया। चंदेश्वर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष देवकिशन ने धरना स्थल पर आकर बताया कि समिति झाड़ोल में जंगल-जमीन जन आन्दोलन के समर्थन में 26 सितम्बर को प्रदर्शन करेगी। एकलिंगनाथ संघर्ष समिति के सचिव सीताराम व्यास ने धरनास्थल पर आकर समर्थन किया। समता पार्टी ने भी आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की थी।
वे आये दिन फसल उजाड़ देते हैं, मजदूर लाकर चहारदीवारी बनवाना शुरू कर देते हैं, हल-बैल उठाकर ले जाते हैं। हमेशा यही डर सताता है कि न जाने कब वन विभाग वाले आ जाये और वर्षों की मेहनत से तैयार की गई जमीन से बेदखल कर दें, रोजी-रोटी का जरिया छीन ले।
यही व्यथा है, संभाग के उन आदिवासियों की जो दशकों से आरक्षित वन क्षेत्रों में या इनके इर्द-गिर्द रहकर जीवन बसर करते आ रहे थे और वन विभाग द्वारा बिना किसी सत्यापन-पहचान के बेदखली की कार्रवाई के शिकार हो रहे हैं। ये आदिवासी अपनी इस व्यवस्था को लेकर यहाँ जनजाति आयुक्त कार्यालय के समक्ष पिछली 7 सितम्बर से इस आस में धरना दिये बैठे हैं कि शायद उनकी वेदना को कोई समझेगा। राज्य सरकार ने वर्ष 1980 से पूर्व के कब्जों के नियमन की घोषणा करीब 7 साल पूर्व की थी, लेकिन यह मामला आज तक सुलझ नहीं पाया है।
धरनास्थल पर बैठे सरू के उप सरपंच नारायणलाल व हरिशंकर का दर्द है कि वे और गाँव के करीब एक सौ जनों का 1977 में जनता पार्टी के शासन में राजस्व विभाग ने पट्टे जारी किये थे तब कुल 571 लोग वन भूमि पर काबिज थे। जिन लोगों को पट्टे दिये गये उनका रिकार्ड में इंद्राज होना था, लेकिन नहीं हुआ और 1980 के बाद वन विभाग ने इस जमीन को अपनी बताकर लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया। आये दिन आदिवासियों की फसल उखाड़ देते हैं तो कभी बाहर से मजदूर लाकर बाउंड्री बनाने का कार्य शुरू कर देते हैं।
देसूरी की नाल में गरासिया कॉलोनी के 60 परिवार 300 बीघा जमीन पर आजादी से पहले से काबिज हैं। लेकिन एक भी परिवार को आज तक पट्टा नहीं दिया। उलटे उन्हें बेदखल करने की कार्यवाही हो रही है। यंपाराम व भूरी बाई के मुताबिक वे बरसों से जमीन पर खेती करते हैं। लघुवन उपज लेते हैं।
इन दोनों ने बताया कि उनकी तीन सौ बीघा जमीन से 60 बीघा जमीन तो राजस्व विभाग में आ गई और आवंटन हो गया, जबकि उनकी 300 बीघा जमीन को वन में शामिल किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि वर्षों की मेहनत से जमीन को खेती लायक बनाया। सिंचाई विभाग ने ठंडी बेरी में एक एनिकट बनाया जिससे 7 किलोमीटर लम्बी नहर बनाकर खेतों तक पानी पहुँचाया गया, लेकिन अब एनिकट व नहर से पानी लाने पर रोक लग गई है। जिले के कोटड़ा तहसील के जूनी पादर गाँव की देऊ बाई का कहना था कि उसने जंगल-जमीन पर कुँआ खोदा, मकान बनाया लेकिन वन विभाग ने उसे बेदखल कर दिया।
उसकी जमीन पर नर्सरी लगा दी और कुएँ का पानी नर्सरी के काम आ रहा है। उसके पशु जंगल में जाते है तो पेनाल्टी वसूली जाती है। गोगुंदा तहसील के मौरबी क्षेत्र के टीलाराम की व्यथा यह थी कि वन भूमि पर वह 1978 से काबिज है। वन विभाग वालों ने उसे यह सलाह दी कि जमीन पर पेड़-पौधे लगाओ, ये पेड़-पौधे तुम्हारे रहेंगे। लेकिन अब उस जमीन से बेदखल कर दिया।
सरू गाँव के फूला, मनु, कुबेरा, लक्ष्मण का कहना था चार पीढ़ी से वन भूमि पर कब्जा है, लेकिन वन विभाग वालों ने दो साल पहले खेतों में गड्ढे खोद डाले। खरेड़ी फलां के गल्ला, पिता चौखा थावरा, पिता, होमा, रामजी, किशोर, पिता, भगवाना, वजा, पिता, भौमा को 1972 में जमीन आवंटित हुई, लेकिन अमलदरामद नहीं हुई और अब बेदखल करने की कार्यवाही हो रही है।
छठे दिन धरनास्थल पर बैठे हायला गाँव के नगाराम ने बताया कि 350 बीघा जमीन पर 56 परिवारों का 1971 से पूर्व का कब्जा है, इस पर वन विभाग वालों ने खड़ी फसल उजाड़ दी। इसके बावजूद इनमें से आठ लोगों पर वन क्षेत्र में मवेशियों द्वारा नुकसान करने का थाना सायरा में वन विभाग द्वारा एक झूठा मुकदमा दर्ज करवाया गया। भलावतों का गुड़ा गाँव से राजूगोपा ने बताया कि 1976 से पहले से 40 बीघा जमीन पर उनके सहित 5 परिवारों का कब्जा है। इस पर 10 सितम्बर को वन विभाग ने मवेशी अंदर डालकर 4 बीघा जमीन पर खड़ी मक्का की फसल को बर्बाद कर दिया। राजू ने आरोप लगाया था कि समय-समय पर वन विभाग वाले आकर जुर्माने के नाम पर रिश्वत लेते हैं और डराते-धमकाते रहते हैं।
इसी प्रकार वल्लभनगर तहसील के गोला गाँव में चेनराम ने बताया कि 29 अगस्त को उसके सहित छह परिवारों के खेतों की बाड़ को वन विभाग के लोगों ने जलाकर मक्का व तिल की खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। धरनास्थल पर उदावड़ गाँव के रूपा ने बताया था कि वह उसकी कब्जेशुदा जमीन पर बचपन में माता-पिता की मृत्यु के बाद 15 वर्षों से खेती नहीं कर पाया। उस पर वन विभाग वालों ने कब्जा कर लिया जबकी इस जमीन पर आम, महुआ, जामुन आदि फलदार वृक्षों के अलावा मकान भी बना हुआ है। जब तब हम लोगों ने घरों में काम करके अपना पेट पाला है।
जंगल-जमीन जन आन्दोलन कमेटी ने बताया था कि एक तरफ गुजरात सरकार वनवासियों की सहकारी समिति के माध्यम से वन विकास कर रही है वहीं राजस्थान सरकार आदिवासियों से जंगलों के विकास के लिये सहयोग लेने की बजाय उनको वहाँ से खदेड़ रही है।
धरनास्थल पर आज बडंगा गाँव के लोगों ने गवरी का प्रदर्शन किया व भजन-कीर्तन किया। ग्राम पंचायत कठार के मोतीलाल सुधार ने धरनास्थल पर आकर अपना समर्थन व्यक्त किया। धरने पर बैठे लगभग तीन सौ लोगों ने देर शाम को रैली के रूप में जाकर वन संरक्षक और जिला कलेक्टर के समक्ष प्रदर्शन किया।
सातवें दिन आबू व कोटड़ा क्षेत्र के आदिवासियों ने जनजाति विकास व संभागीय आयुक्त कार्यालय के सामने धरना दिया। इसका नेतृत्व आबू क्षेत्र के हिमाराम व सबलाराम और कोटड़ा क्षेत्र के लाडूराम परिहार, केसरी बाई व हरमी बाई ने किया। शाम को आदिवासियों ने वन संरक्षक और कलेक्टर के सामने प्रदर्शन किया।
धरनास्थल पर मौजूद महेश यादव ने बताया था कि आबू में कुल 25 गाँव आते हैं। इसे भाखर पट्टे के नाम से जाना जाता है। इसमें आधे से अधिक परिवार अपना जीवन यापन जंगल-जमीन से करते आ रहे हैं। इसमें जंगल-जमीन जन आन्दोलन आबूरोड कमेटी ने दो गाँवों का सर्वे किया। इसमें 300 परिवार 1980 से पूर्व के कब्जे वाले हैं।
पिछले वर्ष पूरे आबू क्षेत्र के आदिवासियों की जंगल-जमीन पर 80 से पहले बसे होने की पहचान के शिविर लगाने की तारीखें घोषित की गईं परन्तु मात्र डैरना गाँव में ही शिविर लगा और इसने भी एक ही व्यक्ति की पहचान हो पाई, जिसे पट्टा दिया गया। यादव ने बताया कि आबू क्षेत्र के 16 गाँवों के प्रतिनिधि रविवार को इस धरने पर आये हैं।
धरनास्थल पर आबू क्षेत्र के नीचली बोर गाँव से आए वेलाराम ने बताया कि इसके सहित दो परिवारों की सात बीघा जमीन पर वन विभाग ने इसी वर्ष फरवरी में बाड़ बना दी। उस समय उन्हें यह बताया गया कि हम बाड़ बना रहे हैं परन्तु जमीन तुम्हारी रहेगी और बाद में उस जमीन पर नर्सरी लगा दी। इस जमीन पर वेलाराम का परिवार पिछले 40 वर्षों से काबिज़ है।
फतापुरा के सबलाराम ने बताया कि 1967 में गिरवर बाँध से विस्थापित होकर उसके सहित 17 परिवार इस गाँव की 50 बीघा जमीन पर आकर बसे। 1987 में वन विभाग ने इस परिवारों के 17 लोगों पर हरे पेड़ काटने का झूठा मुकदमा चलाया।
इस अवसर पर धरनार्थियों को हीराराम ने बताया था कि वेरा गाँव के 60 परिवारों का वहाँ 30 वर्ष से पुराना कब्जा है। वन विभाग ने इनकी जमीनों की नापजोख कर ली है, जिसमें आधे से ज्यादा करीब 160 बीघा जमीन पर नर्सरी लगाने की तैयारी है। इसी प्रकार गाँव डेरी के चंपाराम ने बताया कि 60 घरों की बस्ती, जिसकी लगभग 250 बीघा जमीन है। उसे पिछले वर्ष वन विभाग ने मक्का की खड़ी फसल में चहारदीवारी चुन दिया। इस आन्दोलन को खमनोर प्रधान कल्याण सिंह चौहान ने समर्थन दिया है।
इधर आन्दोलनकर्ताओं ने सार्वजनिक निर्माण विभाग राज्यमन्त्री महावीर भगोरा से मिलकर उन्हें एक ज्ञापन दिया। ज्ञापन में बताया गया कि 1980 से पूर्व वनभूमि पर बैठे लोगों को पट्टे देने का सरकार द्वारा जारी आदेश की पालना सात वर्ष की लम्बी अवधि बीत जाने पर भी नहीं हो पाई। यदि सरकार वन विभाग द्वारा लोगों का बेदखल नहीं करने का लिखित आश्वासन नहीं देती है तो आदिवासी समुदाय व्यापक स्तर पर आन्दोलित होने पर मज़बूर होगा। रविवार शाम को आदिवासियों ने नारे व गीत गाते हुए जुलूस निकाला और वन संरक्षक व जिलाधीश कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया। जंगल-जमीन जन आन्दोलन कमेटी ने बताया कि सोमवार को मशाल जुलूस निकाला जायेगा।
जंगल-जमीन जन आन्दोलन के नेताओं व संभागीय आयुक्त और जिला कलेक्टरों के साथ हुए लिखित समझौते के बाद आन्दोलन वापस ले लिया है। लिखित समझौते में सरकार 1980 से पहले काबिज लोगों को बेदखल नहीं करेगी।
संभागीय आयुक्त चंद्रमोहन मीणा, जिला कलेक्टर राजसमंद, बांसवाड़ा व उदयपुर, वरिष्ठ वन अधिकारी वन संरक्षक पश्चिम, अरावली वृक्षरोपण परियोजना वन्य जीव के वन संरक्षक एवं अन्य वन्य अधिकारियों के साथ जंगल-जमीन जन आन्दोलन के प्रतिनिधि धर्मी बाई, वजाराम, लालूपरिहार, केशोराम गोड, भंवरसिंह चदाणा, तेली बाई, गणेश पुरोहित, रमेश नंदवाना, किशोर संत, महेश यादव व पूर्व विधायक मेघराज तावड़ सहित कई कार्यकर्ताओं के साथ 14 सितम्बर, 1998 को अपराह्न तीन बजे एक बैठक हुई। इसमें प्रशासन ने लिखित समझौता किया कि सरकार वर्ष 1980 से पहले काबिज लोगों को बेदखल नहीं करेगी और इसके लिये विशेष शिविर लगाकर आदिवासियों की पहचान की जायेगी। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि काबिज लोगों को यदि कोई हटायेगा तो यह बात वरिष्ठ अधिकारी के ध्यान में लाई जायेगी।
सौहार्दपूर्ण समझौते के बाद जंगल-जमीन जन आन्दोलन समिति के प्रतिनिधियों ने धरना वापस लेने की घोषणा की।
समझौता वार्ता में यह भी तय किया गया कि जनजाति आयुक्त के नेतृत्व में वन अधिकारियों, जिला कलेक्टरों व जंगल-जमीन आन्दोलन के प्रतिनिधियों की एक समिति गठित की गई जो प्रति दो माह में इस तरह के मसलों पर समीक्षा करेगी।
संभागीय आयुक्त ने धरनार्थियों को यह भी आश्वासन दिया कि ग्राम शासन की माँग पर शीघ्र ही सरकार से कहकर एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई जायेगी ताकि यह भी अतिशीघ्र लागू किया जाये।
वहीं राज्य सरकार कोई प्रयास करती नजर नहीं आ रही। आन्दोलन आदिवासियों को पिछले छह वर्षों में सरकार द्वारा केवल सुहाने आश्वासन दे दिये जाते रहे हैं। नंदवाना ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि दो माह की अवधि में कब्जों की पहचान के शिविर पुन : शुरु नहीं किये गये और बिलानाम भूमि के नियमन एवं आवंटन के शिविरों की घोषणा नहीं की गई तो भारी तादाद में ‘जेल भरो’ आन्दोलन किया जायेगा। सभा में गोगुंदा के जवानलाल, कोटड़ा के लाडूराम, प्रतापगढ़ के मेघराज, बांसबाड़ा के बहादुर, डूंगरपुर के नारायणलाल रोत व अर्जुन, खेरवाड़ा के अज़माल सिंह, कुंभलगढ़ के खरताराम, एस के हरिशंकर, आबूरोड के महेश यादव ने भी विचार व्यक्त किये। सभा के अंत में जनजाति आयुक्त ने बीलानाम भूमि पर कब्जों के नियमन एवं आवंटन के शिविर 2 अक्टूबर को लगाने की बात कही। आयुक्त सैनी ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन किया कि वन विभाग द्वारा काबिज लोगों की सूची जल्द ही आदेश जारी कर आन्दोलन को उपलब्ध करा दी जायेगी। अंत में तहसील स्तर पर चुनी गई कमेटी द्वारा संभागीय प्रतिनिधियों का चयन किया गया।
वन क्षेत्र में वर्षों से काबिज ग्रामीणों को जमीन का कब्जा सौंपने एवं पट्टे जारी करने की माँग को लेकर जंगल-जमीन जन आन्दोलन की ओर से 19 अक्टूबर, 2002 को शहर में रैली निकाल जिला कलेक्टर कार्यालय, वन विभाग एवं संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया गया था। इसके साथ ही आयुक्त कार्यालय पर धरना दिया गया जिसने सैकड़ों ग्रामीणों ने भाग लिया था।
संभाग एवं आस-पास क्षेत्र से शुक्रवार सुबह यहाँ पहुँचे ग्रामीण टाउन हॉल में एकत्रित हुए थे, वहाँ से वे रैली के रूप में संभागीय आयुक्त कार्यालय के लिये रवाना हुए। रैली बापूबाजार, देहलीगेट होकर जिला कलेक्टर कार्यालय के समक्ष पहुँच, कुछ देर के लिये रुकी। वहाँ ग्रामीणों ने नारे लगाये। इसके बाद रैली यहाँ से रवाना होकर चेटक सर्कल स्थित वन संरक्षक कार्यालय के बाहर पहुँची। यहाँ भी ग्रामीणों ने नारे लगाकर प्रदर्शन किया। ग्रामीणों का एक प्रतिनिधि मंडल ज्ञापन लेकर वन संरक्षक कार्यालय गया, जहाँ वन संरक्षक नहीं मिलने पर ज्ञापन उनके प्रतिनिधि को सौंपा। यहाँ से रैली फिर रवाना होकर संभागीय आयुक्त कार्यालय के बाहर पहुँची और नारेबाजी कर प्रदर्शन किया। इस अवसर पर आयोजित सभा को संयोजक रमेश नंदवाना, कोटड़ा के लाडूराम परिहार, गोगुंदा के भगवती लाल, जवाललाल, पेमाराम, गिर्वा के नारायण लाल मीणा, धरियावद के कसूलाल रावत, खेरवाड़ा से हरिप्रकाश व फताराम, बांसवाड़ा से अर्जुनलाल, डूंगरपुर से पूंजाभाई, झाड़ोल से बादकी बाई, आबूरोड से नरसाराम, भंवरसिंह चदाणा, मेघराज ताबड़ ने संबोधित किया। वक्ताओं ने आरोप लगया कि वन विभाग गत बारह वर्षों से राजकीय आदेश होने के बावजूद वन भूमि पर काबिज कब्जों की पहचान नहीं कर रहा है तथा अब पर्यावरण एवं वन मंत्रालय नई दिल्ली के आदेश का हवाला देकर लोगों को बेदखल करने को आमादा है। उन्होंने कहा कि वन विभाग ने मात्र तीन माह की अल्पावधि में वन भूमि पर चल रही खानों के कब्जों की नियमन की सिफारिश केन्द्र सरकार को कर दी जबकि भोले-भाले आदिवासियों के हित में वन कानून की पालना विभाग नहीं कर रहा है।
वक्ताओं ने कहा कि जगह-जगह वन विभाग द्वारा जो नोटिस दिये जा रहे हैं, उनमें पूर्व के कब्जों का उल्लेख नहीं है। उन्होंने कहा कि जब विभाग ने कब्जों की पहचान के लिये परिपत्र जारी किया हुआ है तो उस स्थिति में लोगों को नोटिस देने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि राज्य सरकार के परिपत्र के तहत गठित कमेटी को मौके पर जाकर कब्जों का भौतिक सत्यापन करना है, उस कमेटी ने अपना काम नहीं किया तो जवाब वन विभाग एवं कमेटी को देना है। सभा में ग्रामीणों ने अपने-अपने क्षेत्र के सरपंच, प्रधान विधायक और सांसदों से अपने तीन साल के कार्यकाल में उनके लिये किये गये कार्यों के बारे में सवाल करने का प्रस्ताव पारित किया।
एक अन्य प्रस्ताव भी पारित किया, जिसमें यदि दो माह की अवधि में पहचान का कार्य पूरा नहीं किया और लोगों को जबरन बेदखल किया गया तो वन भूमि पर काबिज सभी आदिवासियों द्वारा हजारों की तादाद में उदयपुर आकर मरते दम तक अनशन करने की चेतावनी दी गई थी।
अंत में एक प्रतिनिधि मंडल ने संभागीय आयुक्त से मिलकर वन भूमि की समस्या के बारे में गत दस वर्षों की स्थिति से अवगत कराया। इस मौके पर जनजाति आयुक्त ने शीघ्र हो आदिवासी उपयोजना क्षेत्र के सभी जिला कलेक्टरों एवं वन विभाग के अधिकारियों की बैठक बुलाकर समस्या का समाधान निकालने का प्रयास कराने का आश्वासन दिया।
संभाग के वनों में बरसों से रहते आ रहे आदिवासियों को बेदखल करने की राज्य सरकार की कार्रवाई के विरोध में 26 अगस्त, 2003 को हजारों आदिवासियों ने जिला कलेक्टेरियट पर प्रदर्शन कर अपने-अपने कब्जों की दावे पेश किये। नारों और ढोल-नगाड़ों से आसमान गुँजाता और हाथों में नारे लिखी तख्तियाँ लिये आदिवासियों की रैली शहर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ जिला कलेक्टेरियट पर दोपहर ढाई बजे पहुँची थी और जिले के साढे सात हजार आदिवासियों के कब्जे के दावे पेश किये। शाम तक वे वही जमे रहे थे। जंगल-जमीन जन आन्दोलन के बैनर तले आये वनवासी सुबह से ही टाउन हॉल परिसर में जमा होना शुरू हो गये थे। कंधे पर छतरी और हाथ में प्लास्टिक का थैला लिये ऑटो-रिक्शा और बसों से उतरता हर आदिवासी उस रोज टाउन हॉल की ओर ही मुखातिब था। दोपहर करीब एक बजे तक लगभग चार हजार की संख्या हो जाने पर आदिवासियों ने
'जंगल-जमीन हमारी है'
के बैनरों-तख्तियों, नारों और ढोल-नगाड़ों के साथ अपनी रैली शुरू की। आदिवासियों का यह हुजूम बापूबाजार, देहलीगेट, अश्विनी बाजार, हाथीपोल, चेटक सर्कल, हॉस्पीटल रोड, कोर्ट चौराहा होता हुआ करीब ढ़ाई बजे जिला कलेक्टेरियट पहुँचकर सड़क पर जम गया था और सभा में तब्दील हो गया था।
इसके चलते कलेक्टेरियट के सामने से जाने वाला यातायात शास्त्री सर्कल से मोड़ना पड़ा था। सभा स्थल पर आदिवासियों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध गीत भी गाये और कठपुतली के माध्यम से सरकार के रवैये की पोल खोली। सभा को सम्बोधित करते हुए आन्दोलन के संयोजक रमेश नंदबाना ने कहा कि वन विभाग भौतिक सत्यापन किये बगैर ऑफिस में बैठकर आदिवासियों को बेदखली के नोटिस जारी कर रहा था। मुख्यमन्त्री के आदेश को भी वन विभाग के अधिकारी हवा में उछाल रहे थे। मजदूर-किसान शक्ति संगठन के निखिल डे ने कहा कि एक तरफ तो अयोध्या के मंदिर को दसवी शताब्दी से जोड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर अनादिकाल से रहते आ रहे आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है। राज्य के सभी जनसंगठन आदिवासियों की इस लड़ाई के साथ हैं।
सभा को आदिवासी नेताओं लाडूराम परिहार, कंसुलाल बोड, जवानलाल, नारायण लाल मीणा, होमी बाई, सीपी एम के जिला सचिव बंशीलाल सिंघवी, भंवर सिंह चदाणा आदि ने भी सम्बोधित किया और एकमत से संकल्प लिया गया था कि चाहे कुछ भी हो जाये वे अपनी जमीन नहीं छोड़ेगे। आन्दोलन के संयोजक ने दावा किया आज व्यक्तिगत रूप से 7,744 आदिवासियों ने अपनी जमीन का दावा जिला प्रशासन को पेश किया। इसमें गोगुंदा के 907, झाड़ोल के 1,619 धरियावद के 210 गिर्वा के 867, कोटड़ा के 1,800, खैरवाड़ा के- 892, सलूम्बर के 1,083, सराड़ा के 125 तथा वल्लभनगर के 241 आदिवासी शामिल हैं। अभी भी बड़ी संख्या में लोग क्लेम पेश नहीं कर सके हैं जो आगामी दिनों में पेश किये जायेंगे। सभा के दौरान ही जिला कलेक्टर के निर्देश पर वन विभाग के अधिकारियों को कलेक्टेरियट में बिठाया गया, जिन्हें आदिवासी किसानों की ओर से व्यक्तिगत दावे पेश किये गये। इन दावों को निपटाने का कार्य रात आठ बजे तक जारी था। जिला कलेक्टर अभय कुमार ने आन्दोलनकारियों को आश्वासन दिया कि लोगों को बेदखल नहीं किया जायेगा और जो दावे किसानों ने पेश किये हैं उनकी विस्तृत जाँच की जायेगी।
‘इज्जत से जीने का अधिकार’
अभियान के राष्ट्रीय संयोजक प्रदीप प्रभु ने कहा कि लड़ाई केवल कब्जे वाली जमीन की नहीं है, बल्कि उस सारी जमीन की है जो आदिवासियों के क्षेत्र की है। उन्होंने कहा कि आदिवासी ही जंगल को बचा सकते हैं। गिर्वा की सरू पंचायत के कुबेरदास, पिण्डबाड़ा के जसाराम, गोगुंदा के जवानलाल, मजदूर किसान शक्ति संगठन, भील के लाल सिंह, डूंगरपुर के कांतिलाल, राजस्थान किसान संगठन के लक्ष्मीनारायण मिश्र, सराड़ा के देवीलाल, झाड़ोंल के नगाराम तथा बाली के हंसाराम ने सभा में अपनी व्यथा रखी। नगाराम ने कहा कि पत्नी की नसबंदी करवाने पर उसको पाँच बीघा जमीन पर कब्जा दिया गया। नसबंदी के दौरान पत्नी मर गई और बाद में वन विभाग ने जमीन भी वापस ले ली। सभा के बाद जनजाति आयुक्त सुदर्शन सेठी को ज्ञापन दिया गया। आयुक्त ने वन विभाग के अधिकारियों को बुलवाकर कमेटी की रिपोर्ट लिये बिना बेदखल नहीं करने के निर्देश दिये।