पर्यावरणीय प्रदूषण आज के युग की सबसे बड़ी चुनौती है। बढ़ते औद्योगीकरण के कारण हमारी जीवन शैली में आए परिवर्तनों से पर्यावरण पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। विगत लगभग 150 वर्षों में विश्व भर में हो रहे अनियंत्रित, अनियमित एवं अंधाधुंध विकास के दुष्परिणाम जल और वायु प्रदूषण के रूप में हमारे सामने हैं।
एक समय था, जब उद्योगों की ऊँची चिमनियों से निकलने वाला धुँआ औद्योगिक क्रांति का प्रतीक समझा जाता था और इसकी उपस्थिति (उद्योग की स्थिति बताकर) जनमानस को राष्ट्र और अर्थव्यवस्था के विकसित होने का अहसास कराती थी। इसी प्रकार कारखानों से निकलने वाला रंगीन या गंदा-मटमैला पानी इस बात का संकेत होता था कि कारखाने में उत्पादन चालू है। वस्तुत: उस समय किसी को भी इस बात का अहसास नहीं था कि इस तरह हो रहा जल या वायु प्रदूषण समय के साथ एक गंभीर समस्या में परिवर्तित हो जाएगा।
औद्योगिक प्रदूषण की समस्या की गहराई में जाने से पूर्व आइए पहले पर्यावरण के विभिन्न घटकों की चर्चा करें। हमारे चारों ओर उपस्थित प्रत्येक सजीव या निर्जीव वस्तु वास्तव में हमारे पर्यावरण का हिस्सा है। या यूँ कहें कि इन्हीं से हमारे पर्यावरण का निर्माण हुआ है। ज्ञातव्य है कि हमारे वायुमंडल में नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बनडाइआॅक्साइड, अक्रिय गैसों सहित अनेक गैसें एवं गैसीय अवयव एक निश्चित मात्रा में उपस्थित हैं। ये सामान्य अनुपात सृष्टि के नियमित चक्र का अहम हिस्सा है और सामान्य परिस्थितियों में इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन जब इसमें अवांछित तत्वों का सम्मिलन होता है, तो प्रकृति पर इसका दुष्प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ता है। ये अवांछित तत्व-चाहे गैसीय रूप में हों, या कण के रूप में – वायुमंडल में प्रविष्ट होकर न केवल चारों ओर फैल जाते हैं, वरन सामान्य अवस्था तक आने के लिये उनके अनुकरण के दौरान ये जिस भी जीव या निर्जीव पर्यावरण घटक के संपर्क में आते हैं, वे उस पर अपना प्रभाव डालते हैं। उदाहरणार्थ किसी कारखाने से निकलने वाली सल्फर डाइआॅक्साइड गैस की सान्द्रता अपनी तीव्र अवस्था में जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों पर तो अपना हानिकारक प्रभाव डालती ही है, इसकी अम्लीय प्रकृति संरचनात्मक घटक को भी हानि पहुँचाती है। मथुरा स्थित रिफायनरीज से निकलने वाले धुएँ का ताजमहल पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव इसका जीवंत प्रमाण है। वास्तव में यही वायु प्रदूषण है।
इसी प्रकार पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत पानी से ही हुई। या यूँ कहें कि पानी सृष्टि के आरंभ से संबद्ध है। आज भी जब हम अन्य ग्रहों पर जीवन की खोज करते हैं, तो सबसे पहले पानी की उपस्थिति को ही जाँचते हैं। यानि पानी के बिना जीवन असंभव है, इसी बात से पानी की महत्ता समझ में आ जाती है। हमें ज्ञात है कि इस धरती पर जहाँ कहीं भी सभ्यताओं का अभ्युदय हुआ, वे स्थान वास्तव में नदियों के किनारे रहे हैं। सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि नदियों के किनारों पर ही सभ्यताओं का विकास हुआ। फिर चाहे, वो सिंधु घाटी की सभ्यता हो या कोई अन्य सभ्यता, इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं कि लगभग 5000 वर्ष पहले पहली मानव सभ्यता नदियों के किनारे विकसित हुई। मिस्र की सभ्यता ने नील नदी के किनारे जन्म लिया, तो मेसोपोटामिया की सभ्यता टरगिस नदी और इफ्रेट्स नदी के किनारे, हड़प्पा की सभ्यता सिंधु नदी तो चीनी सभ्यता यांगसे नदी के किनारे पुष्पित और पल्लवित हुई। अत: कहना न होगा कि जल या जलस्रोत जीवन के आरंभ हेतु मूल आधार हुआ करते थे। एक कोशकीय जीव अमीबा के प्रादुर्भाव से लेकर आधुनिकतम मानव तक के विकास में जल की भूमिका अहम रही है। यदि प्राण वायु के बिना हमारा जीवन कुछ मिनटों से ज्यादा नहीं रह सकता, तो जल के बिना हम कुछ-एक दिनों से ज्यादा जीवित नहीं रह सकते। सच तो यह है कि स्वयं हमारे शरीर में 65 प्रतिशत भाग जल ही है।
समूची पृथ्वी का दो तिहाई भू-भाग जल से घिरा हुआ है। पृथ्वी पर जल की मात्रा 1.4 मिलियन क्यूबिक मीटर आँकी गई है। जिसका 97.57 प्रतिशत भाग महासागरों में होने के कारण खारा जल है। लगभग 36 क्यूबिक मीटर स्वच्छ एवं मृदु जल, जो उपयोग के योग्य है, उसमें से लगभग 28 मिलियन क्यूबिक मीटर जल, जो कि इसका कुल 79 प्रतिशत है, बर्फ के रूप में ध्रुवों पर जमा है। अर्थात अधिकांश जल या तो समुद्रों में समुद्री जल या ध्रुवों पर बर्फ के रूप में है। इस जल का उपयोग हम दैनिक जीवन में सामान्यत: नहीं कर सकते क्योंकि समुद्री जल को उपयोग के योग्य बनाना एक जटिल एवं खर्चीली प्रक्रिया है, वहीं धुव्रीय बर्फ हमारी पहुँच से दूर है। हमारे वास्तविक उपयोग के लिये उपलब्ध लगभग 8 मिलियन क्यूबिक मीटर जल पर दुनिया की लगभग 6 अरब से ज्यादा की आबादी निर्भर है। पृथ्वी की सतह या इसके गर्भ में उपलब्ध जल जो नदियों, तालाबों, झीलों, कुँओं या फिर नलकूप के माध्यम से हमें उपलब्ध है, हम उसी का उपयोग अपने दैनिक जीवन में कर सकते हैं। वो भी तब, जब यह जल किसी भी प्रकार के प्रदूषण से मुक्त हो। तात्पर्य यह है कि संपूर्ण पृथ्वी पर उपलब्ध जल को यदि हम एक बाल्टी के बराबर मानें, तो हमारे उपयोग के योग्य जल की मात्रा एक मग से अधिक नहीं होगी। इसी से हम इसके बेशकीमती होने का अंदाजा लगा सकते हैं। शुद्ध जल वास्तव में अनमोल है और इसके स्रोत सीमित हैं।
देश में प्राकृतिक वर्षा, जल संसाधन और उनमें उपलब्ध जल की स्थिति संबंधी विवरणों को देखें तो ज्ञात होता है कि विगत दशक में हमारे देश में केरल जैसे राज्य (जहाँ से वास्तव में मानसून की शुरुआत होती है) तक को सूखे का सामना करना पड़ा। वर्षा यानी पानी की कमी का प्रमुख कारण पश्चिमी घाटों में स्थित सघन वनों का अंधाधुंध दोहन है। इसी कारण देश के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूँजी में भी जल की कमी महसूस की जा रही है। एवं अब यह देश का सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र नहीं रह गया है।
यह एक विडम्बना ही है कि कुल भू-भाग के दो तिहाई भाग पर पानी होने के बावजूद हर वर्ष शीत ऋतु के खत्म होते ही देश के अधिकांश शहर जल के लिये त्राहि-त्राहि करने लगते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि पृथ्वी पर उपलब्ध जल की कुल मात्रा का बहुत कम भाग ही पीने योग्य है एवं इसकी भी अधिकांश मात्रा बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण पीने के लिये अयोग्य है। औद्योगीकरण के दौरान विभिन्न जल प्रदूषणकारी प्रकृति के उद्योगों ने सतह पर उपलब्ध जल को तो प्रदूषित किया ही है, भूमिगत जलस्रोतों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। यानि इस 3 प्रतिशत जल की भी गुणवत्ता ठीक नहीं रह गई है। यदि हम राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो एक ओर तो देश की जनसंख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर स्वच्छ जलस्रोत सीमित होते जा रहे हैं।
हमें यह जानना जरूरी है कि जो जल जीवन देने वाला है, वही जल जानलेवा भी बन सकता है, यदि उसमें विषैले एवं हानिकारक पदार्थ मिल जाएँ। पानी को सार्वत्रिक विलायक के रूप में जाना जाता है। अर्थात कोई भी अन्य विलायक, चाहे वो कार्बनिक विलायक हो या अकार्बनिक विलायक, उसमें उतने पदार्थ नहीं घुल सकते जितने पानी में। अपने इस गुण के कारण इसका उपयोग भी सर्वव्यापी होता है।
दुनिया भर में जल के माध्यम से फैलने वाले रोगों की संख्या अनगिनत है। जल के माध्यम से फैलने वाले पीलिया, पेचिश, दस्त, डायरिया आदि रोगों के कारण आज भी विश्व में सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। इसी प्रकार औद्योगिक एवं मानवीय गतिविधियों से होने वाले जल प्रदूषण के कारण भी अनेक रोग होते हैं।
औद्योगीकरण के साथ ही शहरों के विस्तारीकरण ने प्रकृतिक जलस्रोतों के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया है। इस संबंध में हमें पूर्वजों से सबक लेना चाहिये। हमारे पूर्वज भले ही हमारी तरह आधुनिक नहीं थे, भले ही विश्व परिदृश्य में उनका दखल हमसे कम था, लेकिन अपनी छोटी सी दुनिया में रहते हुए भी वे हमसे अधिक दूरदर्शी थे। इसीलिये उस समय भी उन्होंने जल संग्रहण हेतु बड़ी संख्या में तालाब और बावड़ियाँ बनाईं। उनके द्वारा बनाये गये तालाब, बावड़ियाँ, कुएँ आदि न सिर्फ सतह पर जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के साधन हुआ करते थे, वरन ये भूमिगत जलस्रोतों को भी रि-चार्ज करने का कार्य करते थे। कालांतर में सभ्यता के तथाकथित विकास के साथ शहरीकरण ने गति पकड़ी औऱ कॉलोनियों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और परिसरों के निर्माण के लिये जमीन की आवश्यकता पड़ने पर तालाब पाटे गये या धीरे-धीरे उन पर अवैध कब्जे कर उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया।
औद्योगीकरण और शहरीकरण की वजह से तथा अन्य अनेक कारणों से वनों का ह्रास हुआ। कांक्रीटों के जंगल बढ़े, लेकिन प्राकृतिक वन नष्ट होते चले गये। फलस्वरूप वर्षा की मात्रा और स्थिति में परिवर्तन आया। इसके साथ ही अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बड़ी मात्रा में हमारे द्वारा सतही एवं भूजलस्रोतों का एक तरफा दोहन किया जाने लगा। जबकि इन स्रोतों के भरण या पुनर्भरण के लिये किसी सार्थक प्रयास किये जाने की कोशिश नहीं की गई, जिसका नतीजा आज हमारे सामने है। आज हर वर्ष नलकूपों को और अधिक गहरा करवाने की जरूरत महसूस की जा रही है। फिर भी पानी मिल ही जायेगा इसकी कोई गारण्टी नहीं है। पक्की सड़क, पक्के घर, पक्की नालियाँ, पक्के आँगन एवं पक्के परिसरों में आखिर वर्षा का जल भूमि के भीतर कैसे प्रवेश करेगा? इसका दुष्परिणाम ये होता है कि वर्षा का अनमोल शुद्ध जल बिना किसी उपयोग के नालियों से नालों और नालों के माध्यम से नदियों में मिल जाता है। हम अपनी ही लापरवाही और उदासीनता के कारण इस जल का समुचित उपयोग और संचय नहीं कर पाते हैं। जबकि यदि हम चाहें तो जल संचयन इकाईयों (वॉटर-बॉडीज) जैसे तालाब आदि का निर्माण कर, इसमें वर्षों जल एकत्रित कर इसका सीधे उपयोग कर सकते हैं। साथ ही ये इकाईयाँ भूमिगत जलस्रोतों के पुनर्भरण (रिचार्ज) का प्राकृतिक जरिया भी बन सकती हैं। वर्षा का यह जल प्रदूषणमुक्त होने के कारण हमारे लिये प्रकृति का अनमोल वरदान है और हमें इसके अधिकाधिक संचयन, संग्रहण और संरक्षण के विषय में सोचना होगा ताकि प्रतिवर्ष होने वाले जल संकटों से उभर सकें।
जैसा कि हमें ज्ञात है कि जल का एक अणु हाइड्रोजन के दो परमाणुओं और आॅक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर बनता है तथा इसे सार्वत्रिक विलायक या यूनिवर्सल साल्वेंट कहा जाता है। इसका प्रमुख कारण यही है कि जल में अनेक यौगिकों को घोलने की क्षमता होती है। इसीलिये वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिरने वाला जल भी वातावरण में उपस्थित अनेक गैसों सहित सूक्ष्म कणों को अपने साथ घोलकर पृथ्वी पर गिरता है। वायु प्रदूषण की स्थिति में गिरने वाला-वर्षाजल भी शुद्धतम आसुत-जल नहीं कहा जा सकता। किसी भी जलस्रोत के जल की प्रकृति दूसरे स्रोत से भिन्न हो सकती है। जैसे उद्गम के पास नदी का जल अपेक्षाकृत मृदु और स्वच्छ होता है, जबकि कुछ किमी के प्रवाह के उपरांत इसमें अनेक यौगिकों, लवणों आदि का मिश्रण हो जाने से न सिर्फ इसकी प्रकृति वरन गुणवत्ता भी बदल जाती है। इसी प्रकार भूजलस्रोतों का जल अपेक्षाकृत कठोर होता है, क्योंकि इसमें भूमिगत चट्टानों में उपस्थित कैल्शियम और मैग्नीशियम के लवण घुली हुई अवस्था में होते हैं, हालाँकि ये जल सतह पर उपस्थित जलस्रोतों की अपेक्षा पेयजल के रूप में सीधे ही उपयोग किये जाने के योग्य समझा जाता है।
जल की महत्ता एवं इसकी उपलब्धता की स्थिति को समझने के साथ ही हमें ये भी समझना आवश्यक है कि जीवनदायी, अमृत तुल्य जल हानिकारक और अवांछित यौगिकों या पदार्थों के मिलने से जानलेवा भी हो सकता है। वास्तव में यही जल प्रदूषण है। अर्थात उसके भौतिक, रासायनिक अथवा जैवकीय गुणों में इस तरह का परिवर्तन अथवा औद्योगिक अपशिष्टों के बहिस्राव अथवा अन्य किसी द्रव पदार्थ या गैसीय पदार्थ या ऐसे ठोस पदार्थ के उसमें मिलने से स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो या उसका घरेलू व्यावसायिक, औद्योगिक तथा कृषि के कार्यों में उपयोग न किया जा सके या जन-जीवन, पेड़-पौधों तथा जीव-जन्तुओं पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक जलस्रोतों में अवांछनीय पदार्थ के मिलने से जल प्रदूषण की स्थिति बनती है।
जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव प्रदूषकों की प्रकृति, मात्रा एवं सान्द्रता के साथ ही जलस्रोतों की व्यापकता पर भी निर्भर करते हैं। तालाबों के प्रदूषित होने से जहाँ इन जलस्रोतों पर निर्भर कुछ स्थानीय लोग प्रभावित होते हैं, वहीं नदियों के प्रदूषित होने पर प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ जाती है। जल प्रदूषण से न केवल मनुष्य वरन जलीय जीव-जन्तु, वनस्पति बल्कि संपूर्ण जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित होता है। न केवल जल का उपयोग करने वाले वरन जलस्रोतों में पाये जाने वाले जलीय जीवों या वनस्पतियों का सेवन करने वाले भी इन प्रदूषकों की चपेट में आ जाते हैं, क्योंकि जलीय जीव या वनस्पति इन प्रदूषकों को ग्रहण या अवशोषित कर उपयोग करने वालों तक इन्हें पहुँचाने का माध्यम बन जाते हैं। जल प्रदूषण की सबसे बड़ी त्रासदी इसी रूप में दुनिया के समक्ष आई थी। जापान के मिनीमाता शहर में मरकरी से प्रभावित मछलियों का सेवन करने से अनेक लोग मारे गए। जल प्रदूषण की संभवत: ये सबसे बड़ी विभीषिका थी।
प्रकृतिक जलस्रोतों में अवांछनीय पदार्थों के मिलने से जल प्रदूषण की स्थिति बनती, जिसके निम्नलिखित मुख्य कारण हैं-
1. औद्योगिक इकाईयों के अनुपचारित या अपूर्ण उपचारित दूषित जल के जलस्रोतों में मिलने से।
2. अनुपचारित घरेलू दूषित जल के जलस्रोतों में मिलने से।
3. कृषि कार्य के उपयोग में आने वाले कीटनाशकों और उर्वरकों के वर्षाजल के बहाव के साथ जलस्रोतों में मिलने से।
4. घरेलू एवं औद्योगिक ठोस अपशिष्टों एवं इनके लीचेट के जलस्रोतों में मिलने से।
5. औद्योगिक गतिविधियों के कारण उत्पन्न अथवा इनमें प्रयुक्त रसायनों के वर्षाजल के संपर्क में आने से अथवा भूमि के भीतर प्रवेश करने से।
6. भूगर्भीय चट्टानों की विषैली प्रकृति के कारण।
7. उत्खनन गतिविधियों से।
8. अन्य गतिविधियों से।
इन सभी कारणों का हम विस्तार से विश्लेषण करेंगे।
जल प्रदूषण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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8 | परिशिष्ट : भारत की पर्यावरण नीतियाँ और कानून (India's Environmental Policies and Laws in Hindi) |
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